Wednesday, 21 December 2016

नोटबन्दी बतर्ज़ कालिदास ! / विजय शंकर सिंह

यह शीर्षक आप को थोडा अटपटा लगेगा, पर मित्रों नाम में क्या रखा  है । नाम तो केवल एक पहचान है । तो इस शीर्षक का भी कोई मतलब नहीं है । न कालिदास के समय में नोटबन्दी होने का कोई प्रमाण मिलता है और न ही नोटबन्दी के समय कालिदास कभी लाइन में खड़े हुए होंगे । पर कालिदसवा ज़रूर लाइन में ठण्ड में कुड़कुड़ाते   या तो खुद का कुछ मरे हुए 1000 या 500 का नोट ले कर या अपने किसी आक़ा का धन ले कर खड़ा मिल जाएगा । नवम्बर महीने की 8 तारीख को रात 8 बजे जब दिल्ली से बुद्धू बक्सा ने 1000 और 500 के नोटों के मर जाने की सूचना दी तो दूसरे दिन बैंकों में भीड़ उमड़ पडी । जो क़तारों में थे वे जन गण और जो घर बैठे बिना क़तारों में खड़े नोट बदल रहे थे वे भाग्य विधाता थे । फिर क्या था , अधिनायक की जय जय होने लगी । जब भीड़ बढ़ी और कुछ लोग देश के लिए बलिदान होने लगे तो , फिर डुगडुगी पिटी और फरमान आयद हुआ, कि धीरे धीरे , शोर नहीं , 30 दिसंबर तक अपना पैसा आप बैंकों में और 31 मार्च तक आरबीआई में जमा कर सकते हैं । लोग फिर थोडा निश्चिन्त हो गए । वैसे भी अंतिम तिथि के नज़दीक आने पर ही सक्रियता बढ़ती है । फिर तो नियम भी बदलने लगे । 8 नवम्बर से अब तक 61 बार नियम बदले गए । अभी 7 दिन है । देखिये तब तक कितने कानून बनते बिगड़ते हैं । पल पल परिवर्तित नियम - वेश से नोटबन्दी का सौंदर्य ही निखर रहा है । बिलकुल सर्दियों के कपड़े की तरह, जब सुबह धूप देखी तो स्वेटर ही पर्याप्त लगा और जब बादल - कुहरा घिरा तो जैकेट धारण कर ली। क्षण क्षण नूतन जो दिखे वही सौंदर्य है । यह मेरा कथन नहीं है कालिदास का कहना है । संस्कृत सूक्ति याद नहीं आ रही है । राम का रूप जब अब याद नहीं तो कालिदास की अनेक अलंकारों से सुसज्जित सूक्तियाँ कैसे याद आ रहेंगी ।  किसी मित्र को याद आ जाय तो कमेंट बॉक्स में बिना अपशब्दों से सम्पुटित किये इसे लिख दें । मेरा ज्ञान वर्धन ही होगा ।

क्या कोई संस्थान इतना दिग्भ्रमित हो सकता है जितना आरबीआई हुआ है ? कभी 30 दिसम्बर तक पुराने नोट जमा कराने की सुविधा, कभी 4000 रूपये निकालने की सुविधा, कभी 2000 तो कभी 24000 तो कभी कोई कागज़ कभी दस्तावेज़ । जब लेने जाओ बैंक तो वह भी नहीं । कभी तीन दिन तक पुराने नोट चलेंगे तो कभी दो दिन और चलेंगे, तो कभी 10 दिसंबर तक ही चलेंगे । कभी 3 दिन में स्थिति सुधरने का आश्वासन , तो कभी 50 दिन की मोहलत , फिर दो तीन क्वार्टर की बात । कभी कहना यह काले धन के विरुद्ध है, कभी कैशलेस , कभी पेटीएम का विज्ञापन तो कभी जहां जाना कुबेर को भी साथ साथ ले जाना । कभी ढाई लाख तक पूछ ताछ नहीं होगी, तो कभी 5000 के ऊपर ही बैंक यह पूछ लेगा कि गुरु कहाँ से पाये ! और अब आज यह फरमान कि, जा जमा करा, अब केहू न पूछी । यह तो घपड़चौंथ दिख रही है क्या वह किसी परिपक्व संस्थान का परिचय दे रही रही है ? या लगता है सभी नशेड़ी इकट्ठे हो गए हैं । अगर नीतियां बनाते समय नीति नियन्ता यह आकलन न कर सकें कि उन नीतियों का क्या परिणाम और दुष्परिणाम होगा और फिर वह उन दुष्परिणामों से कैसे निपटेगा तो यह उस संस्थान की प्रशासनिक विफलता है । आरबीआई नोटबन्दी से जुड़े सभी आवश्यक प्रबन्ध करने में विफल रहा है । केवल और केवल आरबीआई के इन पल पल परिवर्तित निर्देशों से सरकार की बहुत किरकिरी हुयी है । पर उर्जित सर आप निश्चिन्त रहिये, आप का सरकार कुछ बिगाड़ भी नहीं पाएगी ।

प्रधानमंत्री जी को रोना पड़ा इन बदइन्तेज़ामियों के कारण। उनके त्याग को भी आरबीआई नहीं समझ सका । महान परम्पराओं वाले देश के प्रधानमंत्री को रोना पड़े, आंसू आ जाय, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही है । याद कीजिये सिकंदर और पंचनद नरेश पोरस का वह संवाद । पराजित पोरस सिकन्दर से हार कर भी टूटा नहीं था । उसने खुद के लिए राज्योचित सुविधाएं ही मांगी । उसने सिकंदर से उसी व्यवहार की अपेक्षा और मांग कि जो एक राजा दूसरे राजा से करता है । पराजित हुआ पर झुक नहीं । यह स्वाभिमान था अहंकार नहीं । पर हम इन शब्दों के निहितार्थों को ही भूलते जा रहे हैं । जब भी कोई नीति सरकार बनाती है तो उसके प्रभाव का गहन मूल्यांकन होता है । उसके परिणामों की पड़ताल होती है । यह काम मंत्री और पीएम का नहीं है । यह काम विशेषज्ञों का है । वे आगा पीछा , हानि लाभ, यश अपयश सब बताते हैं , अब यह सरकार के ऊपर है कि वह कितना इसे ग्रहण करती है और कितना उसके ऊपर से निकल जाता है । कभी कहा जाता है , नोटबंदी के होने की बात का किसी को पता नहीं था, कभी यह कह दिया जाता है सब सोच समझ कर , ठोंक बजा कर इसे लागू किया गया है । पर सब कुछ ठोंक बजा कर लागू करने पर भी एटीएम तब कैलिब्रेट होने शुरू हुए, जब 2000 के नोट आ गए और उन्होंने वर्तमान एटीएम को बिलो स्टैण्डर्ड समझ उसमे रहने से मना कर दिया ! रोज़ रोज़ बदलते नियमों से भ्रम फैला । 100 के ऊपर लोग मर गए । उनके लिए संवेदना का कोई स्वर नहीं। देश प्रेम का ताना ऊपर से !

प्रधानमंत्री जी ने 50 दिन माँगा है । संविधान ने तो पांच साल पहले ही दिए हैं । फिर भी उनकी सदाशयता है कि वे 50 दिन की बात कर रहे हैं । न भी मांगते तो क्या हो जाता। आंकड़ों के अनुसार अब काफी कुछ पुरानी मुद्रा जमा हो गयी है । जो बची है वह भी अब जमा ही हो जायेगी । अब देखना है 30 दिसम्बर के बाद जिन उद्देश्यों के लिए यह साहसिक कदम उठाया गया है उन उद्देश्यों की पूर्ति होती है या नहीं । नया साल कम से कम इस साल के आखिरी दो महीनों की तरह भटकाव भरा, और मरकहवा न हो । नए साल का प्रारंभ नयी उम्मीदों से हो । एवमस्तु !

© विजय शंकर सिंह .

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