आज फेसबुक पर राज ठाकरे के दल म न से, के कुछ असामाजिक तत्वों जैसा आचरण करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने जैन मंदिर के सामने , यह जानते हुए और मानते हुए कि जैन समाज एक शाकाहारी भोजन पद्धति का समाज है , मांस भुना और अपना विरोध पर्युषण पर्व पर लगाए गए , प्रतिबन्ध के विरुद्ध, विरोध दर्ज़ कराया। प्रतिबन्ध , सरकार ने लगाया है , न कि जैन समाज ने. तो , इन कार्यकर्ताओं को को समाज के विरुद्ध अनर्गल बयानबाज़ी और उन्हें आहत करने वाले कृत्य को करने का क्या औचित्य है। अगर इस प्रकार का प्रदर्शन करना ही था तो , उसका स्थान जैन मंदिर के बजाय बी एम सी का मुख्यालय या मंत्रालय चुना जाना चाहिए था। मांस पर अतार्किक प्रतिबन्ध तो गलत है ही , और अब तो वह हाई कोर्ट के डर से पहले की परम्परा के अनुसार , दो दिन का कर दिया गया है , पर इस प्रकार का प्रदर्शन, विरोध नहीं, बल्कि गुंडागर्दी ही है। वैसे भी शिव सेना और म न से राजनीतिक दल कम , अराजक संगठन मुझे अधिक लगते हैं।
शिव सेना और म न से एक राजनीतिक दल भले ही हो, बल्कि इसका आचरण उच्छृंखल लोगों की जमात सा लगता है. इसका इतिहास, अगर सही शब्द प्रयोग करें तो सामूहिक और अराजक गुंडई से भरा हुआ है. मुम्बई एक कॉस्मोपॉलिटन नगर है और ब्रिटेन को पुर्तगाल से दहेज़ में मिला था. इस नगर के सागर तटीय होने के कारण, समुद्रपारीय व्यापार बहुत बढ़ा और यह देश की आर्थिक राजधानी बन गया. यह प्रेसीडेंसी टाउन था. भारत में इसके अतिरिक्त कलकत्ता, और मद्रास दो और प्रेसीडेंसी टाउन थे. यह तीनों शहर अंग्रेजों के चहेते शहर थे. मुम्बई प्रेसीडेंसी में महाराष्ट्र, गुजरात और सिंध भी था. इस प्रकार पूरा पश्चिमोत्तर सागर तट की यह राजधानी थी. बाद में पाकिस्तान के निर्माण के बाद , सिंध पाक में और जब 1957 में देश में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो, गुजरात और महाराष्ट्र अलग अलग प्रांत बने, और मुम्बई महाराष्ट्र की राजधानी बना. लेकिन वह एक प्रांत की राजधानी बन ने के बाद भी, लखनऊ , पटना या भोपाल की तरह एक प्रांत की राजधानी ही बन कर नहीं रह सका. वह दिल्ली, कलकत्ता, और मद्रास से भी अधिक आबादी और आर्थिक गतिविधियों वाला नगर किसी समय था। आज भी वह दिल्ली बाद आबादी के लिहाज़ से सबसे बड़ा महानगर है। .
औद्योगिक उन्नति तो इस नगर की 19 वीं सदी में ही हो गयी थी. फारस या ईरान से आये हुए पारसी समुदाय ने इस नगर को न केवल अपनाया , बल्कि महारानी के इस गले के हार को समृद्धि से भी परिपूर्ण किया. फिल्मों का आविष्कार हो चुका था. 1913 में दादा साहब फाल्के ने पहली फ़िल्म जो मूक थी , राजा हरिश्चंद्र बना कर मनोरंजन की दुनिया में क्रान्ति कर दी थी. फ़िल्म व्यवसाय ने, गीत, संगीत, सहित सभी ललित कलाओं के लिए उन्नति का मार्ग खोल दिया. यह फ़िल्म हिंदी में बनी थी. मराठी क्षेत्र में हिंदी में बनने वाली इस फ़िल्म का प्रतीकात्मक महत्व यह है कि यह नगर किसी भी प्रकार के धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषाई कठघरे से बाहर था. सर्वजन था, सर्वसुलभ था और सर्वप्रिय भी था. फ़िल्म के साथ साथ यह टेक्सटाइल उद्योग और बड़े औद्योगिक घरानों के कार्यालयों का मुख्य केंद्र बना. इस शहर का मौसम, और इसकी भौगोलिक स्थिति ने इसे और उन्नति के लिए प्रेरित किया.
नगर जब समृद्ध होता है तो सब कुछ नहीं चमकता है. जो चमक दमक दिखती है, उसके गर्भ में जो अंधकार के पॉकेट छिपे होते हैं वह कम त्रासद नहीं होते हैं.औद्योगीकरण ने धनपतियों की ही वृद्धि नहीं की बल्कि मज़दूरों और स्लम की भी पर्याप्त वृद्धि की. गगन चुम्बी अट्टालिकाओं के साथ साथ दीमक की बांबियों की तरह फ़ैली हुयी झुग्गी झोपड़ियों ने भी अपना ठौर तलाशा और, वह भी साथ ही साथ बने रहे. ऐश्वर्य और विपन्नता , समृद्धि और अभावों का भी अजीब सह अस्तित्व होता है। भला प्रकाश और अंधकार अलग अलग रह सकते हैं कभी ? इसी महानगर के गर्भ में धारावी है जो दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गी झोपड़ी भरी स्लम है. जैसे इस दुनिया में कई दुनिया और हैं वैसे ही इस मुम्बई में कई मुम्बई प्याज के छिलकों के समान पर्त दर पर्त भी है. पर हम सब की निगाह शिखर पर ही जाती है, अधोपाद पर नहीं.
विकास और अपराध का सम्बन्ध चोली दामन का है. हर आर्थिक समृद्धि के पीछे, कोई न कोई अपराध ज़रूर होता है. भारी उद्योगों ने देश भर से लोगों को रोजगार के लिए मुम्बई की तरफ आकर्षित किया. आगे चल कर , प्रवासी उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों के अपने अपने समूह बन गए. इस प्रकार मुम्बई में क्षेत्र के आधार पर तीन समूह हो गए. एक मराठी भाषियों का जो नए राज्य के गठन के बाद, मुम्बई को अपना और सिर्फ अपना समझते थे. दुसरे दक्षिण भारत का और तीसरे उत्तर भारतीयों का. . प्रवासी समुदाय , मूल समुदाय से अधिक मेहनती और गंभीर होता है क्यों कि वह एक निश्चित उद्देश्य के साथ कुछ कमाने और रोज़गार के लिए आता है. वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए निरंतर संघर्षरत रहता है। मेहनत और प्रगति की इस प्रतिस्पर्धा में मूल मराठी समुदाय पिछड़ता चला गया और अपनी कुंठा और पिछड़ेपन का कारण उसने इन प्रवासी समुदायों को माना. इस प्रकार इन समुदायों में क्षेत्रवाद का उदय हुआ और मुम्बई सिर्फ मराठी माणूस की है , का एक सिद्धांत गढ़ा गया. उस समय इस असंतोष को स्वर दिया बाला साहब ठाकरे ने. उन्होंने , मराठी लोगों की बेरोज़गारी, पिछड़ेपन का मूल कारण , इन प्रवासी समुदायों का मुम्बई में मिलने वाली नौकरियों पर बढ़ते प्रभाव को माना. बाल ठाकरे मूलतः मध्य प्रदेश के इंदौर के रहने वाले थे , एक कार्टूनिस्ट थे और वे मराठी पत्र ' मार्मिक ' में कार्टून और व्यंगात्मक लेख लिखा करते थे. उनके लेख के विषय मूलतः क्षेत्रवाद ही हुआ करते थे. इस प्रकार 1966 में उन्होंने शिव सेना की स्थापना की. शिवा जी मराठी अस्मिता के प्रतीक और हिन्दू पद पादशाही के आधार के रूप में उभरे.
शिव सेना का कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं था और न ही कोई राजनीतिक दृष्टि थी. पर उसके पास उद्धत और उद्दण्ड मराठी युवकों का समूह ज़रूर था. कोई भी राजनीतिक दल अगर विचारधारा से शून्य है तो, वह सिर्फ एक अराजक समूह की तरह उद्देश्य हीन भीड़ ही होता है. इस समूह ने सबसे पहले दक्षिण भारतीय प्रवासियों को अपनी घृणा के निशाने पर लिया . इसमें कुछ बढे आपराधिक समूह भी थे , जो अवैध शराब के कारोबार और तस्करी में लिप्त थे. शिव सेना की उद्दंडता का पहला स्वाद इन्ही दक्षिण भारतीय समूहों ने झेला. उस समय मुम्बई की राजनीति में कांग्रेस और कम्युनिस्ट बहुत सक्रिय थे. कांग्रेस की तो सरकार ही थी और ट्रेड यूनियन होने के कारण कम्युनिस्ट भी बहुत प्रभावी थे. शिवसेना पहले नगर निगम के चुनावों में सक्रिय हुयी और उसे सफलता भी मिली. बाल ठाकरे मुम्बई में लोकप्रिय तो थे पर लोकप्रियता विपरीत कारणों से थी. उनकी भाषण कला अत्यंत उत्तम थी ,और सामना जो शिव सेना का अधिकृत मुख पत्र है , में छपने वाले तीखे संपादकीयों ने बाल ठाकरे को न केवल लगातार ख़बरों में रखा, बल्कि उन्हें मुम्बई का एक प्रकार से बिना ताज का बादशाह बना दिया. मुम्बई की फ़िल्म नगरी हो, या अर्थ नगरी सभी बाल ठाकरे के यहां हाज़िरी लगाते थे. यह उनकी श्रद्धा थी या नहीं यह तो उनकी अंतरात्मा जाने पर उनकी मज़बूरी और रणनीति तो थी ही. उस समय भाजपा का प्रभाव बहुत नहीं था. पर वैचारिक धरातल, विशेष कर दक्षिणपंथी सोच के कारण दोनों ही एक दुसरे के नज़दीक आये. शिव सेना को भाजपा के कारण अखिल भारतीय पहचान मिली और वह नगर निगमीय कलेवर से मुक्त हुयी तथा भाजपा को, मुम्बई और महाराष्ट में आधार भी मिला. इस प्रकार यह एक संक्षिप्त विवरण है शिव सेना के उदय और विकास का।
बाल ठाकरे के निधन के बाद शिव सेना के अंतःपुर में जो पारिवारिक झगड़ा हुआ उस से एक नया दल बना, ' महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ' या म न से . बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव को शिव सेना की कमान मिली और बाल ठाकरे के भतीजे , राज ठाकरे म न से के प्रमुख बने। विचारधारा के नाम पर दोनों के पास केवल मराठी अस्मिता का कार्ड है अतः यह एक घृणा फैलाने की प्रतिद्वंद्विता हुयी .दोनों जो अब भी जारी है। मांस प्रतिबन्ध पर , दोनों की आपसी प्रतिद्वंद्विता विरोध भी साफ़ साफ़ दिख रही है। दोनों ने जम कर यह घृणा कार्ड खेला. जिसमे निशाना उत्तर भारतीय बने और साथ ही साथ हिंदुत्व के कार्ड ने मुस्लिम विरोध को जन्म दिया. परिणाम स्वरूप यह दोनों दल एक अराजक समूह से अधिक नहीं हुए. भाजपा और शिव सेना ने सरकार तो ज़रूर साथ साथ बनायी, बन दोनों में रस्साकशी का दौर चल रहा है.
भाजपा की जब केंद्र में अपने बूते सरकार बनी तो, यह दल अपने मूल एजेंडे को लेकर सक्रिय हो गया. मुम्बई में जैन समाज के प्रमुख पर्व पर्युषण पर, पहले से ही मांसाहार पर रोक के लिए दो दिन हेतु प्रतिबन्ध का आदेश जारी किये जाने की परम्परा थी.. इस बार यह आदेश दो दिन के बजाय चार दिन का कर दिया गया. इस प्रतिबन्ध का विरोध शिव सेना और मनसे दोनों ने किया. यह एक आश्चर्यचकित करने वाली प्रतिक्रिया है. क्यों कि दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। शिव सेना और मनसे ने एक दुसरे से बढ़ कर इस प्रतिबन्ध का विरोध किया.मनसे और शिव सेना ने चिकेन और मटन की दुकाने लगाईं तथा सहयोगी होने के कारण , भाजपा की स्थिति ऐसे प्रदर्शनों से असहज भी हुयी. हद तो तब हो गयी जब जैन मंदिर के समक्ष मांस भूना गया और अत्यंत अशिष्ट और उत्तेजना फैलाने वाला प्रदर्शन किया गया. जैन समाज के अपने सिद्धान्त हैं और भारत के बहु धार्मिक वातावरण में इस समुदाय को भी अपने रीति रिवाज और उपासना पद्धति का पालन करने का अधिकार है. लेकिन शिव सेना और मनसे के इस उत्तेजना फैलाने वाले विरोध ने एक अराजक और आतंक का माहौल ही बनाया. शिव सेना की धमकी, कि वह जैन समाज का अहित करेंगे, एक उन्मादित बयान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. अगर यही फैसला पूर्व की भाँति दो दिन का ही रखा जाता और इसमें सबकी सहमति भी ली गयी होती तो ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न नहीं होती. आखिर जब मामला अदालत में गया तो, अंततः सरकार को दो दिन का ही प्रतिबन्ध रखना पड़ा.जब भी कोई कदम किसी समुदाय की दुर्भावना से प्रेरित हो कर उठाया जाएगा तो, वह विवादित ही होगा.
( विजय शंकर सिंह )
No comments:
Post a Comment