कुछ महीनों पहले बांग्ला देश में कुछ ब्लॉगरों की निर्मम ह्त्या हुयी थी. उस ह्त्या की निंदा भारतीय मिडिया में बहुत हुयी थी. बांगला देश लंबे समय तक.सैनिक तानाशाही शासित देश पाकिस्तान का एक अंग रहा है। 1971 में उसे आज़ादी मिली और उसने शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष का मार्ग चुना। पर शीघ्र ही , वहाँ पर भी सैनिक तानाशाही आ गयी और शेख मुजीब सत्ता पलट के षड्यंत्र में मारे गए। हालांकि इस समय वहाँ जो राज व्यवस्था है वह जनतांत्रिक और धर्म निरपेक्षता पर आधारित है। पर धर्मान्धता के तत्व वहाँ पर भी हावी हैं। इन्ही धर्मांध तत्वों के कारण तस्लीमा नसरीन को जलावतनी भोगनी पडी और चार युवा लेखकों की ह्त्या कर दी गयी। भारत में सोशल मिडिया पर इस विषय पर बहुत शोर मचा। मचना भी चाहिए था। पर इसी से मिलती जुलती एक घटना कर्नाटक में भी हुयी है। हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ साहित्यकार प्रो एम एम कालबुर्गी की दुखद ह्त्या 30 अगस्त 2015 को कर दी गयी। ह्त्या का कारण , प्रोफ़ेसर कालबुर्गी के विचारों से असहमति बतायी जाती है। यह भारत के लिए एक नया ट्रेंड है , और निश्चित रूप से तालिबान का मानसिक अनुकरण है।
प्रोफ़ेसर कालबुर्गी का जन्म 1938 की 28 नवम्बर को बीजापुर जिले के यारगल गाँव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा , अपने गाँव से ही प्राप्त करने के बाद वह उच्च शिक्षा के लिए कर्नाटक विश्वविद्यालय चले गए , जहां से उन्होंने 1962 में कन्नड़ साहित्य में एम ए की डिग्री प्राप्त की। कन्नड़ के वचन ( कविता ) साहित्य के वे विद्वान थे और उन्हें , उनके शोध पत्रों के संग्रह , मार्ग 4 के लिए 2006 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। 1966 में वह कर्नाटक विश्वविद्यालय में कन्नड़ के लेक्चरर और फिर 1982 में वहीं प्रोफ़ेसर नियुक्त हो गए। वह बाद में कन्नड़ के विभागाध्यक्ष और बासवेश्वर पीठ के प्रमुख भी हो गए। इन्होने कन्नड़ भाषा में 103 पुस्तकों और 400 निबंधों की रचना की। लेकिन उनकी प्रसिद्धि ' मार्ग ' श्रृंखला के लेखों के कारण हुयी। इन लेखों के कारण वह विवादित भी कम नहीं हुए। बाद में वह , कन्नड़ विश्वविद्यालय
, हम्पी के कुलपति नियुक्त हुए। इन्होने आदिल शाही साहित्य , प्राचीन कन्नड़ साहित्य , और कर्नाटक के अल्पज्ञात राज परिवारों के साहित्यिक योगदान पर शोध कार्य करवाये। उनका उल्लेखनीय शोध कार्य 12 वीं सदी का शरण आंदोलन था। उन्होंने इस विषय पर शोध अध्ययन के लिए पांडुलिपियों की खोज में लंदन , के कैम्ब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों की भी खाक छानी। वह कर्नाटक सरकार के ' समग्र वचन सम्पुट ' के संपादक भी रह चुके थे।
विवादों से वह कभी अछूते नहीं रहे। कर्नाटक के दो प्रमुख जातीय समूहों में से एक समूह , लिंगायत की आलोचना, के कारण वह दक्षिण पंथी हिंदुत्व संगठनों के निशाने पर 1980 से ही थे। 12 वीं सदी के दार्शनिक , बासव , जो लिंगायतों में अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे , की आलोचना के कारण , यह विवादित हो गए थे। कन्नड़ लोक कथा और धर्म संस्कृति के शोध लेखों की शृंखला , ' मार्ग -1' में इन्होने बासव की आलोचना की। मूर्तिपूजा के भी यह प्रबल विरोधी थे। कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक बासव और उनकी पत्नी और बहन ने वीर शैवम् सम्प्रदाय की नीवं रखी थी। अपने लेख संग्रह ' मार्ग ' में उन्होंने , बासव और बहन के सम्बन्ध में कुछ आपत्ति जनक अंशों को स्थान दिया था। जिसके कारण 1989 में लिंगायत मंदिरों के प्रमुखों ने उनका जबरदस्त विरोध किया था। इसी प्रकार जून 2014 में , अंधविश्वास विरोधी अधिनियम पर बंगलुरु में आयोजित एक सेमीनार में , इन्होने प्रख्यात कन्नड़ साहित्यकार और ' घट श्राद्ध ' के लेखक यू आर अनंतमूर्ति , की 1996 में लिखी गयी एक पुस्तक , ' बेथाले पूजे यके कुडडु " ( नग्न मूर्ति की पूजा क्यों गलत है ) को उद्धृत करते हुए , मूर्ति पूजा के बारे अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी की , जिसका व्यापक विरोध हुआ। कुछ आलोचकों ने इनपर , अनंतमूर्ति को मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में गलत तरीके से उद्धृत करने का भी आरोप लगाया।
इन्ही प्रोफ़ेसर कालबुर्गी को 30 अगस्त को प्रातः जब वे धारवाड़ स्थित अपने आवास पर थे तो उनकी ह्त्या दी गयी। यह कर्नाटक के साहित्य और बुद्धिजीवी जगत के लिए स्तब्ध देने वाली घटना है। इस ह्त्या की घटना को इनसे जुड़े विवादों को ह्त्या के कारण के रूप में देखा रहा है। मानव समाज में विवाद कोई नयी बात नहीं है। कालबुर्गी की बात , तर्कों और शोधों से असहमत हुआ जा सकता है , पर इस असहमति की परिणति , उनकी ह्त्या हो , यह अनुचित , निंदनीय और अछम्य है। पाकिस्तान , अफगानिस्तान सहित अनेक इस्लामी देश , अपनी विचारधारा से इतर विचारधारा के लोगों को सहन नहीं कर पाते हैं। ऐसी मान्यता भारत जैसे उदार देश में एक धारणा के रूप में प्रचलित है। जब तस्लीमा नसरीन के पीछे , बांग्ला देश का कट्टर समाज हाँथ धो कर पड़ा था , तो तस्लीमा के समर्थन में , देश के सभी बुद्धिजीवी खड़े हो गए थे। हालांकि मुस्लिमों का एक तबक़ा उनके विरोध में भी था। उनके समर्थन में वे भी थे जो दक्षिण पंथी हिंदुत्व का समर्थन करते थे। क्या वह केवल इस लिए तस्लीमा के साथ थे कि , तस्लीमा अपने उपन्यास ' लज्जा ' में बांग्ला देश के हिन्दुओं के जघन्य उत्पीड़न का उल्लेख किया था ? यह सेलेक्टिव समर्थन था क्या ? आज डॉ कालबुर्गी की ह्त्या पर वह सारे मुखर हिंदुत्व के पुरोधा जो तस्लीमा के साथ खड़े थे आज मौन हैं। कालबुर्गी की ह्त्या के बाद भी , ऐसे ही एक और विद्वान , श्री भगवान को भी धमकियां मिल रही हैं। एक मुस्लिम लेखक बशीर जो मलयालम में वाल्मीकि रामायण पर एक लेख श्रृंखला लिख रहे थे , को भी धमकियां मिली हैं।
समर्थन किसी के विचारों का हो या न हो ,पर उसके विचारों की अभिव्यक्ति के अधिकार का समर्थन तो करना ही चाहिए। तालिबान हो या आई एस आई एस , यह संगठन बाद में बना , पहले विचार बना और तब क्रियान्वयन शुरू हुआ। अभिव्यक्ति का विरोध , अगर आप , तर्क समृद्ध और विचार धुंधता से मुक्त नहीं हैं तो नहीं कर सकते है। ऐसी दशा में हिंसा ही एकमात्र विकल्प रूप में सामने आती है। कर्नाटक में राम सेने जैसे संगठन जो मोरल पुलिसिंग कर रहे हैं , वह एक प्रकार के आतंकवाद का शैशव ही है। पूरा समाज , एक ही फ्रीक्वेंसी
पर न तो कभी सोच सकता है , न कभी सोचा है और ही कभी आगे सोचेगा। मूर्ति पूजा का विरोध , सनातन धर्म परम्परा में पहली बार नहीं हुआ है। स्वामी दयानंद ने मूर्तिपूजा को शास्त्र सम्मत और वेद सम्मत न मानते हुए एक नया पंथ, आर्य समाज की स्थापना ही कर दी थी। षड्दर्शन में एक पूरा का पूरा दार्शनिक पंथ लोकायत , नास्तिकवाद पर आधारित है। धर्म में जो विचार संकुचन की स्थिति विकसित हो रही है , वह देश , समाज और अंततः धर्म के लिए घातक ही होगी।
-vss
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