Wednesday 7 December 2016

एक कविता - इतिहास सब सुनाता हैं / विजय शंकर सिंह

मृत्यु, समस्त पापों को भी
दफन कर देती है ।
जला कर भस्म कर देती है,
दरिया उन्हें बहाता हुआ ,
अनंत सागर को सौंप आता है
धरती सब कुछ स्वीकार करती है
पर कुछ समय के लिए बस ।

उतरता है जब ज्वार शोक का,
समय धीरे धीरे भुलाने लगता है
तब इतिहास के वे पन्ने भी ,
फड़फड़ाने लगते हैं,
कभी फुसफुसा कर ,
तो कभी चीख कर
वे सारे किस्से और वाक़यात
करने लगते हैं बयान ।

जिनमे सिमटे हैं ,
दिवंगत के स्याह और सफ़ेद कारनामें,
कुछ गहरे राज,
कुछ अनसुलझे सवालात,
कुछ नेकियाँ , तो कुछ बदी की बातें ,
छोड़ता नहीं इतिहास किसी को ।

वक़्त के साथ साथ
वह और मुखर होता जाता है ,
भावना शून्य , निर्मम मुंसिफ की तरह
सब कुछ बेबाकी से कह देता है ।
पर हम , अक्सर वही सुनते है,
जो हमारे कानों को मधुर लगे ।

कर्कश ध्वनि से हम बचते हैं,
उसे टालते हैं ,
व्यक्तित्व हावी हो जाता है,
कृतित्व पर,
हम देखना ही नहीं चाहते ,
आवरण और रंगों से ढंके ,
नग्न सत्य को ।
तर्कशास्त्र के सारे प्रमेय याद आ जाते हैं ,
सच कहने से तो बचते ही है,
उसे सुनना भी नहीं चाहते ।

पर इतिहास सब कुछ सुनाता है,
ज़मीन की तह के अंदर तक पैठ कर,
सब कुछ उघाड़ देता है ।
आँखे और कान बन्द कर लेने से,
भला कहीं तथ्य बदलते हैं ।

ये अक्षर,  काल के अमित  लेख हैं,
व्याख्याएं और भाष्य का क्या ,
वह तो सुविधा का खेल है
कभी कुछ और कभी कुछ
समझाता और समझता रहता है
कुछ समझते हैं ,
तो कुछ समझना ही नहीं चाहते !!

( विजय शंकर सिंह )

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