रूस में हो रही हलचल का प्रभाव दुनिया के अन्य हिस्सों पर भी था। 1908 मे लेनिन ने एक लेख लिखा ‘विश्व राजनीति के ज्वलंत मुद्दे’, जिसमें उन्होंने भारत के करोड़ों सर्वहारा के क्रांति की बात लिखी। अगले वर्ष मार्च के महीने में उनके मार्क्सवादी मित्र अल्ड्रेड कुछ भारतीय क्रांतिकारियों से उन्हें मिलवाने के लिए इंडिया हाउस लाए। वहाँ श्यामजी कृष्ण वर्मा और मदनलाल ढींगरा सरीखों के अतिरिक्त एक और नवयुवक मौजूद थे, जिनका नाम था विनायक दामोदर सावरकर।
विक्रम संपत लिखते हैं कि वहाँ क्या हुआ, यह मालूम नहीं, स्वयं सावरकर ने यह बात 1937 तक दबा कर रखी। जो बात हम जानते हैं कि उसी वर्ष (1909 में) जुलाई की पहली तारीख को मदनलाल ढींगरा ने ब्रिटिश अफसर कर्जन विली को एक सभा से निकलते हुए गोली मार दी!
भारत और रूस, दोनों ही देशों में अंडरग्राउंड गतिविधियाँ बढ़ने लगी थी। प्रवासी भारतीयों द्वारा गदर क्रांति की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। यह गतिविधियाँ उस समय तेज हो गयी, जब एक अभूतपूर्व युद्ध छिड़ने वाला था- पहला विश्व युद्ध!
प्रख्यात लेखक एच. जी. वेल्स ने लिखा, - ‘The War that will end wars’ (एक युद्ध जो सभी युद्ध खत्म कर देगा)। यह युद्ध विश्व के बिगड़ते संतुलन को ठीक करने के लिए था। यह निरंकुश राजशाही, साम्राज्यवाद और नस्लीय दंभ को खत्म करने के लिए था। यह दुनिया में समाजवाद और लोकतंत्र की स्थापना के लिए था। लेकिन, हुआ क्या?
न युद्ध खत्म हुए, न नस्लीय दंभ। इस युद्ध ने तो इससे भी भयंकर युद्ध, असंतुलन, निरंकुश तानाशाही और नस्लीय दंभ की पटकथा रच दी। ‘टाइम मशीन’ के रचयिता एच. जी. वेल्स स्वयं सोच रहे होंगे कि अपनी मशीन में बैठ कर पीछे लौटें, और अपना कथन बदल दें।
आखिर यह दुनिया का ‘असंतुलन’ जन्मा कैसे? यूँ भी कह सकते हैं कि संतुलन था ही कब? मैं फ़्लैशबैक में चलता हू्ँ।
हमने पहले पढ़ा कि क्रीमिया युद्ध (1853-56) के रूप में एक ‘मिनी वर्ल्ड वार’ पहले हो चुका था। उस युद्ध के बाद पश्चिमी दुनिया का इस्लाम बहुल मध्य एशिया में हस्तक्षेप शुरू हो गया। क्रीमिया युद्ध के विजेता नेपोलियन तृतीय ने सोचा कि अब शेष यूरोप पर भी अपनी पकड़ बनायी जाए, और अपने चचा नेपोलियन का स्वप्न साकार किया जाए। लेकिन, उन्हें यूरोप की एक शक्ति का अहसास नहीं था, जो तेज़ी से अपने नस्लीय दंभ के साथ उभर रहा था।
प्रशिया के चांसलर बिस्मार्क ने 1862 में वह कालजयी ‘आयरन ऐंड ब्लड’ वक्तव्य दिया, “हमें उदारवाद नहीं, हमारे देश की ताकत को अपनाना होगा। हमारे पास कई मौके आए और गए। आज के प्रश्नों का हल भाषणों और बहुमत के निर्णय में नहीं है, आज का हल है रक्त और लोहे में।”
वह जर्मनी के लौह पुरुष कहलाए, जो पूरी जर्मन अस्मिता को एक करना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक युद्ध की जरूरत थी, और कहीं न कहीं उन्होंने इसका माहौल बनाया। उन्होंने फ्रेंच ताकत के ख़िलाफ़ एक जर्मन नस्ल की लॉबी बनायी, और युद्ध कर नेपोलियन तृतीय को पराजित किया। युद्ध के बाद 1871 में एक एकीकृत जर्मनी का जन्म हुआ। हालाँकि, बिस्मार्क का साथ देकर भी ऑस्ट्रिया अपने स्वतंत्र रूप में रहा।
अगले दो दशकों तक बिस्मार्क जर्मनी को प्रगति-पथ पर ले जाते रहे, और उन्हें यह अहसास दिलाते रहे कि वे श्रेष्ठ हैं। हालाँकि समाजवाद के उदय के साथ 1890 में उन्हें कैसर विलियम द्वितीय ने इस्तीफ़ा देने को मजबूर किया था। लेकिन, जर्मनी अब यूरोप की महाशक्तियों में अपनी पहचान बना चुका था। उसके टक्कर के तीन देश थे- ब्रिटेन, अमेरिका और रूस।
अमरीका तो खैर अलग ही दुनिया थी, मगर ब्रिटेन, जर्मनी और रूस के मध्य त्रिकोणीय संघर्ष था। यह चर्चा मैं पहले ही कर चुका हूँ कि तीनों देशों के राजा (जॉर्ज पंचम, कैसर विलियम और ज़ार निकोलस) रिश्ते में भाई थे। लेकिन, इनके मध्य दरार पड़ने लगी थी।
त्रिकोणीय संघर्ष जीतने का ‘गोल्डन रूल’ है कि दो शक्तियों को मिलना होगा। ज़ार निकोलस का तो ससुराल ही जर्मनी था, तो उनसे मिलना सुलभ था। दूसरी तरफ़, उनकी पत्नी महारानी विक्टोरिया की प्रिय पोती रही थी, तो ब्रिटेन का भी हक बनता था। लेकिन, विश्व राजनीति यूँ रिश्तों से नहीं चलती।
कहीं न कहीं दोनों विश्व-युद्धों की चिनगारी ज्वालामुखियों के देश जापान से जलती है। 1905 में जब जापान ने रूस को शिकस्त दी, तो ब्रिटेन ने सोचा कि आया ऊँट पहाड़ के नीचे। अब उन्हें रूस से कम से कम यह खतरा नहीं था, कि वे भारत तक पहुँचेंगे। हालाँकि भारत के लिए दूसरा रास्ता खुला था। रूस अफ़ग़ानिस्तान और इरान में अपनी पहुँच बना चुका था। 1907 में ब्रिटेन ने उसका भी निपटारा कर दिया। उन्होंने संधि कर ली कि तेहरान के नीचे का हिस्सा जो भारत से लगा था, वह ब्रिटेन संभालेगा; ऊपर का हिस्सा रूस संभाले।
जब ये दोनों मध्य एशिया की बँटाई में लगे थे, तीसरा हिस्सेदार क्यों पीछे रहता? एक ऐतिहासिक रेलवे लाइन बिछ रही थी-बर्लिन से बगदाद तक!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (16)
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