Saturday, 3 June 2017

एक कविता - अब वे तर्क शून्य हो रहे हैं / विजय शंकर सिंह

अब वे तर्क शून्य हो रहे हैं .
सीधे सवालों पर अक्सर कन्नी काटने लगते हैं वे  
गौर से देखो,
झुंझलाहट,खीज और अकुलाहट , 
प्रतिविम्बित है अब उनकी देह भाषा में .
उनके शब्द अक्सर बदल जाते हैं अपशब्दों में ,
इतिहास का अधकचरा और पूर्वाग्रह से भरा ज्ञान ,
धर्म के मर्म के बजाय ,
धर्म के प्रतीकों को ही धर्म मानने की ज़िद ,
उन्हें जिस कुंठा में खींच लायी है ,
यह वे खुद भी नहीं जानते ।

सब कुछ तुम्ही चाहते हो !
अत्याचारों के तौर तरीके भी,
अत्याचारों के उपकरण भी,
उन्हें भी तुम ,
अपनी ही मर्ज़ी से, चुनते हो,
जिन पर कहर बरपाते  हो तुम !

कहर बरपेगा, तो चीखें भी होंगी ,
और उठेंगे चंद हाँथ ,
कुछ मुट्ठियाँ बांधें और कुछ तने पंजे लिए,
उठता है, जैसे , सागर में ज्वार,
गहराता है जैसे,
काल बैसाखी का पवन, बादलों के सैन्य के साथ
सब कुछ उड़ा कर ,
शांत कर देने की दुर्दम्य अभिलाषा लिए !

तुम्हारे माथे पर, बिखरे स्वेद कण,
हकलाते स्वर, जो अनायास
आरोह और अवरोह में बदल रहे हैं,
आँखों में फैली अविश्वास की छाया,
कांपते हाँथ की अनामिका ,
जिसे तुम बरबस उठा कर अज्ञात की ओर,
मुझसे नज़रें चुराते हुये, शोर मचाते हो,
और, वह हिलती हुयी ज़मीन,
जिस पर खड़े होकर, 
स्थिर रहने का नाटक कर रहे हो,
तुम्हारे भीतर घिरते हुए
भय को ही प्रतिविम्बित कर रही है !!

( विजय शंकर सिंह )

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