औरंगज़ेब , और विवादों का एक लंबा इतिहास है। मध्ययुगीन इतिहास का एक प्रिय प्रश्न है , " औरंगज़ेब को मुग़ल वंश के पतन का कारण क्यों माना जाता है ? " हाई स्कूल से ले कर सिविल सेवाओं की परीक्षा में भाग लेने वाले इतिहास के विद्यार्थी अक्सर इस प्रश्न से रू ब रू होते हैं। औरंगज़ेब पर , सबसे प्रामाणिक शोध कार्य और इतिहास लेखन ,सर जदुनाथ सरकार का है। इनके अलावा इस काल के इतिहास पर और भी प्रमुख इतिहासकारों ने काम किया है। सबके अपने अपने विचार हैं और अपनी अपनी व्याख्याएं। इतिहास लेखन कुछ साक्ष्यों पर आधारित होता है। ये साक्ष्य , दरबार के अधिकृत इतिहास लेखकों का विवरण , कुछ यात्रा वृत्तांत , शाही फरमान और समकालीन साहित्य सहित इमारतें और अन्य पुरात्तविक साक्ष्य होते हैं। इन्ही सब में से मंथन कर के इतिहास का घटनाक्रम निकालना पड़ता है और फिर उसी के आधार पर इतिहास की पीठिका तय होती है। शोध चाहे जो करे , अगर कोई नया दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हुआ है या कोई नया प्रमाण नहीं मिला है तो जो दस्तावेज़ उपलब्ध हुए हैं , उन्ही की व्याख्या की जाती है। इस प्रकार इतिहास लेखन के दो चरण होते हैं। एक तो साक्ष्यों या दस्तावेज़ों का संकलन , और दूसरा उनकी व्याख्या। दस्तावेज़ों के सम्बन्ध में केवल एक ही संदेह उठता है , कि क्या वे प्रमाणित हैं या नहीं। प्रमाणिकता की जांच अन्य सम्बंधित दस्तावेज़ों और अन्य साक्ष्यों से मिला कर की जाती है। दूसरा चरण है , उनकी व्याख्या। व्याख्या का विंदु ही मूलतः विवाद का कारण है। यह प्रभावित होता है , व्यक्ति, व्यक्ति की विचारधारा , मानसिकता और इतिहास बोध से। इतिहास , साम्राज्यों और राजाओं के उत्थान और पतन , युद्ध और जय - पराजय का विवरण ही मात्र नहीं है। यह अतीत की गति का आलेख है , जिसे अगर विधिवत अध्ययन किया जाय तो भविष्य के लिए सीख भी मिलती है , और वर्तमान के लिए दिशा निर्देश भी। लेकिन उपन्यास की तरह इसे आप शयन पूर्व पठनीय साहित्य मानेंगे तो इस से कुछ भी सीख नहीं पाएंगे।
भारत में मुस्लिम शासन की औपचारिक शुरुआत 1205 ईस्वी में हुयी थी। 1526 ई में बाबर के आक्रमण के पूर्व दिल्ली की गद्दी पर , गुलाम वंश , ख़िलजी , तुग़लक़ और लोधी वंश के सुलतान राज कर चुके थे। यह काल मध्ययुगीन इतिहास में सल्तनत काल के रूप में जाना जाता है। पानीपत के प्रथम युद्ध ( 1526 ई ) में बाबर ने इब्राहिम लोधी को पराजित कर के जिस राजवंश की शुरुआत की वह मुग़ल वंश कहलाया। बाबर 1530 ई में मर गया। नवजात साम्राज्य संकट में पड़ा और हुमायूँ के गद्दीनशीन होने के बाद कुछ समय तक यह राजवंश अस्थिर रहा। वक़्त बदला , 1556 ई में अकबर के सिसनारूढ़ होने पर। अकबर , था तो अनपढ़ पर वह सारे मुग़ल सम्राटों में सबसे अधिक सहिष्णु और विवेकवान था। उसके उदार शासन , सुलह कुल की नीति , राजपूतों के प्रति उसका उदार दृष्टिकोण और बहुसंख्यक प्रजा से जुड़ाव ,आदि कारणों से वह अपने साम्राज्य की नीवं मज़बूती से रखने में सफल रहा। उसके बाद 1605 ई में अकबर के देहांत के बाद जहांगीर फिर शाहजहाँ शासक बना। तब तक यह राजवंश स्थिर , संपन्न और गौरवपूर्ण हो चुका था। पर 1658 ई में दिल्ली के तख़्त पर आया औरंगज़ेब। यह साम्राज्य के नीति के परिवर्तन का प्रारम्भ था।
( औरंगज़ेब )
औरंगज़ेब का राज्यारोहण असामान्य परिस्थितियों में हुआ था। शाहजहाँ के चार बेटों , दारा शिकोह , शुजा , मुराद और औरंगज़ेब में दारा सबसे बड़ा और शाहजहाँ का प्रिय पुत्र था। लेकिन महल की राजनीति हुयी और दारा जो उदार , सर्वधर्म समभाव और अत्यंत विद्वान तथा साहित्यिक रूचि का था को मार कर औरंगज़ेब दिल्ली का बादशाह बना। चारों भाइयों में हुआ संघर्ष और शाहजहाँ की दुर्गति मुग़ल इतिहास का एक दुखद पक्ष है और वह इस लेख का विषय भी नहीं है । शाहजहाँ के अंतिम दिनों में दरबार में मूलतः दो विचार धाराएं थीं। एक तो मुल्लों की धारा जो शासन शुद्ध इस्लामी क़ायदे से चलाना चाहते थे , दूसरी उनकी जो अकबर की चली आ रही नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। कट्टर इस्लामी शासन के पक्षधर औरंगज़ेब के साथ और उदार वर्ग दारा के साथ था। अकबर के समय में भी जो कट्टर इस्लामी शासन चाहने वाले थे , सक्रिय तो थे , पर अकबर की उदार नीतियों के कारण वह हाशिये पर थे। जहांगीर और शाहजहाँ ने भी अकबर की नीतियां नहीं बदलीं पर वे उतने उदार भी नहीं रह सके जितना अकबर था। पर उनके शासन काल में भी कट्टर वर्ग उपेक्षित ही रहा। इसके विपरीत मुग़ल पूर्व इस्लामी राज में यह वर्ग न केवल सक्रिय था बल्कि मुल्क़ के निज़ाम का दिशा निर्देश भी तय करता था।
दोनों ही पक्षों में खुल कर विवाद सामने आये, शाहजहाँ के अंतिम दिनों में, सत्ता के लिए हुए संघर्ष के रूप में। दारा शिकोह अंततः मारा गया और कट्टरपंथियों की जीत हुयी। औरंगज़ेब इस्लाम के प्रति परम आस्थावान था।इसके कारण शासन की धार्मिक और राजपूत नीति में परिवर्तन हुआ और उस नीति परिवर्तन के दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे। अकबर के उदार नीति के कारण बहु संख्यक प्रजा और राजस्थान के राजा जो सम्राट के साथ थे , वे नीति बदलते ही विद्रोही हो गये । इस्लामी शासन में गैर मुस्लिमों पर राज्य एक कर लगाता है जिसका नाम है , जज़िया कर । इस धार्मिक कर का उद्देश्य गैर मुस्लिमों को राज्य द्वारा संरक्षण और सुरक्षा देना रहा है। सल्तनत काल में सुल्तानों ने यह धार्मिक कर अपनी हिन्दू प्रजा पर लगाया था। अकबर ने इस कर को समाप्त कर दिया था और औरंगज़ेब के आने तक यह कर दुबारा नहीं लगा। लेकिन औरंगज़ेब इसे पुनः लागू कर बहुसंख्यक प्रजा का स्वाभाविक कोप भाजन बन गया।
इस्लाम में मूर्ति पूजा का निषेध है। खुद काबा जिसमें इस्लाम के पूर्व भारी संख्या में मूर्तियां थी , को हजरत मुहम्मद के निर्देश पर उन्हें वहाँ से हटा दिया गया था और इस्लाम पूर्व अरब के मूर्तिपूजकों के देश में मूर्तिभंजन का जो नया धर्म आया , उसका तेज़ी से प्रसार हुआ। इसी इस्लामी धार्मिक नीति के कारण , औरंगज़ेब के काल में कई मंदिरों को तोड़ा गया , पर सबसे प्रसिद्ध देवस्थान जो तोड़े गए थे , वे , मथुरा का केशवराय मंदिर और काशी का विश्वनाथ मंदिर थे । ऐसा नहीं है कि औरंगज़ेब के ही काल में मंदिरों को तोड़ा गया था बल्कि उसके 600 साल पहले से ही यह क्रम चला था। सोमनाथ , काशी का विश्वेवर मंदिर , नालंदा का संपन्न बौद्ध विहार , आदि अनेक महत्वपूर्ण मंदिरों को तोड़ा गया। आज का क़ुतुब मीनार , हज़ार सुतून ,अजमेर का अढ़ाई दिन का झोपड़ा , आदि अनेक मुस्लिम स्थापत्य के सुन्दर उदहारण इन्ही मंदिरों के ध्वंसावशेषों पर ही बने हैं। मंदिरों के प्रमाण आज भी वहाँ उपलब्ध हैं। लेकिन चूंकि औरंगज़ेब के काल के पूर्व का सौ वर्ष , इन गतिविधियों से मुक्त रहा , इसलिए औरंगज़ेब के काल में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया भी हुयी। दूसरे, सल्तनत काल का भौगोलिक क्षेत्र मुग़ल काल के समान व्यापक और विस्तृत नहीं था और सल्तनत राजवंश भी जल्दी जल्दी बदलते रहे अतः राजनीतिक अस्थिरता के कारण भी बहुसंख्यक प्रजा तक उसका असर बहुत नहीं पहुंचा। औरंगज़ेब का राज्य भारत की सीमा को अफ़ग़ानिस्तान तक लांघ गया था। राज्य का विस्तार अगर नक़्शा देखें तो , मुग़ल साम्राज्य के नक़्शों में यह सवसे अधिक विस्तृत भू भाग वाला साम्राज्य था।
( ज्ञानवापी मस्जिद )
मंदिरों के तोड़ने के साथ व्यापक तौर पर धर्म परिवर्तन भी हुए। कुछ धर्म परिवर्तन बलात, तो कुछ परिस्थितियों वश तो कुछ धर्म परिवर्तन रूढ़ होते हुए हिन्दू समाज के कारण हुए। साम्राज्य तो फ़ैल गया था , पर साम्राज्य के अंदर विक्षोभ के जो क्षेत्र उत्पन्न हो गए थे ने इस सम्राज्य को खोखला करना शुरू कर दिया। पंजाब में सिखों का विद्रोह , राजपूतों का विद्रोह , दिल्ली के आस पास जाटों का विद्रोह , और दक्षिण में मराठों के लगातार आक्रमण ने औरंगज़ेब को चैन से बैठने नहीं दिया और पूरा साम्राज्य अंदर अंदर खोखला होता गया। यह भी एक ऐतिहासिक विडंबना ही है कि जिन नीतियों के कारण मुग़ल वंश की नीवं मज़बूत हुयी , वह समृद्ध और संपन्न हुआ , उन्ही नीतियों के पलटने के कारण यह साम्राज्य उखड़ने लगा। 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उसके पचाससाला शासन का अंत और मुग़ल साम्राज्य का पराभव एक साथ प्रारम्भ हुआ।
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि , मंदिरों को तोड़े जाने का कारण धार्मिक न हो कर कुछ और था। औरंगज़ेब ने कुछ मज़ारों को भी तोड़ा है। औरंगज़ेब ने कुछ मंदिरों को ज़मीन और जागीरें भी दी हैं। मैं जब एस पी बांदा था तो चित्रकूट के एक मंदिर के महंत ने ऐसा ही एक शाही फरमान मुझे दिखाया भी था। पर इन सब के बावजूद भी जो उसकी क्षवि एक कट्टर और धर्मांध की ही बनी। हालांकि कुछ इतिहासकार इन्ही फरमानों के आधार पर उसे न्यायप्रिय भी घोषित करते हैं पर अधिकतर इतिहासकार औरंगज़ेब को धर्मांध ही मानते हैं। यह अपनी अपनी व्याख्या और अपनी अपनी सोच है। पर इन तथ्यों पर सभी एकमत हैं कि उसके राज में जजिया लगाया गया, प्रसिद्ध मंदिर तोड़े गए और व्यापक रूप धर्म परिवर्तन हुए। सिख गुरुओं के उत्पीड़न और मंदिरों के तोड़े जाने के पीछे कुछ यह भी तर्क देते हैं कि , कुछ औरंगज़ेब के सिपहसालारों ने अपने धार्मिक उन्माद के कारण खुद ही ऐसे निर्णय ले लिए। लेकिन जिन्होंने ऐसे निर्णय लिए उनके विरुद्ध सम्राट ने क्या कार्यवाही की ? फिर ऐसे मंदिर जो बिना राजाज्ञा के ही तोड़े गए उन्हें दुबारा बनाने की अनुमति क्यों नहीं दी गयी ? स्वाभाविक रूप से उठते इन प्रश्नों पर किसी ने स्पष्टीकरण नहीं दिया है। अतः विवाद को गति देने वाले इन तथ्यों पर किसी में भी मतभेद नहीं है।
औरंगज़ेब के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसका निजी जीवन बहुत शुचितापूर्ण था। वह ख़ज़ाने का दुरूपयोग नहीं होने देता था। अपना निजी व्यय टोपियां सिल कर और कुरआन की प्रतियां कर के उन्हें बेचने से जो आय होती थी , उसी से चलाया करता था। मैं इन तथ्यों की पुष्टि के विवाद पर नहीं जा रहा हूँ। यह सच भी हो तो , निजी जीवन में शुचिता रखना और ख़ज़ाने का दुरुपयोग न होने देना एक प्रशंसनीय कदम है, पर सम्राट या शासक के मूल्यांकन का यह कोई आधार नहीं है। शासक का मूल्यांकन राज्य की शांति व्यवस्था , करों का संग्रह , प्रजा वत्सलता , जन असंतोष का अभाव और अधीनस्थ राज्यों द्वारा विद्रोह न होना ही है। औरंगज़ेब के राज्य का मूल्यांकन करें तो वह सभी विन्दुओं पर असफल उतरता है। उसके राज्य में पूर्ण शान्ति कभी नहीं रही। करों का संग्रह भी प्रभावित हुआ और लगातार हो रहे सैनिक अभियानों, तथा विद्रोहों को दबाने के कारण धन का अपव्यय भी बहुत हुआ। ' जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी , ते नृप होहिं नरक अधिकारी। " की मानसिकता वाले देश में ऐसे सम्राटों का पराभव ही होता है। साम्राज्य का मूल्यांकन उसकी सीमाएं , और राजा का व्यक्तिगत धर्म तथा उसकी निजी आदतें ही नहीं करती हैं बल्कि उसके शासन की नीति भी करती है। नीति की भूमिका व्यक्तिगत गुणों अवगुणों से अधिक रहती है। अकबर देश की मूल आत्मा को समझ गया था। उसने राजपूतों , सामंतों और बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा को अपना विरोधी नहीं बनने दिया। कुछ मित्र राणा प्रताप और रानी दुर्गावती के विरुद्ध हुए सैन्य अभियानों का उदाहरण देंगे। लेकिन यह सैन्य अभियान साम्राज्य विस्तार हेतु थे। साम्राज्य विस्तार तो सभी शासकों की नीति थी ही। जब कि औरंगज़ेब की यही नीति केवल उसके धर्मांध होने के कारण विफल हो गयी।
( दारा शिकोह )
आज जो बहस चल रही है कि औरंगज़ेब का मूल्यांकन किया जाय , उस पर मुझे कुछ नहीं कहना है। हम सभी ऐतिहासिक पात्रों का मूल्यांकन पहले भी करते रहे हैं , और आगे भी करते रहेंगे। भारतीय संस्कृति के विस्तृत फलक पर , धर्म आधारित राज्य की कोई प्रासिगकता कभी नहीं रही है। सनातन धर्म में शैव , वैष्णव , वीर शैव , शाक्त आदि धर्मों के बीच आपसी विवाद और कटुता होते हुए भी , राज्य ने किसी भी प्रकार का राजधर्म प्रजा पर थोपा नहीं था। अशोक ने जब बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो , तो व्यापक रूप से धर्म परिवर्तन हुआ , पर वह धर्म परिवर्तन, भय या हिंसा से रहित था। यह भारत ही हो सकता है जहां कुषाण राजा कनिष्क भी न केवल स्वीकार्य हुआ बल्कि उसके राज्यारोहण की तिथि 78 ई , देश का अधिकृत संवत घोषित हुआ। फिर इतिहास ने पलटा खाया और गुप्त वंश का शासन हुआ , जो वैष्णव थे। दक्षिण भारत में शैव मतावलम्बियों का शासन चल ही रहा था। इस्लाम में भी सूफी परम्परा से जो इस्लाम देश में आया उसका मुक्त कंठ से स्वागत भी हुआ। यह परम्परा भारतीय दर्शन के मूल भाव , अद्वैतवाद से बहुत मिलती थी।
अकबर और उसके बाद, औरंगज़ेब तक जो धार्मिक शान्ति का काल था , उसने पिछले उत्पीड़न को भुला दिया था। अगर दारा , शासक हुआ होता तो शायद देश में धार्मिक कट्टरता और वैमनस्यता का इतना उभार नहीं हुआ होता। हो सकता है आप मेरे इस आकलन से सहमत न हों , पर यह मेरा मत हैं। भारत एक बहुल सांस्कृतिक देश है। एक धर्म , एक रीति रिवाज़ , एक सामाजिक विचार थोप कर इस पर कोई शासन नहीं कर सकता है। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना ! इस विचार ने इसे अनेकता में एकता का जो स्वरुप दिया है वह अनोखा है। यह विविधिता , सहिष्णुता , और सर्वधर्म समभाव की भावना ही इसका मूल है। इस मंत्र को अकबर , जो पढ़ा लिखा नहीं था , वह समझ गया था और औरंगज़ेब बहुत पढ़ लिख कर भी नहीं समझ पाया। एक मुग़ल साम्राज्य के उत्थान का तो दूसरा उसी साम्राज्य के पतन का कारण बना। इसी लिए मैं शासन में धर्मांधता का सदैव विरोध करता हूँ। यह सगच्छवद्वम का देश है। एक धर्म , एक विचार , एक उपासना पद्धति और एक रीति रिवाज़ का देश नहीं है।
( विजय शंकर सिंह )
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