लेनिन से पहले भी क्रांतियाँ हुई थी, लेकिन जो क्रांतियाँ लेनिन के बाद हुई, उनमें अधिकांश पर लेनिन का प्रभाव रहा। कार्ल मार्क्स ने सिद्धांत दिए, मगर उसका प्रयोग लेनिन ने ही किया। अगर क्रांति के दस्तावेज के लिए नोबेल मिलता तो कार्ल मार्क्स को मिलता, और अगर उसके पेटेंट की रॉयल्टी मिलती तो शायद लेनिन को मिलती।
यहाँ कुछ देर सुस्ता कर यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि मार्क्स की थ्योरी क्या थी, जिसका प्रैक्टिकल लेनिन करने जा रहे थे। ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ आखिर है क्या?
इस पतले पैम्फ्लेट में मार्क्स ने बहुत ही सहजता से समझाया है कि दुनिया में वर्ग-संघर्ष सदा से रहा है। पहले राजा, जमींदार और उनके दास होते थे। जब औद्योगिक क्रांति हुई, तो एक नए बुर्जुआ वर्ग का जन्म हुआ जो पूंजीपति थे। मार्क्स मानते थे कि धीरे-धीरे ये पूंजीपति राजाओं की जगह ले लेंगे और वही राज करने लगेंगे। गद्दी पर चाहे कोई भी बैठा हो, राज उन्हीं का होगा। दास के स्थान पर कारखानों में पसीने बहाने वाले मजदूर आ जाएँगे।
ये पूँजीपति धीरे-धीरे पूरी दुनिया के राजा होंगे, और मजदूर पूरी दुनिया के गुलाम। पारिवारिक मूल्य कमजोर पड़ते जाएँगे। लोग गाँव से शहर पलायित होते जाएँगे। संप्रभु राष्ट्र की परिभाषा धीरे-धीरे मिटती जाएगी और ‘ग्लोबल इकॉनॉमी’ हो जाएगी। पूँजी ही दुनिया को नचाएगी। इस तरह दुनिया मूलत: दो फाँकों में बँट जाएगी- बुर्जुआ और सर्वहारा।
अगर बुर्जुआ वर्ग इस संघर्ष को कम नहीं करते तो सर्वहारा को एक होकर तख्ता-पलट करना होगा। राजनैतिक सत्ता अपने हाथ में लेनी होगी। उद्योगों की कमान लेनी होगी। अन्यथा वे पिसते चले जाएँगे। अगर वह ये हासिल कर लेते हैं तो वर्ग-संघर्ष स्वत: घटता चला जाएगा। उस समय भी किसी न किसी की सत्ता तो होगी ही, लेकिन एक वर्ग के रूप में उनका प्रभुत्व नहीं होगा।
यह तो हुई थ्योरी, मगर इसका प्रैक्टिकल कैसे हो? मार्क्स के जीते-जी तो यह नहीं हो सका। मार्क्स को यह उम्मीद थी कि बुर्जुआ स्वयं वर्ग-संघर्ष घटाने की चेष्टा करेंगे, वे सर्वहारा को बेहतर वेतन और सुविधाएँ देंगे। ऐसा न करने की स्थिति में ही सर्वहारा क्रांति करेंगे।
1880 में फ्रांस के मार्क्सवादी नेता यूल्स गुएसे लंदन में मार्क्स से भिड़ गए, “आप बुर्जुआ से सुधार की उम्मीद कर रहे हैं? आप चाहते हैं कि मजदूरों को वे कुछ लालच दे दें, और मजदूर क्रांति ही न करें?”
“मैं यह चाहता हूँ कि हम पहले इस ढाँचे में रह कर ही बदलाव लाने का प्रयास करें।”
“लेकिन, यह आपका मार्क्सवाद तो नहीं। मार्क्सवाद तो यह कहता है कि सर्वहारा को क्रांति कर सत्ता अपने हाथ में लेनी है।”
कार्ल मार्क्स ने कहा, “अगर आप यही समझ सके हैं, तो मैं एक ही बात कह सकता हूँ कि कम से कम मैं स्वयं एक मार्क्सवादी नहीं!” (मूल- ce qu'il y a de certain c'est que moi, je ne suis pas Marxiste)
मार्क्स को समझने के लिए इस वार्तालाप पर अपने-अपने ढंग से ध्यान देने की ज़रूरत है। यह बात आगे और खुल कर कहूँगा कि लेनिन जैसे ‘मार्क्सवादियों’ ने मार्क्स के किस स्टेप को अपनी सहूलियत से कब और कैसे बायपास किया।
लेनिन ने साम-दाम-दंड-भेद सभी अपनाए। जिस दिन उन्हें खबर मिली कि रूस में क्रांति हो गयी, ज़ारशाही खत्म हो गयी, उनका दिमाग कुलबुलाने लगा।
उन्होंने नॉर्वे के अपने एक बोल्शेविक मित्र को खबर भेजी,
“तुम लोग इस नयी सरकार को मान्यता मत देना। एक राजा को हटा कर भ्रष्ट बुर्जुआ और सामंतों की सरकार बन गयी है। यह कोई हल नहीं है। केरेंस्की जैसे समाजवादी तो कहीं भी अपने फायदे के लिए चले जाते हैं। उस पर मुझे भरोसा नहीं।”
6 मार्च, 1917 को स्विट्ज़रलैंड के एक कैफ़े में लेनिन ने अपने तमाम समर्थकों और विरोधियों को बुलाया। बोल्शेविक, मेन्शेविक, समाजवादी सभी वर्षों बाद एक साथ बैठे थे। उस मीटिंग में मौजूद एक समाजवादी ने लिखा है, “लेनिन उत्साहित और क्रोधित नज़र आ रहे थे। वह तेज कदमों से कमरे में चक्कर लगाते हुए मुट्ठी भींचते हुए कह रहे थे- चाहे जो भी करना पड़े, हमें रूस पहुँचना होगा। कमान हाथ में लेनी ही होगी।”
‘चाहे जो भी करना पड़े’ का अर्थ था- चाहे जर्मनों से हाथ मिलाना पड़े। एक ऐसे राजा से, जो युद्ध में रूस के शत्रु थे। एक ऐसी राजशाही से, जिसके ख़िलाफ़ क्रांति करना कार्ल मार्क्स का ख़्वाब था।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - तीन (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/12.html
#vss
No comments:
Post a Comment