तुम, एक शब्द नहीं हो मात्र,
न ही हो, कोई भाव केवल ।
बिगलन के, मर्त्य क्षणों में,
गह्वर के तिमिर में, आलोक संधान हेतु,
बढे हांथों को, विश्वास का सम्बल थमाते,
आश्वासन पर आरूढ़,
कहीं से, मस्तिष्क में मेरे आ पैठते हो
वह हो तुम !
साकार, जिजीविषा हो, तुम,
दुर्दम्य इच्छा शक्ति ,
जीवन पथ की और जो ले जाए,
ऐसा संवेग हो तुम !
रक्त , मज्जा, अस्थि, मांस से निर्मित
इस देह, में निरंतर संचरित प्राण
तुम ही तो हो !
अभिलाषाओं के पथ पर,
आगे आगे गतिमान आलोक रेख,
शनैः शनैः ही सही,
तुम्हारा ही रूप है मित्र !
निशा की घोर और मादक तमिस्रा में ,
पुष्प दल में निरुद्ध , मिलिंद,
आया था जो ,
करने संधान करने पराग का,
प्रत्यूष की बेला में, उपजता,
मुक्तिभाव , बंदी मिलिंद का,
तुम ही तो हो !
इस क्षणभंगुर जीवन में,
जब सभी दीप पथ के,
विलीन होने लगें, अनंत में , तो,
उसी अनंत के गर्भ से, आ कर अचानक,
इक रेख जो प्रकाश की ,
दिखा जाते हो,,
वह तुम ही तो हो !
घोर कुहेलिका में,
थक कर , जब मैं किसी,
अज्ञात शिला पर, चुपचाप,
भग्न ह्रदय, स्वेद देह, विवर्ण मुख,
अरण्य की कुज्झटिका, में,
मार्ग की टोह लेता , बैठता हूँ,
तो, उन आपदा क्षणों में,
तुम्ही तो अवतरित होते हो ,
मेरे मित्र, .
( विजय शंकर सिंह )
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