आज 21 जून , अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है । आज योग की धूम है । लोग कहीं न कहीं योग कर रहे हैं । अष्ठांग योग के एक अंग आसन की आज बहार है । प्रधानमंत्री जी लखनऊ में योग कर रहे हैं । हम जैसे लोगों ने भी थोडा बहुत आसन और प्राणायाम जैसे रोज़ करते हैं वैसे आज भी किया है , और जब कल जब योग दिवस नहीं रहेगा तो भी करेंगे । क्यों कि यह स्व के लिये है । किसी दवा या आहार विशेष के प्रचार के लिए नहीं है ।
आज सुबह ही मैंने एक पोस्ट डाली कि , खाये अघाये लोगों को योग दिवस की शुभकामनाएं । मित्रों ने इसे लाइक किया और अपने कमेंट्स से भी इस पोस्ट को नवाज़ा । हर पोस्ट की तरह इस पर भी मीन मेख निकाला गया । कुछ बौद्धिक विनोद हुआ, कुछ विवाद और कुछ मानसिक कसरत भी हुयी । यह भी एक प्रकार का मानसिक योग ही है ।
सरकार योग जागृति का श्रेय ले रही है । बिल्कुल यह श्रेय वर्तमान सरकार का ही है कि उसके ही सद्प्रयासों से यूएनओ ने आज के दिन 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया । लेकिन यह परम्परा बहुत प्राचीन है । पतंजलि ने इसे वर्गीकृत और व्याख्यायित किया । राम देव के जन्म के पूर्व ही दुनिया योग से परिचित हो चुकी थी । योग की अनेक विधाएँ राज योग, क्रिया योग आदि प्राच्य वांग्मय के अध्येताओं ने ढूंढ और उसे परिमार्जित कर के लोगों को सिखाना शुरू कर दिया था । रामदेव ने योग का संगठित प्रचार ज़रूर किया। उनके इस योगदान को नकारा नहीं जा सकता है ।
मेरे पोस्ट खाये अघाये पर, इस शब्द पर कुछ मित्रों को आपत्ति है । उनसे निवेदन है कि योग से जुड़े टीवी और अखबारी समाचारों में जो छाया चित्र प्रसारित और प्रकाशित हुए हैं ज़रा उस पर भी नज़र डालें । और खुद इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि मेरी बात कितनी सच है या झूठ । मैंने टीवी पर, नेट पर, विज्ञापनों में, जितने भी चित्र योग करते हुए लोगों को देखे हैं , वे एक विशिष्ट समाज से आते है । खाये अघाये लोगों का यह समाज ही योग को योगा में बदल कर योग कर्म को भी एक स्टेटस सिम्बल के रूप में प्रस्तुत करता है । जिम कल्चर, फिटनेस सेंटर्स, न्यूट्रिशनोलॉजिस्ट्स आदि आदि अब एक फैशन और लाभ का व्यवसाय बन गया है । लेकिन यह फैशन कितनों की पहुंच में है ? ज़रा सोचियेगा इस पर । देह को साधने, सुंदर और सुष्ठु दिखने की चाह ही तब उपजती है जब रोटी कपड़ा मकान और रोजगार की समस्या से मन और मस्तिष्क मुक्त हो । मैंने इसी समाज को इंगित कर के अपनी पोस्ट लिखी है । मैं इसी समाज को खाया अघाय कह रहा हूँ । वह समाज जो सुबह उठ कर रोज़मर्रा के काम में व्यस्त हो जाता ताकि उसका और उसके परिवार का पेट भरे, जीविका चले , उसे योग दिवस की क्या मुबारकबाद दूँ । यह खोखली मुबारकबाद होगी । यह उसका उपहास होगा । आप मुझ से असहमत होने के लिये स्वतंत्र हैं । पर में उनका उपहास नहीं कर सकता ।
योग जोड़ता है. किस से ? स्वयं से ? समाज से ? ईश्वर से ? या प्रकृति से ? या कोई और है जिस से वह जोड़ता है ? अक्सर यह सवाल उठता रहता है मेरे मन मैं. अब जब विश्व योग दिवस की तिथि नज़दीक आ रही है तो यह प्रश्न और अकुलाहट के साथ उठ रहा है. एक कथा सुनें,
एक बार आदि शंकराचार्य किसी नदी के किनारे उसे पार करने हेतु किसी साधन की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे । शंकर का कुल जीवन ही 32 वर्ष का था । उस समय वह केवल 18 साल के एक किशोर सन्यासी थे । तभी एक हठयोगी उनके पास आया और कहा कि योग कर लेते हो ?
" नहीं " शंकर ने कहा " थोड़ा बहुत प्राणायाम कर लेता हूँ ।"
" मैं पद्मासन में भूमि से ऊपर उठ जाता हूँ । " योगी की बातों में अहंकार स्पष्ट था ।
शंकर ने कहा , " दिखाओ । "
योगी ने पद्मासन लगाया और थोडा ऊपर उठा ।
फिर विजयी भाव से उसने शंकर से कहा, " इस नदी के जल पर पैदल चल कर पार कर सकते हो ? "
शंकर ने इनकार के भाव से सर हिलाते हुए कहा " नहीं । "
पर वह शांत थे, चमत्कृत नहीं.
योगी ने कोई साधना की, और पैदल नदी पर चलता हुआ पार गया और वापस आ गया.
विजयी और दर्पीले भाव से उसने शंकर पर तुच्छ दृष्टि डालते हुए कहा , " देखा यह योग होता है । "
अप्रभावित शंकर, उस योगी को देखते रहे और फिर मुस्कुरा कर पूछा , " इस साधना में आप का कितना समय लगा होगा । "
योगी ने आँखे फैलाते हुए कहा, " चालीस साल ! चालीस साल की यह साधना है यह । तब मैं जल पर पैदल चल सकता हूँ । "
शंकर खिलखिला कर हंस पड़े. कहा, " आपने चालीस साल केवल यह सीखने में लगा दिए कि जल पर पैदल कैसा चला जाता है.! अरे नदी तो तैर कर या नाव से पार की जा सकती है.। "
योगी को क्रोध आ गया । उसने शंकर को बुरा भला कहा ।
शंकर ने कहा, " यह कैसा योग जो आप के मन को नियंत्रित न कर सके ? यह कैसा योग जो आप को अहंकार से मुक्त न कर सके ? यह कैसा योग जो जीवन के अत्यन्त महत्वपूर्ण समय को एक चमत्कार प्राप्त करने में व्यतीत करा दे ? "
तब तक नाव आ गयी थी और शंकर उस पर बैठ कर उस पार के लिए चल पड़े ।
योग अगर अहंकार, दर्प , मिथ्याभिमान और आत्ममुग्धता के रोग से मुक्त नहीं करता है तो वह केवल एक पीटी परेड की तरह है । एक तमाशा है । खेल है और आयोजन है ।
( विजय शंकर सिंह )
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