Friday, 16 December 2016

एक कविता - तफ़रीह और खेल का मैदान / विजय शंकर सिंह

उम्मीदें हीं कुछ ज्यादा पाल लीं थीं
लोगों ने ,
आसमान लुभाता भी तो, कम नहीं है ,
सात रंग , अलग अलग ,
और फिर सारे रंगों का जो संसार ,
रच दिया था उसने कभी,
था तो वह सम्मोहन ही ।

कुछ हम भी ऊब बैठे थे ,
उस दौर से
जो चल रहा था आस पास ,
हाल फिलहाल ,
रंगों ने कुछ दिलासे दिये  
अश्क़ों को उसने हाँथ से हटाया ,
उम्मीदों का नीला समंदर दिखा
प्रत्यूष की आभा झलकी
लगा , अब शायद सहर होगी ,
मिहिर उदय होंगे,
निशा , इतिहास बनेगी,
रात के गहरे दुःख कटेंगें !

निजात मिली उनसे ,
जो बोझ लग रहे थे तब !
कदम दर कदम परोसते आ रहे थे,
चाशनी में पगे फरेब ।

इन्होंने भरोसा जगाया,
उम्मीदों के अंकुर फूटे,
एक नशा तारी हुआ,
हम डूबते लगे
आगत भविष्य के आह्लाद में,
धुंध के पार,
इक नए संसार की प्रतीक्षा थी वह !

बिखरने लगा अब सब,
मिटने लगी लकीरें,
जिनसे वह अलग दिखता था,
एक बार फिर ,
चाल चली वक़्त ने,
फिर वही मुस्कानों भरा,
शातिर चेहरा दिखा ।
नियति भी तो
छलती रहती है अक्सर ।

अब भी वक़्त है .
गनीमत है ,
वक़्त कभी चुकता नहीं
निर्विकार भाव से बीतता रहता है ,
उसे पहचानें  
उसके फरेब को पहचानें ,
और उस नशे को,
जो ज़माने पर तारी था, उन दिनों
हैंगओवर से बाहर आएं ,
और पहचानें इन बाजीगरों को भी ,
जिन्होंने हुकूमत और मुल्क़ को ,
तफ़रीह और
खेल का मैदान बना रखा है !!

© विजय शंकर सिंह

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