बात 1976 की है . मैं इलाहाबाद में था . सिविल सर्विसेज़ के इम्तहान के दिन थे . सर्दियों का मौसम था. मैं ममफोर्डगंज में रहता था. तब उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद ही प्रतियोगी परीक्षाओं का केंद्र हुआ करता था. परीक्षाओं के मौसम में लगभग हर घर में इस से जुड़े छात्र रहते थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हॉस्टल्स की तो बात ही अलग थी. वहाँ तो सभी छात्र या तो इम्तेहान दे रहे थे या देंने की सोच रहे थे. मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कभी पढ़ा नहीं था. मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम ए कर के प्रतियोगी परीक्षाओ में भाग्य आजमाने इलाहाबाद आया हुआ था. सायकिल से कटरा, हिन्दू हॉस्टल और सर सुन्दर लाल हॉस्टल का चक्कर लगाया करता था. वहाँ मेरे कुछ मित्र और परिचित छात्र थे . हिंदी साहित्य और इतिहास मेरा प्रिय विषय था. मेरी रूचि भी इन विषयों में थी और प्रतियोगी परीक्षाओं में उस समय इन विषयों की लोकप्रियता भी खूब थी. मैं 1976 के संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के लिए तैयारी कर रहा था. उसमें भी हिंदी साहित्य मेरा विषय था.
हिंदी का पेपर , नज़दीक आ गया था. पढ़ाई की अपनी गति थी ही. सिविल सेवा की परीक्षा में जो हिंदी का प्रश्न पत्र था उसके पाठ्यक्रम में निराला की काल जयी कविता, ' राम की शक्ति पूजा ' भी थी. निराला की सारी कविताओं में यह कविता शिल्प, कथ्य, और ओज के मामले में अद्भुत है. कुछ आलोचक इस कविता को विश्व की दस सर्वश्रेष्ठ
कविताओं में एक मानते है. वह कविता दुरूह और अनेक प्रतीकों और विम्बों से सम्पुटित , राम के जीवन में आये बेहद , कठिन क्षण को रेखांकित करती है. उस कविता की तैयारी करते समय, मुझे एक योग्य शिक्षक की आवश्यकता थी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय
के हिंदी विभाग में मैं किसी को व्यक्तिगत रूप से न तो जानता था और न ही उस विभाग में मेरा आना जाना था. अगर मैं वाराणसी में होता तो, कोई समस्या ही नहीं थी. वहाँ से मैं पढ़ा था और हिंदी के योग्य अध्यापकों के संपर्क था। वह संपर्क तब जीवित भी था .
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक प्रोफ़ेसर थे, डॉ रघुवंश. वह विकलांग थे. उनको भी मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था. पर 1974 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में राम चरित मानस की चार सौंवीं जयन्ती बनायी जा रही थी. इस पर एक त्रिदिवसीय सेमीनार का आयोजन किया गया था. हिंदी विभाग इस सेमीनार का आयोजक था. मैं उस सेमीनार के आयोजन समिति में छात्र प्रतिनिधि था. डॉ रघुवंश उस सेमीनार में वक्ता के रूप में सम्मिलित हुए थे. उनका भाषण बहुत ही ज्ञानवर्धक और रोचक था. उनके प्रभावपूर्ण वक्तव्य ने मुझे प्रभावित किया. लेकिन उस गहमा गहमी और भीड़ भाड़ भरे आयोजन में , डॉ रघुवंश से न तो मेरी मुलाक़ात हुयी और न ही कोई परिचय भी हो सका. बात आयी गयी हो गयी.
इलाहाबाद में परीक्षा के समय यह सब स्वाभाविक रूप से याद आया. सोचा क्यों न डॉ रघुवंश के ही यहां चल कर इस कविता को पढ़ा और समझा जाय. पर उनसे कोई औपचारिक परिचय भी नहीं था, और अपरिचित व्यक्ति , और वह भी डॉ रघुवंश जैसे स्थापित साहित्यकार और विचारक के यहां जाने और अपना उद्देश्य बताने का एक स्वाभाविक संकोच भी था. पर उत्कण्ठा और आवश्यकता ने संकोच पर विजय पायी. मैं दोपहर में , तारीख मुझे याद नहीं, पर दिन हलकी सर्दियों के थे, उनके घर पहुंचा। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पास ही रहते थे. घर पर उनके यहां कोई आयोजन था, जिसका मुझे पता नहीं था. आज की तरह संचार सेवा न तो इतनी सुलभ थी और न ही उपयोगी. समय ले कर जाने की परम्परा भी नहीं थी सो, ऐसी आदत भी नहीं थी. दरवाज़ा खटखटाया . अंदर गया. उन्हें मैं पहचानता था. पर उनके लिए मैं अपरिचित था. उन्होंने उत्कण्ठा पूर्वक आने का उद्देश्य जानना चाहा. मैंने अपनी बात हिचकते हुए कही. थोड़ी देर के लिए तो वे भी चुप रहे, फिर पूछा कि मेरे यहां ही क्यों आये हो ? मैंने उन्हें , मानस चतुश्शती समारोह 1974 में बी एच यू में दिए गए भाषण और उस से स्वयं प्रभावित होने की बात कही. तब वे थोडा हंसे और मुझसे पूछा, " डॉ शिव प्रसाद सिंह कैसे है ?" डॉ शिव प्रसाद सिंह हिंदी के बी एच यू में रीडर थे, मेरे ज़िले के रहने वाले थे, और मुझसे बहुत ही अच्छी तरह परिचित भी थे. पर उनसे भी मेरी मुलाक़ात पिछले सात आठ महीने से नहीं हुयी थी. फिर भी मैंने कहा," वह ठीक हैं. और मुझ पर उनकी कृपा है. " तब उन्होंने कुछ औपचारिक सवाल पूछे और अचानक पूछा खाना खाये हो ? दोपहर हो गयी थी. फिर खुद ही कहा, " खाना खा लो फिर बात करते हैं. " भोजन का समय हो चुका था. खाना खाने के बाद कहा, " कल, ( दूसरे दिन ) आना, पढ़ा दूंगा. खाना भी यहीं खाना. ". मैंने उनके चरण छुए और वापस आ गया.
दूसरे दिन मैं उनके घर पहुंचा। उन्होंने कमरा बंद किया और मुझे पढ़ाना शुरू कर दिया. कुल 2 घंटे तक यह सत्र चला. फिर उन्होंने खाना खिलाया, और फिर 2 घंटे तक का अध्यापन चला. वह एक योग्य शिक्षक थे, और एक योग्यतम मनुष्य भी. मुझे लगा ही नहीं कि मैं नितांत अपरिचित व्यक्ति से मिल कर और उनसे पढ़ रहा हूँ. आज के घोर ट्यूशनीय और कोचिंग के लुटेरे माहौल में पढ़े मेरे युवा मित्र इस पर शायद विश्वास नहीं कर पाएंगे. वे इसे एक अपवाद और मेरा भाग्य भी कह सकते हैं. पर जो मुझ पर बीती है, वही आप से साझा कर रहा हूँ. यह अध्यापन का सिलसिला लगभग एक हफ्ते तक चला. मैं तो पढ़ने गया था ' राम की शक्ति पूजा '. पर उन्होंने पूरा कोर्स ही पढ़ा दिया. साथ में दोपहर का भोजन , विद्यादान के साथ घलुआ में ही मिला. डॉ रघुवंश की इस कृपा को याद कर के आज भी मन हुलास और कृतज्ञता से भर जाता है. अगर वह मेरे नियमित शिक्षक होते या मैं स्वयं इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्र होता तो, तो कोई विशेष बात नहीं थी. पर मैं था नितांत अपरिचित और बाहरी छात्र.
अपनी विकलांगता के कारण पैर से लिखने वाले प्रसिद्ध समाजवादी विचारक एवं लेखक डॉ.रघुवंश को 16 मई 2011 को नई दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ के 22 वें मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी ने विज्ञान भवन में डॉ. रघुवंश को दो लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र, सरस्वती की प्रतिमा तथा ताम्र पट्टिका का यह पुरस्कार प्रदान किया। 30 जून 1921 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के गोपामऊ कस्बे में जन्में डॉ. रघुवंश को उनकी पुस्तक ‘” पश्चिमी भौतिकी संस्कृति का उत्थान और पतन “’ पर यह पुरस्कार प्रदान किया गया । वे बचपन से ही विकलांग होने के कारण पैरों में पेन फंसा कर लिखते रहे और अब तक उनकी २६ पुस्तकें छप चुकी हैं।
जब मेरा चयन 1977 के बैच में पी सी एस ( पुलिस ) के लिए हो गया, तो मैं उन्हें यह सूचना देने गया, और जब उन्हें मैंने मिठाई का डिब्बा जो इलाहाबाद के ही एक प्रसिद्ध मिठाई की दूकान नेतराम के यहां से ले कर उन्हें देने गया , तो उन्होंने देर तक बातें की. और पुनः बिना खाना खिलाये आने नहीं दिया. आज शिक्षक दिवस पर मैं उस महान शिक्षक का स्मरण कर रहा हूँ. जीवन में पढ़े गए प्रेरणास्पद प्रसंगों के बीच जब ऐसे ही मर्मस्पर्शी
क्षण खुद के जीवन में आते हैं तो, जो अनुभूति होती है वह वर्णनातीत ही होती है.
- vss.
डॉ॰ रघुवंश जैसे व्यक्ति का स्मरण भी प्रेरणादायक है। वे सचमुच विशिष्ट भी थे और महान् भी। इस संस्मरण के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteस्मारक साहित्य के अन्तर्गत एक सुंदर और विवेकवर्धक लेख।
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