Sunday, 28 November 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान का मतलब क्या (4)

गुरुद्वारा डेरा साहिब और रणजीत सिंह की समाधि देखने के बाद मैंने शौकत से कहा कि किसी बहुत साधारण से ढाबे में खाना खाया जाए। स्टेशन के सामने बने ‘मदीना होटल’ में हम बैठ गये। होटल के बाहर तन्दूर लगा था। पास में ही बड़े बरतनों में खाना रखा था। तन्दूर के पास ही फ्राईपैन में खाना गरम करने का इंतज़ाम था।
”क्या खाओगे।“ मैंने शौकत से पूछा।
”मटन कढ़ाई मँगा लो?“
”कितना?“
”आधा किलो।“

मटन कढ़ाई आया तो उसी फ्राइपैन में आया जिसमें पकाया गया था और एक टोकरी में चार रोटियाँ आ गयीं जिनका साइज़ हमारे यहाँ की तन्दूरी रोटियों से बड़ा था। मेज़ पर कोई, प्लेट नहीं रखी गयी। अब अपने ‘हिन्दू संस्कारों’ की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली (थाली का तो खै़र पाकिस्तान में कोई वजूद ही नहीं है) का इंतज़ार करने लगा। दूसरी मेज़ों पर जो लोग खा रहे थे वे सब एक साथ एक प्लेट या फ्राईपैन में खा रहे थे। यह समझने में देर नहीं लगी कि यह मुस्लिम समाज है, जहाँ ‘जूठा’ का कोई ‘कांसेप्ट’ नहीं है। मैंने रोटी तोड़ी, शौक़त के साथ एक फ्राइपैन से खाना शुरू कर दिया। पर पानी पीने के एक गिलास वाले मामले को सहन नहीं कर पाया तो दो ‘कोक’ मँगा लिये।

इसी को शायद जीवन की रंगा-रंगी कहते हैं। दोपहर आॅटो चालक शौकत के साथ सर्वहारा किस्म के होटल में खाना खाने के बाद रात का डिनर पाकिस्तान की मशहूर अभिनेत्री समीना अहमद के सौजन्य से सम्पन्न हुआ। शहर से दूर एक मीडिया प्रोडक्शन हाउस में पाँच-सात बुद्धिजीवियों के साथ शाम बीती। ज़िक्र निकल आया कि भारत किस तरह पाकिस्तान से अपने को श्रेष्ठ समझता है। सब अपने-अपने अनुभव बताते रहे। होते-होते स्वर भारत विरोधी तक हो गया, लेकिन मैंने हस्तक्षेप नहीं किया क्योंकि मैं उनको समझना चाहता था, सुधारने का मंशा नहीं था।

अगले दिन शौक़त का आॅटो गेस्ट हाउस के गेट पर ठीक दस बजे आ गया। मैं कमरे में था कि शौक़त के आॅटो का भयानक हाॅर्न सुनाई पड़ा। लाहौर में गाड़ियों के विचित्र, दहला देने वाले हाॅर्न सुनकर मैं ‘कन्विन्स’ हो गया हूँ कि और किसी क्षेत्र में पाकिस्तान ने भारत से अधिक तरक्की की हो या न की हो, हाॅर्न बनाने के मैदान में बाजी मार ली है। शौक़त के आॅटो में कम से कम तीन तरह के हाॅर्न थे। हर हाॅर्न अपनी मिसाल आप था। एक हाॅर्न था जो किसी सिसकी या आह जैसी आवाज़ में शुरू होता था फिर उसमें अचानक सरसराहट पैदा हो जाती थी। फिर वह बड़े आक्रमक ढंग से इस तरह दहाड़ता था कि अगर सामने पैटन टैंक भी हो तो हट जाए। सड़क पर दूसरे किस्म के हाॅर्न भी सुनने को मिलते थे और लाहौरियों का ही कलेजा है जो इनकी आवाज़ से फट नहीं जाता।

माल रोड पर किताबों की दुकानों से कुछ पाकिस्तान के नक्शे खरीदे। कुछ टूरिस्ट गाइड वगै़रह लेना चाहता था, लेकिन नहीं मिली। वैसे लाहौर ही नहीं पूरे पाकिस्तान में टूरिस्ट और वे भी पश्चिमी टूरिस्ट नहीं दिखाई देते। अमरीका ने तो पाकिस्तान को दुनिया के खतरनाक देशों की सूची में डाल रखा है और यूरोप ने भी शायद यही किया है। जब टूरिस्ट आते नहीं तो उस किस्म की जानकारियाँ क्यों हों?

पुराने लाहौर में आकर लगा कि यह तो दिल्ली-6 से भी ज्यादा तंग जगह है। आॅटो और गाड़ियों ने धुएँ ने ऐसा कर दिया था कि दुकानदारों ने नाक पर सफेद मास्क लगा रखे थे। आने-जाने वाले आमतौर पर नाक पर रूमाल रख कर गुजर रहे थे। वैसा धुआँ, मतलब गाड़ियों का धुआँ, मैंने जीवन में कहीं नहीं देखा। सोचने लगा यहाँ रहने वालों पर क्या गुजरती होगी। ट्रैफिक की जितनी अव्यवस्था संभव है वह देखी जा सकती थी। मैंने कूचा जौहरियाँ के पास आॅटो रुकवा लिया। शौक़त से कहा वे कहीं और ले जाकर आॅटो खड़ा करें। मैं कूचा जोहरियाँ देखकर आ जाऊँगा। कूचा जौहरियाँ देखने का शौक इसलिए था कि मेरे नाटक ‘जिस लाहौर नई देख्या...’ का घटना स्थल यही है। मैं कूचे में आगे बढ़ता गया। तस्वीरें लेता गया। पुरानी इमारतों और मकानों की तस्वीरें जमा करना चाहता था। सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात की बाज़ार में इतनी अव्यवस्था देखकर परेशान हो गया। बड़ी मुश्किल से वापस आया। शौक़त का आॅटो नहीं मिला। ट्रैफिक ऐसा था आदमी का चलना मुश्किल लग रहा था गाड़ियों का क्या कहना।

पुराने लाहौर से निकल आये। एक चौड़ी सड़क के किनारे कुछ लोग, शायद पचास-साठ, बैनर वगै़रह लगाए प्रदर्शन कर रहे थे। उर्दू में बड़े से बैनर पर लिखा था, ‘पंजाबी तहरीक’ यानी पंजाबी आन्दोलन। मैंने शौक़त से आॅटो रोकने के लिए कहा और उत्तर कर प्रदर्शन करने वालों के करीब चला गया। पता चला कि वहाँ पंजाबी भाषा के लिए प्रदर्शन हो रहा है। मतलब पंजाब-वह भी लाहौर में पंजाबी के लिए आन्दोलन देखकर कुछ हैरत हुई। वहाँ बताया गया कि पंजाब में पंजाबी की उपेक्षा हो रही है। स्कूलों में पंजाबी नहीं पढ़ाई जाती। पंजाबी में अख़बार नहीं है। पंजाबी में प्रकाशन की हालत बहुत दयनीय है। वगै़रह...वगैरह..पंजाबी को दबा कौन रहा है, उर्दू।

पाकिस्तान में भाषा की बहुत ज्वलन्त और गंभीर समस्याएँ हैं। सबसे पहले भाषा की राजनीति सिन्ध में शुरू हुई थी। विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश से उर्दूभाषी सिन्ध के शहरों में बसाए गये थे। यह संख्या इतनी अधिक थी कि 1950 तक सिन्ध के बड़े शहरों में पचास प्रतिशत उर्दू बोलने वाले हो गये थे।

पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्राी लियाकष्त अली खाँ, जो उर्दूभाषी और मोहाज़िर थे, वे सिन्ध के बड़े शहरों को ‘उर्दू भाषी बहुम्य क्षेत्र’ बनाना चाहते थे, ताकि उनके तथा अन्य मोहाज़िर नेताओं के लिए राजनीति करना और चुनाव जीतना सरल हो जाए। एक कारण यह भी था कि पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रान्त पंजाब ने, उर्दूभाषी मोहाज़िरों को पंजाब में स्वीकार नहीं किया था। पंजाब में वही मोहाज़िर बसाए गये थे जो पूर्वी पंजाब से पाकिस्तान गये थे। पंजाब अपनी भाषायी और सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति बहुत सचेत थे।

सिन्ध में अपनी संख्या और प्रभाव के चलते उर्दूभाषी मोहाज़िरों ने अपना प्रभुत्व जमाने के लिए सिन्धी को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था। कारण दो थे। पहला तो यह सिद्धान्त कि पाकिस्तानी का धर्म इस्लाम है और भाषा उर्दू है। दूसरा यह कि शिक्षा, सरकारी पदों आदि में सिन्धी भाषी लोगों को पीछे ढकेल कर स्वयं आगे रहने की नीति। उर्दू और सिन्धी भाषा बोलने वालों में टकराव छोटी-मोटी बातों से शुरू हुआ लेकिन 1988-90 के बीच यह एक अत्यन्त भयानक खू़नी संघर्ष में बदल गया। बांग्लादेश की स्थापना ने पहली बार द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त को ग़लत साबित किया था और मोहाज़िर-सिन्धी सशस्त्रा संघर्ष ने यह दूसरी बार सिद्ध किया था कि धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता नहीं निर्धारित की जा सकती। 

30 सितम्बर, 1988 हैदराबाद सिन्ध के इतिहास को ‘ब्लैक फ्राइडे’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन मोटरसाइकिलों और जीपों पर एक दर्जन सशस्त्र जवानों ने भरी बाजारों में अन्धाधुंध फायरिंग की थी जिसके नतीजे में क़रीब 250 लोग मारे गये थे जिनमें ज़्यादातर उर्दूभाषी मोहाज़िर थे। आरोप लगाया जाता है कि फायरिंग करने वाले सिन्धी थे। इस हमले की प्रतिक्रिया कराची में हुई थी, जहाँ ज़बरदस्त दंगों में करीब 60-65 सिंधियों की हत्या कर दी गयी थी और करोड़ों की सम्पत्ति जला दी गयी थी। इन दंगों का सबसे भयापक रूप पक्का किला नरसंहार माना जाता है। 27 मई 1990 को, अपने सिरों पर कु़रान शरीफ रखे लोगों, जिनमें बच्चे और औरतें भी थीं, के प्रदर्शन पर पुलिस ने फायरिंग की थी जिसमें सौ से अधिक लोग मारे गये थे।
यह सच्चाई है कि पंजाबी बोलने वालों की संख्या पाकिस्तान में सबसे ज्यादा है और यह भी सच है कि पंजाबी भाषा की उपेक्षा पाकिस्तान बनने के साथ ही शुरू हो गयी थी। पाकिस्तान बनते ही पंजाब के विश्वविद्यालयों से पंजाबी भाषा को विषय के रूप में पढ़ाया जाना बन्द कर दिया गया था। कारण दो बताये जाते हैं। पहला यह कि उर्दू की केन्द्रीय स्थिति को मजबूत बनाने के लिए पंजाबी पर ‘ब्रेक’ लगाना ज़रूरी था। दूसरा यह कि पंजाबी को दबाने कर लिए उसे हिन्दुओं और सिखों की भाषा प्रचारित किया गया था।
पंजाबी तहरीक के कार्यकर्ताओं ने बताया कि पंजाब के प्राइमरी स्कूलों में पंजाबी की पढ़ाई नहीं होती। जबकि सिन्धी और सरायकी क्षेत्रों के प्राइमरी स्कूलों में स्थानीय भाषाएँ पढ़ायी जाती हैं। पंजाबी के अख़बार नहीं निकलते। एक-दो जो शुरू भी हुए थे आर्थिक कठिनाई की वजह से बन्द हो गये। पंजाबी का कोई बड़ा प्रकाशन नहीं है। पंजाबी में साहित्यिक पत्रिकाएँ बहुत कम निकलती हैं।

पाकिस्तान में पंजाबी भाषा के आन्दोलन का एक और बड़ा महत्त्वपूर्ण पक्ष है कि पंजाब आज़ादी के पहले से ही उर्दू का केन्द्र रहा है। सर मोहम्मद इकबाल, जिनकी मातृभाषा पंजाबी थी, ने उर्दू और फारसी में कविताएँ लिखी हैं। पंजाबीभाषी उर्दू कवियों की एक सशक्त परम्परा है जो फैज़ अहमद ‘फैज़’ से होती हुई युवा उर्दू कवि अली इफ़्तिख़ार जाफरी तक चली आती है। उर्दू पंजाब की संस्कृति और साहित्य की भाषा रही है। पंजाबी बोलचाल की भाषा के रूप में पूरी तरह स्वीकृत है। उूर्द की स्थिति पंजाब (पाकिस्तान) में कुछ वैसी है जैसी भारत से अंग्रेज़ी की है। 

आधुनिक युग में शायद कोई ऐसा पाकिस्तानी पंजाबी कवि नहीं हुआ जिसे भारतीय उपमहाद्वीप में मान्यता मिली हो। लेकिन पंजाब के उर्दू कवियों को यह सम्मान बराबर मिलता रहा है। इसलिए पंजाब के उर्दू कवि-लेखक यह जानते हैं कि उन्हें उप-महाद्वीप या अन्तर्राष्ट्रीय उर्दू कवि होना है तो पंजाबी में लिखने से काम नहीं चलेगा। और अब उर्दू का बड़ा कवि होने का मतलब हिन्दी का बड़ा कवि होना भी है। ‘फै़ज़’ ने यह सिद्ध कर दिया है। ‘फै़ज़’ हिन्दी जगत में भी जाने-माने जाते हैं। पंजाबी में लिखने का मतलब केवल पाँच-सात करोड़ की भाषा का कवि होना है जबकि उर्दू में लिखने का मतलब लगभग सौ करोड़ लोगों का कवि होना है। इस सौ करोड़ में एक तरह से हिन्दी भी शामिल है।

© असग़र वजाहत 

पाकिस्तान का मतलब क्या (3)
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Saturday, 27 November 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान का मतलब क्या (3)

अगले दिन सुबह सजा-सजाया आॅटो रिक्शा आ गया। यहाँ यह बताता चलूँ कि पाकिस्तानी ड्राइवर, ख़ासतौर पर बसों, ट्रकों और आॅटो रिक्शा के ड्राइवर अपनी गाड़ियों की सजावट पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं। ट्रकों, बसों पर ऐसी चित्राकारी, ऐसी सजावट ऐसे रंग-बिरंगी फूल-पत्ती के नमूने बने होते हैं कि देखते ही बनता है। मैंने उनकी कुछ तस्वीरें भी ली हैं पर जैसी चाह रहा था वैसी तस्वीरें नहीं ले पाया। खै़र, तो शौकत का आॅटो रिक्शा सजा सजाया था। शौकत की उम्र यही कोई बीस के आसपास रही होगी। दुबला-पतला जिस्म, चेहरे पर काली ख़शख़सी दाढ़ी और सलवार कमीज़ में शौकत पक्के आॅटो ड्राइवर लगते थे। आॅटो के अंदर भी उन्होंने तरह-तरह के धार्मिक 'स्टिकर' लगा रखे थे। उनमें से कुछ को देखकर मुझे शक हुआ था कि शौकत शायद शिआ मुसलमान हैं। लेकिन मैंने पूछना ठीक नहीं समझा था।
लाहौर की शाही मस्जिद और क़िले के बाद गुरुद्वारा डेरा साहिब लाहौर और महाराजा रणजीत सिंह की समाधि अपने आॅटो रिक्शे वाले मियाँ शौकत के साथ पहुँच गया। गुरुद्वारे के गेट पर ही तीन-चार लोग फोल्डिंग कुर्सियों पर बैठे थे। फाटक बंद था। सिपाही पहरा दे रहे थे। लगता था गुरुद्वारा सबके लिए खुला नहीं है। मैंने कहा कि मैं गुरुद्वारा देखना चाहता हूँ।“
”आप कहाँ से आये हैं?“ किसी कर्मचारी ने पूछा।
”इंडिया से।“
”अपना पासपोर्ट दिखाइए।“
मैंने अपना पासपोर्ट दे दिया। छोटे कर्मचारियों के हाथ से होता यह कुछ बड़े कर्मचारी, जो थोड़ी बड़ी कुर्सी पर बैठे थे, के पास पहुँचा। वे ध्यान से पासपोर्ट देखते रहे और फिर बोले, ”आप सैयद हैं।“ पासपोर्ट में मेरा पूरा नाम सैयद असग़र वजाहत लिखा है।
”हाँ हूँ।“ मैंने कहा।
अब दूसरे लम्हे जो हुआ उससे मैं बौखला-सा गया। प्रबंधक उठे और मुझसे लिपट गये। बोले, ”अरे सैयद साहब...आप यहाँ तशरीफ लाये ये तो बड़ी खु़शकिस्मती की बात है।“ वे इसी तरह के और जुमले भी बोलते रहे। मैं हैरान था कि यह क्या हो गया है। सैयद शब्द में ऐसा क्या जादू है जो उन्हें मोहित कर रहा है।

बाद में पता चला कि सैयद अर्थात् इस्लाम धर्म के पैगम्बर मुहम्मद साहब के वंशजों का पाकिस्तान में बहुत महत्त्व है। पहली बात तो यह कि सैयद होने के कारण ही, कट्टर मुस्लिम समाज में, किसी आदमी की हैसियत ऊँची हो जाती है। दूसरी यह कि पाकिस्तानी राजनीति, सेना, उद्योग-व्यापार आदि क्षेत्रों में सैयदों का बहुत असर है।
गुरुद्वारा डेरा साहब के प्रबंधक ने मुझसे कहा कि मैं अच्छी तरह गुरुद्वारा और महाराजा रणजीत सिंह की समाधि देख सकता हूँ। जबकि वहाँ के नियमों के अनुसार किसी ग़ैर सिख या गै़र हिन्दू को गुरुद्वारे के अंदर जाने की अनुमति नहीं है। लेकिन मेरे साथ दो गाइड भेज दिये गये। मैं जो कहता वह दिखाया जाता था। फोटो लेने की पूरी इजाज़त थी।

गुरुद्वारा और समाधि देखने के बाद मुझे प्रबंधक के कार्यालय में लाया गया। प्रबंधक महोदय ने बड़े प्रेम से चाय मंगायी। बातचीत होने लगी। उन्होंने बताया कि पाकिस्तान बनने के बाद सरकार ने हिन्दू मंदिरों और सिख गुरुद्वारों को अपने अधिकार में ले लिया था। अब भी इन जगहों की देखरेख और सुरक्षा पाकिस्तानी सरकार करती है। पूजा-पाठ का काम उसी धर्म के पुजारी वगै़रह करते हैं। मैंने गुरुद्वारे में भी तीन-चार सिख देखे थे।

प्रबंधक ने बताया कि साल में एक बार पूरी दुनिया से सिख समुदाय के लोग यहाँ आते हैं। बहुत बड़ा जमावड़ा होता है। प्रबंधक ने बताया कि वे गुरुमुखी लिपि जानते हैं और हिन्दी लिपि जानने का बड़ा मन है लेकिन लाहोर में उसका कोई इंतज़ाम नहीं है। मुझसे हिन्दी लिपि के बारे में वे कुछ पूछते रहे। मैं जितना बता सकता था, बता दिया।

प्रबंधक महोदय ने कहा कि वे अपने अधिकारी, जो पाकिस्तान सिविल सर्विस के बड़े अधिकारी हैं, से मेरी फोन पर बात कराना चाहते हैं क्योंकि अधिकारी भी सैयद हैं और उनका परिवार विभाजन के वक़्त अलीगढ़ से यहाँ आया था। उन्होंने अपने अधिकारी जै़दी साहब को फोन किया और बड़े आदर, विनम्रता, सम्मान से बात करने लगे। मेरे बारे में बताया। लेकिन शायद अधिकारी ने बात करने से मना कर दिया। प्रबंधक ने कहा कि वे अभी कहीं जा रहे हैं, बाद में बात करेंगे। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि जै़दी साहब के पिताजी अलीगढ़ जाना चाहते हैं। जबसे वे यहाँ आये हैं तब से अलीगढ़, अपने वतन नहीं गये। अब उनकी उम्र अस्सी साल के ऊपर है। वे जीवन में एक बार अलीगढ़ जाना चाहते हैं। उनके बेटे यानी पाकिस्तानी सिविल सर्विस के अधिकारी के लिए अपने वालिद को अलीगढ़ भेजना मुश्किल भी नहीं है। लेकिन एक बड़ी मुश्किल और है इसी वजह से जै़दी साहब अपने वालिद साहब को अलीगढ़ नहीं ले जाते।
”अभी भी जै़दी साहब के वालिद अलीगढ़ की बातें करते-करते रोने लगते हैं...अगर उन्हें अलीगढ़ ले जाया गया तो कहीं...“
”हाँ-हाँ मैं समझ गया।“ मैंने कहा। प्रबंधक कहना चाहते थे कि कहीं जै़दी साहब के वालिद पर इतना असर न हो जाए कि वहीं अलीगढ़ में...।
”अब क्या है जनाब...अपने साहब...अपने अब्बा जान को टालते और बहलाते रहते हैं। बेचारे और क्या कर सकते हैं?“ वे बोले।

मैं सन्नाटे में आ गया। अमृतसर की वह रात याद आयी जब सरदार जसवंत सिंह की शानदार कोठी में पार्टी चल रही थी। खाना, पीना, बातचीत सब अपने शबाब पर था। बातचीत लाहौर पर निकल आयी थी। जसवंत सिंह की बूढ़ी माँ ने कहा था, ”मैंनूं को इक बार लाहौर दिखा दो...इक बार...।“ मैंने सोचा था, सरदार जसवन्त सिंह करोड़पति हैं। बाहर तीन शानदार गाड़ियाँ खड़ी हैं। हर गर्मी में यूरोप ले जाते हैं पूरे परिवार के साथ। पैसे की रेल-पेल है। लेकिन अमृतसर से पचास किलोमीटर दूर लाहौर जाने के लिए उनकी माँ पचास साल से तड़प रही हैं और वे मजबूर हैं...उनकी लक्जरी कारें पचास किलोमीटर का फ़ासला पचास मिनट में तय कर सकती हैं। वीज़ा फीस अगर पाँच हज़ार रुपये भी हो तो क्या है? और कुछ नहीं तो एक दिन के लिए ही उन्हें इजाज़त दे दी जाए तो बात बन सकती है ओर फिर जसवंत सिंह की अस्सी साल की मां से पाकिस्तान को क्या ख़तरा हो सकता है?

दोनों देशों की आंतरिक सुरक्षा को पूरी तरह मज़बूत बनाये रखते हुए भी भारत-पाक की वीज़ा नीति अधिक मानवीय हो सकती है। सौ तरह से वीज़ा की समस्या पर सोचा जा सकता है। एक दिन का वीज़ा, ग्रुप वीज़ा, संरक्षण में यात्रा, सिक्युरिटी के साथ वीज़ा आदि कई उपाय हैं, लेकिन दोनों सरकारों में कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो अपने या अपने समूह के लाभ के लिए दुश्मनी बनाये रखना चाहते हैं। दुश्मनी रहेगी तो हथियार ख़रीदे जाएँगे। हथियार ख़रीदे जाएँगे तो अरबों रुपया कमीशन मिलेगा। सेना का महत्त्व बना रहेगा। दोनों देशों में ऐसी बहुत मज़बूत लाॅबी है जो सुरक्षा के नाम पर वीज़ा नीति में ढील नहीं देना चाहती। अगर कड़े वीज़ा नियमों से ही सुरक्षा संभव होती तो भारत-पाक में न तो बम विस्फोट होते और न आतंकी हमले होते। लेकिन रोज़ यही नज़र आता है। वीज़ा नियमों में ढील देने से न तो आंतरिक सुरक्षा को ख़तरा है, न आतंकवाद बढ़ेगा। हाँ ख़तरा है तो उन लोगों, समूहों को है जो भय, शत्राुता, हिंसा और आतंक के नाम पर अंडे-पराँठे उड़ा रहे हैं। आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है अज्ञान और शोषण। लेकिन मूल मुद्दों के प्रति ध्यान कौन देता है, पर सत्ताधारियों के लिए अज्ञान और शोषण ही ‘जीवन रेखा’ है।

© असग़र वजाहत 

पाकिस्तान का मतलब क्या (2)
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Friday, 26 November 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान का मतलब क्या (2)

फैज़ अहमद ‘फैज़’ के जन्म शताब्दी समारोह में हिस्सा लेने वरिष्ठ पटकथा लेखिका शमा जै़दी ने नेतृत्व में, जो डेलीगेशन बाघा बार्डर क्रास करके पाकिस्तान पहुँचा था, उनमें ज़्यादातर मुम्बई के कलाकार, लेखक, अभिनेता थे। विख्यात अभिनेता और पुराने मित्र राजेंद्र गुप्ता थे, मित्र लेखक, अभिनेता अतुल तिवारी थे। बाद में जावेद अख्तर और शबाना आजमी भी इस ग्रुप में जुड़ गए थे। दूसरे लोग भी थे। मैं और उबैद सिद्दीक़ी दिल्ली से थे। बाघा बॉर्डर पर ‘फैज़’ साहब की दोनों बेटियाँ, सलीमा और मुनीज़ा डेलीगेशन के स्वागत के लिए तैयार थीं। यही वजह थी कि हमारा सामान वगै़रह सरसरी तौर पर देखा गया। देखा जाता तो कई लोगों के सूटकेसों में से भारतीय कस्टम की दुकान से ख़रीदी गयी ‘स्काॅच विस्की’ की बोतलें निकलतीं। हमें भारतीय कस्टम में यह बताया गया था कि कोई गै़र-मुस्लिम अपने साथ विस्की की दो बोतलें ले जा सकता है। राजेन्द्र गुप्ता स्काॅच की एक बोतल ख़रीद रहे थे। मैंने अच्छा मौक़ा जानकर उसे दो करा दिया था। मैं चूँकि अपने असली नाम के साथ इस्लामी देश पहली बार जा रहा था, इसलिए डरा हुआ था।

बाघा सीमा से बाहर निकले तो इधर-उधर का सीन बहुत प्रभावित करने वाला नहीं था। अजीब उजडे़-उखड़े मकान दिखाई पड़े जिनमें भैंसों की बहुतायत थी। शायद घोसियों की आबादी रही होगी। कुछ और आगे बढ़े और लाहौर शहर में दाखिल हुए थे तो आँखें चैंधिया गयीं। यह शहर का सबसे खू़बसूरत इलाका था। सड़कें, पार्क, हरियाली और दोनों तरफ़ बनी शानदार इमारतें और कोठियाँ चीख-चीख़ कर लोगों के धनवान होने का ऐलान कर रही थीं। मुंबई से आये युवक बोले, ”यार यहाँ के बँगले तो अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के बँगलों को मात देते हैं।“ इसी बातचीत के दौरान किसी अनुभवी ने कहा, ”जनाब कहा जाता है, पाकिस्तान में लोगों के पास बहुत पैसा है, सरकार ग़रीब है, इसके बरखि़लाफ़ हिन्दुस्तान में लोगों के पास पैसा नहीं है, सरकार के पास बहुत पैसा है।“
”ऐसा क्यों है?“ किसी ने पूछा।
जो लोग जानते थे, मुस्कुराने लगे। जो नहीं जातने थे वे एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।

तीन-चार दिन ‘फैज़’ जन्मशती के प्रोग्राम चलते रहे। भव्यता, धनाढ्यता और सुन्दरता ने प्रभावित तो किया, लेकिन जितना प्रभाव लाहौर के उच्चवर्ग की सांस्कृतिक, साहित्यिक जागरुकता का पड़ा वह बताने लायक है। प्रोग्रामों में हिस्स लेने के लिए एक हज़ार रुपये का टिकट लेकर आने वालेां को किसी भी तरह ग़रीब या मध्यम वर्ग का नहीं कहा जा सकता। देखने सुनने में भी लगता था कि लाहौर का उच्चवर्ग बहुत सुसंस्कृत, साहित्य और कला प्रेमी है। मेरे ख़याल से ऐसे साहित्यिक कार्यक्रमों में दिल्ली का उच्च वर्ग शायद मुफ़्त आना भी न पसन्द करेगा।

इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान एक अद्भुत और विलक्षण प्रतिभाशाली मुश्ताक़ अहमद यूसुफी से मिलने का मौक़ा मिला और दुःख हुआ कि उनसे और उनकी रचनाओं से अब तक क्यों बे ख़बर रहा। ‘फै़ज़’ पर आयोजित सेमीनार में अपना लेख पढ़ने यूसुफी साहब आये तो हाल तालियों से गूँज उठा। फैज़ के बारे में उन्होंने पूरी गंभीरता और सौम्यता से बोलना शुरू किया। उनके हर वाक्य पर पूरे हाल में ठहाके गूँजने लगे। मज़ेदार बात यह थी कि वे न तो किसी व्यक्ति का मखौल उड़ा रहे थे और न घटिया किस्म का हास्य या व्यंग्य पैदा कर रहे थे। उनका पूरा लेख बहुत मर्यादित ओर साहित्यिक था।

मुश्ताक अहमद यूसुफी मूल रूप से टोंक (राजस्थान) के हैं। उनकी शिक्षा राजस्थान, आगरा विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई थी। पेशे से बैंकर, यूसुफी साहब को पाकिस्तान के बड़े-से-बड़े साहित्यिक एवाॅर्ड मिल चुके हैं। उनके हास्य व्यंग्य संग्रह ‘खाकम व दहन’ (मुँह में मिट्टी) के चौदह संस्करण हो चुके हैं। एक दूसरे संकलन ‘ज़रगुश्त’ के ग्यारह एडीशन छपे हैं। उनके बारे में यह तय है कि वे उर्दू के सर्वोंत्तम हास्य-व्यंग्यकार हैं।

‘फैज़’ पर उनका भाषण सुनने के बाद चाय पीने के लिए सब बाहर निकले तो मौका निकाल कर मैंने यूसुफी साहब से कहा कि हिन्दोस्तान से पहली बार पाकिस्तान आया हूँ। अगर पाकिस्तान में मैंने सिर्फ़ आपको सुना होता और कुछ न किया होता तब भी मेरा पाकिस्तान आना सार्थक होता।’ पचहत्तर साल से ऊपर के यूसुफी साहब ने मेरी बात सुनी, लेकिन कुछ नहीं बोले। उन्हें उनके तमाम प्रशंसक घेरे हुए थे और मैंने यह ठीक न समझा कि उनके और उनके प्रशंसकों के बीच दीवार बनूँ।

‘फैज़’ जन्मशती समारोह का अंतिम सत्र लाहौर के जिन्ना बाग़ के खुले आॅडिटोरियम में था। यहाँ संगीत, गायन के प्रोग्राम पेश किये गये। पहली बार लगा कि ‘फैज' प्रगतिशील कवि हैं और जनान्दोलनों से भी उनका कोई लेना देना रहा है। कलाकारों और लोगों में एक अद्भुत उत्साह था। यह प्रोग्राम दिनभर चलता रहा था।

‘फैज़’ जन्मशती समारोह के आयोजकों ने हमारे ग्रुप को आते-जाने के लिए वैन दे रखी थी जिसमें सब लोग बैठकर सुबह कार्यक्रमों में शामिल होने निकल जाते थे। शाम को यही वैन हमें लाहौर के सम्भ्रान्त इलाके में किसी विशिष्ट व्यक्ति की कोठी पर लाती थी जहाँ रात के खाने की व्यवस्था होती थी। इन पार्टियों में हम लोगों ने किसी तरह की कमी नहीं महसूस की और हिन्दुस्तान में बिगड़ी हमारी आदतों का पूरा ख़याल रखा गया। यह भी पता चला कि हम लोगों जैसे वहाँ कम नहीं हैं पर सामने नहीं आते। 

हमारी बैन के साथ एक मोटरसाइकिल सवार हमेशा लगे रहते थे। बताया गया था कि वे हमारी सुरक्षा के लिए है। इसलिए हम लोगों ने उनका नाम ‘मोहाफिज़’ रख दिया था। इतनी मोटी बात हम सबको मालूम थी कि ‘मौहाफिज़’ साहब अपनी डियूटी बजा रहे हैं। दो ही एक दिन में मोहाफिज़ साहब से हम लोगों का अच्छा तालमेल हो गया। उन्होंने ‘पर्दा’ खोल दिया और हमने ससम्मान उन्हें अपना लिया।
‘फैज़’ संबंधी कार्यक्रमों से कुछ समय बचा कर एक रात हम लोग उस्मान पीरज़ादा के मेहमान बने। उस्मान पीरज़ादा पंजाबी के लोकप्रिय अभिनेता हैं। वे पाकिस्तान के पंजाब में ही नहीं बल्कि भारतीय पंजाब में भी ‘हाउस होल्ड नेम’ हैं। उस्मान का परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से लाहौर में अभिनय, नाटक, सिनेमा के क्षेत्रा में सक्रिय है।

रात में क़रीब दस बजे हम अनजान इलाके़ में, शहर से काफ़ी दूर उस्मान पीरज़ादा के घर की तरफ चल पड़े। कोई एक घंटे बाद हमारी ‘वैन’ एक अत्याधुनिक हाउसिंग काॅम्प्लेक्स में घुसी। बीच में लाॅन था और तीन तरफ बहुत आधुनिक किस्म की कोठियाँ बनी थीं, जिनकी सीढ़ियाँ, दरवाजे़, खिड़कियाँ रोशनी में डूबे हुए थे। ड्राइव-वे पर हमें उस्मान मिले और उन्होंने बताया कि यह उनके परिवार के लोगों के ही बँगले हैं।

हम उस्मान के बँगले के अंदर आये। यहाँ करीब पन्द्रह-बीस लोग पहले से मौजूद थे और पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी। उस्मान का घर अंदर से भी सुरुचिपूर्ण, सम्पन्नता, धनाढ्यता और कलात्मकता का संगम नज़र आया। कुछ ही देर में सब लोग मेहमानों के साथ बातचीत में मशगूल हो गये। प्रोग्राम यह बना था कि उस्मान के यहाँ ‘शरबते रूह अफज़ा’ लेने के बाद हम लोग उस्मान के परिवार द्वारा स्थापित रफी पीर कल्चरल सेंटर जाएँगे जहाँ के रेस्ताँ में खाना खाएँगे। लेकिन रेस्त्राँ में ‘शरबते रूह अफज़ा’ नहीं मिलता इसलिए उस्मान मेहमानों से कह रहे थे कि आप लोग अपने-अपने ‘कोटे’ का ध्यान रखिए।

पार्टी में उस्मान पीरज़ादा के दोस्त अभिनेता, गायक, संगीतकार, बिजनेसमैन, सरकारी अधिकारी वगै़रह थे। बहुत लोगों से मुलाकात और बातचीत हुई लेकिन पाकिस्तानी सिविल सर्विस के एक अधिकारी से मिलता याद है क्योंकि वह पाकिस्तानी समाज, समस्याओं और चुनौतियों के बारे में बहुत तर्कसंगत बातें कर रहे थे। मेरी इच्छा हुई कि उनसे कभी आगे भी मुलाकात हो तो अच्छा है। लेकिन बाद में ऐसा नहीं हो पाया।

रफी पीरज़ादा कल्चरल सेंटर एक अद्भुत जगह लगी। हमें सबसे पहले ‘कठपुतली संग्रहालय’ दिखाया गया जिसमें पूरे संसार की लगभग पाँच हज़ार कठपुतलियाँ रखी गयी हैं। 1992 में स्थापित यह संग्रहालय संभवतः संसार में कठपुतली के चुनिन्दा संग्रहालयों में गिना जाएगा। इसका रख-रखाव और यहाँ कठपुतली कला संबंधी जानकारियाँ उपलब्ध होने के कारण इसका महत्त्व और बढ़ जाता है।

इसी सेंटर में आर्ट और क्राफ्ट विलेज हैं; पीरू कैफे हैं जहाँ लाहौर के मजे़दार खाने का ज़ायका लेने बड़ी तादाद में लोग आते हैं। यह सेंटर, नाटक के अन्तरराष्ट्रीय समारोह आयोजित करता है और इसका प्रशिक्षण कार्यक्रम भी है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सब एक परिवार का करिश्मा है। इसमें कोई सरकारी या अर्धसरकारी पैसा नहीं लगा। लाहौर में ऐसे कुछ ग्रुप और भी हैं, पर इतने व्यापक स्तर पर सिर्फ पीरज़ादा सेंटर’ ही सक्रिय है।

चार दिन बाद डेलीगेशन वापस भारत चला गया और मैं लाहौर में अकेला रह गया। मैं खु़श था कि लाहौर को देखने, समझने, बूझने का काम अब शुरू होगा। यह सोच रहा था कि काम कैसे शुरू किया जाए। अपने पसन्द का काम है सड़कें नापना। सुबह के छह बजे थे। मैं शहर से नावाकिफ था, लेकिन गेस्ट हाउस से निकल कर एक मुख्य सड़क पर आ गया और पैदल मार्च शुरू कर दी। इधर-उधर देखता रहा। लेकिन सुबह-सुबह सिवाय इमारतों के कुछ देखने को न था, इसलिए वही देखता चैराहे पर बनी एक बाज़ार तक आ गया। दुकानें अभी नहीं खुली थीं। लेकिन सड़क के किनारे चाय के खोखे खुले थे। एक चाय पीने के बाद सोचा चलो पुराने लाहौर चलते हैं, स्टेशन के पास उतर कर आसपास का इलाका देखते हैं। और हो सका तो लाहौर का नक्शा खरीदते हैं। बहरहाल एक आॅटोवाले से कहा कि रेलवे स्टेशन जाना है क्या लोगे? पता नहीं कैसा आॅटोवाला था कि उसे यह पता ही नहीं था कि वहाँ से स्टेशन तक का किराया कितना बनता है। एक दो और लोगों से पूछ कर उसने डेढ़ सौ रुपया बताया। मैं तैयार हो गया। पर मैंने पूछा, ”भाई तुम्हें ये मालूम है न कि लाहौर का रेलवे स्टेशन कहाँ है?“ वह कुछ शर्मिंन्दा हुआ ओर बोला, ”हाँ मालूम है।“

स्टेशन के आसपास घूमने, तस्वीरें लेने के बाद मैं पूछता-पाछता दिल्ली गेट की तरफ बढ़ने लगा। नया लाहौर जितना पाॅश है, पुराना लाहौर उतना ही गंदा है। वही दिल्ली वाला हाल है। खै़र अचानक महसूस किया कि ग्यारह बज गया है और दुकानें अब तक बंद हैं। पूछने पर चला गया कि आज ‘ईद मिलादुन्नबी’ की छुट्टी है और पूरा शहर बंद है। इसका सीधा मतलब था कि कुछ न मिलेगा। मैंने गेस्ट हाउस वापस आने की तैयारी की और एक मिनी बस में बैठ गया जिसने आधे रास्ते या माल रोड पर उतार दिया। यहाँ से गेस्ट हाउस पाँच-छह किलोमीटर था। माॅल रोड भी बंद थी। अब दिन का एक बज रहा था और पेट कुछ माँग रहा था। पर माल रोड के शानदार रेस्त्राँ बंद थे। ये हो नहीं सकता था कि कुछ न खाऊँ। जहाँ ठहरा था वहाँ डेलीगेशन जाने के बाद खाने वगै़रह का कोई इन्तज़ाम न था। यह लगने लगा अपने मजे़दार खानों के लिए मशहूर लाहौर में मुझे भूखे पेट सोना पड़ेगा।

अचानक सड़क की दूसरी तरफ कोने में एक छोटी-सी दुकान खुली दिखाई पड़ी। यह फ्रूट जूस, स्नैक्स, केक-पेस्ट्री वगै़रह की दुकान थी। चील की तरह मैंने झपट्टा मारा और पलक झपकते में वहाँ पहुँच गया। एक अधेड़ उम्र दुकानदार ने मुझे देखा। बड़ी अजीब बात है कि चेहरे-मोहरे और भाषा सब पता चल जाता है। वह समझ गया कि मैं ‘इधर’ का नहीं हूँ तो मैंने भी यह ज़रूरी नहीं समझा कि कुछ छुपाऊँ।
कोल्ड ड्रिंक और सैंडविच खाने शुरू किये। एक आदमी कोई और आ गया। 
”तो जी आप दिल्ली से आये हो?“ वह पंजाबियों की तरह हिन्दी/उर्दू बोला जो मेरे लिए दिल्ली में रहने की वजह से नयी चीज़ नहीं है।

”हाँ जी,“ मैंने भी पंजाबी तरीके से जवाब दिया। ”क्या हाल है उधर?“ वह बोला।
”ठीक है...हमारी तरफ़ तो व्यापारी और विजनेस करने वाले बड़े फल-फूल रहे हैं।“ मैंने कहा।
”इधर भी काम अच्छा है...पर आपके यहाँ जैसी बात कहाँ होगी। हमारी मार्केट छोटी है।“ वह बोला।
”चीनी का क्या भाव है?“ उस नये आदमी ने पूछा जो आकर खड़ा हो गया था।
मैं परेशान हो गया क्योंकि मुझे नहीं मालूम था कि दिल्ली में चीनी क्या भाव है। बहरहाल कुछ तो बताना था। मैंने आइडिये से जो बताया वह इतना ग़लत था कि वे दोनों कहने लगे ऐसा तो हो ही नहीं सकता। मैंने फौरन अपनी हार मान ली क्योंकि मुझे कुछ नहीं मालूम था।
”बस जी हम लोग तो अमन चाहते हैं।“ दुकानदार बोला।
”हम भी अमन चाहते हैं...हिन्दुस्तान में अब किसी को पाकिस्तान से कोई दुश्मनी नहीं है।“ मैंने कहा।
”अच्छा जी...ऐसा है...यह तो कहते हैं...हिन्दुस्तान पाकिस्तान को मिटा देना चाहता है।“
”अजी हिन्दुस्तान में खु़द ही इतने मसले हैं कि वह किसी और को मिटाने के बारे में क्या सोचेगा।“ मैंने कहा।
”हाँ ये तो ठीक है।“ दुकानदार ने कहा।
”देखो जी अब जो जैसा है, वैसा मान लेना चाहिए।“ तीसरा आदमी बोला।
कुछ क्षण बाद हमारी बातचीत शान्तिवार्ता में बदल गयी। मैंने खा-पीकर पैसे देने चाहे तो दुकानदार बोला, ”नहीं जी आप मेहमान हो...आपसे क्या लेने।“
मैं सोचने लगा क्या यह दिल्ली में संभव है? दिल्ली के दुकानदार और व्यापारी तो अपने बाप को न छोडे़ं...पड़ोसी देश के मेहमान की क्या औकात है। 
”देखो जी कुछ तो ले लो। ये सब आपके घर तो बनता नहीं।“ मैंने कहा।
”नई जी नहीं...ऐसा है तुम्हें इंडिया में कोई पाकिस्तानी मिले तो उसे ‘ठंडा’ पिला देना।“ वह हंस कर बोला।
”हाँ-हाँ क्यों नहीं।“ मैंने कहा।
”तुसी ठहरे कहाँ हो?“
”गुलबर्ग में?“
”कैसे जाओगे...आज जो छुट्टी है। ऑटो भी नहीं मिलेगा।“
”देखेंगे।“ मैंने कहा।
”नई...मेरा...पुत्तर छोड़ देगा।“

मेरे बहुत मना करने के बाद भी उसका बेटा आया। गाड़ी निकाली और मुझे गेस्ट हाउस तक छोड़ा...यह भी कहा कि यह फोन नम्बर है, जब कभी कहीं जाना हो...बेतकल्लुफ़ फोन कर देना।

डेलीगेशन चले जाने के बाद मैं अकेला रह गया था, लेकिन मेरी चिन्ता ‘मोहाफिज’ साहब को लगातार लगी रहती थी। अगले दिन वे सुबह आये और पूछा कि अब मेरा क्या प्रोग्राम है। मैंने बताया कि लाहौर घूमना है, कुछ लोगों से मिलना और उसके बाद मुल्तान जाना है। उन्होंने मेरा पासपोर्ट देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की और मैंने अपना पासपोर्ट दिखाया जिस पर लाहौर के साथ-साथ मुल्तान और कराची के नाम भी दर्ज थे। पाकिस्तान में मैं 45 दिन ठहर सकता था। पासपोर्ट की फोटोकाॅपी लेने के बाद मोहाफिज़ साहब ने विस्तार से जानना चाहा कि मैं लौहार में क्या करूँगा। मैं उनकी परेशानी समझ गया। उन्हें मेरे बारे में अफसरों को रिपोर्ट देनी थी। मैंने उनके काम को आसान बनाने के लिए कहा कि आप मुझे एक ऑटो रिक्शा पूरे दिन के लिए दिला दें। जो पैसा होगा मैं दे दिया करूँगा। बात मोहफिज़ साहब की समझ में आ गयी। ज़ाहिर है ऑटो रिक्शा वाला उनका ‘बंदा’ होना था और हर शाम उनको पक्की रिपोर्ट मिल जानी थी कि मैंने पूरे दिन क्या-क्या किया।
(जारी)

© असग़र वजाहत 

पाकिस्तान का मतलब क्या (1)
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#vss

Thursday, 25 November 2021

सलमान खुर्शीद की किताब पर दिल्ली हाईकोर्ट का प्रतिबंध से इनकार./ विजय शंकर सिंह


लाइव लॉ, बार एंड बेंच और अन्य मीडिया की खबरों के अनुसार, दिल्ली हाईकोर्ट में सलमान खुर्शीद की नयी किताब, सनराइज ओवर अयोध्या, नेशनहुड इन आवर टाइम्स' में कथित रूप से एक पैराग्राफ को भड़काऊ बताया गया है और उसी के आधार पर इस पुस्तक को प्रतिबंधित करने की एक याचिका, अदालत में दायर की गयी थी। अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा, 
"यदि आप लेखक से सहमत नहीं हैं, तो इसे न पढ़ें:" 
यह टिप्पणी करते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सलमान खुर्शीद की नई किताब पर प्रतिबंध लगाने की याचिका खारिज कर दी है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने गुरुवार को पूर्व कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की नई किताब 'सनराइज ओवर अयोध्या: नेशनहुड इन अवर टाइम्स' के प्रकाशन, प्रसार, बिक्री और खरीद पर प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया, जहां उन्होंने कथित तौर पर हिंदुत्व की तुलना इस्लामिक स्टेट और बोको हराम से की थी। यह याचिका एक एडवोकेट, विनीत जिंदल ने दायर की थी। 

जस्टिस यशवंत वर्मा ने मामले की सुनवाई की और टिप्पणी की कि अगर लोगों को किताब पसंद नहीं है तो उनके पास इसे नहीं खरीदने का विकल्प है।

 "यदि आप लेखक से सहमत नहीं हैं, तो इसे न पढ़ें। कृपया लोगों को बताएं कि पुस्तक बुरी तरह से लिखी गई है, कुछ बेहतर पढ़ें," उन्होंने टिप्पणी की।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता राज किशोर चौधरी ने यह तर्क देने की कोशिश की कि 
" किताब से देश भर में सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा और पहले से ही किताब के कारण हिंसा की घटनाएं हो चुकी हैं। यहां तक ​​कि नैनीताल में लेखक का घर भी क्षतिग्रस्त हो गया है... हालांकि अभी तक कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई है, लेकिन ऐसा होने की संभावना है।"

उन्होंने कहा कि 
" अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण नहीं है और शांति भंग को रोकने के लिए इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाए गए हैं। मैं इस हिस्से को हटाने के लिए कह रहा हूं। सांप्रदायिक दंगे ऐसे शुरू होते हैं। कम से कम नोटिस जारी किया जाना चाहिए।"

पीठ ने हालांकि कहा कि प्रतिबंध सरकार को लगाना है और इस मामले में सरकार ने कुछ नहीं किया है। 

चौधरी के इस तर्क पर प्रतिक्रिया देते हुए कि खुर्शीद एक सार्वजनिक व्यक्ति हैं और उन्हें शांति बनाए रखने के लिए सावधान रहना चाहिए, न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि अगर लोग आहत महसूस कर रहे हैं तो अदालत कुछ नहीं कर सकती।

"अगर लोग इसे महसूस कर रहे हैं तो, हम क्या कर सकते हैं। अगर उन्हें मार्ग पसंद नहीं आया तो वे अध्याय छोड़ सकते हैं। अगर उन्हें चोट लग रही है तो वे अपनी आंखें बंद कर सकते थे।"

न्यायमूर्ति वर्मा ने चौधरी से पूछा कि क्या उनका कोई अन्य तर्क है और याचिका खारिज कर दी।

याचिका में दलील दी गई है कि 
"सलमान खुर्शीद एक बड़े प्रभाव वाले सांसद और देश के पूर्व कानून मंत्री हैं। इसलिए किताब में दिया गया बयान हिंदू समुदाय को आंदोलित करेगा। यह देश में सुरक्षा, शांति और सद्भाव के लिए खतरा पैदा करेगा और सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की क्षमता रखता है।" 

पुस्तक का विवादास्पद पैराग्राफ, जिसे याचिका में पुन: प्रस्तुत किया गया है, वह इस प्रकार है। 

 "सनातन धर्म और संतों और संतों के लिए जाने जाने वाले शास्त्रीय हिंदू धर्म को हिंदुत्व के एक मजबूत संस्करण द्वारा एक तरफ धकेल दिया जा रहा था, सभी मानकों के अनुसार जिहादी इस्लाम के समान एक राजनीतिक संस्करण जैसे आईएसआईएस और हाल के वर्षों के बोको हराम।"

( विजय शंकर सिंह )

असग़र वजाहत - पाकिस्तान का मतलब क्या (1)

मैं 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में पाकिस्तान गया था। वहां लगभग 45 दिन घूमता रहा था। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिला था। संस्थाओं में गया था।उन अनुभवों के आधार पर मैंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था जो ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश मित्रों के साथ साझा करना चाहता हूं। प्रस्तुत है पहला अंश-
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पाकिस्तान का मतलब क्या
1.
पाकिस्तान एक ऐसा शब्द है जो उत्तर भारत में रहने वाले लोगों के मन में कोई ‘विशेष बिम्ब’ बनाता है। विभाजन के बाद पाकिस्तान आये लोगों की बात छोड़ भी दें तो कम से कम उत्तर भारत में पाकिस्तान के तरह-तरह के मतलब हैं। पाकिस्तान से जन्मी सबसे पुरानी छवि जो मेरे मन में है वह शायद सन् 55 के आसपास की है जब मेरी उम्र दस साल रही होगी। पड़ोस का कोई ख़ानदान पाकिस्तान जा रहा था। घर के सामने नीम के बूढ़े और घने पेड़ की छाया मेें तीन इक्के खड़े थे। एक इक्के पर सामान लादा जा रहा था। दूसरे इक्के में चादर बाँध दी गयी थी क्योंकि उसमें ज़नानी सवारियों को जाना था। घर के मर्द पड़ोसी मर्दों से गले मिल रहे थे। ऐसा ग़मगीन माहौल था कि दिल बैठा जाता था। घर के अन्दर औरतें पड़ोसिनों से लिपट-लिपट कर सिसक रही थीं। सिसकियाँ और रोना चीख़ने में तब्दील हो रहा था। बच्चे घबराये हुए इधर-उधर भाग रहे थे। मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि ये सब क्या है? पाकिस्तान से जुड़ी दूसरी छवि यह है कि गर्मियों के दिनों की दोपहर में हम लोग घर के तहखाने में सोते थे जहाँ छत से लटका पंखा झलने के लिए नौकर पंखे की डोरी अपने पैर में लपेट कर कुछ फ़ासले पर लेट कर पैर चलाता था जिसके नतीजे में पंखा चलताथा और हवा होती थी। इन शान्त और ठंडी दोपहरों में कभी-कभी कोई नौकर हाथ में ख़त लिये यह कहता हुआ आता था कि पाकिस्तान से ख़त आया है। सब लोग उठ बैठते थे। हमारे अब्बा की फूफी (बुआ) के बड़े लड़के पाकिस्तान चले गये थे और वहाँ से उनके ख़तों का इन्तिज़ार पूरे घर को रहता था। कहते हैं, वसी चचा पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। लखनऊ यूनिवर्सिटी से कैमिस्ट्री में एम.एस.सी. करने के बाद वे नौकरी की तलाश में थे। एक इंटरव्यू बोर्ड में बोर्ड के किसी सदस्य ने उन्हें बहुत प्यार से समझाया था - मियाँ जी आप यहाँ भारत में क्यों नौकरी के चक्कर में परेशान हो रहे हो? पाकिस्तान में न जाने कितनी नौकरियाँ आपका इन्तज़ार कर रही हैं। आप पाकिस्तान चले जाइए। यहाँ आपको नौकरी देने का मतलब किसी हिन्दू का हक़ मारना है... ”इस बातचीत के बाद वसी मामू समझ गये थे कि हिन्दुस्तान से उनका दाना-पानी उठ गया है। वे घर आये और अपना फै़सला सुना दिया। ख़बर बम की तरह फटी। लखनऊ के कूच-ए-मीरजान में लम्बी-चैड़ी हवेली, ख़ानदानी इमामबाड़ा; वालिद शहर के माने हुए वकील, ख़ानदानी रईस, यूनिवर्सिटी में पढ़ती बहनें और भाई सब हैरान हो गये। बहरहाल वसी मामू आसानी से नहीं जा सके। बहुत हाय-तौबा और रोने-धोने के बाद कराची सिधारे। उन्हीं के ख़त तपती हुई दोपहर में ठंडी हवा के झोंके की तरह आते थे और उन्हें ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था...उन्हें अच्छी नौकरी मिली थी। उन्होंने नाजिमाबाद में प्लाट भी ले लिया था और मकान बनवा रहे थे। उनके ख़तों में, नये लफ़्ज़ जैसे ‘नाजिमाबाद’ या रोचक प्रसंग जैसे उनका ‘पठान नौकर चाकू से नहीं क़रौली से सब्ज़ी काटता है’, दिमाग़ में चिपक कर रह गये हैं...पाकिस्तान से जुड़ा एक और प्रसंग वह नारा है जो पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम लीगी लगाया करते थे। नारा था, ‘हँस के लिया है पाकिस्तान। लड़कर लेंगे हिन्दुतान।’

पाकिस्तान का मतलब बताने के लिए एक नारा, ‘पाकिस्तान का मतलब क्या? ला इलाहा इल्लिलाह’। पाकिस्तान का मतलब, ‘अल्लाह एक है’ साबित करता था कि पाकिस्तान मुस्लिम देश है। इसके अलावा पाकिस्तान को ‘मुमकलते-खु़दादाद’ यानी ईश्वर प्रदत्त राज्य कहने वाले कम नहीं थे। दरअसल हँस के लिया है पाकिस्तान और ‘ईश्वर प्रदत्त राज्य’ का गहरा ताल्लुक भी है।
लेकिन पाकिस्तान का मतलब जल्दी ही बदला गया था। 1958 में जरनल अय्यूब खाँ के सत्ता सँभालने के बाद कहा जाता था ”पाकिस्तान का मतलब क्या? लाठी, गोली, मार्शल लाॅ।’

‘हँस के लिया है पाकिस्तान’ की तस्दीक़ अगर इतिहास से करें तो पता चलता है कि पाकिस्तान के प्रमुख निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना भारतीय राजनीति और सामाजिक जीवन से संन्यास लेकर 1932 में लन्दन चले गये थे। उस वक़्त तक जिन्ना और पाकिस्तान का कोई रिश्ता न था। 1934 में मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खँ के अनुरोध पर मुस्लिम लीग का नेतृत्व सँभालने मुहम्मद अली जिन्ना वापस आये थे।

सन् 1946 तक मुस्लिम लीग काँगे्रस के साथ मिल कर सरकार चलाने पर तैयार थी जो योजना सफल नहीं हो सके। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया। पाकिस्तान के इतिहासकार इसे ‘लम्बा संघर्ष’ मानते हैं। लेकिन लाहौर के प्रसिद्ध पंजाबी कवि मुश्ताक सूफी पूछते हैं, ”ये बताइये पाकिस्तान के आन्दोलन में मुस्लिम लीग के कितने लोग जेल गये थे? किस-किस की जायदाद ज़प्त की गयी थी? किसने ब्रिटिश हुकूमत के डंडे खाए थे? कितनों को फाँसी लगी थी? कितने लोगों को काले पानी भेजा गया था?“

सूफी साहब के इन सवालों के मेरे पास जवाब नहीं है क्योंकि मैं इतिहासकार नहीं हूँ। बहरहाल ‘हँस के लिया है पाकिस्तान’ का दूसरा पहलू ये है कि कुछ लोग काँगे्रस पर यह आरोप लगाते हैं कि उसने मुस्लिम लीग को पाकिस्तान तो ‘गिफ्ट’ किया था। इस ‘गिफ्ट’ की परिभाषा ‘मुमकलते-खु़दादाद’ तो नहीं हो सकती लेकिन इतना ज़रूर है कि खु़दा (अल्लाह) पाकिस्तान की संवेदना का प्रमुख हिस्सा रहा है।

मुश्ताक सूफी अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ”लाहौर की सबसे बड़ी और महँगी बाज़ार माल रोड पर पाकिस्तान बनने से पहले मुसलमान की सिर्फ एक दुकान थी। पुराने शहर की अनारकली बाज़ार में मुसलमानों की दो दुकानें थीं। आज सूरतेहाल उल्टी है। इसके अलावा पंजाब में ज़मीनें सिखों के पास थीं। अब मुसलमानों के पास हैं। ये सब बहुत जल्दी और ‘करप्ट’ तरीके से हुआ है...मतलब ये कि जायदादें हथियाने में गै़र क़ानूनी तरीके़ भी अपनाये गये थे और फिर वो हालात ही ऐसे थे कि क़ानूनी की पूरी पाबन्दी बहुत मुमकिन नहीं थी। लेकिन इस उथलपुथल, इस ‘अप साइड डाउन’ या कहें ‘डाउन साइड अप’ ने हमारे समाज पर, मेरे ख़याल से बहुत अच्छा असर नहीं डाला। जब चैलेंज नहीं होते तो समाजों में ‘नेगेटिव थिंकिंग’ पैदा हो जाती है।“

पाकिस्तान के इतिहासकार और बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि पाकिस्तान के लिए संघर्ष करने के दौरान यह चर्चा नहीं हुई कि पाकिस्तान का स्वरूप क्या होगा? राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था का क्या माॅडल होगा? बहुत सरसरी ढंग से यह कहा जाता था कि पाकिस्तान इस्लामी मुल्क होगा, लेकिन उसे परिभाषित नहीं किया गया। पाकिस्तान के एक प्रखर बुद्धिजीवी मियाँ आसिफ रशीद ने बहुत विस्तार से इस समस्या पर विचार किया है। पाकिस्तान के स्वरूप पर चर्चा न किये जाने के कारणों से पहले वे अधिक बुनियादी मुद्दे पर ध्यान आकर्षित कराते हैं।“ कुरान शरीफ का उद्देश्य इस्लामी राज्य स्थापित करना नहीं है बल्कि न्याय तथा समता पर आधारित समाज का निर्माण है। हम यह कह सकते हैं कि जो भी समाज न्याय और समता पर केन्द्रित होगा वही इस्लामी समाज होगा चाहे वहाँ बहुसंख्यक मुसलमान हों या गै़र मुस्लिम।“ 
(दलीले सहर-मियाँ आसिफ रशीद-फिक्शन हाउस, लाहौर, पृ.-82)

मियाँ आसिफ रशीद ने मुस्लिम लीग के नेताओं को कटहरे में खड़ा किया है, ”पाकिस्तान आन्दोलन के दौरान मुस्लिम लीग के नेतृत्व ने कभी यह सोचने की ज़हमत न की, कि पाकिस्तान बन जाने के बाद नये राज्य का क्या स्वरूप होगा, उसका राजनैतिक ढाँचा किन सिद्धांतों के अनुसार बनेगा और राज्य की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था क्या होगी, यद्यपि मुस्लिम लीग की विरोधी पार्टी कांग्रेस ने इन्हीं उद्देश्यों को सामने रखते हुए 1935 में प्रान्तीय चुनाव से पहले प्रो. के.टी. शाह के नेतृत्व में एक नेशनल प्लानिंग कमीशन स्थापित कर दिया था। 28 मई, 1937 को सर मुहम्मद इकबाल ने मुसलमानों की आर्थिक समस्याओं से लापरवाही बरतने वाली मुस्लिम लीग पर नुक्ता-चीनी करते हुए कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना को लिखा था, ‘लीग को आखि़रकार यह तय करना पड़ेगा कि क्या वह बदस्तूर हिन्दुस्तानी मुसलमानों के उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व करती रहेगी या मुस्लिम जनता का...’ मुस्लिम लीग नवाबों, राजाओं, खान बहादुरों और सरदारों के बोझ तले इतनी दबी हुई थी कि खु़द कायदे आज़म भी नये राज्य की ‘पहचान’ की व्याख्या करते हुए घबराते थे कि कहीं प्रभावशाली गुट नाराज़ न हो जाएँ और लीग में फूट न पड़ जाए।“ 
(दलीले सहर, मियाँ आसिफ रशीद ,फिक्शन हाउस, लाहौर, पृ.-15)

नये मुल्क पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक नीतियाँ निश्चित नहीं की गयी थीं लेकिन इससे बड़ी विडम्बना यह थी कि कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के बाद सत्ता की सभी कुंजियाँ अपने पास रख ली थीं। वे गवर्नर जनरल थे, संविधान बनाने वाली संसद के अध्यक्ष थे, मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे और अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने के लिए उन्होंने 1935 के एक्ट कानून आज़दिए हिन्द 1947 में एक संशोधन कराया था जिसे 9 पी. कहा जाता है। इसके अन्तर्गत उन्हें यह अधिकार मिल गया था कि वे पाकिस्तान की किसी भी प्रान्तीय विधानसभा को भंग कर सकते थे। उन्होंने अपने इस अधिकार का प्रयोग भी किया था।

मियाँ आसिफ रशीद ने पाकिस्तान में संविधान बनाने की प्रक्रिया और उसके स्वरूप को भी एक बुनियादी भूल माना है। उनका कहना है कि भारत ने तीन साल के समय (1947-1950) के अंदर संविधान बना कर भारत को गणराज्य बना दिया था जबकि पाकिस्तान में यह प्रक्रिया लम्बी चली। नौकरशाही और सेना ने संविधान के रास्ते में रोड़े अटकाये। और पाकिस्तान का तीसरा संविधान 1973 में बना जो मूलतः ग़ैर लोकतान्त्रिाक है तथा ‘चेक एंड बैलेंस’ की व्यवस्था भी उसमें नहीं है। इसके अलावा पाकिस्तान में ‘इस्लाम’ का बढ़ता प्रभाव और केन्द्र-राज्य संबंधों की तनावपूर्ण स्थिति भी देश को लोकतान्त्रिाक आधार देने में बाधा बनती रही।

मुहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की विचारधारा की व्याख्या करते हुए कहा था, ”हम इस बुनियादी सिद्धान्त से आगे बढ़ रहे हैं कि हम सब नागरिक हैं और इस देश के नागरिक बराबर हैं।“ जिन्न लोकतंत्र, धार्मिक सद्भाव और धर्म निरपेक्षता के पक्के समर्थक थे, लेकिन वे अपने विचारों को व्यवहार में लागू न कर सके और अन्ततः सिर्फ तीस साल बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़ियाउल हकने देश को इस्लाम के आधार पर मुस्लिम देश बनाने की घोषणा कर दी। लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता से मुस्लिम देश बना दिये जाने की यात्रा बहुत लम्बी नहीं है लेकिन छलाँग ज़रूर लम्बी है।
मैंने धर्म का जितना सार्वजनिक प्रदर्शन पाकिस्तान में देखा वैसा इस्लामी गणराज्य ईरान में भी नहीं देखा था। जैसे ही आप सीमा पार करते हैं, पाकिस्तान के प्रवेश द्वार पर ‘बिसिम्ल्लाहे रहमाने रहीम’ लिखा दिखाई पड़ता है। उसके बाद जैसे-जैसे लाहौर के नज़दीक पहुँचते हैं वैसे चैराहों पर, इमारतों के ऊपर, घरों के ऊपर, दुकानों के अंदर और बाहर, छतों पर, पेड़ों के तनों पर, पार्कों और मैदानों में, बार्ग़ों और फुलवारियों में हर जगह अल्लाह, कलमा या क़ुरान की आयतें लिखी दिखाई देती हैं। पेड़ के तनों पर लिखा दिखाई देता है, ‘पत्ते-पत्ते पर अल्लाह का नाम लिखा है।’ अलीशान घरों के ऊपर ‘माशा-अल्लाह या सुभान अल्लाह’ दिखाई पड़ता है। इसके अलावा रंग-बिरंगे झंडे घरों और इमारतों पर लहराते नज़र आते हैं। मैंने किसी दोस्त से पूछा था कि इन रंगबिरंगे झंडों का क्या मतलब है? क्या ये किसी विशेष सम्प्रदाय या राजनैतिक दल के झंडे हैं? मुझे जवाब मिला था कि पाकिस्तान में धर्म और राजनीति एक-दूसरे में इतना घुल-मिल गये हैं कि कहाँ से क्या शुरू होता है और क्या कहाँ ख़त्म होता है, यह बताना मुश्किल है।
(जारी)

© असग़र वजाहत 

Wednesday, 24 November 2021

महात्मा गांधी के जीवजीकार लुई फिशर की किताब से एक उद्धरण

शाम को साढ़े चार बजे आभा भोजन लेकर आई। यही उनका अंतिम भोजन होनेवाला था। 

इस भोजन में बकरी का दूध उबली हुई कच्ची भाजियाँ, नारंगियाँ, ग्वारपाठे का रस मिला हुआ अदरक, नीबू और घी का काढ़ा- ये चीजें थीं। 

नई दिल्ली में बिड़ला भवन के पिछवाड़ेवाले भाग में जमीन पर बैठे हुए गांधीजी खाते जाते थे और स्वतंत्र भारत की नई सरकार के उप-प्रधान मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से बातें करते जाते थे। 

सरदार पटेल की पुत्री और उनकी सचिव मणिबहन भी वहाँ मौजूद थीं। बातचीत महत्त्वपूर्ण थी। पटेल और प्रधानमंत्री नेहरू के बीच मतभेद की अफवाहें थीं। अन्य समस्याओं की तरह यह समस्या भी महात्माजी के पल्ले डाल दी गई थी।

गांधीजी, सरदार पटेल और मणिबहन के पास अकेली बैठी आभा बीच में बोलने में सकुचा रही थी। परंतु समय-पालन के बारे में गांधीजी का आग्रह वह जानती थी। इसलिए उसने आखिर महात्माजी की घड़ी उठा ली और उन्हें दिखाई। गांधीजी बोले- "मुझे अब जाना होगा।" यह कहते हुए वह उठ पास के गुसलखाने में गए और फिर भवन के बाईं ओर बड़े पार्क में प्रार्थना स्थल की ओर चल पड़े। 

महात्माजी के चचेरे भाई के पोते कनु गांधी की पत्नी आभा और दूसरे चचेरे भाई की पोती मनु उनके साथ चलीं। उन्होंने इनके कंधों पर अपने बाजुओं को सहारा दिया। वह इन्हें अपनी 'टहलने की छड़ियाँ' कहा करते थे।

प्रार्थना स्थान के रास्ते में लाल पत्थर के खंभोंवाली लंबी गैलरी थी। इसमें से होकर प्रतिदिन दो मिनट का रास्ता पार करते समय गांधीजी सुस्ताते और मज़ाक करते थे। इस समय उन्होंने गाजर के रस की चर्चा की, जो सुबह आभा ने उन्हें पिलाया था।

उन्होंने कहा- "अच्छा, तू मुझे जानवरों का खाना देती है!" और हँस पड़े। आभा बोली- "बा इसे घोड़ों का चारा कहा करती थीं। * गांधीजी ने विनोद करते हुए कहा- क्या मेरे लिए यह शान की बात नहीं है कि जिसे कोई नहीं चाहता, उसे मैं पसंद करता हूँ ?"

आभा कहने लगी- "बापू आपकी घड़ी अपने को बहुत उपेक्षित अनुभव कर रही होगी। आज तो आप उसकी तरफ निगाह ही नहीं डालते थे।" गांधीजी ने तुरंत ताना दिया- "जब तुम मेरी समय पालिका हो, तो मुझे वैसा

करने की जरूरत ही क्या है ?*

मनु बोली- "लेकिन आप तो समय पालिकाओं को भी नहीं देखते। गांधीजी फिर हँसने लगे। अब वह प्रार्थना स्थान के पासवाली दूब पर चल रहे थे। नित्य की सायंकालीन प्रार्थना के लिए करीब पाँच सौ की भीड़ जमा थी। गांधीजी ने बड़बड़ाते हुए कहा "मुझे दस मिनट की देर हो गई। देरी से मुझे नफरत है। मुझे यहाँ ठीक पाँच पर पहुँच जाना चाहिए था।"

प्रार्थना स्थान की भूमि पर पहुँचनेवाली पाँच छोटी सीढ़ियाँ उन्होंने जल्दी से पार कर लीं। प्रार्थना के समय जिस चौकी पर वह बैठते थे, वह अब कुछ ही गज दूर रह गई थी। अधिकतर लोग उठ खड़े हुए। जो नजदीक थे वे उनके चरणों में झुक गए। गांधीजी ने आभा और मनु के कंधों से अपने बाजू हटा लिए और दोनों हाथ जोड़ लिए।

ठीक इसी समय एक व्यक्ति भीड़ को चीरकर बीच के रास्ते में निकल आया। ऐसा जान पड़ा कि वह झुककर भक्त की तरह प्रणाम करना चाहता है, परंतु चूँकि देर हो रही थी, इसलिए मनु ने उसे रोकना चाहा और उसका हाथ पकड़ लिया। उसने आभा को ऐसा धक्का दिया कि वह गिर पड़ी और गांधीजी से करीब दो फुट के फासले पर खड़े होकर उसने छोटी-सी पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग दीं।

ज्योंही पहली गोली लगी, गांधीजी का उठा हुआ पाँव नीचे गिर गया, परंतु वह खड़े रहे। दूसरी गोली लगी, गांधीजी के सफेद वस्त्रों पर खून के धब्बे चमकने लगे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया। उनके जुड़े हुए हाथ धीरे-धीरे नीचे खिसक गए और एक बाजू कुछ क्षण के लिए आभा की गरदन पर टिक गया।

गांधीजी के मुँह से शब्द निकले - "हे राम!" तीसरी गोली की आवाज हुई। शिथिल शरीर धरती पर गिर गया। उनकी ऐनक जमीन पर जा पड़ी। चप्पल उनके पाँवों से उतर गए।

आभा और मनु ने गांधीजी का सिर हाथों पर उठा लिया। कोमल हाथों ने उन्हें धरती से उठाया और फिर उन्हें बिड़ला भवन में उनके कमरे में ले गए। आँखें अधखुली थीं और शरीर में जीवन के चिह्न दिखाई दे रहे थे। सरदार पटेल, जो अभी महात्माजी को छोड़कर गए थे, उनके पास लौट आए। उन्होंने नाड़ी देखी और उन्हें लगा कि वह बहुत मंद गति से चलती हुई मालूम दे रही है। किसी ने हड़बड़ाहट के साथ दवाइयों की पेटी में ऐड्रिनेलीन तलाश की, लेकिन वह मिली नहीं।

एक तत्पर दर्शक डा० द्वारकाप्रसाद भार्गव को ले आए। वह गोली लगने के दस मिनट बाद ही आ गए। डा० भार्गव का कहना है- संसार की कोई भी वस्तु उन्हें नहीं बचा सकती थी। उन्हें मरे दस मिनट हो चुके थे।"

पहली गोली शरीर के बीच खींची गई रेखा से साढ़े तीन इंच दाहिनी ओर, नाभि से ढाई इंच ऊपर, पेट में घुस गई और पीठ में होकर बाहर निकल गई। दूसरी गोली इस मध्य रेखा के एक इंच दाहिनी ओर पसलियों के बीच में होकर पार हो गई और पहली की तरह यह भी पीठ के पार निकल गई। तीसरी गोली दाहिने चूचुक से एक इंच ऊपर मध्य रेखा के चार इंच दाहिनी ओर लगी और फेफड़े में ही धँसी रह गई।

डा० भार्गव का कहना था कि एक गोली शायद हृदय में होकर निकल गई और दूसरी ने शायद किसी बड़ी नस को काट दिया। उन्होंने बतलाया-"आंतों में भी चोट आई थी, क्योंकि दूसरे दिन मैंने देखा कि पेट फूल गया था।'

गांधीजी की निरंतर देखभाल करनेवाले युवक और युवतियाँ शव के पास बैठ गए और सिसकियाँ भरने लगे। डा० जीवराज मेहता भी आ पहुँचे और उन्होंने पुष्टि की कि मृत्यु हो चुकी। इसी समय उपस्थित समुदाय में सुरसुराहट फैली।

जवाहरलाल नेहरू दफ्तर से दौड़े हुए आए। गांधीजी के पास घुटनों के बल बैठकर उन्होंने अपना मुँह खून से सने कपड़ों में छिपा लिया और रोने लगे। इसके बाद गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास और मौलाना आजाद आए। इनके पीछे बहुत से प्रमुख व्यक्ति थे।

देवदास ने अपने पिता के शरीर को स्पर्श किया और उनके बाजू को धीरे-से दबाया। शरीर में अभी तक हरारत थी। सिर अभी तक आभा की गोद में था। गांधीजी के चेहरे पर शांत मुसकराहट थी। वह सोए हुए से मालूम पड़ते थे। देवदास ने बाद में लिखा था- उस दिन हमने रात-भर जागरण किया। चेहरा इतना सौम्य था और शरीर को चारों ओर आवृत्त करनेवाला दैवी प्रकाश इतना कमनीय था कि शोक करना मानो उस पवित्रता को नष्ट करना था।"

विदेशी कूटनीतिक विभागों के लोग शोक प्रदर्शन करने के लिए आए, कुछ तो रो भी पड़े।

बाहर भारी भीड़ जमा हो गई थी और लोग महात्माजी के अंतिम दर्शन की माँग कर रहे थे। इसलिए शव को सहारा लगाकर बिड़ला भवन की छत पर रख दिया गया और उस पर रोशनी डाली गई। हजारों लोग हाथ मलते हुए और रोते हुए खामोशी के साथ गुजारने लगे।

आधी रात के लगभग शव नीचे उतार लिया गया। शोकग्रस्त लोग रात-भर

कमरे में बैठे रहे और सिसकियाँ भरते हुए गीता तथा अन्य मंत्रों का पाठ करते रहे। देवदास के शब्दों में-पौ फटने के साथ ही हम सबके लिए सबसे असह्य दर्द भरा क्षण आ पहुँचा। अब उस ऊनी दुशाले और चादर को हटाना था, जिन्हें गोली लगते समय महात्माजी सर्दी से बचने के लिए ओढ़े हुए थे। इन निर्मल शुभ्र वस्त्रों पर खून के दाग और धब्बे दिखाई दे रहे थे। ज्योंही दुशाला हटाया गया, एक खाली कारतूस निकलकर गिर पड़ा।

अब गांधीजी सबके सामने केवल घुटनों तक की सफेद धोती पहने हुए पड़े थे। सारी दुनिया उन्हें इसी तरह धोती पहने देखने की आदी थी। उपस्थित लोगों में बहुतों का धीरज छूट गया और वे फूट फूटकर रोने लगे। इस दृश्य को देखकर लोगों ने सुझाव दिया कि मसाला लगाकर शव को कुछ दिन रखा जाय, ताकि नई दिल्ली से दूर के मित्र, साथी और संबंधी दाह से पहले उसके दर्शन कर सकें। 

परंतु देवदास गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल नैयर तथा अन्य लोगों ने इसका विरोध किया। यह चीज हिन्दू धार्मिक भावना के प्रतिकूल थी और उसके लिए "बापू हमें कभी क्षमा नहीं करेंगे। इसके अलावा वे गांधीजी के भौतिक अवशेष को सुरक्षित रखने के किसी भी प्रस्ताव को प्रोत्साहन नहीं देना चाहते थे। इसलिए शव को दूसरे दिन जलाने का निश्चय किया गया।

सुबह होते ही गांधीजी के अनुयायियों ने शव को स्नान कराया और गले में हाथ कते सूत की एक लच्छी तथा एक माला पहना दी। सिर, बाजुओं और सीने को छोड़कर बाकी शरीर पर ढकी हुई ऊनी चादर के ऊपर गुलाब के फूल और पंखुड़ियाँ बिखेर दी गईं। देवदास ने बतलाया- "मैंने कहा कि सीना उघड़ा रहने दिया जाय। बापू के सीने से सुंदर सीना किसी सिपाही का भी न होगा।" शव के पास धूप-दान जल रहा था।

जनता के दर्शनों के लिए शव को सुबह छत पर रख दिया गया। गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास 11 बजे हवाई जहाज द्वारा नागपुर से आए। दाह-संस्कार उनके ही लिए रुका हुआ था। शव नीचे उतार लिया गया और उसे बाहर के चबूतरे पर ले गए। गांधीजी के सिर पर सूत की एक लच्छी लपेट दी गई थी। चेहरा शांत, किन्तु बड़ा ही विषादपूर्ण, दिखाई दे रहा था। अर्थी पर स्वतंत्र भारत का तिरंगा झंडा डाल दिया गया था ।

रात-भर में 15-हंडरवेट सैनिक हथियार-गाड़ी के इंजनदार फ्रेम पर एक नया ऊँचा ढाँचा खड़ा कर दिया गया था, ताकि खुली अर्थी पर रखा हुआ शव सब दर्शकों को नज़र आता रहे। भारतीय स्थल सेना, जल सेना और वायु सेना की दो सौ जवान चार मोटे रस्सों से गाड़ी को खींच रहे थे। एक छोटा सैनिक अफसर मोटर के चक्के पर बैठा। नेहरू, पटेल, कुछ अन्य नेता तथा गांधीजी के कुछ युवा साथी इस वाहन पर सवार थे।

नई दिल्ली में अलबुकर्क रोड पर बिड़ला-भवन से दो मील लंबा जुलूस पौने बारह बजे रवाना हुआ और मनुष्यों की अपार भीड़ के बीच एक-एक इंच आगे बढ़ता हुआ चार बजकर बीस मिनट पर साढ़े पाँच मील दूर जमुना किनारे पहुँचा। पंद्रह लाख जनता जुलूस के साथ थी और दस लाख दर्शक थे। नई दिल्ली के आलीशान छायादार पेड़ों की डालियाँ उन लोगों के बोझ से झुक रही थीं, जो जुलूस को अच्छी तरह देखने के लिए उनपर चढ़ गए थे। बादशाह जार्ज पंचम की ऊँची श्वेत प्रतिमा की चौकी, जो एक बड़ी तलैया के बीच बनी हुई है, सैकड़ों लोगों से ढक गई थी। ये लोग पानी में होकर वहाँ जा पहुँचे थे।

कभी कभी हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिक्खों और ऍग्लो इंडियनों की आवाजें मिलकर 'महात्मा गांधी की जय के नारे बुलंद करती थीं। बीच बीच में भीड़ मंत्र उच्चारण करने लगती थी। तीन डेकोटा वायुयान जुलूस के ऊपर उड़ रहे थे। ये सलामी देने के लिए झपकी खाते थे और गुलाब की असंख्य पंखुड़ियाँ बरसा जाते थे।

चार हजार सैनिक, एक हजार वायु सैनिक, एक हजार पुलिस के सिपाही और सैनिक भाँति भाँति की रंग बिरंगी वर्दियाँ और टोपियाँ पहने हुए अर्थी के आगे और पीछे फौजी ढंग से चल रहे थे। गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन के अंगरक्षक भालेधारी सवार, जो लाल और सफेद झंडियाँ ऊँची किए हुए थे, इनमें उल्लेखनीय थे। 

व्यवस्था कायम रखने के लिए बख्तरबंद गाड़ियाँ, पुलिस और सैनिक मौजूद थे। शव यात्रा के संचालक मेजर जनरल राय बूचर थे। यह अंग्रेज थे, जिन्हें भारत सरकार ने अपनी सेना का प्रथम प्रधान सेनापति नियुक्त किया था ।

जमुना की पवित्र धारा के किनारे लगभग दस लाख नर-नारी सुबह से ही खड़े और बैठे हुए श्मशान में अर्थी के आने का इंतजार कर रहे थे। सफेद रंग ही सबसे ज्यादा झलक रहा था- स्त्रियों की सफेद साड़ियाँ और पुरुषों के सफेद वस्त्र, टोपियाँ और साफे ।

नदी से कई सौ फुट की दूरी पर पत्थर, ईंट और मिट्टी की नव-निर्मित वेदी तैयार थी। यह करीब दो फुट ऊँची और आठ फुट लंबी व चौड़ी थी। इस पर धूप छिड़की हुई चंदन की पतली लकड़ियाँ जमाई हुई थीं। गांधीजी का शव उत्तर की ओर सिर तथा दक्षिण की ओर पाँव करके चिता पर लिटा दिया गया। ऐसी ही स्थिति में बुद्ध ने प्राण त्याग किए थे।

पौने पाँच बजे रामदास ने अपने पिता की चिता में आग दी। लकड़ियों में लपटें उठने लगीं। अपार भीड़ में से आह की ध्वनि निकली। भीड़ बाढ़ की तरह चिता की ओर बढ़ी और उसने सेना के घेरे को तोड़ दिया। परंतु उसी क्षण लोगों को भान हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। वे अपने नंगे पाँवों की उँगलियाँ जमीन में जमाकर खड़े हो गए और दुर्घटना होते-होते बच गई।

लकड़ियाँ चटखने लगीं और आग तेज होने लगी। लपटें मिलकर एक बड़ी लौ बन गई। अब खामोशी थी। गांधीजी का शरीर भस्मीभूत होता जा रहा था।

चिता चौदह घंटे तक जलती रही। सारे समय में भजन गाए जाते रहे और पूरी गीता का पाठ किया गया। सत्ताईस घंटे बाद, जब आखिरी अंगारे ठंडे पड़ गए, तब पंडितों, सरकारी पदाधिकारियों, मित्रों तथा परिवार के लोगों ने चिता के चारों ओर पहरा लगे हुए तार के बाड़े के भीतर विशेष प्रार्थना की और भस्मी तथा अस्थियों के वे टुकड़े, जिन्हें आग जला नहीं पाई थी, एकत्र किए। भस्मी को स्नेह के साथ पसों में भर-भरकर हाथ कते सूत के थैले में डाल दिया गया। भस्मी में एक गोली निकली। अस्थियों पर जमुना जल छिड़ककर उन्हें तांबे के घड़े में बंद कर दिया गया। 

रामदास ने घड़े की गरदन में सुगंधित फूलों का हार पहनाया। उसे गुलाब की पंखुड़ियों से भरी टोकरी में रखा और छाती से लगाकर बिड़ला भवन ले गए।

गांधीजी के कई घनिष्ट मित्रों ने भरमी की चुटकियाँ माँग और दे दी गई। एक ने भरमी के कुछ कण सोने की मुहरदार अंगूठी में भरवा लिए। परिजनों तथा अनुयायियों ने छहों महाद्वीपों से भस्मी के लिए आई हुई प्रार्थनाओं को अस्वीकार करना तय किया। गांधीजी की कुछ भस्मी तिब्बत, लंका और मलाया भेजी गई। परंतु अधिकांश भस्मी हिन्दू रिवाज के अनुसार, मृत्यु के ठीक चौदह दिन बाद, भारत की के नदियों में विसर्जित कर दी गई।

भस्मी, प्रदेशों के मुख्य मंत्रियों तथा अन्य उच्च पदाधिकारियों को दी गई। प्रादेशिक राजधानियों ने अपने हिस्से की भस्मी छोटे शहरी केन्द्रों में बाँट दी। भस्मी का सार्वजनिक प्रदर्शन हर जगह भारी तीर्थयात्रा बन गया और नदियों में अथवा बंबई जैसी जगह समुद्र में, भस्मी का अंतिम विसर्जन भी इसी प्रकार हुआ।

अस्थि विसर्जन का मुख्य संस्कार इलाहाबाद में गंगा, जमुना और सरस्वती के पुनीत संगम पर हुआ। 11 फरवरी को सुबह 4 बजे तीसरे दर्जे के पाँच डिब्बों की एक स्पेशल ट्रेन दिल्ली से रवाना हुई। गांधीजी हमेशा तीसरे दर्जे में यात्रा किया करते थे। ट्रेन के बीच का डिब्बा, जिसमें भस्मी और अस्थियों का घट रखा हुआ था, छत तक फूलों से भरा था और आभा, मनु, प्यारेलाल नैयर, डा० सुशीला नैयर, प्रभावती नारायण और गांधीजी के अन्य दैनिक साथी घट की निगरानी पर थे। रास्ते में ट्रेन ग्यारह नगरों पर ठहरी; हर जगह लाखों नर-नारियों ने श्रद्धा से सिर प्राथनाएँ की और गाड़ी पर फूलों के हार व गुलदस्ते चढ़ाए। झुकाए:

12 तारीख को इलाहाबाद में यह घट लकड़ी की एक छोटी-सी पालकी पर रखा गया और बाद में मोटर-ट्रक पर आसीन कराकर शहर और आसपास के गाँवों के पंद्रह लाख जन-समूह को चीरते हुए आगे ले जाया गया। सफेद वस्त्र धारण किए हुए नर-नारी ट्रक के आगे भजन गाते हुए चल रहे थे। एक गायक प्राचीन बाजा बजा रहा था। ट्रक गुलाब के चलते-फिरते बगीचे जैसा नजर आ रहा था। उत्तर-प्रदेश की राज्यपाल श्रीमती सरोजिनी नायडू, आजाद, रामदास और पटेल आदि उस पर सवार थे। मुट्ठियाँ भींचे हुए और सीने तक चेहरा झुकाए हुए नेहरू पैदल चल रहे थे।

धीरे-धीरे ट्रक नदी के किनारे पहुँचा, जहाँ उसे सफेद रंगी हुई अमरीकन फौजी डक' पर रख दिया गया। अन्य डकें और नावें नदी के बहाव की ओर उसके साथ चलीं। गांधीजी की अस्थियों के नजदीक पहुँचने के लिए लाखों आदमी घुटनों पानी में दूर तक जा पहुँचे। जब घट उलटा गया और उसमें भरी हुई भस्मी और अस्थियाँ नदी में गिरी, तब इलाहाबाद के किले से तोपों ने सलामी दी। भस्मी पानी पर फैल गई। अस्थियों के टुकड़े तेजी के साथ समुद्र की ओर बह चले।

गांधीजी की हत्या से सारे भारत में व्याकुलता तथा वेदना की लहर दौड़ गई। में ऐसा जान पड़ता था कि जो तीन गोलियाँ गांधीजी के शरीर में लगी थीं, उन्होंने करोड़ों के मर्म को बेध डाला था। इस आकस्मिक समाचार ने कि इस शांतिदूत को, जो अपने शत्रुओं से प्रेम करता था और किसी कीड़े को मारने का इरादा नहीं रखता था, उसीके एक देशवासी तथा सहधर्मी ने गोली से मार डाला, राष्ट्र को चकित स्तंभित और मर्माहत कर दिया।

आधुनिक इतिहास में किसी व्यक्ति के लिए इतना गहरा और इतना व्यापक शोक आज तक नहीं मनाया गया।

30 जनवरी 1948 को शुक्रवार जिस दिन महात्माजी की मृत्यु हुई, उस दिन वह वहीं थे, जैसे सदा से रहे थे 

अर्थात् एक साधारण नागरिक, जिसके पास न धन था, न संपत्ति, न सरकारी उपाधि, न सरकारी पद, न विशेष प्रशिक्षण योग्यता, न वैज्ञानिक सिद्धि और न कलात्मक प्रतिभा । 

फिर भी, ऐसे लोगों ने, जिनके पीछे सरकारें और सेनाएँ थीं, इस अठहत्तर वर्ष के लंगोटीधारी छोटे-से आदमी को श्रद्धांजलियाँ भेंट की।

भारत के अधिकारियों को विदेशों से संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए, जो सब बिन माँगे आए थे, क्योंकि गांधीजी एक नीतिनिष्ठ व्यक्ति थे, और जब गोलियों ने उनका प्राणांत कर दिया, तो उस सभ्यता ने जिसके पास नैतिकता की अधिक संपत्ति नहीं है, अपने आपको और भी अधिक दीन महसूस किया।

अमरीकी संयुक्त राज्यों के राज्य-सचिव जनरल जार्ज मार्शल ने कहा था- "महात्मा गांधी सारी मानव-जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे।"

पोप पायस, तिब्बत के दलाई लामा, कैंटरबरी के आर्कबिशप, लंदन के मुख्य रब्बी, इंग्लैंड के बादशाह, राष्ट्रपति ट्र मैन, च्याँगकाई शेक, फ्रांस के राष्ट्रपति और वास्तव में लगभग सभी महत्त्वपूर्ण देशों तथा अधिकतर छोटे देशों के राजनैतिक नेताओं ने गांधीजी की मृत्यु पर सार्वजनिक रूप से शोक प्रदर्शन किया।

फ्रांस के समाजवादी लियो ब्लम ने वह बात लिखी, जिसे लाखों लोग महसूस करते थे। ब्लम ने लिखा- "मैंने गांधी को कभी नहीं देखा। मैं उनकी भाषा नहीं जानता। मैंने उनके देश में कभी पाँव नहीं रखा; परंतु फिर भी मुझे ऐसा शोक महसूस हो रहा है, मानो मैंने कोई अपना और प्यारा खो दिया हो। इस असाधारण मनुष्य की मृत्यु से सारा संसार शोक में डूब गया है। "

प्रोफेसर अल्बर्ट आइन्स्टीन ने दृढ़ता से कहा-"गांधी ने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनैतिक चालबाजियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी-भरी खेल के द्वारा ही नहीं, बल्कि जीवन के नैतिकतापूर्ण श्रेष्ठतर आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुष्यों का एक बलशाली अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है।" 

संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् ने अपनी बैठक की कार्रवाई रोक दी ताकि उसके सदस्य दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें।

ब्रिटिश प्रतिनिधि फिलिप नोएल बेकर ने गांधीजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें सबसे गरीब, सबसे अलग और पथभ्रष्ट लोगों का हितचितक बतलाया। 

सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्यों ने गांधीजी के आध्यात्मिक गुणों की बहुत प्रशंसा की और शांति तथा अहिंसा के प्रति उनकी निष्ठा को सराहा।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना झंडा झुका दिया। मानवता ने अपनी ध्वजा नीची कर दी।

गांधीजी की मृत्यु पर संसार-व्यापी प्रतिक्रिया स्वयं ही एक महत्त्वपूर्ण तथ्य थी। उसने एक व्यापक मनःस्थिति और आवश्यकता को प्रकट कर दिया। न्यूयार्क के पीएम' नामक समाचार पत्र में एल्बर्ट ड्यूत्श ने वक्तव्य दिया-"जिस संसार ने पर गांधी की मृत्यु की ऐसी श्रद्धापूर्ण प्रतिक्रिया हुई, उसके लिए अभी कुछ आशा बाकी है।"

उपन्यास लेखिका पर्ल एस. बक़ ने गांधीजी की हत्या को ईसा की सूली के समान बतलाया।

जापान में मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति जनरल डगलस मैकआर्थर ने कहा- सभ्यता के विकास में यदि उसे जीवित रहना है, तो सब लोगों को गांधी का यह विश्वास अपनाना ही होगा कि विवादास्पद मुद्दों को हल करने में बल के सामूहिक प्रयोग की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर न केवल गलत है, बल्कि उस के भीतर आत्म-विनाश के बीज विद्यमान हैं।"

न्यूयार्क में 12 साल की एक लड़की कलेवे के लिए रसोईघर में गई हुई थी। रेडियो बोल रहा था और उसने गांधीजी पर गोली चलाई जाने का समाचार सुनाया। लड़की, नौकरानी और माली ने वहीं रसोईघर में सम्मिलित प्रार्थना की और आँसू बहाए। इसी तरह सब देशों में करोड़ों लोगों ने गांधीजी की मृत्यु पर ऐसा शोक मनाया, मानो उनकी व्यक्तिगत हानि हुई हो।

सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने लिखा था- "मैं किसी काल के और वास्तव में आधुनिक इतिहास के ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं जानता, जिसने भौतिक वस्तुओं पर आत्मा की शक्ति को इतने जोरदार और विश्वासपूर्ण तरीके से सिद्ध किया हो।

गांधीजी के लिए शोक करनेवाले लोगों को यही महसूस हुआ। उनकी मृत्यु की आकस्मिक कौंध ने अनंत अंधकार उत्पन्न कर दिया। 

उनके जमाने के किसी भी जीवित व्यक्ति ने महाबली प्रतिपक्षियों के विरुद्ध लंबे और कठिन संघर्ष में सच्चाई, दया, आत्मत्याग, विनय  और अहिंसा का जीवन बिताने का इतना कठोर प्रयत्न नहीं किया और वह भी इतनी सफलता के साथ 

वह अपने देश पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध और अपने ही देशवासियों की बुराइयों के विरुद्ध तीव्र गति के साथ और लगातार लड़े. परंतु लड़ाई के बीच भी उन्होंने अपने दामन को बेदाग रखा। वह बिना वैमनस्य या कपट या द्वेष के लड़े।

© लुई फ़िशर (फ्रांसीसी लेखक)

Tuesday, 23 November 2021

महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों की साख बचाये रखना बहुत ज़रूरी है / विजय शंकर सिंह

लखीमपुर खीरी जिले में, देश के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे, आशीष मिश्र मोनू के ऊपर किसानों की भीड़ पर गाड़ी चढ़ा कर मार देने का आरोप है। वह जेल में है, और इस केस की तफ्तीश पर सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय से सुनवाई चल रही है। अदालत ने यह तय किया है कि, एक एसआइटी का गठन किया जाएगा, जिसमे यूपी कैडर के वे, वरिष्ठ आईपीएस अफसर रहेंगे जो यूपी के मूल निवासी न हों और इस तफ्तीश का सुपरविजन हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज करेंगे जो न तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के होंगे और न ही यूपी के मूल निवासी होंगे। 

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश, एक न्यायिक और निष्पक्ष आदेश तो है, पर यह कुछ ऐसे सवाल भी खड़े कर रहा है जो प्रदेश के पुलिस सिस्टम की साख के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट क्या यह मान चुका है कि यूपी सरकार द्वारा गठित एसआईटी और नियुक्त जज, बिना राजनीतिक दबाव के, इस महत्वपूर्ण और हाई प्रोफाइल हत्या के मामले की जांच नहीं कर सकेंगे ? अगर सुप्रीम कोर्ट इस धारणा पर पहुंच गया है तो इसके लिये कौन दोषी है ? ज़ाहिर है पुलिस का नेतृत्व और सरकार। आज तक गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी को उनके पद से हटाया नहीं गया, जबकि उन पर धारा 120 बी, आपराधिक षड़यंत्र का मुकदमा दर्ज है। 

1980 में ही धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस कमीशन ने, एक विस्तृत रिपोर्ट में पुलिस पर बढ़ते राजनीतिक दबाव को समझा था और उसके निराकरण के लिये उपाय भी सुझाये थे। पर आज तक कमीशन की उन संस्तुतियों को सरकार ने लागू नही किया जो पुलिस को राजनीतिक शिकंजे से मुक्त कर के एक पेशेवराना रूप देती हैं। यह संदर्भ राज्य पुलिस का है। पर जब राजनीतिक दखलंदाजी की बात की जाएगी तो, हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख, एसके मिश्र का कार्यकाल बढ़ाने के लिये आनन फानन में लाये गए, सेवा विस्तार अध्यादेश की चर्चा ज़रूर होगी। 

सुप्रीम कोर्ट में, 14 नवंबर, 2021 को, सरकार द्वारा, केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश, 2021 के अंतर्गत निदेशक, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के कार्यकाल को 5 साल तक बढ़ाने वाले अध्यादेश को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई है। यह कानून के अंतर्गत, 17 नवंबर, 2021 को जारी किए गए एक कार्यालय आदेश के अनुसार, ईडी निदेशक का कार्यकाल, एक वर्ष की अवधि के लिए, यानी 18 नवंबर, 2022 तक बढ़ाने के लिए या आगे तक, जो भी पहले हो, बढ़ा दिया गया है। 

अध्यादेश के अनुसार, केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 की धारा 25 में एक क्लॉज़ जोड़कर, अब पहले के दो साल के कार्यकाल को, 5 साल की अवधि तक बढ़ाने का प्राविधान कर दिया गया है। अध्यादेश के अनुसार, 

"बशर्ते कि जिस अवधि के लिए प्रवर्तन निदेशक अपनी प्रारंभिक नियुक्ति पर पद धारण करता है, सार्वजनिक हित में, खंड (ए) के तहत समिति की सिफारिश पर और लिखित रूप में दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए, एक एक साल तक बढ़ाया जा सकता है।
परंतु यह और कि, प्रारंभिक नियुक्ति में उल्लिखित अवधि सहित कुल मिलाकर पांच वर्ष की अवधि के पूरा होने के बाद ऐसा कोई सेवा विस्तार प्रदान नहीं किया जाएगा।"

यानी जब भी नियुक्ति होगी, तब कार्यकाल, कम से कम 2 वर्ष का होगा, जो पहले भी था। पर अब इस अध्यादेश के अनुसार, एक एक साल कर के और बढ़ाया जा सकता है, पर यह अवधि अधिकतम 5 साल तक ही बढाई जा सकेगी। यानी 2 साल और 1+1+1 कुल 5 साल तक की अवधि रखी जा सकेगी।  

कॉमन काज की याचिका में कहा गया है कि इस अध्यादेश का उद्देश्य मौजूदा 'निदेशक ईडी, श्री संजय कुमार मिश्रा का कार्यकाल नवंबर, 2021 में बिना किसी और विस्तार के समाप्त होने वाला था, को आगे बढ़ाना है।' जबकि विनीत नारायण और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य,1998, 1 एससीसी 226, के केस में, सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई निदेशक के लिए कार्यकाल तय करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। याचिकाकर्ताओं ने यह भी बताया कि श्री संजय कुमार मिश्रा, निदेशक ईडी 17/11/2021 को सेवानिवृत्त होने वाले थे और उक्त सरकारी आदेश के द्वारा निदेशक ईडी के रूप में उनके कार्यकाल के लिए एक एक्सटेंशन, उन्हें प्रदान किया गया है। यह सेवा विस्तार,  याचिका के अनुसार, उनकी सेवानिवृत्ति से ठीक 3 दिन पहले ही दिया गया है, जो सुप्रीम कोर्ट के विनीत नारायण मामले में  दिए गए निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है साथ ही, यह फंडामेंटल रूल्स, 56 सहित अन्य विभिन्न वैधानिक प्रावधानों के विपरीत है, जिनके अनुसार, निदेशक, ईडी की सेवा का कोई विस्तार नहीं किया जा सकता है। केवल कुछ अपवादों को छोड़ कर, और यह अध्यादेश, किसी अपवाद का उल्लेख भी नहीं करता है। 

2006 में, प्रकाश सिंह पूर्व डीजीपी उत्तरप्रदेश, असम और डीजी बीएसएफ ने सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधारों को, जो राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशें थीं को लागू करने के लिये एक याचिका, सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। उसके निस्तारण में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि, पुलिस महानिदेशकों का कार्यकाल तय होना चाहिए यदि वे अपनी अधिवर्षता यानी 60 वर्ष की आयु पूरी करते हैं तब भी उन्हें 2 साल का कम से कम तय कार्यकाल मिलेगा। उसी के बाद  केंद्रीय पुलिस बलों में बीएसएफ सीआरपीएफ, और शीर्ष जांच एजेंसियों,  सीबीआई, एनआईए के प्रमुखों पर भी यही आदेश लागू हुआ। सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में तो सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई की भी भूमिका रहती है। याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में इसी मुक़दमे, प्रकाश सिंह और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य, का हवाला दिया है। 

याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में यह तर्क दिया कि, 'सेवानिवृत्ति की तारीख से आगे की विस्तारित अवधि निर्धारित होनी चाहिए।' यह भी याचिका में कहा गया है कि,  प्रकाश सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को सेवानिवृत्ति की अंतिम तिथि पर डीजीपी नियुक्त करने की प्रथा को हतोत्साहित किया जाना चाहिए,  क्योंकि यह, उक्त अधिकारी को, उसकी सेवानिवृत्ति की तारीख के बाद, दो साल तक जारी रखने की अनुमति देना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के विपरीत होगा। यह भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि, 'डीजीपी के पद पर नियुक्त अफसर के लिए सेवानिवृत्ति से पहले कम से कम, छह महीने की सेवा शेष रहनी चाहिए।' याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि, ईडी निदेशक की नियुक्ति, डीजीपी के समकक्ष होने के कारण, प्रकाश सिंह केस में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन न करना, शीर्ष न्यायालय के निर्देशों की घोर अवहेलना होगी।

आखिर, डीजीपी और इन संवेदनशील जांच एजेंसियों के प्रमुख के तयशुदा कार्यकाल रखने के पीछे सुप्रीम कोर्ट की मंशा क्या थी ? सुप्रीम कोर्ट की मंशा थी कि, जब एक तयशुदा कार्यकाल, इन अधिकारियों को मिलेगा तब वे, अपने दायित्वों का निर्वहन, बिना किसी बाहरी या सरकारी दबाव के कर सकेंगे। चाहे विनीत नारायण का केस हो या प्रकाश सिंह द्वारा दायर याचिका, दोनो में यही प्रार्थना की गयी थी कि, इन महत्वपूर्ण एजेंसियों और राज्य पुलिस के डीजीपी साहबान को, किसी भी प्रकार के, राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखते हुए, अपने प्रोफेशनल दायित्व के निर्वहन के लिये उचित वातावरण प्रदान किया जाय। और सुप्रीम कोर्ट ने यह किया भी। 
 
ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण होती है और उनकी नियुक्ति, सेवा शर्तों, सेवा विस्तार को लेकर कोई विवाद नहीं होना चाहिए। पर इस अध्यादेश से यह साफ जाहिर हो रहा है कि, सरकार ईडी के निदेशक को अपने दबाव में रखना चाहती है। सरकार के आधीन और सरकार के दबाव में रहने का मूल अंतर यह है कि, सरकार ईडी के आंतरिक प्रोफेशनल मामलो में सीधा दखल देना चाहती है। जबकि, ईडी को, बिना भय के, कानूनी प्राविधानों के अनुसार, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सक्षम होना चाहिए और यह तभी सम्भव है जब उसके प्रमुख की नियुक्तियों और सेवा शर्तों में, सरकार का बेजा दखल न हो।  
 
याचिकाकर्ताओं का तर्क है:
"निदेशक, ईडी जैसी महत्वपूर्ण नियुक्तियों को विभिन्न वैधानिक प्रावधानों के अनुपालन में और इस तरह से किया जाना चाहिए जो हमारी संवैधानिक मशीनरी के अनुरूप हो। वास्तव में, निदेशक ईडी की नियुक्ति भी, सीबीआई के निदेशक के समान, एक पैनल जिंसमे, प्रधान मंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश या उनके नामांकित व्यक्ति से मिलकर बनी एक समिति होनी चाहिए। प्रवर्तन निदेशालय एक शक्तिशाली जांच एजेंसी है, जिसका सीबीआई की तरह ही एक राष्ट्रव्यापी अधिकार क्षेत्र है। एनआईए और प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुखों को भी, वही सेवा सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए जो केन्द्रीय जांच ब्यूरो सीबीआई के लिए मौजूद है।"

ईडी के सेवा विस्तार के आदेश में यह अपरिहार्यता नहीं बताई गयी है कि, आखिर वर्तमान ईडी निदेशक, एसके मिश्र को, उनके रिटायरमेंट के ठीक कुछ दिन पहले ही, सेवा विस्तार की ज़रूरत क्यों पड़ी ? याचिका में कहा गया है कि, 
"यह विस्तार आदेश, विशेष रूप से संस्थागत अखंडता के क्षेत्र में दिमाग के इस्तेमाल का (ऍप्लिकेशन ऑफ माइंड) के प्रयोग का कोई उचित आधार, नहीं दिखाता है। विस्तार के ऐसे आदेशों तर्कपूर्वक प्रस्तुत किया जाना चाहिए। किस समिति की अनुशंसा पर यह सेवा विस्तार किया गया है उसके मिनट्स को भी रिकॉर्ड में रखा जाना चाहिए।"
याचिकाकर्ताओं ने आगे इस जल्दबाजी और मनमानी तरीके पर भी सवाल उठाया है जिसमें अध्यादेश पारित किया गया है क्योंकि, संसद का सत्र दो सप्ताह के भीतर होना था, तो यह कानून संसद में भी तो रखा जा सकता था। लेकिन तब वर्तमान ईडी निदेशक का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जा सकता था, क्योंकि वह तो इस आदेश के अभाव में रिटायर हो जाते। यह तो यही बात प्रमाणित करता है कि, सरकार ईडी प्रमुख के रूप में वर्तमान निदेशक एसके मिश्र को ही सेवा विस्तार देना चाहती थी। और तभी यह सवाल उठता है कि आखिर इन्ही को क्यों सरकार ईडी प्रमुख को बनाये रखना चाहती है ? 

याचिका में इसे ही इन शब्दों में कहा गया है,
 "... जिस तरीके और जल्दबाजी के साथ प्रतिवादी संख्या 4 (निदेशक, ईडी) का कार्यकाल बढ़ाया गया है, यह बताता है कि विस्तार बाहरी कारणों से किया गया है और जनहित को सर्वोपरि ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया गया है।
...यह राष्ट्रीय हित में है कि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त अधिकारियों के कार्यकाल का विस्तार पारदर्शी तरीके से और कानून के नियम के अनुसार किया जाता है और ऐसी नियुक्तियों को पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों और राजनीतिक संरक्षण से अलग किया जाता है।"

यह याचिका, चमन लाल, एमजी देवसहयम, अदिति मेहता ने दायर की है और यह सभी पूर्व नौकरशाह रहे हैं।

वर्तमान ईडी निदेशक, एसके मिश्रा को अंतरराष्ट्रीय कराधान मुद्दों से निपटने के लिए वित्त मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में कार्य करने के अलावा, आयकर विभाग की जांच विंग में महत्वपूर्ण कार्य करने का अनुभव है। पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम के अधीन वे, गृह मंत्रालय में, संयुक्त सचिव के रूप में भी वे काम कर चुके हैं। उन्हें वोडाफोन अंतरराष्ट्रीय कराधान मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूर्ववत करने के लिए वित्त मंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के दौरान पूर्वव्यापी संशोधन करने का श्रेय दिया जाता है। वे एक अच्छे और योग्य अधिकारी हैं पर जिस प्रकार से यह अध्यादेश लाया गया है और दो वर्ष के कार्यकाल के बाद टुकड़ों में एक एक साल के सेवा विस्तार का प्राविधान है, उसमे सरकार की नीयत में खोट स्पष्ट दिखता है। ईडी को राजस्व विभाग, वित्त मंत्रालय के अंतर्गत, 1956 में गठित किया गया था। इसका प्रमुख, आम तौर पर, भारत सरकार के अतिरिक्त सचिव के पद और स्थिति के समकक्ष, एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को होता है। 

जिस तरह से, राज्य पुलिस से लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, एनआईए, ईडी आदि पर राजनीतिक दखलंदाजी के आरोप लग रहे है, वह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और साख के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट बराबर इस खतरे को महसूस करते हुए अपनी बात कह रहा है, पर जिस प्रकार से राफेल मामले में जांच की मांग पूर्व मंत्री, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण द्वारा किये जाने पर, रातोरात सरकार ने तत्कालीन सीबीआई प्रमुख, आलोक वर्मा को हटा दिया था, उससे इस महत्वपूर्ण जांच एजेंसी की साख पर असर पड़ा है। सीबीआई को तो 2013 में ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केज्ड पैरेट (पिंजरे का तोता) कहा था। अब यह अध्यादेश भले ही, कितनी ही सदाशयता से लाया गया हो, पर दो साल के बाद, एक एक साल बढ़ाने का प्राविधान पारदर्शी नहीं है। या तो इसे एकमुश्त 5 साल का कर दिया जाय या फिर फिलहाल जो स्थिति है, उसे ही बरकरार रखी जाए। 

( विजय शंकर सिंह )

 

Sunday, 21 November 2021

स्थान के नाम में गंज का क्या अर्थ है, जैसे राम गंज, विश्वनाथ गंज, कीटगंज आदि ?

गंज अनेकार्थ शब्द है। यह शब्द पुरानी फ़ारसी भाषा मेदियन में व्युत्पन्न माना जाता है। इस शब्द का मुख्य प्रयोग राजकोष (खजाने) को रखने के स्थान के लिए हुआ है। इस शब्द की व्युत्पत्ति इससे भी प्राचीन होनी चाहिए, क्योंकि इसकी व्युत्पत्ति से उस काल की झलक दिखाई देती है जब गायें सबसे बड़ी सम्पदा होती थीं क्योंकि फ़ारसी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में यह गायों को रखने के स्थान के अर्थ में प्रयुक्त है। गायों को रखने के स्थान को संस्कृत भाषा में गोष्ठी भी कहते हैं। प्राचीन काल में इनके रखवाले प्रायः वहीं रह कर भोजन तथा वार्तालाप करते और अपना समय साथ बिताते, जिससे कालान्तर में गोष्ठी शब्द इस प्रकार की गतिविधियों के लिए रूढ हो गया है। संस्कृत भाषा में यह शब्द एक हजार वर्ष पुराना तो है ही। इस आधार पर हिन्दी भाषा में स्थान नामों के साथ लगने वाला गंज संस्कृत भाषा के गञ्ज से तत्सम रूप में लिया गया है।

कल्पद्रुम के अनुसार :

    गञ्जः, पुं, (गजि भावे + घञ् ।) अवज्ञा । भाण्डागारम् । खनिः । इति हेमचन्द्रः ॥ गोष्ठागारम् । इति हारावली ॥ गोयालिघर इति भाषा ॥ भाण्डागारम् । दति मेदिनी ॥

गजि = ध्वनि, शोर, गर्जना, उन्मत्त होना, नशे अथवा भ्रान्ति का भाव।

अतः इस शब्द का प्रयोग उन स्थानों के बोध के लिए होता है जो शोर वाले होते हैं। यथा बर्तन-भाण्डे रखने का कक्ष, गोष्ठी-स्थल (मूल रूप से गौशाला किन्तु समयांतर में सार्वजनिक मिलन स्थल), हाट का स्थान, पामरगृह (जहाँ दुष्कृत्य करने वाले रहते हों), मदिरालय आदि।

यह भण्डार तथा खजाने के स्थान के अर्थ में भी प्रयोग किया जाता है, यथा :

    तथा च मुष्यमाणेऽपि रात्रिष्वचलितार्गले ।

    निर्मूषके राजगञ्जे दिनानि कतिचिद्भयात् ।।

    — कथासरित्सागरः/लम्बकः ७/तरङ्गः ९ (७.९.३०)

गंज (گنج) शब्द फ़ारसी भाषा में भी है, तथा इसका अर्थ खजाने, भण्डार कक्ष अथवा अनाज रखने का स्थान है। खजांची को फ़ारसी में गंजूर (گنجور) भी कहते हैं। इस शब्द की व्युत्पत्ति पुरानी मेदियन भाषा से मानी जाती है तथा उससे यह शब्द संस्कृत भाषा में आया यह मानते हैं। पुरानी मेदियन भाषा से यह शब्द पार्थियन के 𐫃𐫗𐫉 (गंज़) तथा 𐫃𐫉𐫗 (गज़्न) के रूप में बदल गया। खजाने के अर्थ में प्रयुक्त इस शब्द का प्रसार अनेक भाषाओं में हुआ है। यथा :

    आर्मेनियन : գանձ — गंज
    जॉर्जियाई : განძი — गंजी
    हिब्रू : גְּנָזִים — गंजिम
    मानिकाएन : 𐫃𐫗𐫉 — गंज
    कूर्दी : گەنج — खेंच
    ताजिक : ганҷ — गंज
    ग्रीक : γάζα — गाजा
    लैटिन : gaza — गाज़ा
    अक्कादी : 𒋡𒀭𒍝 — कांज
    आरामी : 𐡂𐡍𐡆𐡀 — गंजा
    सीरियाक : ܓܙܐ — गज्जा, ܓܢܙܐ गंजाम
    अरबी : كَنْز — कंज़
    पुर्तगाली, स्पेनिश : alcanzia — अल्कंज़िआ
    हंगारियन : kincs — किंज़

इससे यह प्रतीत होता है कि यह शब्द पहले मेद (अथवा माद) साम्राज्य के प्रसार के साथ तथा उसके उपरान्त प्राचीन व्यापारिक मार्ग के साथ मध्य एशिया से भारत तथा पश्चिमी एशिया में प्रसारित हुआ है। कथासरित्सागर ११वीं शताब्दी में लिखा गया है तथा इससे पूर्व यह शब्द संस्कृत विहङ्गम में नहीं मिलता है। कथासरित्सागर को पैशाची भाषा में गुणाढ्य द्वारा रचित बृहत्कथा से प्रेरित माना जाता है।

मेद साम्राज्य (ईसा-पूर्व आठवीं से छठी शताब्दी) का विस्तार प्राचीन भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों से मध्य तुर्की तक था। इसके उपरान्त आखमेनी साम्राज्य ने ईरानी नियन्त्रण को सम्पूर्ण मिश्र तथा यूनान के सीमान्त तक पहुँचाया। पैशाची प्राकृत भारत के इसी सीमान्त की भाषा थी। गज़नी नाम का स्थान इसी गंज के वर्णव्यत्यय (metathesis) से बनने के प्रमाण मेदियन भाषा में मिलते हैं।

आभार सहित-
https://qr.ae/pGx8M3

( विजय शंकर सिंह )

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (19)


               (चित्र: गोरकी मैंसन)

“जब मैंने मृत्यु का आदेश सुनाया, ज़ार ने पूछा- क्या? 

मैंने उन्हें पुन: आदेश पढ़ कर सुनाया। बार-बार सुनाया कि उन्हें मारे जाने का आदेश है। वह अपने परिवार की ओर मुड़े, और कुछ बुदबुदाने लगे। हमने अपने-अपने पूर्व-निर्देशित लक्ष्य को गोली मारनी शुरू कर दी। निर्देश यह था कि गोली सीधे हृदय पर मारी जाए, किंतु उनके हिलने-डुलने की वजह से निशाने ग़लत लग रहे थे। 

निकोलस को मैंने स्वयं सामने से गोली मारी, और वह तुरंत ढेर हो गए। अलेक्सांद्रा भी अपने हाथ में क्रॉस लेकर माथे से लगा ही रही थी, और मारी गयी। बच्चे चिल्लाते हुए इतने हिल रहे थे कि गार्ड उन्हें मार नहीं पा रहे थे। वे कहीं भी निशाना लगा रहे थे, और गोलियाँ दीवाल से टकरा कर उन्हें लग रही थी। अलेक्सी खून से लथ-पथ जमीन पर पड़ा था, लेकिन मरा नहीं था। मैंने उसके सर में दो गोली मार कर निपटा दिया। 

हमें बाद में मालूम हुआ कि राजकुमारियों के अंत:-वस्त्र में छुपाए हीरे और गहने बुलेट-प्रूफ़ का काम कर रहे थे। जो काम सेकंडों में हो सकता था, उसमें बीस मिनट लग गए। अंत में बंदूक की संगीन (bayonet) उनकी छाती में भोंकनी पड़ी, मगर वह भी इन हीरों की वजह से कठिन हो रहा था।”

- युकोव्सकी का संस्मरण 

वहाँ मौजूद मेदेवदेव के अनुसार जब गार्ड राजकुमारियों के शरीर से गहने लूटने लगे तो युकोव्सकी चिल्लाए, 

“तुम्हें लाशों को लूटते हुए शर्म नहीं आती? अगर किसी ने गहने चुराए तो उसे मैं खुद ही गोली मार दूँगा। 

हालाँकि युकोव्स्की ने ज़ार के जेब में मिली हीरे से जड़ी सिगरेट की डब्बी अपनी जेब में रख ली। लगभग आठ किलो हीरे तो सिर्फ़ जेबों और कमर से निकले। बाद में जब उन्हें जलाने के लिए नंगा किया गया तो राजकुमारियों के हर अंत:-वस्त्र में थैलियाँ सिल कर गहने रखे मिले।

ज़ार परिवार की लाशों को लपेट कर एक फिएट ट्रक में ले जाया गया। उन्हें एक निश्चित स्थान पर जला दिया गया, और लाशों को यूराल की खाली पड़ी खदानों में नीचे उतारने का प्रयास किया गया। बाद में मॉस्को की ओर एक स्थान पर ज़ार परिवार की अस्थियों को दफ़न कर दिया गया।

रोमानोव वंश के अंत के साथ ही ज़ारशाही के लौटने के सभी कयास खत्म हो गए। लेकिन, रूस का भविष्य तो अभी लिखा जाना बाकी था। 

अगले महीने 30 अगस्त 1918 की सुबह दस बजे लेनिन की सीक्रेट सर्विस चीफ़ उरित्सकी की हत्या कर दी गयी। लेनिन को उनकी बहन मारिया ने समझाया, “आज आप कहीं बाहर न निकलें। क्रेमलिन में ही रहें”

लेनिन ने कहा, “मुझे शाम को एक फ़ैक्ट्री में भाषण देने जाना है”

शाम पाँच बजे वहाँ पहुँच कर उन्होंने मजदूरों को कहा, 

“क्रांति इसलिए नहीं हुई थी कि ज़ारशाही खत्म हो। यह इसलिए हुई कि पूँजीपतियों का राज खत्म हो। ये तमाम बुर्जुआ जो उद्योग चलाते हैं, वह आपके श्रम से बड़ा मुनाफ़ा कमा कर आपके हाथ में आखिर क्या देते हैं? क्रांति तो अमरीका में भी हुई लेकिन वहाँ पूँजीवाद अपने सबसे विकृत रूप में है। वहाँ उद्योगपति राजा हैं, और मजदूर कीड़े-मकोड़े। हम आपके हाथों में शक्ति देना चाहते हैं। हमारे सामने दो ही विकल्प है। हम या तो जीतेंगे, या मरेंगे।”

इस भाषण के बाद लेनिन अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़े और कुछ मजदूरों से बात करने लगे। तभी तीन गोलियाँ चली, और लेनिन खून से लथपथ जमीन पर गिर पड़े। 

वहाँ मौजूद एक मजदूर चिल्लाए, “लेनिन! यह क्या हो गया? किसने गोली चलाई? इन्हें अस्पताल ले चलो”

लेनिन ने कहा, “अस्पताल नहीं। घर। मेरे घर ले चलो”

गोली चलाने वाली महिला फैनी कैप्लन एक समाजवादी क्रांतिकारी थी, जो 1906 में एक ज़ारशाह अधिकारी को गोली मारने के अपराध में दस वर्ष साइबेरिया में सजा काट चुकी थी। वह इस यातना में दृष्टिबाधित हो चुकी थी, लेकिन निशाना अब भी पक्का था। 

लेनिन के शरीर से गोलियाँ निकाली गयी, और वह कुछ समय के लिए मॉस्को से बीस किलोमीटर दूर गोरकी नामक स्थान पर प्रकृति के मध्य आराम करने चले गए। अपने प्रिय पेड़-पौधों के बीच। 

यह विशाल महल कभी एक जमींदार की संपत्ति थी, जो अब सरकारी संपत्ति में तब्दील कर दी गयी थी। इस महल में जब घायल लेनिन पहुँचे तो उनके प्रिय खानसामे ने सूप और ताज़ा मछली के साथ स्वागत किया। 

लेनिन ने मुस्कुरा कर कहा, “स्पिरिदोन! यह गोलियाँ नहीं, तुम्हारे हाथों का जादू मुझे यहाँ खींच लाता है। यही मुझे मरने नहीं देता। तुम्हारा यह कर्ज है मुझ पर।”

उसी मैंसन में लेनिन ने 1924 में अंतिम साँसें ली। वह कर्ज लेनिन ने कभी चुकाया हो या नहीं, एक सदी के बाद स्पिरिदोन पूतिन के पौत्र ( ब्लादिमीर पुतिन ) अवश्य रूस की गद्दी पर बैठे, और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कायम हैं।
(शृंखला समाप्त)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/18_21.html
#vss 

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (18)

              (चित्र: मारिया स्पिरिदिनोवा)

रेड आर्मी (लाल सेना) की शुरुआत देर से हुई, मगर दुरुस्त हुई, और अपने खूंखार रूप में हुई। जैसा मैंने लिखा है कि बोल्शेविक बुरी तरह घिर चुके थे। लेनिन को मारने की सुपारी दी गयी थी, और राजकुमार दिमित्रि ने घोषणा भी कर दी कि उन्होंने यह सुपारी दी है। लेनिन बाल-बाल बच गए। 

समाजवादी क्रांतिकारी (सोशलिस्ट रिवॉल्यूशनरी) समूह राजनैतिक हत्याओं के पुराने उस्ताद रहे थे। उन्होंने तो ज़ार की ही सर-ए-आम हत्या कर दी थी, तो लेनिन क्या चीज थे। इनका नेतृत्व मारिया स्पिरिदिनोवा नामक महिला कर रही थी, जो 1906 में ही ज़ार के अंगरक्षक को गोली से उड़ा चुकी थी। लेनिन से पहले, रूसी क्रांतिकारियों में उनका नाम गर्व से लिया जाता था। यह और बात है कि लेनिन-विरोधी होने के कारण उनको रूसी इतिहास से ही लगभग गायब कर दिया गया। 

20 जून 2018 को लेनिन के ख़ास प्रोपोगैंडा मुखिया वोल्दार्स्की को गोली मार दी गयी। जुलाई में जर्मन राजदूत को। उसी महीने मारिया के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रूस के केंद्रीय पोस्ट ऑफिस पर कब्जा कर लिया। तमाम बोल्शेविकों को पकड़ कर बंदी बना लिया, जिनमें कद्दावर नेता ज़ेरजिंस्की भी थे। 

लेनिन ने अपने जनरल वात्सेतिस को पूछा, “हम सुबह तक बच पाएँगे?”

उस समय त्रौत्सकी अपने खूँखार रूप में आए। उन्होंने मार्च के महीने से ही एक ‘लाल सेना’ बनानी शुरू कर दी थी। इस सेना का अनुशासन कठिन था, और थोड़ी भी ढील-ढाल पर सीधे गोली मार दी जाती। ज़ार निकोलस के काबिल फ़ौजियों के परिवार को बंदी बना कर उन्होंने उन्हें अपनी सेना में शामिल किया। उनका एक ही मंत्र था- ‘जो भी बोल्शेविक का विरोध करे, उसे पकड़ कर बंद करो या गोली से उड़ा दो’। इसके लिए उन्होंने पहली बोल्शेविक सीक्रेट सर्विस बनायी, जिसका नाम रखा- चेका! 

रातों-रात उन्होंने 600 विरोधियों को जेल में बंद किया और 200 को गोली से उड़ा दिया। इसमें उनके अपने मित्र कामरेड मिखाइल मुरायोव भी शामिल थे, जो लेनिन-विरोधी बन गए थे। उन्हें गोली मार दी गयी। स्पिरिदिनोवा को पकड़ने के लिए उन्होंने सात सौ लातवियाई फौजियों को भेजा, जो उन्हें पोस्ट ऑफिस से घसीटते हुए ले आए। रूस की उस महान महिला क्रांतिकारी को पागलखाने भेज दिया गया (दशकों बाद स्तालिन ने उन्हें गोली से उड़वा दिया)। 

त्रोत्स्की और लेनिन की अगली नज़र अब ज़ार निकोलस पर थी। उन्हें पहले ही साइबेरिया से उठा कर बोल्शेविक गढ़ इकातेरिनबर्ग ले आया गया था।

16 जुलाई को लेनिन और अन्य बोल्शेविक नेता बैठ कर योजना बना रहे थे। 

कामरेड स्वेदलोव ने कहा, “ज़ार निकोलस को भगाने के प्रयास चल रहे हैं। पहले भी हमारा एक गार्ड राजकुमारी के प्रेम में फँस चुका है। वाइट आर्मी के लोग तो उस घर तक पहुँच चुके थे, हमने बहुत मुश्किल से काबू पाया। हमने निर्णय लिया है कि ज़ार को गोली मार दी जाएगी, बाकी परिवार को अलग कर सुरक्षित रखा गया है।”

लेनिन ने कहा, “किसी को कोई आपत्ति?”

एक कामरेड ने कहा, “क्या वाकई परिवार को अलग किया गया है?”

लेनिन ने बात बदलते हुए कहा, “देश की स्वास्थ्य समस्याओं पर थोड़ी चर्चा करते हैं”

ज़ार की देख-भाल का जिम्मा लिए युरोव्सकी एक यहूदी थे, जिन्होंने अपना जीवन गरीबी में गुजारा था। यहूदी होने के कारण ज़ार के समय उनके परिवार के साथ बहुत अन्याय हुआ। वह ज़ार के खून के प्यासे हो गए थे, और सिर्फ़ लेनिन के आदेश का इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने पूरे इलाके की रेकी कर रखी थी, कि कहाँ ज़ार परिवार को मारा जाएगा, और उनकी लाशों को ठिकाने लगाया जाएगा। 

16 जुलाई को वह रसोईघर में पहुँचे तो राजकुमार अलेक्सी एक नौकर लियोनिद के साथ खेल रहे थे। ज़ार परिवार वहीं भोजन करने बैठा था। 

युरोव्सकी ने कहा, “लियोनिद को उसके चाचा इवान ने बुलाया है। आज से वह यहाँ नहीं रहेगा।”

लियोनिद अलेक्सी के बाल-सखा बन गए थे, तो उन्हें निराशा हुई। बाद में उन्हें अधिक निराशा हुई, जब उन्हें पता लगा कि चचा इवान ने उन्हें बुलाया ही नहीं था। उनकी तो पहले ही हत्या कर दी जा चुकी थी। 

डेढ़ बजे रात उन्होंने ज़ार के पारिवारिक चिकित्सक डॉ. बोत्किन को कहा, “बाहर गोलियों की आवाजें आ रही है। ज़ार परिवार पर खतरा हो सकता है। उन्हें नींद से जगा दें, बेसमेंट में ले जाएँ। वहाँ अधिक सुरक्षित रहेंगे।”

ज़ार राजकुमारियाँ इस तरह के स्थान-परिवर्तन के समय अपने अंत:-वस्त्रों में तमाम गहने छुपा कर रख लेती थी। उनकी योजना थी कि भागते समय यह धन काम आएगा। दो बजे रात को वे सभी बेसमेंट पहुँचे।

ज़ारीना अलेक्सांद्रा ने कहा, “यह तो बहुत छोटा कमरा है। कुर्सियाँ भी नहीं है।”

युरोव्सकी ने एक गार्ड को डाँट कर कहा, “तुम्हें तमीज नहीं है? महारानी को कुर्सी दो। दो लाना। एक युवराज के लिए भी”

जब वे दोनों कुर्सी पर बैठ गए, युकोवस्की ने एक काग़ज़ निकाला और ज़ार निकोलस की ओर देखते हुए पढ़ा, “चूँकि ज़ार परिवार के कुछ हितैषी सोवियत के ख़िलाफ़ षडयंत्र रच रहे हैं, यूराल के परिषद ने यह निर्णय लिया है कि ज़ार परिवार को गोली मार दी जाए”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (17)
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Saturday, 20 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (17)

      (चित्र: किसानों की लेनिन-विरोधी सेना)

लेनिन एक अल्पमत नेता थे। जिस समय बोल्शेविक क्रांति हुई, उस समय भी लेनिन को पहचानने वाले सीमित थे। उनकी यह अक्तूबर क्रांति एक जन-क्रांति रूप में तो हुई ही नहीं। ऐसा तो नहीं हुआ कि गाँव-गाँव से किसान लेनिन का साथ देने आ गए। तो फिर यह सर्वहारा क्रांति कैसे कही जा सकती है? 1907 से 1917 के मध्य सिर्फ़ चार महीने ही लेनिन रूस में रहे, और सीधे गद्दी पर बैठ गए, तो बाकी जमीनी नेता क्यों न भड़कें? 

लेनिन चुनाव की माँग करते, जनता के बीच जाते, और चुन कर आते? अथवा जनता का बहुमत स्वर किसी अन्य माध्यम से दिखाते? ज़ार के और लेनिन के प्राथमिक चयन-प्रक्रिया में क्या अंतर रहा? सिर्फ़ यह कि लेनिन जन्मगत नहीं चुने गए? बोल्शेविकों द्वारा चुने गए, जिन्हें उन्होंने ही स्थापित किया था! 

ज़ाहिर है जितनी बातें मुझे नज़र आ रही है, उससे कहीं ज्यादा रूस की जनता को साक्षात दिखी। वे लेनिन को जर्मनों का पिट्ठू कहने लगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वाकई लेनिन जर्मनों द्वारा समर्थित और कुछ मायनों में स्थापित किए गए थे। उन्होंने इसे खूब निभाया भी। सत्ता पाते ही लेनिन ने जर्मनी से समझौता करने और युद्ध रोकने के आदेश दे दिए। त्रोत्सकी को समझौते के लिए पोलैंड (जिसे जर्मनी ने युद्ध में छीन लिया था) भेजा गया। 

वहाँ कुछ बात बिगड़ गयी। जर्मनों ने लेनिन पर इतना खर्च किया था तो वह शेयर भी बड़ा माँग रहे थे। त्रोत्सकी ने कह दिया, “इतनी माँगे तो नहीं मानी जा सकती। हम अभी-अभी सरकार में आए हैं। मैं बस यह कह सकता हूँ कि हम युद्ध नहीं करेंगे, लेकिन हम अपनी रक्षा अवश्य करेंगे।”

कैसर भड़क कए कि लेनिन ने ‘डील’ तोड़ दी। उन्होंने रूस पर आक्रमण कर दिया और पूरे पश्चिमी रूस (यूक्रेन, बेलारूस और बाल्टिक प्रांतों) पर कब्जा कर लिया। अब जर्मन सेना पेत्रोग्राद पर कभी भी धावा बोल सकती थी। लेनिन को राजधानी भगा कर मॉस्को ले जानी पड़ी, जो अब तक है।

समस्या यह थी कि लेनिन की कोई वफ़ादार सेना थी ही नहीं। सेना तो फरवरी तक ज़ार की थी। ज़ार के हटते ही उनके वफ़ादार और कुशल कमांडर जेल में बंद किए गए या भाग गए। उसके बाद तो चलताऊ सरकार और व्यवस्था आयी, जिसमें सेना ने अपनी मर्जी चलायी। बोल्शेविकों द्वारा भड़काने के बाद कई फौजी किसान सीमा छोड़ कर गाँव में जमीन हड़पने आ गए। उन बंदूक़धारियों ने ही ज़मींदारों को भगाने में बड़ी भूमिका निभायी। मगर अब वे सेना में रहे ही नहीं, वे तो अपने गाँव में खुश थे।

इस कारण जर्मनी ने बड़े आराम से रूस को अब तक की सबसे बड़ी शिकस्त दी। बाकियों को भी लगा कि यह लेनिन तो फुस्स निकला। दोन नदी के किनारे बसे लड़ाके कोसैक फिर से संगठित हुए, और जापानी समुराई की भाँति अपने ज़ार को मुक्त करने के मिशन पर निकल गए। इसी तरह पुराने फौजियों और परंपरावादी किसानों ने मिल कर एक ‘वाइट आर्मी’ तैयार की। यूक्रैन के राष्ट्रवादियों ने जर्मनों और लेनिन के ख़िलाफ़ अपनी अलग क्रांति-सेना बना ली। सबसे बड़ा खतरा एक अकल्पनीय स्थान से आया। साइबेरिया से!

ज़ार निकोलस ने एक चेकोस्लोवाकिया कोर सेना बनायी थी, जो मुख्यत: स्लाव नस्ल के विजय के लिए बनायी गयी थी। इसके विषय में पन्ने पलटते हुए मुझे रणवीर सेना जैसों की याद आ गयी। ये जर्मनों से नस्लीय नफ़रत करते थे, और इस कारण समझौते के बाद से ही नाराज़ थे। उन्हें इंग्लैंड, अमरीका और जापान से सहयोग मिल रहा था। मई-जून 1918 के दौरान साइबेरिया रेल पर उन्होंने कब्जा कर लिया। बोल्शेविक विरोधी गुट के एक व्यक्ति ने मॉस्को में जर्मनी के राजदूत की हत्या कर दी। ये तमाम सेनाएँ अब मॉस्को की ओर बढ़ रही थी। 

लेनिन की सबसे बड़ी चिंता तो यह थी कि ये लोग साइबेरिया से ज़ार निकोलस को छुड़ा तो नहीं लेंगे?
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (16)
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Friday, 19 November 2021

डॉ अवधेश दीक्षित - कनाडा की अन्नपूर्णा : उत्तरकथा

यह प्रतिमा नकली थी जिसे शोभायात्रा निकाल कर दिल्ली से बनारस तक काशी से चोरी गयी अन्नपूर्णा के रूप में लाया गया।  
(चित्र देखें)

श्रद्धालुओं ने नकली प्रतिमा का दर्शन किया ।
रास्ते भर आस्थावान लोग दूर - दूर से दर्शनार्थ आए; पूजन और आरती भी की ।

धर्मपरायण  लोगों के लिए यह बात किसी झटके से कम नहीं । लाख प्रमाण दिखाने पर भी सहसा कोई मानने को तैयार नहीं कि उन्होंने लंबी दूरी तय करके जिस उत्कंठा व श्रद्धा के साथ मां अन्नपूर्णा की अगवानी की वह असल मूर्ति नहीं बल्कि रिप्लिका (अनुकृति/नकली मूर्ति) थी ।
 
बस यही आह! निकलती रही - " कम से कम बता तो दिया होता "।  

इस छलावे का कारण  बिल्कुल साफ था, 
संग्रहालय से वापस आई  असल प्रतिमा तो मात्र १० अंगुल (17.3 cm ) की है।  

इतनी बड़ी बात लगातार छुपाई गई। 
मीडिया में भी नहीं आ पाई (खैर.. अब तो मीडिया में कुछ भी आना सच कम प्रचार ज्यादा लगता है) । 
सूचना क्रांति के इस नए दौर में भेड़चाल भी खूब है। खासकर जब मामला धर्म से जुड़ा हो तब किसी प्रकार का तर्क करना खुद को विधर्मी घोषित किए जाने के खतरे को सिर पर लेने से कम नहीं ...

संग्रहालय की असली तस्वीर
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कनाडा के संग्रहालय से लौट कर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, दिल्ली को सौंपी गई अन्नपूर्णा की प्रतिमा तो मात्र 17.3 सेंटीमीटर अर्थात लगभग 10 अंगुल की है।
(चित्र संख्या 2 को जूम करके देख सकते हैं।) 

एक शो-केस में  रेजिना विश्वविद्यालय, कनाडा के प्रशासकों की तरफ से भारत को सौंपने के प्रक्रिया की यह एक शुरुआती तस्वीर है। 

विश्वनाथ कारीडोर में  काशी के आधुनिक विद्वत परिषद द्वारा संग्रहालय की इस प्रतिमा को प्राण प्रतिष्ठित किए जाने के दौरान मुख्यमंत्री योगी जी की एक तस्वीर सामने आई जिसमें वो  एक छोटी सी डलिया में फूल और माला लेकर पूजन की ओर बढ़ रहे थे।  

उसी फूल और माला के बीच असली प्रतिमा का दर्शन लोगों को पहली बार हुआ। 

थोड़ी फुसफुसाहट हुई.. जो समझ पाया वो समझ पाया, बाकी तो काम पूरा हो चुका था..

काशी से प्रतिमा चोरी की असल कहानी
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कथित रूप से चोरी की प्रतिमा के साथ 108 वर्ष का पवित्र भावनात्मक संबंध निकालना भी कम मजेदार नहीं। 

असल में अन्नपूर्णा की यह 17.3 इंच की वापस आई प्रतिमा रेजिना विश्वविद्यालय, कनाडा के मैकेंजी संग्रहालय में रखी हुई थी। 
नॉर्मन मैकेंजी नाम के व्यक्ति कलात्मक वस्तुओं के संग्रहकर्ता थे। 

उन्होंने देश-विदेश से तमाम प्रकार की चीजें अपने निजी संग्रहालय में संग्रहित की।

बाद के दिनों में अपने कला संग्रह को उन्होंने रेजिना विश्वविद्यालय में दान दे दिया, जिन्हें 1936 में पंजीकृत किया गया तथा उन्हीं के नाम पर विश्वविद्यालय में मैकेंजी आर्ट गैलरी स्थापित की गई। 

मैकेंजी कला दीर्घा को बाद में और विस्तार मिला तथा यह कला दीर्घा क्रमशः कनाडा के इतिहास व संस्कृति पर केंद्रित होती गई। 

नॉर्मन मैकेंजी घूमते- फिरते सन 1913 में वाराणसी भी आए थे। 

प्रतिमा चोरी के 108 वर्ष की गणना को मैकेंजी के बनारस आने की तिथि से जोड़ा जा रहा है।

इस फार्मूले के अनुसार इसका सीधा मतलब यह निकलेगा कि या तो  मैकेंजी ने प्रतिमा को चुराई या उनके कहने से प्रतिमा चुराई गई; जिसे लेकर वह वापस कनाडा गए। 

काशी में एक विदेशी व्यक्ति आकर किसी मंदिर की महत्वपूर्ण प्रतिमा को चुरा ले जाए अथवा उसके कहने से मंदिर की प्रतिमा गायब कर दी जाए,  यह न तो तब संभव था न  आज और न ही ऐसा कुछ इतिहास में दर्ज है। 

एक बात ध्यान देने योग्य है कि 
प्रचंड शोधार्थियों की इस पावन गिनती - '108 वर्ष' के ठीक 22 वर्ष पहले सन 1891 में काशी के नागरिकों द्वारा भदैनी स्थित राम मंदिर की प्रतिमा को पंप स्टेशन के नवनिर्माण के कारण क्षतिग्रस्त होने के अंदेशे  मात्र से बहुत बड़ा बवाल काटा गया था, 

पूरे शहर की व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी और अंग्रेजी शासन के हाथ-पैर फूल गए थे। 

काशी के इतिहास में इस घटना को 'रामहल्ला' के नाम से जाना जाता है। 

थोड़ा और पीछे टहलना चाहें तो आप देखेंगे कि अंग्रेजों के शासन काल में काशी तब से ही संवेदनशील हो गई थी जब 1781 में वारेन हेस्टिंग्स किसी तरह जान बचाकर यहां से भागा था। 

वारेन हेस्टिंग्स की घटना के बाद से 'बनारस अफेयर्स'  को लेकर अंग्रेजों ने तमाम  फाइलें खोल दीं तथा यहां की दैनंदिन हलचलों को दस्तावेजों में दर्ज किया जाने लगा। इन्हें आप गजेटियर, ग्रंथों और अभिलेखागारों में देख और पढ़ सकते हैं। 

ऐसे में बनारस के किसी मंदिर से प्राण प्रतिष्ठित महत्वपूर्ण प्रतिमा गायब हो जाए और हल्ला न उठे, वह इतिहास में दर्ज न हो; यह असंभव  और मात्र कोरी कल्पना है। 

मैकेंजी के बनारस आगमन की तिथि को प्रतिमा की चोरी से जोड़ना सीधे-सीधे मैकेंजी को चोर बताना है। इसकी सफाई  कनाडा वाले देते रहें, तथाकथित 'शोधार्थियों ' ने तो अपना काम पूरा किया।... 

असल बात यह कि  पुरामहत्व की वस्तुओं के प्राप्ति का स्रोत स्थानीय स्तर पर पूर्णतया स्पष्ट होता है, लेकिन बाहर से येन- केन- प्रकारेण संकलित की गई चीजें अज्ञात की श्रेणी में ही आती हैं। 
लेकिन  किसी वस्तु की प्राप्ति का स्रोत अज्ञात होना हमेशा चोरी होना नहीं कहा जा सकता।

अव्वल  यह कि काशी के प्राचीन मंदिरों ,देवविग्रहों तथा तीर्थ स्थलों को बताने वाली किसी भी पौराणिक, धार्मिक अथवा ऐतिहासिक ग्रंथों में अन्नपूर्णा देवी के निर्धारित मंदिर के अतिरिक्त घाट किनारे अन्य स्थल पर अन्नपूर्णा के विग्रह अथवा मंदिर का होना उल्लिखित नहीं है और न ही भौतिक रूप से ऐसी कोई उपस्थिति रही है। 

मैकेंजी जब बनारस आए होंगे तो बनारस घूमते वक्त पत्थर से मूर्ति बनाने के कलाकारों अथवा ' महादेव की दुकानों ' से इन्हें जरूर ऐसी प्रतिमा प्राप्त होने की गुंजाइश बनी होगी। 

इन्हें हस्तगत करने की उत्कंठा में निर्धारित मूल्य से कुछ ज्यादा कीमत पर उसे पा लेना मैकेंजी के लिए जहां सुखद रहा होगा वही मूर्तिकार को ज्यादा दाम में एक फिरंगी को 10 अंगुल की प्रतिमा बेच देने में बनारसी ठगी विद्या की सिद्धि का संतोष भी मिला होगा।

कहानी जो भी बना लीजिए लेकिन 
सच यही है कि इतनी छोटी प्रतिमा काशी के किसी मंदिर में पूजित नहीं थी और न हीं अन्नपूर्णा की किसी प्रतिमा के चोरी होने का प्रमाण उपस्थित है। 

बहरहाल! 
यह बात सच है की प्रतिमा चुनार के बलुआ पत्थर की बनी है, इसकी लंबाई मात्र 17.3 सेंटीमीटर है तथा यह लगभग 19वीं शताब्दी की बनी हो सकती है। 

यह हर तरफ से एक सामान्य प्रतिमा दिखती है, जो कि थोड़ी क्षतिग्रस्त भी हो चुकी है। 

ऐसी छोटी-छोटी मूर्तियां अक्सर मंदिरों  के बाहर की दीवारों पर लगे 'स्टोन पैनल' में फिक्स किए जाते रहे हैं ।काशी के पंचकोशी मंदिर व सुमेरु मंदिर इत्यादि इसके कई उदाहरण हैं ।

संग्रहालय से देवालय पहुंचने के खतरे
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काशी के बहुत से धर्मनिष्ठ लोग खंडित प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा को अवैध मान कर शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दे चुके हैं।

संयोगवश आज का दौर चुनौती स्वीकार करने वालों का नहीं रहा।... हां ! वर्तमान सत्ता सनातन धर्म की स्वयंभू ठेकेदार है, ऊपर से ब्रह्मांड के सबसे बड़े विद्वानों की टोली - ' काशी विद्वत परिषद ' सत्ता के पादारविंदों में विराजमान है, नवोदित संत समिति कदमताल कर रही है । 

जहां इतने तंत्रों की शक्तियां एकजुट हों वहां बिना मंत्रों के भी प्राण प्रतिष्ठा की जा सकती है। इसलिए मुझे इस प्राण प्रतिष्ठा में शास्त्रार्थ की भी कोई गुंजाइश नहीं दिखती। 

सर्वाधिक आपत्तिजनक कोई बात है तो वह है - 'राजहठ'' । 

ऊपर का आदेश है कि - बाबा को सांस लेने में तकलीफ हो रही है , मैदान बना दो! 
अतः पूरा विश्वनाथ दरबार उजाड़ कर मैदान तैयार हो गया। सैकड़ों देवालयों के विग्रह उद्ध्वस्त करके ' कारीडोर के अज्ञात अंध संग्रहालय ' में बंद कर दिए गए हैं और कनाडा के संग्रहालय की अज्ञात अन्नपूर्णा कारीडोर के देवालय में विराजमान हो चुकी हैं।

यूनेस्को कन्वेंशन 1970
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सच यह है कि कनाडा ने  अन्नपूर्णा की अज्ञात मूर्ति को विश्वनाथ कॉरिडोर में स्थापित करने के लिए नहीं लौटाया था और न हीं भारत को वापस हुई  पुरासंपदा की यह पहली घटना है । 

असल सच्चाई यह है की 
यूनेस्को के सन 1970 के कन्वेंशन में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुआ ; 
जिसके अंतर्गत सांस्कृतिक संपत्तियों व पुरा महत्व की वस्तुओं के अवैध आयात,निर्यात  को रोकने व हस्तांतरण पर जोर दिया गया  तथा जिनके पास इनकी प्राप्ति के समुचित दस्तावेज नहीं हैं, उनकी ओर से उस मूल देश को वापस करने की शिष्टाचारपूर्ण नैतिक नियम पालित करने का आग्रह रखा गया ; 
ताकि सभी राष्ट्र अपने इतिहास व धरोहर को यथारूप संरक्षित रख सकें। 
यह 'यूनेस्को कन्वेंशन 1970' के नाम से प्रसिद्ध है।

इसी क्रम में कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने सन 2015 में नरेंद्र मोदी को 'पैरेट लेडी' नाम की एक प्रतिमा गिफ्ट की थी, जो एक नृत्यांगना के उपर बैठे तोते से सम्बन्धित खजुराहो की प्रतिमा थी तथा तब उन्होंने 1970 के यूनेस्को कन्वेंशन के अनुपालन में और भी सामग्री होने तथा इसे हस्तांतरित करने की बात रखी थी। कनाडा द्वारा वापस की गई पैरेट लेडी नाम की इस प्रतिमा को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संग्रहालय में रखा गया है । 

हां! यह बात सच है कि, कनाडाई प्रधानमंत्री ने सदाशयता के साथ इस नियम के आलोक में पर्याप्त शिष्टाचार दिखाया तथा नरेंद्र मोदी जी की अगुवाई में ऐसी धरोहरों को वापस लाने की अच्छी पहल की गई। 

लेकिन इतिहास भावनाओं के अतिरेक का नाम नहीं है। धर्म और संस्कृति के विकास व इतिहास को संकलित और संरक्षित करने के लिए तर्क और अन्वेषण की तटस्थता आवश्यक है। 

यह पहला अवसर है जब भारतीय पुरातत्व विभाग को मिली वस्तु देवालय में भेज दी गई। जिस साधारण प्रतिमा की प्राप्ति अज्ञात थी उसे असाधारण रूप से विश्वनाथ दरबार में प्राण प्रतिष्ठित कर दिया गया,  जबकि अभी तक निर्माणाधीन कारीडोर के अंदर विध्वस्त दर्जनों काशी खंडोक्त देव विग्रह यथास्थान नहीं स्थापित किए जा सके हैं, प्रशासन झूठे आश्वासन पर इन्हें लटकाए हुए है । 

अंतिम बात यह कि संग्रहालय की वस्तुओं को देवालय में प्रातिष्ठित करना  वोट बैंक के लिए कदाचित फायदेमंद साबित हो सकता है लेकिन यह घटना नजीर बन गई तो भारतवर्ष में भारतीय इतिहास, पुरातत्व और सर्वेक्षण की 'ऐसी की तैसी' जरूर हो जाएगी। 

सत्ता के लोभ का यह रास्ता अगर खुल गया तो  संग्रहालयों की पुरातात्विक वस्तुओं को अपने फायदे के लिए आने वाली सरकारें व अलग अलग जाति - संप्रदाय के लोग  उपासना स्थलों पर लाने की मांग करेंगे और भारतवर्ष का भावी भविष्य इतिहास व संस्कृति के झरोखे से देख सकने में दृष्टिबाधित हो जाएगा।

दुर्भाग्यवश इस लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष की सभी पार्टियां निर्लज्जतापूर्वक धर्म के अंदर राजनीति की संभावना खोज रही हैं, लेकिन राजनीति के अंदर धर्म की प्राण प्रतिष्ठा कर पाने में सभी की निष्ठा बेदम हो चुकी है।

© डॉ. अवधेश दीक्षित