मेजर गोगोई वही सैन्य अधिकारी है जो एक कश्मीरी युवक को जीप पर आगे ढाल की तरह बाँध और बिठा कर , एक उपद्रवग्रस्त गांव से खुद और अपने साथियों को बचा कर निकाल लाने के लिए सुर्ख़ियों में कुछ दिनों पहले रहे हैं । उनके इस कदम की निंदा भी हुयी और प्रशंसा भी । कुछ लोगों ने इसे मानवाधिकार हनन का मामला माना तो कुछ ने इसे पाकिस्तान को करारा जवाब तो कुछ ने इसमें हिन्दू मुस्लिम एंगल भी ढूंढ निकाला । पर मेरी नज़र में यह एक सैन्य अधिकारी द्वारा प्रत्युत्पन्नमति का एक प्रदर्शन था । जिन लोगों ने कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी होगी वे इसकी कल्पना भी नहीं कर पाएंगे । मैंने खुद भी इतने शत्रुतापूर्ण वातावरण में काम नहीं किया है । पुलिस में भी ऐसे शत्रुतापूर्ण मामले सामने आते हैं , पर उस माहौल में भी कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो पुलिस के साथ खड़े होते हैं । पर सेना सदैव शत्रुतापूर्ण मामलों का ही सामना करती है और वह न केवल इसके लिये प्रशिक्षित होती है बल्कि वह मानसिक रूप से तैयार भी रहती है । मेजर ऐसे ही एक शत्रुता से भरी भीड़ द्वारा घिर गए थे । वे ही उस टुकड़ी के इंचार्ज थे तो यह भी उन्हें ही तय करना था कि वे कैसे कम से कम अपना और नागरिको के जान और माल का नुकसान बचाते हुए उस परिस्थिति से बाहर निकलें । उन्हें यही सूझा कि वे उसी भीड़ में से ही किसी को मानव ढाल की तरह अपने सामने प्रयोग करें और उसी की आड़ ले कर सुरक्षित मय साथियों और लवाजमा सहित बाहर निकल आएं। निश्चित ही भीड़ सेना पर जब पत्थर फेंकती तो उनके ही एक साथी को चोट लगती या उन्हें यह डर था कि उनके ही एक साथी को सेना मार देती अतः मेजर को रास्ता मिल गया और वह बाहर निकले ।
थोडा कल्पना कीजिए उस समय मेजर के पास क्या विकल्प था ?
1. या तो वे पत्थर फेंकने वालों पर गोली चलाते जिस से नागरिक भी हताहत होते और सैनिक भी ।
2. या तो वे चुपचाप और सहायता की प्रतीक्षा में बिल्कुल बचाव की मुद्रा में दुबके रहते ।
3. या वे उन पत्थर फेंकने वालों से बातचीत कर समझाते और फिर सुरक्षित निकलते ।
4. या फिर वे यह रणनीति अपनाते जिसकी हम सब आज अपने ठंडे कमरे में लैपटॉप पर बैठ कर मीन मेख कर रहे हैं ।
पहले विकल्प में जो नागरिक मरते उसका भी दारोमदार मेजर पर ही आता और उनसे कहा जाता कि उन्होंने धैर्य से काम नहीं लिया । कश्मीर के अलगाववादी तत्वों को अपने अवाम से कोई प्यार नहीं है । वे सिर्फ अपने उद्देश्य के लिए उनका उपयोग कर रहे हैं । कश्मीर में अगर मेजर की टुकड़ी द्वारा गोली चलाने से 2 लड़के भी मरे होते तो उसका प्रचार व्यापक होता और कोर्ट ऑफ़ इन्क्वायरी तब भी बैठती । तब शायद मेजर गोबोइ को खुद को निर्दोष साबित करना कठिन होता ।
दूसरा विकल्प मेरी राय में संभव ही नहीं था । अगर बचाव की मुद्रा में रहते तो शायद पत्थर फेंकने वाले और आक्रामक होते और किसी भी समय सैन्य टुकड़ी का धैर्य जवाब दे जाता और हो सकता है और बड़ी जनहानि होती । आखिर सैनिक भी मनुष्य ही है । उनके भी धैर्य की सीमा है ।
तीसरा विकल्प तो मैंने दिया ज़रूर पर वह भी सम्भव नहीं होता । क्यों कि बातचीत करने में कोई हर्ज़ नहीं है । पर उन्मादित और हिंसक भीड़ से बातचीत नहीं की जाती । बातचीत भी पथराव के माहौल में और सड़क पर नहीं की जाती । फिर यह भी सवाल उठता है कि क्या बात हो और किस से बात की जाय । फिर इस बात की क्या गारंटी कि पत्थर फेंकने वाले लड़के बात मान ही लेंगे । अतः यह विकल्प भी एक कल्पना ही है ।
अब चौथा विकल्प जो मेजर गोगोई के दिमाग में आया उन्होंने उसे अपनाया और बिना जनहानि के सुरक्षित खुद और अपने साथियों को बचा लाये । आप जब भी मेजर गोगोई के इस कृत्य की समीक्षा करें तो उन सारी संभावनाओं का खाका दिमाग में खींचे और तब यह तय करें कि उनका कदम उचित था या अनुचित ।
मानवाधिकार संगठनों की भी एक भूमिका होती है । उन्हें आप नज़रअंदाज़ कर भी दें तो एनएचआरसी को तो बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते । अतः कोई भी निर्णय उनकी भूमिका को ध्यान में रख कर ही लेना पड़ेगा । इसी प्रकरण में, अगर आप साफ़ सवाल पूंछे कि क्या किसी नागरिक को इस प्रकार जीप की बोनट पर बाँध कर घुमाना क्या उसके नागरिक अधिकारों का हनन नही है ? उत्तर होगा हाँ है । पर कानून व्यवस्था के मसले इतने आसान नहीं होते । मेरे विभागीय मित्र और मैजिस्ट्रेट साथीगण जो मेरी मित्र सूची में हैं मेरी बात से सहमत होंगे । उन्मादित भीड़ से निपटने के लिए कानून में अपने प्राविधान हैं पर वे एक मोटामोटी गाइडलाइन हैं । मौके पर किस तरह की भीड़ से कैसे निपटना है और क्या करना है यह भी मौके पर ही जो अफसर मौजूद हैं उन्हें ही तय करना है । बस उद्देश्य एक ही रहना चाहिए कि कम से कम जनहानि हो, नागरिकों की भी और फ़ोर्स की भी । इसी लिए गोली चलाने को अंतिम और सर्वविकल्पहीनता की स्थिति में एक विकल्प के रूप में रखा गया है । मुझे सेना के साथ काम करने का न तो अनुभव है और न ही कोई अवसर प्राप्त हुआ है फिर भी अपने प्रशासनिक अनुभव से जो मैं समझ पा रहा हूँ यहां व्यक्त कर रहा हूँ । वैसे भी मेजर गोगोई के इस कृत्य के प्रति आंतरिक जांच चल रही है । जांच के विंदु क्या है यह मुझे नहीं मालुम । जब परिणाम आएगा तो खुद ही सब को पता चल जाएगा । यह प्रतिक्रिया घटना का विवरण नहीं है संभावित परिस्थितियों के आधार पर एक आकलन का प्रयास है ।
मेजर गोगोई की प्रेस कॉन्फरेंस गैर ज़रूरी क़वायद है । उन्होंने क्या किया, क्यों किया, किस लिए किया, उनके ऐसा करने से उन्हें क्या रणनीतिक लाभ मिला यह विभागीय बातें हैं और निश्चित ही उनके सीओ ने उनसे इन सब की कैफियत तलब भी की होगी । पर शायद यह भी पहली ही बार है कि किसी मेजर जैसे कनिष्ठ अफसर ने प्रेस पर आकर अपनी सफाई प्रस्तुत की । वे विस्तार से उन सारी परिस्थितियों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं और खुद की सफाई पेश कर रहे हैं । निश्चय ही प्रेस वार्ता करने का निर्णय उनका अपना नहीं होगा इसे भी उनके वरिष्ठ अधिकारियों , हो सकता है कि, सेना मुख्यालय के क्लीयरेंस बाद ही यह कदम उठाया गया हो ।
इस प्रेस वार्ता से दो सवाल उठते हैं । सेना मुख्यालय के इस बयान के बाद कि, इस विषय में जांच प्रचलित रहेगी, इस प्रेस कॉन्फरेंस का कोई औचित्य नहीं है । जांच में मेजर गोगोई के कहे तथ्य अगर प्रमाणित नहीं हुए और कश्मीरी युवक को जीप पर बाँध कर घुमाने के आरोप को अंतिम उपलब्ध विकल्प के रूप में सिद्ध करने में वह असफल रहे तो वह दण्डित हो सकते हैं । चूँकि अभी जांच पूरी नहीं हुयी है इस लिए इस प्रकार की प्रेस वार्ता जांच अधिकारी पर मनोवैज्ञानिक दबाव ही डालेगी ।
दूसरा सवाल उठता है, उन्हें सम्मानित किये जाने का । सभी सुरक्षा बलों में त्वरित दंड और त्वरित पुरस्कार का चलन है । इसके लिए विभिन्न तरह के मेडल और सम्मान पत्रों की व्यवस्था भी है । सेनाध्यक्ष अपने अधीनस्थ सभी रैंक्स के अधिकारीयों और जवानों को उनके कृत्यों या दुष्कृत्यों के लिए पुरस्कृत अथवा दण्डित करने के लिए सक्षम हैं । पर इस मामले में उनका यह फैसला आशंकाएं ही जताता है । अगर जांच रिपोर्ट आ गयी हो और उसमे मेजर निर्दोष पाये गए हों तब तो उनके सम्मान पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं उठ सकता है , पर जांच की अवधि में ही यह इनाम दे देना भी जांच पर परोक्ष रूप से मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा ।
सेना भी अपनी उपलब्धियाँ बताती है । उसके पास भी जन संपर्क विभाग होते हैं । पर वे प्रश्नोत्तर सत्र कम ही आयोजित करते हैं । वे एक प्रेस रिलीज़ जारी करते हैं । वे अनुशासित बल के सदस्य होते हैं । उनकी रणनीति गोपनीय होती है और उनके लक्ष्य कम ही सार्वजनिक होते हैं । पर इस मामले में जांच पूरी होने के पहले ही सम्मान और प्रेस वार्ता सैनिक परम्परा के अनुकूल नहीं है । परम्परा से हट कर मेजर गोगोई की प्रेस वार्ता क्या भविष्य में होने वाले सभी ऑपरेशंस में नज़ीर के रूप में दुहरायी जायेगी या यह एक विशेष परिस्थितियों में ही की गयी प्रेस वार्ता है ?
( विजय शंकर सिंह )
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