पार्थ चैटर्जी एक इतिहासकार और राजनीतिक विचारक है । वे कोलकाता स्थित सेंटर फॉर स्टडीज़ ऑफ़ सोशल साइंसेस के डाइरेक्टर रह चुके हैं । वे 2007 में अवकाश प्राप्त कर चुके हैं फिर भी प्रोफेसर एमेरिटस के रूप में उस संस्थान से सम्बद्ध हैं ।
उन्होंने हाल ही में एक लेख लिखा जिसमे उन्होंने कश्मीर में सेना की भूमिका पर कुछ टिप्पणियाँ की हैं । उसी एक टिप्पणी में। उन्होंने यह कहा कि कश्मीर में सेना की भूमिका जनरल डायर के समय की है । वे सेना कि कुछ अतिरंजित भूमिकाओं का जिक्र करते करते जनरल डायर से सेनाध्यक्ष की तुलना कर बैठे । उन्होंने कहा कि, जिस प्रकार अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने जनरल डायर के जलियावाला काण्ड के ट्रायल के समय , डायर के बचाव में जो तर्क दिए थे वही तर्क सरकार और सेनाध्यक्ष मेजर गोगोई के बचाव में दिये गए हैं । मैं पार्थ चटर्जी के इस उदाहरण या रूपक से सहमत नहीं हूँ । यह रूपक अनुचित, गलत और सन्दर्भ के बाहर है । इसकी तीखी आलोचना हो रही है । लोग अपने अपने तर्कों से इस उदाहरण की भर्त्सना कर रहे है । मैं भी इसे निंदनीय मानता हूँ ।
जनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर गोली चलाया था । उसने बिना किसी चेतावनी और भीड़ को विसर्जित होने का कोई अवसर न देते हुए सभा में बैठी भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग किया था । वह एक विदेशी हुक़ूमत का दमन था । उसका उद्देश्य ही था, दमन करना , डराना और विदेशी सत्ता का आतंक फैलाना । उस गोली कांड में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 336 लोग मरे थे । गैर सरकारी आंकड़े इसे और अधिक बताते हैं । उस काण्ड का व्यापक असर हुआ था । गांधी जी ने अपने को मिला ब्रिटिश पुरस्कार कैसर ए हिन्द और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नाइटहुड की उपाधि लौटा दी थी । वह भीड़ निहत्थी और एक जलियांवाला बाग़ की उस जन सभा में 13 मई 1919 को इकट्ठी हुयी थी । उनके पास कोई हथियार , पत्थर आदि नहीं था । आज भी जलियांवाला बाग़ में उन गोलियों के निशान हैं ।
लेकिन कश्मीर में मेजर गोगोई से जुडी जिस घटना का उल्लेख पार्थ चटर्जी कर रहे हैं उसमे मेजर ने एक भी गोली नहीं चलायी । वे किसी जनसभा को विसर्जित करने नहीं गए थे । वे चुनाव के सम्बन्ध में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिये गए थे । वे एक ऐसी भीड़ से घिरे थे जो निहत्थी नहीं थी , बल्कि उसके पास पत्थर थे और पथराव करने वाले अराजक लोगों का समूह था । वहाँ उनके पास दो ही विकल्प थे या तो वह गोली चलाते और अधिक लोग हताहत होते या वे हिक़मत अमली से कोई ऐसा रास्ता निकालते जिस से कि कम से कम जन हानि होती । उनको जीप पर बाँध कर मानव ढाल बनाने का विकल्प सुझा । इसकी चर्चा के दौरान अमेरिकी सेना के एक कृत्य का उल्लेख किया जाता है , जहां बम से घायल एक लड़की को मानव ढाल बनाया गया था । लेकिन जब यह उदाहरण दिया जाय तो यह भी हमें ध्यान में रखना होगा कि अमेरिका विएतनाम पर कब्ज़ा करने और उसे अपना उपनिवेश बनाने के लिये युद्धरत था । जब कि कश्मीर की स्थिति उस से बिलकुल उलट है । फिर भी उनके इस कृत्य की जांच हो रही है । उन्हें अपने अधिकारियों को यह विश्वास दिलाना होगा कि तत्कालीन परिस्थितियों को उनके पास यही सर्वश्रेष्ठ विकल्प था । अंतिम बात कि कश्मीर , भारत का उपनिवेश नहीं है । वह एक राज्य है जहां लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुयी सरकार है । सेना वहाँ कुछ कब्ज़ा करने नहीं बल्कि सीमा पार से आ रहे आतंकियों से कश्मीर को मुक्त कराने गयी है ।
सेना आलोचना से परे नहीं है । सत्ता के अन्य अंगों के समान यह भी एक अंग है । इसका उद्देश्य, कार्यशैली और दायित्व अलग होता है । सेना के कृत्यों की जांच होती है । सेना में भी भ्रष्टाचार है । भ्रष्टाचार के आरोप में एक वायु सेनाध्यक्ष जेल भेजे जा चुके हैं । अनुशासन हीनता में एक नौसेनाध्यक्ष सेवा ने बर्खास्त हो चुके हैं । कोर्ट मार्शल भी बड़े अफसरों का हुआ है और दोषी पाये जाने पर वह भी दण्डित होते हैं । अनावश्यक महिमा मंडन सेना का मनोबल कम और अहंकार अधिक बढ़ाएगी । इसीलिए कश्मीर की परिस्थितियों में सेना की भूमिका की पड़ताल करने के पहले कश्मीर की वर्तमान परिस्थितियों को समझना पड़ेगा । कश्मीर में आतंक जानबूझ कर फैलाया जा रहा है । वह पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है । अधिकांश कश्मीरी अवाम विद्रोही नहीं है । विद्रोहियों के कुछ इलाके और कुछ समूह ज़रूर है । दुश्मन के इलाके में सैनिक कार्यवाही करना और अपने ही इलाके में छुपे दुश्मनों को ढूंढ कर उनके खिलाफ कार्यवाही करना दोनों में ही सेना को अलग अलग रणनीति अपनानी पड़ती है ।
मैं पार्थ चटर्जी के इस घटना की तुलना जनरल डायर से किये जाने को निंदनीय मानता हूँ । सेना को अनावश्यक विवादों में खींचना अनुचित है ।
( विजय शंकर सिंह )
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