सुबह
का अखबार और एक प्याली चाय मध्यवर्गीय संस्कृति का एक चिरंतन पक्ष बन चुका है. खुद
की छुट्टी जितना आनंद देती है, अखबार
वालों की छुट्टी उतनी ही रोष जगा देती है. रोज़ ढेर सारी ख़बरें प्रोस देता है
अखबार. आज के अखबार ने मेरठ से जो खबर पढाई है, वह
इस तथ्य की और इशारा करती है, कि
कोई भी छोटी सी छोटी बेवकूफी देश को जलाने के लिए पर्याप्त है. कल 10 मई था. 1857 में उसी दिन मेरठ से जो चिंगारी जली
थी, उसने ब्रिटिश साम्राज्य लगभग जला दिया
था. यह पहला विप्लव था जिसमें धर्म की दीवार टूट गयी थी, और देश एक सांझे दुश्मन के विरुद्ध
सांझी विरासत के दम पर उठ खडा हुआ था. पर कल जो हुआ वह भी अब चौंकाता नहीं है.
क्यों कि ज़हर को कम करने की कोई कोशिश तो दूर उसे और फैलाया ही जा रहा है.
मेरठ
में दंगों का पुराना इतिहास रहा है. 1987 का
दंगा याद करें. वीर बहादुर सिंह मुख्य मंत्री थे, कांग्रेस का शासन था. 6
महीने कर्फ्यू लगा रहा.अभी मुज़फ्फरनगर जल ही चुका है.मेरठ, की हिंसा का असर मेरठ तक ही नहीं रहता
है. अलीगढ, मुज़फ्फरनगर, और सहारनपुर भी बहुत दूर नहीं है. फिर
आग तो आग है, चुनाव चल ही रहा है. मेरठ अभी थमा नहीं है. सतर्कता बहुत है, और हो सकता है कि थम भी जाय. कल आख़िरी
चरण का मतदान भी है. विकास की उपलब्धियों का असर वोट पर पड़े या न पड़े पर इन
बेवकूफियों का असर चुनाव पर ज़रूर पड़ता है.
कितने
दंगे हुए 1947 के बाद. उन दंगों में लोग तात्कालिक
रूप से उजड़े, बसे, लड़े, कटे, मरे, लेकिन न वे कहीं और गए और न ये कहीं और
जाने की सोचे. फिर भी दंगे होते हैं. हम अक्सर सोशल मीडिया की भूमिका की बात करते
हैं. पर सोशल मीडिया जितनी तेज़ी से अच्छी बात फैलाता है, उस से कहीं अधिक तेज़ी से अफवाहें
फैलाता है. बारूद का मसाला नेट पर है ही. सिर्फ ठन्डे कमरे में बैठ कर कट पेस्ट ही
तो करना है. लेकिन यह दो मिनट की आशु पत्रकारिता कितना नुकसान करती है, उनसे पूछिए, जिनके घर, जल रहे है, और जिन के लोग मर रहे हैं. ख़बरें बहुत
उड़ेंगी, कुछ सच भी होंगी पर ज्यादातर अपुष्ट और
कानो सुनीं.
कभी
कभी हम बुरी ख़बरों, भावनाओं को भड़काने वाली ख़बरों को जल्दी
से जल्दी साझा करना चाहते है. उन्हें लोवों तक पहुंचाना चाहते हैं. यह एक मानवीय
प्रवित्ति है कि निंदा ज्यादा तेज़ी से फैलती है बनिस्बत प्रशंसा के. लेकिन जब दंगे
से जुडी ख़बरें फैलती है, वह झूठी भी हों तो भी सच्ची लगती है.
इसका सबसे बड़ा कारण आपसी विश्वास का अभाव और साख की कमी है. आप पोलिटिकल ख़बरें
शेयर करें, नेताओं के तर्क कुतरक का आनंद लें, उनका छीछालेदर करें लेकिन ऐसी एक भी
पोस्ट जिस से समाज का ताना बाना मस्के उसे थोड़ा अवॉयड करें. दंगा कोई एक्शन फिल्म
नहीं है, जिसका आनंद उठाया जाय, यह देश की प्रगति, एकता और अस्मिता का सबसे बड़ा दुश्मन
है. सारा विकास धरा का धरा रह जाएगा, जो
हुआ है वह भी बिखर जाएगा. हिंसा सिर्फ बरबाद करती है, और धर्मान्धता से भरी हिंसा, सर्वनाश.
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