Friday, 18 September 2015

एक कविता, छलने की आदत, तुम नहीं भूले अब तक ! / विजय शंकर सिंह



चाहे शाम का धुंधलका हो,
या हो, गहरी, अंधेरी रात की स्याही,
सुबह की पौ फटती उषा की, लालिमा,
या फिर चमकते सूरज की, आशा,
हर मंज़र में, तुम्ही क्यों याद आते हो !

बारहा, अकेले मैंने इन मंज़रो को,
खुद में समेटना चाहा ,
मिटा के हस्ती अपनी, उन्ही मंजरों में,
खुद से बेखुद होने की कोशिश की,
पर, तुम उस बेखुदी में भी,
स्पर्श करते रहे हो, मुझे.
सहलाते रहे हो, मेरे ख्यालों को !

सोचा था, ज़िंदगी ,
खुद ही जीने वाली आदत है,
साँसे अपनी, देह अपना, मन अपना,
फिर, तुम इसमें कहाँ !
स्वार्थ का अतिरेक छलक छलक जाता है,
मुझ में ! है न !!

पर जब भी , हौसला कर के,
क़दम बढ़ाता हूँ, इस बियाबाँ में,
जहां सब खामोश है,
हवा की हल्की सरसराहट है बस। 
तेरी मौजूदगी के एहसास के बादल,
अचानक उमड़ घुमड़ कर,
मुझे पराजित कर देते हैं !

नहीं भुला पाता हूँ, अतीत को,
आज भी, हर मंज़र में,
बादलों के बनते बिगड़ते चित्रों में,रिस कर आती, उन अमृत बूंदों में,
सूरज की आस भरी, किरणों में,
चाँद के रूमानी, सफ़र में,
घोर निशा के, दूधिया कहकशाँ में
कितने रंग बदलते हुए,
नमूदार हो जाते हो अचानक तुम !


वक़्त कितना बीता, याद है  तुम्हे कुछ
पर छलने की आदत तुम नहीं भूले अब तक !!
-vss.


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