आज जब अभिव्यक्ति के खतरे आसन्न हैं , लोगों की भावनायें इतनी भुरभुरी हो गयी हैं कि ज़रा ज़रा सी बात से आहत हो जा रही हैं , बात बात पर लोगों का धर्म या मजहब, खतरे में आ जा रहा है तो सनातन धर्म के नाभि केंद्र काशी में कबीर की वाणी का उद्घोष अक्सर याद आता है । उनके जन्म से जुडी अनेक किंवदंतियां हैं , कथा , और क्षेपक हैं । कोई कहता है वे विधवा ब्राह्मणी की संतान थे, तो कोई उन्हें मुसलमान मानता हैं। विधवा ब्राह्मणी के वे संतान थे या नहीं इस पर मत मतांतर हो सकते हैं पर वे जुलाहा थे। ताना और बाना तथा इसके मज़बूत गठजोड़ से जो सामग्री तैयार होती है, उसका महत्व उन्हें मालुम था । बनारस से इलाहाबाद जाने वाली सड़क पर शहर पार करते ही एक क़स्बा पड़ता है, लहरतारा, वही उनका जन्म हुआ था ।
शिष्यत्व भी उन्होंने प्राप्त नहीं किया , हथियाया था । वे लेट गए एक रात चुपचाप गंगा की धार की और जाती हुयी घाट की सीढ़ियों पर । ब्रह्म बेला थी । महान वैष्णव संत रामानंद प्रातः स्नान के लिए उस अँधेरे में ही गंगा की ओर जा रहे रहे । सीढ़ी पर ही लेटे कबीर के शरीर पर उनका पाँव पड़ गया । अचानक उन्हें लगा कि किसी लेटे हुए व्यक्ति पर उन्होंने पाँव रख दिया है । उनके मुंह से अनायास निकला राम राम । यह राम राम का उदगार, किसी के ऊपर भूल से पड़ गए पाँव के अपराध बोध की अभिव्यक्ति थी या सायास कहा हुआ शब्द , यह गुत्थी या तो रामानंद ही सुलझा सकते हैं या कबीर स्वयं । पर राम राम का यही उद्गार कबीर का गुरुमंत्र बन गया । उन्होंने स्वयं को रामानंद का शिष्य घोषित कर दिया । रामानंद भी क्या करते । उन्होंने भी इस फक्कड़ और सबको ललकारने वाले विलक्षण व्यक्तित्व को शिष्य मान ही लिया ।
कबीर कोई साहित्यकार नहीं थे । न हीं वे कोई दार्शनिक भी थे । वे एक सामान्य जुलाहे थे । कपड़ा बुनते थे । सन्यासी भी नहीं थे । गृहस्थ थे । वे राम के भक्त थे । पर उनके राम दशरथ के राम नहीं थे , बल्कि निर्गुण ब्रह्म के एक रूप थे । उन्होंने जो लिखा उसे , साखी , शबद, रमैनी जैसी तीन रचनाओं में संग्रहीत किया गया । उनकी भाषा अनगढ़ थी । वह व्याकरण के दृष्टिकोण से अपरिपक्व थी । विद्वानों ने उस भाषा का नाम दिया है सधुक्कड़ी । उनके भजन निर्गुण साहित्य की धरोहर हैं । उनकी रचनाओं का बहुत सा अंश सिखों के परम आदरणीय ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहब में संग्रहीत हैं । उनकी यह रचना पढ़ें ,
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
अनपढ़, पर प्रज्ञा चक्षु से संपन्न इस महान कवि की सूक्तियां, भजन और इन से जुडी कहानियों ने भक्ति आन्दोलन को एक नया आयाम दिया है. काशी सब को संस्कारित करती है । वह एक अद्भुत नगर है । आप वहाँ के घाटों पर सुबह सुबह अत्यंत धनी और संपन्न लोगों को भी केवल एक गमछा कमर में लपेटे, और एक कंधे पर रखे, बेलौस और बेलाग तरीके से बात करते, देख सकते हैं. अब यह दृश्य आम नहीं रहा,लेकिन अपने किशोरावस्था में मैंने यह दृश्य खूब देखा है । वक़्त अब आधुनिक हो चला है । हम सब कटघरों में कैद हो गए है । अन्दर का मौसम भी कृत्रिम तो दोस्त और साथ भी कृत्रिम हो गए है ।
कबीर ने किसी को नहीं छोड़ा. न हिन्दुओं को न मुसलमानों को । सब को धोया । गंगा ने सारा मैल धो लिया.। राम को भी चुनौती दी उन्होंने. उनसे भी यह कह दिया कि
" जब कबीरा कासी मरे तो राम ही कौन निहोरा. "
काशी में तो मृत्यु स्वर्ग गमन का अनिवार्य पक्ष है. कबीर काशी में नहीं मगहर में मरे । उन्हें वहीं सज़ा दी गयी थी । वह कथा फिर कभी ।
फिलहाल तो उनकी कुछ पंक्तियाँ पढ़ें. कबीर का शाब्दिक अर्थ ही महान या बड़ा होता है. हिंदी के प्रकांड विद्वान् आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उने पिछले एक हज़ार सालों में सबसे महत्वपूर्ण कवि माना है । आज जब बहुत से पढ़े लिखे लोग खुद को जाति, धर्म, सम्प्रदाय के विभिन्न छोटे छोटे खानों में बाँट चुके है,तो एक अनपढ़ और अनगढ़ कबीर इन पर आज भी भारी है । उनकी एक निर्गुण रचना पढ़ें ।
नाहीं मैं धर्मी, नाहीं अधर्मी,
ना मैं कमी ना जाती हो .
ना मैं कहता ना मैं सुनता,
ना मैं सेवक, स्वामी हो,
ना मैं बंधा, ना मैं मुक्ता,
ना निराबंध सरबंगी हो.
ना काहू से न्यारा हुआ,
ना काहू को संगी हो,
ना हम नरक लोक को जाते,
ना हम स्वर्ग सिधारे हो.
सब ही कर्म हमारा कीया,
हम करमन ते न्यारे हो !!
( विजय शंकर सिंह )
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