Monday 26 May 2014

स्वागतम मोदी सरकार !!



एक अभूतपूर्व चुनाव प्रचार के बाद भाजपा अपने दम पर बहुमत में आयी है. समर्थकों का उत्साह बढ़ा है. उम्मीदें बहुत बढी हुयी हैं. क्या होता है, क्या हो पाता है, यह तो कल ही पता लगेगा. बहुत पहले उन्होंने ने भी कहा था, सबकी आँखों के आंसू पोंछे जायेंगे. लेकिन वे आंसूं आज भी अभाव, असमानता, भुखमरी, बेरोजगारी के आँखों में मौजूद है. इस नयी सरकार और नए प्रधान मंत्री महोदय से यही आशा है कि जैसे वे एक कुशल रणनीति के अनुसार इस मुकाम तक पहुँचने में सफल हुए हैं, उसी प्रकार वह एक कुशल रणनीति के सहारे अपने घोषणा पत्र में किये वादे पूरा करने में सफल होंगे.


फेसबुक पर एक पोस्ट और फोटो देखी थी कुछ दिनों पहले, उसमें दो कैलंडर थे. एक 1947 का और एक 2014 का. दोनों कैलेंडर एक ही जैसे थे. नीचे लिखा था, वह पहली आजादी थी, अंग्रेजों से, और यह दूसरी आज़ादी है, कांग्रेस से. बात तो सही है. भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सफल हुआ. और एक नयी सरकार आयी. लेकिन 1947 में जो हुआ था, आज़ादी के समय और आज़ादी के बाद, कम से कम वह न हो. हालांकि कुछ अतिउत्साही मित्र इसे भी वही रूप देने की कोशिश कर रहे थे, पर गनीमत थी वह कोशिश आभासी दुनिया में ही थी, धरातल पर नहीं. 

यह चुनाव कुछ अन्य कारणों से भी महत्वपूर्ण रहा है. भाजपा को चुनने के पीछे तीन तरह की मनोवृत्ति काम कर रही थी. 
एक, वह तबका था, जो कांग्रेस के शासन, घोटालों, ढुलमुल पन, और कुछ हद तक अहंकारी शासन से ऊब कर बदलाव चाहता था. विकल्प में भाजपा सबसे बड़ी और अनुभवी दल दिखा, मोदी का गुजरात में काम भी दिखा, और लोगों ने कांग्रेस की जगह भाजपा को चुन लिया. 
दूसरा, वह तबका था, जो विचारधारा के स्तर पर भाजपा के करीब था. वह एक ख़ास विचारधारा, जिसे भाजपा , के लोग राष्ट्रवादी विचार धारा कहते हैं, और जो इनका परम्परागत वोट है, उन्होंने अब मत चूको चौहान की तर्ज़ पर मेहनत किया और जिता दिया. यह भी उम्मीद थी कि अगर अपने दम पर सरकार बनती है तो, धारा 370 , कॉमन सिविल कोड, और राम मंदिर सहित अन्य संघी एजेंडे भी पूरे होंगे. 
तीसरा वह तबका है, युवा है, और जिसके सपने हैं. विकास की बात जिसे बहुत आकर्षित करती है, और उसे लगा कि देश बदलेगा, उसकी उम्मीदें जगीं तो उसने भी जान लड़ा दी. 

उपरोक्त के अतिरिक्त एक छुपा हुआ अजेंडा भी था. गुजरात के दंगों में मोदी की क्षवी एक सख्त और न्यायप्रिय प्रशासक की न हो कर एक प्रतिशोध लेने वाले प्रशासक की होकर उभरी थी. गोधरा का बदला ही यह दंगा है, ऐसा प्रचारित भी कुछ लोगों ने किया और इसे सामान्य प्रतिक्रिया के रूप में उचित भी ठहराने का प्रयास किया. यह दंगा एक भूत की तरह मोदी से चिपका है और दुनिया में इसे लेकर बहुत बहुत बातें कहीं गयीं है.दुर्भाग्य यह है कि मोदी में यह क्शवि उनके अंध भक्त प्रमुखता से देख रहे हैं. विरोधी तो उसे और भी प्रचारित कर रहे हैं और करेंगे. इस तरह मोदी को हिन्दुत्व का, झंडाबरदार करने की कोशिश की गयी और अगर सोशल साइट्स को पैमाना माने तो यह इस चुनाव के लिए मुख्य कारक के रूप में ठहरता है. यह स्थिति मोदी या किसी भी प्रधान मंत्री के लिए घातक है. उसे सबका विश्वास मिलना चाहिए और वह संदेह से परे होना चाहिए. 

ऐसा नहीं है कि मोदी को इसका एहसास नहीं है. उन्हें है. इसी लिए उन्होंने विकास, आतंरिक सुरक्षा, देश की अस्मिता, आर्थिक स्थिति आदि मुद्दों को रेखांकित किया. लेकिन उनके अंधभक्तों ने घुमा घुमा कर उन्हें उसी भंवर में डालना चाहा जिसका अंत दुर्भार्ग्यापूर्ण है. आतंरिक सुरक्षा और आतंकवाद में भी धर्म देखा गया. इसे आतंकवाद थमे या न थमे, लेकिन समाज में वैमनस्य और अविश्वास का वातावरण ज़रूर फैलेगा, जो आतंकवाद के लिए उर्वर ज़मीन का ही काम करेगा. 

1947
आज़ादी तो थी, पर दुखद अंगभंग भी था. कितनी बेदर्दी और अतार्किक, तरीके से, अंग्रेजों ने 1857 के विप्लव की एकता का बदला लिया था. हमारे सारे महान नेता उस वक़्त बौने हो गए थे. एक सांझी संस्कृति, सांझी विरासत, और आज़ादी की सांझी लड़ाई ऐसे बंट गयी जैसे किसी कसाई ने छुरा चला दिया हो. कागज़ पर रेखाएं खींचने से मुल्क नहीं बंटा करते. पर बंटा. शायद यही नियति और काल होता है. 2014 कोई आज़ादी नहीं बल्कि सरकार का बदलना है. जो पहले भी हो चुका है, और आगे भी होगा. 

नयी सरकार आ गयी है. क्या करती है, क्या कर पाती है यह अभी भविष्य के गर्भ में है. पर एक बात है. यह सरकार उनकी भी है, जिन्होंने इसे वोट नहीं दिया है. उनकी भी है, जो इस के घोषणा पत्र को नहीं मानते. यह सरकार उनकी भी है जो इस दल के एजेंडे और विचारधारा से सहमत नहीं हैं. यह देश की सरकार है. इसकी प्रशंसा भी होगी और आलोचना. यही लोकतंत्र की खूबी है. हमारे यहाँ आलोचना से परे तो न राम रहे है. और न ही उनका राज.

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