Sunday 27 September 2015

एक कविता - आत्म विश्वास, / विजय शंकर सिंह




तुम, एक शब्द नहीं हो मात्र,
ही हो, कोई भाव केवल
बिगलन के, मर्त्य क्षणों में,
गह्वर के तिमिर में, आलोक संधान हेतु,
बढे हांथों को, विश्वास का सम्बल थमाते,
आश्वासन पर आरूढ़,
कहीं से, मस्तिष्क में मेरे पैठते हो
वह हो तुम !

साकार, जिजीविषा हो, तुम, 
दुर्दम्य इच्छा शक्ति , 
जीवन पथ की और जो ले जाए,
ऐसा संवेग हो तुम !


रक्त , मज्जा, अस्थि, मांस से निर्मित 
इस देह, में निरंतर संचरित प्राण 
तुम ही तो हो !

अभिलाषाओं के पथ पर,
आगे आगे गतिमान आलोक रेख,
शनैः शनैः ही सही, 
तुम्हारा ही रूप है मित्र !

निशा की घोर और मादक तमिस्रा में ,
पुष्प दल में निरुद्ध , मिलिंद 
आया था जो , 
करने संधान करने पराग का, 
प्रत्यूष की बेला में, उपजता 
मुक्तिभाव , बंदी मिलिंद का, 
तुम ही तो हो !

इस क्षणभंगुर जीवन में,
जब सभी दीप पथ के,
विलीन होने लगें, अनंत में , तो,
उसी अनंत के गर्भ से कर अचानक,
इक रेख जो प्रकाश की , 
दिखा जाते हो,, 
वह तुम ही तो हो !

घोर कुहेलिका में,
थक कर , जब मैं किसी,
अज्ञात शिला पर, चुपचाप,
भग्न ह्रदय, स्वेद देह, विवर्ण मुख,
अरण्य की कुज्झटिका, में,
मार्ग की टोह लेता , बैठता हूँ,
तो, उन आपदा क्षणों में,
तुम्ही तो अवतरित होते हो ,
मेरे मित्र, .

( विजय शंकर सिंह )

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