पानी की बूंदों से ,
मैंने अक्सर सीखा है ,
तेज हवा और चपला में भी ,
टप टप गिरना , प्यास बुझाना ,
चुपके से धरती में खोना ,
सूखे
तरु
को
, जीवन
देना
..
बारिश
जैसे,
तुम
भी
बनो
,
जब
ताप
बढे,
क्रोधित
सूरज
का
,
उठे
आंधियां,
धूल
भरी
,
जब
बाँझ
बने,
जीवन
धरती
का
,
जन
जन
जब,
बेकल
हो
जाए
,
दूर
दूर
तक,
जल
न
दिखे
.
भूमि
मरू
सी,
हो
जाए
.
तब
तुम
उठो,
घटा
बन
कर
,
चलें
अब्र
जल,
भर
भर
कर
,
आसमान
का.
रंग
बदल
दो
,
गर्जन
, घर्षण
,चपला
लेकर
,
उतरो
तुम
, इस
तृषित
धरा
पर
,
जीवन
को
संबल
दो
प्रिये
,
अधरों
पर
मुस्कान
खिले
!
तृषित ह्रदय की प्यास बुझे !!
-vss
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