Saturday, 17 June 2017

कश्मीर के पाक प्रायोजित आतंकवाद का मुक़ाबला केवल सुरक्षा बलों के दम पर संभव नहीं हैं / विजय शंकर सिंह

जेके पुलिस के 6 जवानों की शहादत पर, कश्मीर के राजनैतिक नेताओं की नजरअंदाजी दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है । 16 जून 2017 को  जम्मू कश्मीर राज्य पुलिस के 75000 जवानों और अधिकारियों ने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की शपथ ली और यह भी संकल्प लिया कि वे इस समय जेके पुलिस के समक्ष खड़ी हुयी आतंकवाद की दैत्याकार चुनौती का पूरे मनोयोग से सामना करेंगे और विजयी होंगे । अपने 6 जवानों के आतंकियों के हाँथो मारे जाने और उनके शवों को बर्बरता पूर्वक क्षत विक्षत किये जाने का आक्रोश तो उनमें था ही साथ ही, लंबे समय से चले आ रहे आतंक के कारण उनकी ऊब भी थीं। अब बहुत हो चुका है । यह हद है । एक जवान के सिर पर तो पॉइंट ब्लेंक रेंज से एक दर्जन गोलिया दाग दी गयीं थी । यह बर्बरता की पराकाष्ठा है । पाशविकता की हद है । यह भी दुःखद और निंदनीय है कि, कश्मीर में शहीद पुलिस कर्मियों के अंतिम संस्कार में न नेता पहुंचे  और न जनता पहुंची, दूसरी ओर आतंकियों के  जनाजे में आतंकी और जनता  पहुंची। निंदनीय बात यह है कि शहीद पुलिस वालों के अंतिम संस्कार में भाजपा -पीडीपी का कोई विधायक,सांसद, मंत्री नहीं गया।  कश्मीर की राजनैतिक बिरादरी का यह रवैय्या हैरान करने वाला है । 6 जवान शहीद हुए और उनके शहादत को सम्मान देने के लिए मुख्य मंत्री द्वारा एक भी शब्द न कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

सेना पुलिस का विकल्प नहीं है । यह पुलिस को अतिरिक्त बल , और संसाधन तथा अपने विशिष्ट प्रशिक्षण से सहायता करने के लिये तब सरकार द्वारा लगायी जाती है जब पुलिस कमज़ोर पड़ने लगती है । वह पुलिस बल को विस्थापित नहीं करती है बल्कि उसके साथ मिल कर लड़ती है । सिविल प्रशासन और आपराधिक न्याय प्रशासन की जिम्मेदारी पुलिस और मैजिस्ट्रेट की ही होती है । कश्मीर में फ़ैल चुके आतंकवाद को केवल सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों के दम पर खत्म नहीं किया जा सकता है । सेना युद्ध के लिए प्रशिक्षित होती है, न कि आंतरिक सुरक्षा के उपद्रवों और आतंकी घटनाओं से लड़ने के लिए । लेकिन जम्मू कश्मीर की सरकार चाहे वह अब्दुल्ला परिवार की हो या मुफ्ती परिवार की , किसी ने भी आतंकवाद के दमन के लिये वह इच्छा शक्ति नहीं दिखायी जो पंजाब में बेअंत सिंह की सरकार ने दिखायी थी । तब का अकाली दल कभी  छुपे तो कभी खुले रूप में खालिस्तान समर्थकों के साथ था । जब केपीएस गिल साहब ने पंजाब पुलिस पर भरोसा कर उन्हें  आगे किया तो आतंकियों की कमर टूटने लगी । कश्मीर में जेके पुलिस को उस तरह के नेतृत्व का अवसर नहीं दिया गया है। परिणामतः सेना को वह दायित्व भी संभालना पड़ा जिसके लिए वह गठित  नहीं है । सेना एक आपात व्यवस्था है । वह पुलिस नहीं है । और न ही उस से नियमित पुलिसिंग का काम नहीं लिया जाना चाहिए ।

आतंकवाद का परिणाम, कानून और व्यवस्था की समस्या है, पर आतंकवाद खुद ही राजनीति का परिणाम है । अतः बिना राजनैतिक पहल के इसका समाधान ढूंढा भी नहीं जा सकता है । कश्मीर का आतंकवाद , पाकिस्तान का खुला और अपूर्ण एजेंडा है । वे इसे छोड़ नहीं सकते हैं । कश्मीर उनके लिए भी जीने मरने का सवाल है, हमारे लिए तो वह हमारा अभिन्न अंग है ही । जब जनरल मुशर्रफ आगरा समिट में आये थे तो आगरा जाने के पहले उनकी प्रेस वार्ता हुयी थी । मुशर्रफ के माता पिता पुरानी दिल्ली की किसी हवेली में रहते थे और वहीँ विभाजन के पहले उनका जन्म हुआ था । जनरल अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान उस हवेली में गए भी थे । जब पत्रकारों ने उनसे कश्मीर पर पाक के जिद भरे रवैय्ये की बात करते हुए पूछा कि  " यह मसला कैसे उनके जीने मरने का है ? " तो उन्होंने कहा कि " अगर मैं यह मसला छोड़ दूंगा तो मुझे दिल्ली आकर उसी हवेली में रहना होगा । " यह जवाब पाकिस्तान के सेना और हुक्मरान की मानसिक सोच कश्मीर के प्रति उनकी हठवादिता को बताता है ।

कश्मीर में जो कुछ भी सेना और सुरक्षा बल कर रहे हैं वे बहुत अच्छा कर रहे हैं । पाकिस्तान के घुसपैठियों को वे करारा जवाब भी दे रहे हैं । हो सकता है, कूटनीतिक प्रयास भी हो रहे हों । लेकिन कश्मीर की राजनैतिक बिरादरी का रवैय्या हैरान करने वाला है । 6 जवान शहीद हुए और उनके शहादत को सम्मान देने के लिए मुख्य मंत्री द्वारा एक भी शब्द न कहना दुर्भाग्यपूर्ण है । अगर आप सेना के बल पर आतंकवाद के खात्मे की उम्मीद किये बैठे हैं तो यह उम्मीद एक भ्रम है । शहरों में होने वाले सांप्रदायिक दंगे तक तो केवल सुरक्षा बलों के दम पर रोके नहीं जा पाते । वहाँ  लोगों से बात कर के स्थिति को सामान्य करना पड़ता है । फिर यह तो उनसे कई गुना बड़ी विकराल समस्या है । और इस आतंकवाद की तुलना दंगों से की भी नहीं जा सकती है ।

हम जम्मू कश्मीर के शहीद जवानों का वीरोचित अभिवादन करते हैं और शोक संतप्त परिजनों के प्रति शोक संवेदना भी व्यक्त करते हैं । लेकिन इस आतंकवाद के खिलाफ राज्य सरकार को खुल कर आगे आना होगा । उसे उपद्रवी पत्थरबाज और आम नागरिक के बीच के अंतर को पहचानना होगा । उन्हें यह भी समझना होगा कि राज्य की कानून व्यवस्था , उनकी पहली जिम्मेदारी है और  केंद्र उनकी मदद के लिए है । महबूबा मुफ़्ती ने एक भी ऐसा अभियान नहीं चलाया जिस से आम कश्मीरी अवाम को अलगाववादी सोच के शिकंजे से बाहर निकाला जा सके । अधिकतर अवाम उदासीन होती है । ' कोउ नृप होहिं ' का मन में गहरे पैठा भाव जिधर ढलान पाता है, बहने लगता है । सिख आतंकवाद के समय में भी एक वह दिन भी था जब कि हर सरदार चाहे वह ट्रक ड्राइवर हो या कोई भी , शक की नज़र से देखा जाता था । हर गुरूद्वारे पर छापा पड़ता था । दरबार साहिब में जो हुआ वह तो ' न भूतो ' था ही । लेकिन जब राजनैतिक नेतृत्व और सामाजिक संगठनों के लोग सड़कों पर निकले और सुरक्षा बलों का अभियान तेज़ हुआ तो आतंकी किले ढहने लगे और अब सब सामान्य हो गया और खुशहाली वापस लौट आयी ।

महबूबा मुफ़्ती और जम्मू कश्मीर के राजनैतिक नेतृत्व को आतंकवाद के खिलाफ खुल कर सामने आना होगा , तभी इस समस्या का समाधान संभव है । जब तक स्थानीय पुलिस बल, स्थानीय लोग, और ज़मीन से जुड़े राजनेता सामने नहीं आएंगे तो तब तक शहीद होने और दहशतगर्दों को मारने का सिलसिला खत्म नहीं होगा । आतंकवाद एक वैश्विक राजरोग है । इस का समाधान केवल सुरक्षा बलों के बल पर ही सम्भव नहीं है ।

( विजय शंकर सिंह )

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