(इस कविता की आखिरी पंक्ति ''विकल्पहीन नहीं है दुनिया '' एक पुस्तक है , जिसे प्रसिद्ध समाजवादी चिन्तक किशन पटनायक ने लिखा है.यह कविता उस पुस्तक से प्रभावित है.)
गर्म हो रही है दुनिया ,
त्रिअग्नि की ताप से व्याकुल ,
दहक रहा है सब कुछ ,
असह्य ताप से .
ग्रीष्म पवन का हाहाकार ,,
बेधती आँखे सूर्य की ,
जला डालेंगे सब अब तो.
नमी नहीं है कहीं,
मर चुका है पानी उनकी आँखों का ,
जिन पर जिम्मा है प्यास बुझाने का .
गुबार भरी टूटी सड़कें,
सूखे, जल हीन,
खेत ,,
झुलसे , थके , छले चेहरे ,
अन्नदाताओं के ,
आँखे ताकती दूर कहीं दिगंत में ,
निहारती हैं शून्य को शून्य से ,
तलाश है उन्हें मुट्ठी भर मेघ की .,
पर धूसर आसमान ,
बंजर गगन ,
अब तोड़ो इस सन्नाटे को .
लाओ , एक आंधी अब ,
तेज़ धूल भरी ,
आशाओं को समेटे ,
मेघों की बरात लिए ,
तीव्र चक्रवातीय पवन .
तोड़ दे जो सारा गुरूर उनका ,
उन के मौसम का .
जो सोच बैठे हैं ,
ताप कितना भी बढे ,
सह लेंगे लोग .
धीरज नहीं खोना चाहिए ,
पर अतिशय धैर्य ,
अकर्मण्यता है , जो ,
धकेल रहा है हमें ,
पत्थर के एक अंधे सूखे कुएं में ,
जो पटे पड़े हैं सरीसृपों से ,
रक्त पिपासु
!
नियति , प्रारब्ध,
और भाग्य, सब ,
झूठ , फरेब और छलावा हैं ,
नाम पर जिस के चूसते रहे हैं ,
पाखंडी , ध्वजावाहक .
आओ एक आंधी लायें ,
तेज़ और बहुत तेज़ .
ताप , जब लांघ जाता है सीमा अपनी ,
हठ, जब बन जाता है ,
स्थायी भाव , राजधर्म का ,
बन जाते हैं मदारी जब भाग्य विधाता .
पाप से
अर्जित धन ,
जब बन जाता
है प्रतिष्ठा
का मापदंड
घुस जाता
है जब
कछुआ अपने
खोल में ,
पांच सालों
के लिए ,
और सुरक्छित
समझने लगता
है .
खुद को .
भूल जाता
है जब
सारे वादे ,
अहंकार में
डूबी आँखें
जब नहीं
देख पाती
विकल्प,
हो जाता
है राज्य
असह्य तब ,
आंधी आती
है ,
काल बैसाखी
की तरह .
दूर किसी
कोने से
मेघों की
सेना लेकर .
काले , काले , उमड़ते
घुमड़ते ,
और आसमान
से बरसता
है अमृत
ताप हरता
है ,
और फूटतीं
है ,
नयी कोंपलें
उम्मीदों की
,
आकार लेती
है एक
नयी दुनिया ....
जो विकल्पहीन
नहीं है….
-vss.
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