Friday 15 September 2023

मीडिया ट्रायल और मुकदमों का ब्रीफिंग मैनुअल / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय को तीन महीने की अवधि के भीतर पुलिस कर्मियों द्वारा मीडिया ब्रीफिंग पर एक व्यापक मैनुअल तैयार करने का निर्देश दिया है।  सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों (डीजीपी) को मैनुअल के लिए अपने सुझाव प्रस्तुत करने का भी निर्देश दिया।  इसके अतिरिक्त, अदालत ने निर्देश दिया कि इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के इनपुट पर भी विचार किया जाए।

इस तरह के मैनुअल की जरूरत इसलिए पड़ी कि, लंबे समय से यह महसूस किया जा रहा है कि, आपराधिक मुकदमों, की रिपोर्टिंग के समय, कुछ न्यूज चैनल, उन मुकदमों के बारे में, जो खबरें प्रसारित करते हैं, वे खबरें कम, एक प्रकार की समानांतर तफ्तीश होती है। कतिपय मुकदमों की पुलिस द्वारा की जा रही तफ्तीशों में, बहुत से तथ्य ऐसे होते हैं, जिनकी पुष्टि की जानी, अभी बाकी होती है और उनके सार्वजनिक हो जाने से, न सिर्फ उन मुकदमों की तफ्तीश पर असर पड़ता है बल्कि सुबूतों के साथ भी छेड़छाड़ होने की संभावना रहती है। इस तरह से कुछ टीवी चैनल, उन मुकदमों की ब्रेकिग न्यूज चला कर, जनमानस में एक पूर्वाग्रह का वातावरण भी बना देते हैं। अभियुक्त, सक्षम अदालत में, दोषी ठहराए जाने के पहले ही, मीडिया और मीडिया के इस संक्रमण के कारण, समाज में, दोषी की तरह देखा जाने लगता है। 

मीडिया ट्रायल की इन सब समस्याओं से निपटने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने एक ब्रीफिंग  मैनुअल बनाने का निर्देश दिया है। फिलहाल अदालत के सामने, यह  मामला दो महत्वपूर्ण मुद्दों से संबंधित है: पहला, मुठभेड़ों की स्थिति में पुलिस द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं, और दूसरा, चल रही आपराधिक जांच के दौरान मीडिया ब्रीफिंग करते समय पुलिस द्वारा कतिपय प्रोटोकॉल का पालन। जबकि मुठभेड़ वाला मुद्दा, पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य के 2014 के फैसले में संबोधित किया गया था और, सर्वोच्च न्यायालय, अब मीडिया ब्रीफिंग वाले मामले पर केंद्रित है।

मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने इस मुद्दे के बढ़ते महत्व, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिपोर्टिंग के उभरते और बदलते परिदृश्य के मद्देनजर, जोर दिया है। उन्होंने कहा है कि, "इस मामले में सार्वजनिक हित की कई परतें शामिल हैं, जिनमें जांच के दौरान जनता के जानने का अधिकार (सूचना का अधिकार), जांच प्रक्रिया पर पुलिस के खुलासे का संभावित प्रभाव, आरोपियों के कानूनी अधिकार और न्याय का समग्र प्रशासन के विंदु शामिल है।

न्यायालय ने पहले वरिष्ठ अधिवक्ता, गोपाल शंकरनारायणन को अपनी सहायता के लिए न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) नियुक्त किया था। गोपाल शंकरनारायणन ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को, एक प्रश्नावली वितरित की थी, जिनमें से कुछ से प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं।  इसके अलावा, इस मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा टिप्पणियां प्रस्तुत की गईं।  वरिष्ठ अधिवक्ता ने सिफारिश की कि, हालांकि मीडिया को रिपोर्टिंग से रोका नहीं जा सकता है, लेकिन सूचना के स्रोत, जो अक्सर सरकारी संस्थाएं हैं, को विनियमित (Regulate) किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य घटनाओं से जुड़ी, कई और अलग अलग  खबरों को, मीडिया में प्रस्तुत होने से रोकना है, जैसा कि पिछले कई मामलों में हुआ है, जबकि एक ही घटना की रिपोर्टिंग, मीडिया के अलग अलग चैनलों ने, अलग अलग तरह से प्रसारित की। जिससे भ्रम फैला। सीजेआई ने कहा, "हम मीडिया को रिपोर्टिंग करने से नहीं रोक सकते। लेकिन स्रोतों (खबरों की) को रोका जा सकता है। क्योंकि स्रोत राज्य (के आधीन) है।" 
शीर्ष अदालत ने आरुषि मामले में, मीडिया की भूमिका का विशेषरूप से उल्लेख भी किया। 

इसे ध्यान में रखते हुए, एमिकस क्यूरी, सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन ने मैनुअल तैयार करने के उद्देश्य से, विचार करने के लिए दिशानिर्देश प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि, "दिशानिर्देश लॉस एंजिल्स पुलिस विभाग (एलएपीडी) और न्यूयॉर्क पुलिस विभाग (एनवाईपीडी) की मीडिया रिलेशंस हैंडबुक के साथ-साथ यूके के मुख्य पुलिस अधिकारियों के संघ और यहां तक ​​​​कि, सीबीआई की जन संपर्क शाखा की सलाह से लिए गए हैं।" 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार, निष्पक्ष जांच के दौरान, आरोपी के अधिकार और पीड़ितों की गोपनीयता के बीच स्थित नाजुक संतुलन पर भी जोर दिया गया है। कोर्ट ने आदेश में कहा है, "किसी भी आरोपी को फंसाने वाली मीडिया रिपोर्ट का प्रसारण अनुचित है। पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से जनता में यह संदेह भी पैदा होता है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है। मीडिया रिपोर्ट में पीड़ितों की गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए।"

अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने अद्यतन (uptodate) दिशानिर्देशों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। क्योंकि मौजूदा दिशानिर्देश एक दशक पहले बनाए गए थे, और अपराध की मीडिया रिपोर्टिंग (Crime Reporting) के पैटर्न तब से काफी विकासित और उसमें बदलाव हो चुका है, जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों की अपनी अपनी  महत्वपूर्ण भूमिका हैं। आदेश में कहा गया है कि, "भारत सरकार द्वारा,  लगभग एक दशक पहले 1 अप्रैल, 2010 को, दिशानिर्देश तैयार किए गए थे। तब से, न केवल प्रिंट मीडिया बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी अपराध की रिपोर्टिंग में वृद्धि होने के साथ, संतुलन बनाए रखने के लिए नए मैनुअल का निर्माण किया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है।"

शीर्ष अदालत ने माना है कि, "मीडिया को दी जाने वाली जानकारी की प्रकृति, पीड़ितों और आरोपी व्यक्तियों की उम्र और लिंग जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए।" 
इसमें आगे कहा गया है, "खुलासे (केस के) की प्रकृति एक समान नहीं हो सकती है, क्योंकि यह अपराध की प्रकृति और पीड़ितों, गवाहों और अभियुक्तों सहित संबंधित अन्य हितधारकों पर निर्भर होना चाहिए। पीड़ित और अभियुक्त की उम्र और लिंग के खुलासे का, मुकदमे की प्रकृति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, जिसे, मीडिया को कोई भी सूचना देते समय पुलिस या जांच एजेंसी को, इसका ध्यान रखना चाहिए ।"
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि, "पुलिस के खुलासे का परिणाम "मीडिया-ट्रायल" के रूप में, नहीं होना चाहिये। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि, खुलासे के परिणामस्वरूप मीडिया ट्रायल न हो ताकि, आरोपी के अपराध का पूर्व-निर्धारण हो सके।"

इस तरह का एक विस्तृत और लगभग सभी प्रासंगिक बिंदुओं को, समेटते हुए एक मैनुअल तैयार करने के लिए गृह मंत्रालय को आदेश की तारीख से, तीन महीने तक की समय सीमा दी गई है।एक महीने के भीतर सभी डीजीपी को दिशानिर्देशों के लिए अपने सुझाव गृह मंत्रालय को बताने होंगे और, मैनुअल तैयार करते समय, एनएचआरसी की सिफारिशों पर भी विचार  किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "गृह मंत्रालय से अपेक्षा की जाती है कि वह तीन महीने के भीतर इस कार्य को समाप्त कर लेगा और दिशानिर्देशों की एक प्रति एमिकस क्यूरी सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन और सुश्री शोभा गुप्ता, एनएचआरसी के वकील को देगा।  

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

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