Sunday, 18 May 2014

नयी सरकार, जनादेश, शुभकामनाएं और बधाई !! - विजय शंकर सिंह


1984 में भाजपा ने 2 सीट, और कांग्रेस ने 417 सीटें पायी थी. तब कोई मुद्दा नहीं था. असामान्य परिस्थितियाँ थी. असामान्य परिणाम आये. इंदिरा गाँधी की ह्त्या हुयी थी. सहानुभूति की लहर थी. भाजपा आज जब 2 से 272 + की यात्रा कर चुकी है तो कांग्रेस मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्ज़ा भी खो चुकी है. यह भाजपा की चौथी सरकार है. पहली 13 दिन, दूसरी 13 महीने, तीसरी पूर्णकालिक चली थी. यह सबसे मज़बूत संख्या बल की सरकार होगी. और उम्मीद है बेहतर काम करते हुए जन अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी. 

इस चुनाव में भाजपा को अपार सफलता मिली है. उसके नेता और रणनीतिकार चाहे जो सामने कहें, लेकिन इतनी सफलता की उन्हें भी उम्मीद नहीं रही होगी. मैं फेसबुक दोस्तों की बात नहीं कर रहा हूँ. इधर जब से चुनाव परिणाम आये हैं, फेसबुक के मित्र गण इसे दूसरी आज़ादी के रूम में देख रहे हैं और जश्न मना रहे है. उत्सव और आनंद हर सफलता पर मनाया जाता है, और मनाया जाना भी चाहिए. लेकिन इसे जो मित्र गण दूसरी आज़ादी कह रहे हैं उनके लिए मैं कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का बोध भी कराना चाहूंगा. 

देश का संसदीय इतिहास 1952 से प्रारम्भ होता है, जब प्रथम आम चुनाव हुआ था. कांग्रेस उस चुनाव से लेकर 1967 तक अजेय रही. हालांकि, सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, सहित अन्य दल और, डॉ लोहिया, जय प्रकाश नारायण, ई एम् एस नम्बूदरीपाद, एस ए डांगे, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी बाजपेयी, जैसे गैर कांग्रेसी नेता सक्रिय थे. लेकिन अतीत का संवेग कांग्रेस के पक्ष में था. जब तक नेहरू जीवित रहे, अजेय रहे, पहली बार, 1967 में गैर कांग्रेस वाद का विचार परवान चढ़ा, और उत्तर भारत में, उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में कांग्रेस के बजाय, सभी विपक्षी दलों का एक संयुक्त मोर्चा संयुक्त विधायक दल के रूप में अस्तित्व में आया. सारे विपक्षी दल, वैचारिक स्तर पर अलग अलग थे, केवल कांग्रेस का विरोध ही साझा एजेंडा था. परिणामतः यह मोर्चा जितनी जल्दी बना उतनी ही तेज़ी से बिखरने भी लगा. डॉ लोहिया गैर कांग्रेस वाद के प्रमुख शिल्पकार थे. 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हो गया. उनके असामयिक निधन ने समाजवादी आन्दोलन का तो नुकसान किया ही साथ ही गैर कांग्रेस वाद की कमर भी तोड़ दी. 

फिर इंदिरा गाँधी का उदय हुआ. उनके सशक्त नेत्रित्व, बांगला देश के उदय और अंतर्राष्ट्रीय परिथितियों की पृष्ठभूमि में हुए 1971 के चुनाव में कांग्रेस इंदिरा को अपार सफलता मिली और एक मज़बूत सरकार बनी. इंदिरा में दुर्गा की क्शवि देखी गयी, उस युग को भी एक आज़ादी के रूप में देखा गया था. फिर जैसा कि होता है, चमक धुंधली होती गयी. इतिहास भूलता गया, और इंदिरा गाँधी से गलतियाँ भी हुयी. इसी बीच राज नारायण जो एक प्रसिद्द समाजवादी नेता थे और रायबरेली से इंदिरा गाँधी के द्वारा चुनाव में पराजित हुए थे ने इस चुनाव के विरुद्ध एक याचिका दायर की. जिसका निर्णय इंदिरा गाँधी के विरुद्ध हुआ. इंदिरा गाँधी का विरोध चरम पर था. जे पी आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी. इसी गहमा गहमी के बीच 26 जून 1975 को आपात काल की घोषणा कर दी गयी. सारे बड़े नेता सहित सभी विरोधी दलों के कार्यकर्ता और नेता जेल में दाल दिए गए थे. मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए थे. अखबारों पर सेंसर लग गया था. सचमुच में आपात काल आफत काल बन गया था. पर कुछ इसलिए भी खुश थे कि ट्रेने समय से चलने लगी थीं और बाबू लोग नियमित रूप से दफ्तरों में बैठने लगे थे. 

1977
में अचानक चुनाव की घोषणा हुयी. जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी के नेत्रित्व में कांग्रेस का एक धडा टूटा जिसे कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी के रूप में जाना गया. भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी आदि दलों ने एक होकर जनता पार्टी का गठन किया. एक दल, एक चुनाव चिह्न, और एक घोशानापत्र पर लड़े गए चुनाव के पीछे सिर्फ एक ही सोच थी कि गैर कांग्रेस वोटों का बंटवारा न होने पाए. साथ ही, एक मात्र एजेंडा उस चुनाव का बना, इंदिरा विरोध और कांग्रेस को हटाना. ऐतिहासिक चुनाव था वह. उत्तर प्रदेश, जिसमें तब उत्तराखंड भी था, और बिहार में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली. इंदिरा गाँधी को हराया भी था, उसी राज नारायण ने, जिन्हें भारतीय राजनीति ने कभी गंभीरता से नहीं लिया था. इस चुनाव को भी आज़ादी की संज्ञा दी गयी थी. जैसा कि आज 2014 के इस चुनाव को कुछ लोग कह रहे हैं. पर ढाई साल भी सरकार में दो प्रधान मंत्री और एक ही मंत्रिमंडल में दो दो उपप्रधान मंत्री भी देश को देखने को मिले. 

ऐसा ही कांग्रेस वितोधी चुनाव 1989 का भी था. पर वह इतना व्यापक नहीं था. मुद्दा था, बोफोर्स तोप खरीद मामले में राजीव गाँधी की व्यक्तिगत लिप्तता. और नेता थे, विश्व नाथ प्रताप सिंह. जो नारा लगता था, वह था, राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है. लेकिन तकदीर जल्दी ही पलट गयी. और सरकार भी. 

इतिहास में आज़ादी 15 अगस्त 1947 को ही मिली है. जब ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति मिली थी. फिर जो भी बदलाव आये वह सरकारों के थे. इनका मुख्य कारण सरकारों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार, और अहंकार रहा है. जनता स्वभावतः बेहतर विकल्प ढूँढती है. जब जब उसे सशक्त नेत्रित्व भरा और अपेक्षाकृत बेहतर नेता और दल मिला तो उसने चुन लिया. इस बार भी यही हुआ. हम दस साल किसी गुलामी में नहीं थे. वे भी इसी चुनावी प्रक्रिया से चुनी सरकारें थी. जिन्हें 2004 और 2009 में चुना गया था. जब वे जन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी और मोदी के रूप में एक बेहतर नेत्रित्व दिखा तो जनता ने उन्हें चुन लिया. हाँ यह ज़रूर है कि जनता कांग्रेस को उखाड़ने के लिए जितनी बेताब थी, उतनी ही मोदी को लाने के लिए भी बेक़रार थी.
इस चुनाव में बहुत मुद्दे थे. महंगाई, भ्रष्टाचार, कुशासन, आदि मुद्दे और समस्याएं थी. साथ ही साथ इनके निदान की बात तो दूर, इनका बेशर्मी भरा बचाव भी एक बड़ा मुद्दा था. मोदी की लोकप्रियता, बार बार साम्प्रादायिकता बनाम सेकुलर के जाप ने भी सेकुलरिज्म पर सवाल भी खड़े किये. लोग इस मुद्दों के बजाय जीवन से जुडी समस्याओं का निदान चाहते थे. 

इस चुनाव ने कई भ्रम भी खंडित किये हैं. जाति, और धर्म के समीकरण हमेशा नहीं चलते हैं. 1971, 1977, 1984, और अब न जातिगत मोह चला, और न ही धर्म का जादू. अगर राजनीति धर्म और जाति के मकड़ जाल से बाहर आ जाती है, तो यह लोकतंत्र के परिपक्वता की निशानी होगी. वैसे भी देश ने हनेशा चुनौतियों के अवसर पर परिपक्वता का ही परिचय दिया है. 

कोई भी दल मान्यता प्राप्त विपक्षी दल के रूप में संसद में नहीं रहेगा. इस के लिए निर्धारित 10 % सीटें यानी 54 सीट चाहिए , जो किसी के पास नहीं है. यह पहली बार नहीं हुआ है. 1952 से 1969 तक कोई भी मान्यता प्राप्त विपक्षी दल नहीं था. कांग्रेस में जब टूट हुयी और इंदिरा गाँधी के नेत्रित्व में कांग्रेस आईका गठन हुआ था 1969 में और कामराज के नेत्रित्व में जब पुरानी कांग्रेस जिसे सिंडिकेट कहा जाता था तो उस के सदस्यों की संख्या मान्यता प्राप्त विरोधी दल के बराबर थी. लोकसभा में उस के नेता, डॉ राम सुभग सिंह थे. वह पहले नेता विरोधी दल थे. उस समय कांग्रेस इंदिरा के अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम थे. इस के बाद 1984 में भी कोई मान्यता प्राप्त विरोधी दल नहीं रहा. 

नयी सरकार से बहुत अपेक्षाएं है, जनादेश भी साफ़ और भ्रम मुक्त है. आगे अच्छा ही होगा. शुभकामनाएं !
-vss.

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