( यह जनरल नियाज़ी की रिवॉल्वर है ,जो उन्होंने आत्म समर्पण के समय जनरल अरोड़ा को सौंपी थी। रिवॉल्वर ऐसे ही घिर्री खाली कर के नाल पकड़ कर सौंपी जाती है )
युद्ध समाप्त हो गया था । बांग्ला देश का उदय और पाकिस्तान का आधार हिल गया था। भारत की यह सामरिक , कूटनीतिक और राजनैतिक विजय थी। देश में इंदिरा सर्वमान्य नेता के रूप स्थापित हो चुकी थीं। उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी। जिस ऐतिहासिक समर्पण पत्र , ( Instrument of Surrender ) पर जनरल नियाज़ी ने हस्ताक्षर किये थे , वह इस प्रकार था। यह दस्तावेज़ दिल्ली के नेशनल म्यूज़ियम में सुरक्षित है और उस गौरवपूर्ण क्षण का साक्षी है।
The PAKISTAN Eastern Command agree to surrender all PAKISTAN Armed Forces in BANGLA DESH to Lieutenant-General JAGJIT SINGH AURORA, General Officer Commanding in Chief of Indian and BANGLA DESH forces in the Eastern Theater. This surrender includes all PAKISTAN land, air and naval forces as also all para-military forces and civil armed forces. These forces will lay down their arms and surrender at the places where they are currently located to the nearest regular troops under the command of Lieutenant-General JAGJIT SINGH AURORA.
The PAKISTAN Eastern Command shall come under the orders of Lieutenant-General JAGJIT SINGH AURORA as soon as the instrument has been signed. Disobedience of orders will be regarded as a breach of the surrender terms and will be dealt with in accordance with the accepted laws and usages of war. The decision of Lieutenant-General JAGJIT SINGH AURORA will be final, should any doubt arise as to the meaning of interpretation of the surrender terms.
Lieutenant JAGJIT SINGH AURORA gives a solemn assurance that personnel who surrender shall be treated with dignity and respect that soldiers are entitled to in accordance with provisions of the GENEVA Convention and guarantees the safety and well-being of all PAKISTAN military and para-military forces who surrender. Protection will be provided to foreign nationals, ethnic minorities and personnel of WEST PAKISTANI origin by the forces under the command of Lieutenant-General JAGJIT SINGH AURORA.
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(JAGJIT SINGH AURORA)
Lieutenant-General General Officer Commanding in Chief India and BANGLA DESH Forces in the Eastern Theatre 16 December 1971 |
(AMIR ABDULLAH KHAN NIAZI)
Lieutenant-General Martial Law Administrator Zone B and Commander Eastern Command (Pakistan) 16 December 1971 |
पाकिस्तान के लिए यह आत्मसमर्पण , उसकी गरिमा और विशेष कर , सेना के लिए वज्रपात की तरह था। पूरे विश्व में पाक सेना की क्षवि एक आततायी , बर्बर और अव्यावसायिक सैन्य बल की बन गयी। इस से न सिर्फ सेना की अकर्मण्यता प्रदर्शित हुयी और विश्वसनीयता ही घटी , बल्कि सैनिक कमांडरों के नेतृत्व क्षमता पर भी गंभीर प्रश्न उठे। जनरल याहिया खान जो खुद सेना प्रमुख रह चुके थे, की क्षमता पर भी अंगुलियां उठीं। पाकिस्तान , कूटनीतिक , सामरिक और राजनैतिक तीनों ही क्षेत्रों में एक विफल राष्ट्र रहा।
इस युद्ध के घटनाक्रम , विशेष कर , आत्मसपर्पण और शर्मनाक पराजय के कारणों की जांच और दोषी सैन्य अधिकारियों का दायित्व निर्धारित करने के लिए , जस्टिस हमीदुर्रहमान आयोग का गठन किया गया। आयोग की रिपोर्ट बहुत समय तक गोपनीय रखी गयी थी , पर अब जब वह डीक्लासीफाइड हो गयी तो उस पर पाकिस्तान के साथ साथ भारत में भी गंभीर चर्चा शुरू हुयी। नीचे हम , रिपोर्ट के आलोक में , पाकिस्तान को शर्मसार करने वाले इस आत्मसपर्पण , जो संभवतः विश्व के सैन्य इतिहास का एक अनोखा उदाहरण है , की समीक्षा करेंगे। जनता के समक्ष , समारोह पूर्वक किया गया किसी जनरल का यह आत्म समर्पण, विश्व इतिहास की अकेली और अनोखी घटना है।
हमीदुर्रहमान आयोग के अनुसार , युद्ध के कारण -
1 - हमीदुर्रहमान आयोग ने युद्ध के कारणों की समीक्षा करते हुए , पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के बीच संघर्ष की शुरुआत सैनिक तानाशाही के प्रारम्भ को ही मानते हैं। जनरल अयूब खान और फिर जनरल याह्या खान के शासन में जो मार्शल क़ानून लगा उसने देश के राजनीति की दिशा ही बदल दी। भारत और पाकिस्तान दोनों साथ साथ आज़ाद हुए थे, पर भारत में लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत होतीं गयीं ,जब कि पाकिस्तान में जनरलों की महत्वाकांक्षा ने नागरिक और चुने हुए लोकतंत्रात्मक शासन को अपदस्थ कर दिया।
2 - दूसरा प्रमुख कारण , दोनों पाकिस्तानों ( पश्चिमी और पूर्वी ) के बीच भाषा के विवाद का होना था । पाकिस्तान ने आज़ाद होते ही अपनी राष्ट्रभाषा , उर्दू स्वीकार की , जब कि , पूर्वी पाक की भाषा , बांग्ला , जो उर्दू से कहीं अधिक समृद्ध और अधिक क्षेत्र और आबादी में बोले जाने वाली थी , की उपेक्षा हुयी।
3 - पाकिस्तान के सेना , और नागरिक प्रशासन में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की अपेक्षाकृत कम भागीदारी का होना।
4 - पूरे देश के बजट में से , पूर्वी पाक की हिस्सेदारी , स्वतन्त्रता के बाद से ही , हर प्रति वर्ष कम होती गयी। इस से पश्चिमी पाक की तो प्रगति और विकास तो बहुत हुआ पर पूर्वी पाक पिछड़ा ही रहा।
5 - पूर्वी पाक में इस भेदभाव के कारण , असंतोष उपजा और सेना को उस असंतोष के दमन में व्यस्त रखा गया , जिस से , पूर्वी पाक की बंगाली जनता , सेना के विरुद्ध हो गयी और सेना, बांग्ला जन समुदाय से कटती चली गयी।
आयोग की दृष्टि में यह इस युद्ध की पीठिका के मूल कारण थे।
आयोग ने पाक सेना की संगठनात्मक कमज़ोरियों की ओर भी इंगित किया था , जो इस प्रकार है।
पाक सेना की आतंरिक दुर्बलताएँ -
1 - पाक सेना की पूर्वी कमांड , भारतीय सेना की संख्या बल की तुलना में कम थी। इसके पास 4 डिवीज़न , 2 स्वतंत्र ब्रिगेड ,और एक आर्मर्ड स्क्वैड्रन था।
2 - जनरल नियाज़ी , भारतीय सेना की , सबल सघन उपस्थिति का पूर्वानुमान नहीं लगा सके , जब कि , ग्रुप मुख्यालय से उन्हें बराबर इस प्रकार की अभिसूचनाएं दी जाती रहीं कि सेना का जमाव और दबाव पूर्वी पाक के चारों ओर बढ़ता जा रहा है। इन सबके बावजूद भी जनरल नियाज़ी , अपनी रणनीति में सुधार नहीं कर सके , और उन्होंने जल्दबाज़ी में दो अस्थायी डिवीज़न , 36 और 39 का गठन कर दिया। इस से सेना का रिजर्व , जो आकस्मिकता के लिए सदैव रखा जाता है , वह इन डिवीजन्स बंट गया।
3 - इस पराजय के बीज तो 1958 में ही बोये जा चुके थे। 1958 में पाकिस्तान में सैनिक क्रान्ति हुयी और जनरल अयूब खान पहले सैनिक तानाशाह बने। वह चीफ मार्शल लॉ प्रशासक भी बने। सेना ने अपना व्यावसायिक कार्य छोड़ कर , राजनीति में रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया। लेकिन जनता के बीच सेना स्वीकार्य नहीं हुयी और असंतोष पनपता रहा। मार्शल क़ानून लागू होने कारण , सेना की ऊर्जा और समय , नागरिक असंतोषों को दबाने में लगने लगा । परिणामतः , सेना का आधार, अनुशासन और अभ्यास प्रभावित होने लगा। जिस से सेना की दक्षता बुरी तरह प्रभावित हुयी। हमीदुर्रहमान आयोग की यह टिप्पणी देखिये जो उन्होंने रिपोर्ट के पृष्ठ 12 पर की है -
· ".While learning the art of politics they gradually became distant from their primary function of soldiering. ".
[extracts from pg 12]
"राजनीति की कला सीखने के चक्कर वे धीरे धीरे सैनिक के दायित्व और कृत्य से दूर होते चले गए।
4 - रिपोर्ट में जनरल नियाज़ी को पान की तस्करी , जो भारतीय बंगाल से बहुत होती थी, में लिप्त और कतिपय चारित्रिक दोषों से युक्त होने की भी बात भी की गयी है।
( पृष्ठ - 15 )
5 - इसके अतिरिक्त सेना के वरिष्ठ अधिकारियों में भी जो पूर्वी पाकिस्तान में नियुक्त थे , में अनेक चारित्रिक दोष आ गए थे। इन सब दोषों का सीधा प्रभाव उन अधिकारियों की नेतृत्व क्षमता पर भी पड़ा। सेना युद्ध के लिए उतनी समर्पित नहीं रह गयी थी , जितना कि उसे होना चाहिए था।
( पाकिस्तान के समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार की कतरन )
1971 के युद्ध में , पाक वायु सेना की भूमिका -
पूर्वी पाकिस्तान में, पाक वायु सेना का केवल एक ही बेस कैंप था। पूर्वी पाक के हिस्से में विकास की उपेक्षा का दुष्परिणाम , पाकिस्तान को इस युद्ध में भोगना पड़ा। एफ - 86 सेबर जेटों के केवल 12 लड़ाकू विमानों की एक स्क्वैड्रन थी। उनके एयर बेस पर भी दूर तक भांप सकने वाला राडार यन्त्र भी नहीं था। जो राडार था भी , उसकी भी क्षमता 20 - 25 मील तक ही अनुमान लगाने की थी। ऐसी स्थिति में , अगर उन पर कोई हवाई हमला हो भी जाता है तो उनके पास प्रतिरोध के लिए तैयार होने हेतु , केवल 4 मिनट का ही समय उपलब्ध था। इन 12 लड़ाकू विमानों में से 3 विमान युद्ध प्रारम्भ होने के पहले से ही उड़ान योग्य नहीं थे। अब उनके पास केवल 9 विमान शेष थे , जब कि भारत के पास कुल 10 स्क्वैड्रन की शक्ति थी। ढाका एयर पोर्ट की हवाई पट्टी पर केवल एक ही विमान भेदी तोप थी , जिसकी मारक क्षमता केवल 7000 फ़ीट की थी। यह मारक क्षमता प्रतिरोध को देखते हुए भी कम थी। इस लिए जब 3 दिसंबर की रात में पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान ने जैसे ही हवाई हमला शुरू किया , वैसे ही 6 दिसंबर तक ही , पूर्वी मोर्चे पर वायु सेना के बचे हुए 9 विमान भी नष्ट हो गए। वायु सेना पूर्वी मोर्चे पर फिर दिखी ही नहीं। हालांकि भारत को भी कुछ लड़ाकू विमान खोने पढ़ें। पर यह नुकसान , पाक वायु सेना की तुलना में बहुत काम था।
जनरल याह्या खान की भयंकर भूलें -
1971 के युद्ध के दौरान जनरल याह्या खान , पाकिस्तान के मुख्य मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर थे। इस युद्ध के समय वह एक असफल जनरल , अक्षम प्रशासक और सुस्त कूटनीतिज्ञ रूप में ही नज़र आये। पूर्वी पाक में हुयी बदहाली के लिए वह और उनकी शासन नीति बहुत ही अधिक जिम्मेदार हैं। 1970 में उनके कार्यकाल में पाकिस्तान में चुनाव हुए थे। उस आम चुनाव में , पूर्वी पाक में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग और पश्चिमी पाक में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। अगर अवामी लीग के शेख मुजीब को लोकतांत्रिक अधिकारों के उपभोग का अवसर दिया गया होता तो , पाक के लिए यह त्रासदी शायद टल जाती। जनरल याह्या खान को जनादेश का सम्मान करना चाहिए था। पर उनके सलाहकारों ने उन्हें गलत सलाह दी और उनसे जो भयंकर भूल हुयी वह पाकिस्तान के विघटन का कारण बनी । 2 मार्च 1971 को ढाका में , पाकिस्तान के नेशनल असेम्बली का जो सत्र आयोजित होना चाहिए था वह स्थगित हो गया। यह घटना पूर्वी पाक के अलग होने का प्रथम बीजांकुर थी। जनरल याह्या , शेख मुजीब से कोई समझौता न कर सके और उन्होंने 26 मार्च को पूर्वी पाक में सैनिक शासन लागू कर दिया। यह एक ऐसा विंदु था , जहां से वापस लौटना सम्भव नहीं था। यह पाकिस्तान के विघटन का प्रारम्भ था।
पाक ने अपने पूर्वी सैनिक कमान को कोई भी स्पष्ट निर्देश कभी नहीं दिया और उन्हें हमेशा झूठे भरोसे में रखा। उन्होंने , पूर्वी कमान को , पूर्वी पाक के सभी नगरों और ढाका को किले में बदल देने का सुझाव दिया ,उनका मानना था , कि इस से वे मुक्ति बाहिनी से भी सुरक्षित रहेंगे और भारत को एक एक नगर जीतने के लिए अधिक समय और बल भी लगाना पडेगा। पाक की सारी रणनीति , अमेरिकी कूटनीति पर आधारित थी। वह यह सोच के निश्चिन्त था कि युद्ध लंबा खिंचेगा और संयुक्त राष्ट्र युद्ध प्रारम्भ होते ही , युद्ध विराम करा देगा। हालांकि ऐसा हुआ भी। पर रूस के भारत के पक्ष में खुल कर आ जाने के कारण , पाक के इरादों पर पानी फिर गया। इस लिए जब सेना मुख्यालय से बांग्ला देश के नगरों को किले में बदल देने का निर्देश पूर्वी पाक के सैनिक कमान को मिला तो, पूर्वी कमान के जनरल नियाज़ी ने सभी शहरों और ढाका की किलेबंदी के रक्षात्मक व्यवस्था कर के युद्ध की मानसिकता रक्षात्मक बना ली। किलेबंदी का तात्पर्य , पूरी सेना को उस नगर की सुरक्षा में ही सन्नद्ध कर देना था। इस प्रकार बांग्ला देश के कुल 25 नगरों की किलेबंदी की गयी और 9 ऐसे मज़बूत विंदु गए जहां से भारतीय सेना को ढाका की और बढ़ने से रोका जाना था । लेकिन किलेबंदी की रणनीति ही गलत थी। जब शत्रु के आक्रमण का मार्ग सीमित हो और उसके विस्तार और आपूर्ति की सम्भावना भी न्यून हो तो, किलेबंदी की रणनीति कारगर होती है। पर यहाँ , बांग्ला देश की भौगोलिक स्थिति के अनुसार, बांग्ला देश चारों तरफ से भारतीय भूभाग से घिरा था। वह हर दिशा से आक्रमण कर सकता था। यहां तक कि सागर की ओर भी। ऐसी परिस्थिति में किलेबंदी धरी की धरी ही रह गयी और भारतीय सेना , ढाका तक पहुँच गयीं। इसके अतिरिक्त किलेबंदी की योजना के विफल होने के निम्न कारण, सैनिक विशेषज्ञों ने गिनाये , जो हमीदुर्रहमान आयोग की रिपोर्ट में अंकित है ।
1 . जनरल नियाज़ी के पास कुल 29 बटालियन थीं , जो भारत की तुलना में बहुत कम थीं। किलेबंदी के लिए और अधिक सैन्य बल की आवश्यकता पड़ती है।
2 . इन किलों को संभावित आक्रमण से बचाये रखने के लिए , किसी भी प्रकार का पर्याप्त तोपखाना या आर्मर्ड डिवीज़न नहीं था।
( पृष्ठ 71 )
3 युद्ध में रिजर्व बल का भी पर्याप्त महत्व रहता है। पर पूर्वी पाक के कमान के किसी भी कमांडर पास , कोई भी रिजर्व बल नहीं था। जिस से वे किसी भी आकस्मिकता के समय , अतिरिक्त रूप से प्रहार कर सकें।
4 . मुक्ति बाहिनी के छापामार युद्ध और स्थानीय नागरिकों में शत्रु भाव होने के कारण , सभी पाक सेनाएं अपने बनाये किलों में खुद ही बंध के रह गयीं , जिस से वे आवश्यकता पड़ने पर अपने ही सेना की सहायता करने अक्षम रहीं।
5 . बहुत से मामलों में पाक सेना जब पीछे की ओर हटी तो उसका स्वरुप भीड़ की तरह ही रहा। वह एक रणनीतिक रिट्रीट थी। बहुत से मामलों तो , सेना अपना सारा साज़ ओ सामान , गोला बारूद छोड़ कर पीछे हटी।
सभी सेनाएं युद्ध के दौरान अगर आगे बढ़तीं हैं तो वह रणनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार पीछे भी हटती हैं। पर यह एक लम्बी छलांग लिए चार कदम पीछे हटने की ही रणनीति होती है। जनरल नियाज़ी ने ऐसी रिट्रीट लिए जो आदेश जारी किये थे , उसके अनुसार , 75 प्रतिशत कैजुअल्टी होने पर ही सेना पीछे हटेगी। इस आदेश के कारण सेना की बहुत ही अधिक जन हानि हुयी। जनरल नियाज़ी ने आयोग को बताया ,
" Further their were no logistical arrangements (Big rivers posed serious hurdles in movement and while all sort of local watercraft was extended for the Indians, our troops couldn't locate their ferries when they came across Jamuna river...!) made for the tropes to fall back to Dacca if was threatened by the enemy consequently none of our brigades could retreat to take up the defenses of Dacca."
( इसके अतिरिक्त हमारे पार संसाधन ही कम थे। बड़ी चौड़ी नदियों को पार करने के लिए नाव आदि के जो साधन थे वह सब , भारतीय सेना पास ही थे। )"
इस कथन और उपरोक्त रणनीति पर टिप्पणी करते हुए , सैनिक विशेषज्ञों कहा है कि जनरल नियाज़ी ढाका के सीमावर्ती क्षेत्र में ही प्राकृतिक सीमा बना कर सैनिक मोर्चेबंदी करते तो , हो सकता था युद्ध कुछ और दिन खिंच सकता था। और तब तक संयुक्त राष्ट्र दखल दे सकता था।
पाक की परम्परागत नीति -
भारत के विरुद्ध पाकिस्तान की परम्परागत सैन्य नीति थी , कि " पूर्वी पाक के सुरक्षा की चाभी पश्चिम में है। " पश्चिम में कश्मीर और पंजाब का क्षेत्र है तथा कश्मीर से ले कर कच्छ तक पाक की सीमा जुडी हुयी है। पाकिस्तान की रणनीति यही थी कि भारत को पश्चिम में ही उलझा कर रख दिया जाय जिस से वह पूर्वी भाग में अधिक सक्रिय न हो सके। कश्मीर के कारण, भारत लिए, पश्चिमी सीमा अधिक महत्वपूर्ण थी भी। इसी लिए जब 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने हवाई हमले शुरू किये तो , उसकी योजना थी कि , वह अचानक हमला कर के पश्चिम में अधिक से अधिक भारतीय भूभाग अपने अधिकार में कर ले। भारत चूँकि पूर्वी मोर्चे पर अधिक सक्रिय था अतः वह पश्चिम की ओर उतना ध्यान नहीं दे पायेगा। इसी लिए पाकिस्तान ने पूर्वी भाग में सैन्य प्रबंध पर कम ध्यान और सारी ताक़त पश्चिम में ही सक्रिय रखी। पाकिस्तान का सबसे महत्वपूर्ण शहर लाहौर , भारतीय सीमा से 12 किलोमीटर दूर है। पाक की राजधानी इस्लामाबाद और सेना का मुख्यालय रावलपिंडी भी सीमा से 100 किलोमीटर के दायरे में ही है। अगर कहीं लाहौर भारत कब्ज़े में आ गया तो इस से पाक की ताक़त आधी रह जाएगी। बांग्ला देश को तो वह अपने देश से अलग मान ही चुका था। लेकिन पाक ने जो युद्ध पश्चिम के मोर्चे पर किया था , उस में भी मनोबल का पर्याप्त अभाव था। हमीदुर्रहमान आयोग अनुसार , पाक जनरलों ने बताया की कम से कम जम्मू , और अमृतसर तो जीत लेने का मंसूबा वे मान ही बैठे थे , साथ ही जैसलमेर तक पहुँचने की भी उनकी योजना थी। पर पाक, भारतीय क्षेत्र का कुछ भी भूभाग नहीं पा सका , और उधर , पूरा पूर्वी पाक वह गंवा बैठा।
आयोग के अनुसार - 1971 के युद्ध के पूर्वी मोर्चे का घटना क्रम -
" On 21st November 1971 India in collaboration with Mukti Bahni started gurella raids inside Pakistani territory and on 3 rd December 1971 Invaded East Pakistan in naked aggression with 7 divisions, 3 brigades and several Mukti brigades with full complement of services arms.
Indians realizing the importance of Dacca as the military and political lynch pin advanced orderly towards it from all directions by passing and avoiding confrontations by Pakistani fortresses wherever possible. Main Indian thrust came from the Eastern Sector which provided shortest possible rout to Dacca.
By 6 December Entire PAF was grounded owing to extensive cratering of Dacca runway by Indian bombers. The enemy had already achieved mastery of air.
On the fourth day of all out war on 7th December major fortresses of Jessore and Jhendiah in wester sector and Brahmanbaria in Eastern sector were shamefully abandoned without a fight. 107 brigade withdrew to Khulna thus being isolated from Dacca, while 57 brigade after abndoning Jhendiah retreated and made no contribution to war.
On 8 December Commillia fortress was isolated by encirclement from all sides.
On 9 December 2 more fortresses of Laksham and Kushtia were abandoned.
97 brigade remained isolated in Chittagong and made no contribution.
Entire 39 division thus disintegrated the same day.
By 9 December Indians had reached the Meghna river after overcoming increasingly sporadic and dispirited resistance, stage was now set for the invasion of Dacca.
Pakistan's 14 division could do nothing to halt the Indian advance as two of its brigades 313 and 202 were trapped by encirclement in the remote town of Sylhet, while 27 brigade stood demoralized.
Even Hilli where a determined battle had been fought was abandoned on 10 December though elements of 205 brigade held on to the village of Bogra till the end.
93 brigade retreating from Meymansingh to shield the capitol Dacca got entangled with Indian paratroopers and disintegrated along the way."
( 21 नवम्बर 71 को भारत ने मुक्ति बाहिनी के सहयोग से , पाकिस्तान की पूर्वी सीमा में घुस कर हमला किया और 3 दिसंबर 1971 को उसने 7 डिवीज़न , 3 ब्रिगेड कई मुक्ति ब्रिगेड के साथ आक्रमण कर दिया। सबके पास भारतीय सैन्य शस्त्र थे।
भारत ने ढाका की सैनिक महत्ता समझते हुए , ढाका की तरफ चारों ओर से घेरते हुए बढ़त बनायी , और पाक ने जिन शहरों में किले बंदी की थी उन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए ढाका की ओर बढे। इस मोर्चे पर भारत की प्राथमिक रणनीति सबसे कम दूरी वाले मार्ग से ढाका पहुंचना था।
6 दिसंबर तक सारी पाक वायु सेना भूलुंठित गयी थी। ढाका की हवाई पट्टी और एयरपोर्ट, भारत के कब्ज़े में आ चुके थे ।
7 दिसंबर को , जेस्सौर और झेंड्याह के दो किलेबंद शहर , जो बांग्ला देश के पश्चिमी भाग में थे , और बांग्ला देश के पूर्वी भाग में स्थित शहर ब्राह्मणबेरिया , में पाक सेना , शर्मनाक तरीके से, बिना लड़े ही वहाँ से भाग निकली। पाक सेना की ही 107 ब्रिगेड, जो इन शहरों की किलेबंदी में थीं को अचानक खुलना बुला लिया गया। 57 ब्रिगेड जो ब्राह्मणबेरिया से अचानक हटाई गयी थी वह तो लड़ी ही नहीं।
8 दिसंबर को , कोमिल्ला की किलेबंदी बिलकुल ही अलग थलग पड़ गयी , क्यों कि कोमिल्ला शहर तरफ से भारतीय सेना और मुक्ति बाहिनी से घेरा जा चुका था।
9 दिसंबर को , लक्षम और कुश्तिया , दो और शहरों की किलेबंदी से पाक सेना पलायन कर गयी।
97 ब्रिगेड , चटगांव में ही घिरी रही। उसका कुछ भी उपयोग पाक सेना नहीं कर पायी।
39 वीं ब्रिगेड को बिना किसी कारण ही, 9 दिसंबर को भंग कर दिया गया।
9 दिसंबर को ही , भारत, ढाका के पास मेघना नदी के किनारे तक पहुँच गया और अब अब ढाका बिलकुल ही दूर नहीं था।
पाक सेना की 14 वीं डिवीज़न तो , भारतीय सेना को आगे बढ़ने से बिलकुल भी नहीं रोक पायी ,क्यों कि उसकी ब्रिगेड 313 और 202 , जो सिलहट में पडी थी , उसका कोई उपयोग ही नहीं हो पाया और 27 वीं ब्रिगेड का तो मनोबल ही गिर गया था। उसके सैनिक हताश और निराश हो चुके थे।
10 दिसंबर को , पूर्वी बांग्ला देश की पहाड़ियों पर, जहां भारतीय सेना का दबाव अपेक्षाकृत कम था , वहाँ भी पाक सेना , युद्ध नहीं लड़ पायी। 205 ब्रिगेड के कुछ सैनिक बोगरा ही फंसे रहे और , 93 वीं ब्रिगेड जो मैमन सिंह से ढाका , जा रही थी , भारतीय सेना के पैरा ट्रूपर्स द्वारा रास्ते में ही घेर ली गए और , वह वहीं तितर बितर हो गए, ढाका पहुँच ही नहीं पाये। )
रिपोर्ट में आगे कहा गया है ,
" 14 दिसंबर को भारतीय सेना ढाका से कुछ मील ही दूर थी। लेकिन ढाका में कोई भी पाकिस्तानी ब्रिगेड , सिवाय 36 वीं ब्रिगेड के , ढाका शहर की रक्षा के लिए तैनात नहीं थी । प्रतिरक्षा की कोई योजना बनी भी थी या नहीं , यह भी स्पष्ट नहीं था।
' जनरल नियाज़ी , अपने सन्देश जो , सेना मुख्यालय को बराबर भेज रहे थे , वह बेहद , निराशाजनक थे। इन संदेशों से स्पष्ट था कि उनका मनोबल साफ़ टूट गया लगता था । सेना मुख्यालय उन्हें बार बार यही दिलासा दे रहा था , कि कम से कम , संयुक्त राष्ट्र संघ के दखल तक तो वह भारत का सामना करें ही।
" 14 दिसंबर , को ही राष्ट्रपति ने जनरल नियाज़ी को एक सन्देश भेजा। सन्देश शब्दशः नीचे उद्धृत है -
"for Governor and General Niazi from President. Governors flash messages to me refers you have fought a heroic battle against overwhelming ods the nation is proud of you and world full of admiration. I have done all that is humanly possible to find an acceptable solution to the problem. you have now reached a stage where further resistance is no longer humanly possible nor it will serve any useful propose.you should now take all necessary measures to STOP FIGHTING and take all necessary measures to preserve the lives of all armed force personal all those from west and loyal elements meanwhile I have moved UN to URGE India to to stop hostilities in East Pakistan forthwith and and guarantee the safety of all armed force and alll other people likely to be target of miscreants."
( राष्ट्रपति की ओर से , गवर्नर और जनरल नियाज़ी के लिए।
गवर्नर ने जो शीघ्र सन्देश मुझे भेजें हैं , में उन्होंने मुझे आप के बारे में यह बताया है कि , आप ने अनेक विपत्तियों के बावजूद भी अत्यंत वीरता के साथ युद्ध लड़ा है। देश को आप पर गर्व है और पूरा विश्व आप की प्रशंसा कर रहा है। मैंने समस्या के सर्वमान्य समाधान के लिए वे सारे कदम उठाये , जो मैं उठा सकता था। आप अब एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गए हैं , कि जिस से , अब किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न तो सम्भव है और न ही इस से कोई लाभ है। अतः युद्ध रोक कर सभी जवानों के ,जो पश्चिमी क्षेत्र से वहाँ है ,की सुरक्षा के लिए जो भी सम्भव हो , वह कदम उठाइये। मैं संयुक्त राष्ट्र संघ से अनुरोध करूंगा कि वह भारत से , पाक सेना के सभी जवानों की सुरक्षा के लिए तत्काल उचित व्यवस्था करे और शत्रुता का अंत कर दे। )
" यह सन्देश गोपनीय नहीं था। इसे भारतीय सेना ने इंटरसेप्ट कर लिया इस सन्देश के सार्वजनिक होते ही , हमारी कमज़ोरी , भारतीय जनरलों और पूरी दुनिया के समक्ष उजागर हो गयी। इसका हमारे हितों पर बहुत ही विपरीत प्रभाव , सुरक्षा परिषद में , जब यह प्रकरण पेश हुआ तो , पड़ा। इस सन्देश में हमने अपनी कमज़ोरी खुद ही उजागर कर दी और अपना पक्ष कमज़ोर कर दिया। इस सन्देश के सार्वजनिक होने के बाद हमारे मित्र देश भी , हमारी सहायता करने से कतराने लगे। "
" जनरल नियाज़ी ने इस सन्देश को आत्मसमर्पण के आदेश के रूप में लिया। हालांकि सन्देश में ऐसा कोई भी आदेश नहीं था। पर जनरल नियाज़ी के विचलित कर देने वाले संदेशों के कारण , प्रेसिडेंट ने ऐसा सन्देश भेजा था। जनरल नियाज़ी अगर लड़ सकते थे तो लड़ें , पर उनका मनोबल टूट चुका था। वास्तव में यह आत्मसमर्पण का कोई आदेश नहीं था , आत्मसमर्पण का निर्णय , उन्हें खुद , परिस्थितियों के अनुसार ही करना था।
" आत्म समर्पण के समय जनरल नियाज़ी के पास , उन्ही के आकलन के अनुसार , 26000 का सैन्यबल था , जिस से एक सप्ताह तक ढाका की सीमा पर युद्ध खींचा जा सकता था। वह एक वीर की तरह मृत्यु को प्राप्त होते , पर युद्ध की इच्छा शक्ति ही उनकी मर गयी थी। उनका मनोबल पूरी तरह टूट गया था।
( पृष्ठ 74 )
" उनकी सैनिक विफलताओं को दर किनार कर दीजिये तो भी , भारतीय सेना के जनरल के साथ गार्ड ऑफ़ ऑनर ग्रहण कर के , और जनता के समक्ष आत्म समर्पण कर उन्होंने , भारतीय सेना को एक इतिहास रचने का अवसर दिया।
" 15 दिसंबर 1971 को, अमेरिकी कूटनीतिक माध्यमों के द्वारा , जनरल नियाज़ी ने भारतीय सेना के जनरल मानेक शॉ के समक्ष , आत्म समर्पण का प्रस्ताव रखा , जिसे भारत ने स्वीकार कर के युद्ध का अंत किया। यह एक बिला शर्त आत्मसमर्पण था। "
यह किस्सा था पाकिस्तान की अत्यंत शर्मनाक हार का। इस लेख के लिए हमीदुर्रहमान रिपोर्ट का सहारा लिया गया है। आयोग की रिपोर्ट से ही स्पष्ट है कि पाकिस्तान ईर्ष्या और द्वेष से भरा हुआ था और वह यह मान के बैठा था कि भारतीय भूभाग में रहने वाला मुस्लिम समुदाय पाकिस्तान का स्वाभाविक हितैषी है। इस युद्ध में पाकिस्तान की पराजय ने , जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की धज्जियां उड़ा दीं और जिस ईर्ष्या , दम्भ , अहंकार और धर्मान्धता की विचार धारा पर चल कर ,14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बना था , उसी दम्भ , अहंकार और ईर्ष्या के आधार पर वह टूट भी गया। डॉ राम मनोहर लोहिया , अपनी बहुचर्चित पुस्तक , ' भारत विभाजन के अपराधी ' में पाकिस्तान के 25 वर्षों में ही टूटने की भविष्यवाणी की थी। यह कथन अक्षरशः सत्य हुआ। दुर्भाग्य से डॉ लोहिया यह गौरवपूर्ण दिन देखने के लिए जीवित नहीं थे।
- विजय शंकर सिंह
( क्रमशः , पाक प्रायोजित आतंकवाद - एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन - 9 - अन्थोनी मास्करहंस की रपट )
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