Sunday 6 August 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, 'यादों की बारात का' अंश (19) जोश की आखिरी भारत यात्रा और पाकिस्तान वापसी के बाद, वहां उठा विवाद / विजय शंकर सिंह

पाकिस्तान में जोश साहब को जब उचित सम्मान नहीं मिला तो, वे आम मुसलमान, जो इस्लाम के नाम पर, यूपी बिहार से, हिजरत कर के पाकिस्तान गए , उन्हे क्या सम्मान मिला होगा। वे आज तक, वहां के समाज में घुलमिल नहीं पाए।  बहरहाल, जोश वहां अपने हक के लिए पाकिस्तानी हुक्मरान से लड़ते भिड़ते रहे, पर मलीहाबाद के इस पठान ने, अपने स्वाभिमान पर कोई आंच नहीं आने दी। 

1967 में वे आखिरी बार, पाकिस्तान से भारत आते हैं, और इसी यात्रा में, अपनी पूर्व जमींदारी का हाल चाल लेने आखिरी बार मलीहाबाद जाते हैं, और कुछ दिन वहां गुजारते हैं। उनके बेहद अजीज़ जवाहरलाल नेहरु तब जीवित नहीं थे, तो उनका मन भी लगता था। नेहरू के प्रति उनका क्या दोस्ताना संबंध था, यह आप आगे अगले अंश में, पढ़ेंगे। 

इसी यात्रा में, वे अपने पुराने दोस्तों से मिलने, बंबई जाते हैं और वही एक इंटरव्यू देते हैं। वह इंटरव्यू, जोश के अनुसार तो एक सामान्य बातचीत थी, पर उसी इंटरव्यू को, पाकिस्तान में, पाक विरोधी नजर से देखा गया। जोश, जब वापस पाकिस्तान तशरीफ ले जाते हैं, तो वहां उनके खिलाफ एक जंग का एलान हो चुका होता है, और वे फिर नौकरी छोड़ देते हैं। फिर वे यह ठान लेते हैं कि, अब वे कोई नौकरी किसी भी कीमत पर न तो खोजेंगे और न ही किसी नौकरी का ऑफर स्वीकार करेंगे।

अब उन्ही के शब्दों में पढ़िए....
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शायद अगस्त 1967 में छुट्टी लेकर में अपने मलीहाबाद के बाग़ों के फ़ैसले के लिए हिन्दुस्तान गया। इस मामले ने इस कदर तूल खींचा कि मुझे वहां चार महीने रहना पड़ा। बाग़ों और मुशायरे के सिलसिले में बम्बई पहुंचा तो अंसारी साहब किसी अखबार के नुमाइंदे को लेकर इंटरव्यू के लिए आए और मेरा इंटरव्यू किसी अंग्रेजी अखबार में छप गया। छुट्टी खाता होने पर जब लाहौर पहुंचा तो मुझसे कहा गया कि मेरे बम्बई के निरीह इंटरव्यू को नये नये मानी पहनाकर यहाँ के अखबारों ने खूब उछाला और मुझे पाकिस्तान दुश्मन ठहरा दिया है। मुझे यह सुनकर अफसोस तो जरूर हुआ लेकिन ताअज्जुब बिलकुल नहीं। जब हदीस और कुरजान को, अपने साँचे में डालने के लिए व्याख्याओं द्वारा बदल दिया जाता है तो मेरा इंटरव्यू क्या चीज है। लाहौर में अखबारों के झूठ का जवाब देकर जब कराची आया तो हक्की साहब ने बड़े गुस्ताखाना अंदाज में मुझसे पत्र-व्यवहार शुरू कर दिया। आखिर इस गैरशरीफाना सिलसिले को बन्द कर देने के वास्ते मैंने हक्की को लिख भेजा कि, "मैं जिस खानदान का सदस्य हूं और जिस मिजाज का आदमी हूं, उस मिजाज का आदमी टूट तो सकता है; लेकिन लचक नहीं सकता। अगर आप मेरी रोजी पर चोट लगाने की ठान चुके हैं तो-
निगाहे गर्म से हालत हो दिल की और तबाह
अगर यही है इरादा तेरा तो बिस्मिल्लाह

मेरी इस तहरीर के जवाब में हक्की ने लिखा कि मेरी नौकरी की मुहलत अब और नहीं बढ़ेगी, मैं दफ्तर से तअल्लुक तोड़कर घर आ गया और हक्की के घर में घी के चिराग जलने लगे।

लेकिन इस खबर को हक्की साहब ने किसी अखबार में छपने नहीं दिया, ताकि उनकी पोल न खुलने पाए। जब हिन्दुस्तानी रेडियो ने मेरे निलम्बन का ऐलान किया तो यहाँ के अखबारों ने बड़ी ढीठाई के साथ उसको नकारते करते हुए उल्टा, उसे ही झूठा करार दे दिया।

मेरी नौकरी को छूटे अब एक मुद्दत गुजर चुकी है, जिस रोज मैं हज़रते हक के फसलो करम और हककी साहब के कलमे-फिज़ रकम से निलम्बित कर दिया गया था, उस रोज पूरे दिन न सही, चन्द घन्टे तो जरूर परेशानी रही थी। लेकिन मेरी बीवी की हिम्मत और मेरे मजबूत इरादे ने, उस काली परेशानी को शाम होते-होते कुहनी की चोट की मानिंद भुला दिया था।

अब चूंकि यह सारा मामला, 
रोने-धोने वाले, रो चुके और हँसने वाले हंस चुके,
इक पुराना वाक्या है खाना वीरानी मेरी ।

इसके साथ-साथ चूंकि मैं अपने बुजुर्गों और अपनी इज्जत को गवाह बनाकर यह क़सम खा चुका हूँ कि मर जाऊंगा लेकिन अब सरकारी मुलाजमत का गुनाह नहीं करूंगा, यानी 'खाई सो खाई अब खाऊं तो राम दुहाई', इस मंजिल में अपनी पोजीशन साफ करने का इरादा करूंगा तो मुझे पूरा यकीन है कि मेरे इस अमल को हुकूमत की खुशामद या मुलाज़मत की आरज़ू नहीं समझा जाएगा। इसी बिना पर में खुल्लम-खुल्ला ऐलान कर देना चाहता हूँ कि 1967 के आखिर में मेरे खिलाफ जो यह प्रोपेगंडा फरमाया गया था कि, में पाकिस्तान का दुश्मन या पाकिस्तान के राष्ट्रपति का मुखालिफ हूं, कतई तौर पर गलत और बेबुनियाद था। हैरत यह है कि इस मोटी-सी बात को कोई नहीं समझ सकता कि, में पाकिस्तान का दुश्मन होता तो अपनी दौलत, अपनी इज्जत अपनी फरागत अपने दोस्त अपने बुजुगों की हड्डिया से मुंह मोड़कर और अपने नाज़बरदार जवाहरलाल नेहरू का दिल तोड़कर यहां आता क्यों?

थोड़ी देर के वास्ते अगर यह भी मान लिया जाए कि मुझे लालच खींचकर यहाँ लाई थी। लेकिन जब नक़वी और सिकन्दर मिर्जा के पतन के बाद मुझ पर जीना दूभर हो चुका था और मेरी परेशानियों का हाल सुनकर, जब पंडित जी ने मुझसे कहला भेजा था कि, में पाकिस्तान को छोड़कर हिन्दुस्तान आ जाऊं तो, उस वक्त मैंने हिन्दुस्तान जाने से क्यों इनकार कर दिया था?

अब जबकि पाकिस्तान में में अपना मकान भी बनवा चुका हूं और यहाँ की खाक में दफन हो जाने के लिए भी आमादा हूं, तो किसके मुंह में इतने दांत है कि, मुझे पाकिस्तान का दुश्मन कहकर, अपनी शैतानियत और बेवकूफी का ऐलान फरमा दे।

मैं इस सियासी नफरत से भरे जमाने में, जब एक मुल्क दूसरे मुल्क को अपने पेट में रख लेने पर तुला बैठा है, बल्कि मुलक ही नहीं एक सूबा दूसरे सूबे पर छुरी ताने खड़ा है, यह बात किससे कहूँ कि, मैं तमाम मानव जाति का दोस्त हूं, और यह कहूं भी, तो यकीन कौन करेगा? लेकिन मैं अपने सच को इस खौफ से दबा नहीं सकता कि उसे झूठ खयाल किया जाएगा। इसलिए मैं यह कह देना चाहता हूं कि, अब एक मुद्दत से मेरे सीने में अबुल इंसान हजरते आदम का दिल धड़क रहा है। मैं इस दुनिया के हर करीबो-दूर मुल्क को अपना वतन और हर अच्छे-बुरे इंसान की अपना बच्चा समझता है।

जब किसी के घर में जश्न होता है तो मैं समझता हूं कि, वह जश्न मेरे ही घर में होता है और जब किसी के घर से कोई जनाज़ा निकलता है तो मैं यह महसूस करता हूं, कि यह जनाजा मेरे ही घर से निकल रहा है। सभी इंसान एक ही किस्म के तत्त्वों से बने हैं, जिनमें सिर्फ नाम और जिस्म का फर्क है। इस दुनिया में गैरियत का कहीं कोई नाम ही नहीं है। अगर किसी से नफरत या दुश्मनी करूँगा तो, इसके सिवा और कोई मानी भी नहीं हो सकते कि मैं खुद अपनी ही जात से नफरत या दुश्मनी कर रहा है-

ऐ दोस्त, दिल में गर्दै कुदरत न चाहिए
अच्छे तो क्या बुरे से भी वहशत न चाहिए
कहता है कौन फूल से रगबत न चाहिए
कांटे से भी मगर तुझे नफ़रत न चाहिए 
कांटे की रंग में भी है लहू सब्जाज़ार का 
पाला हुआ है वह भी नसीमे बहार का।
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इस तरह, जोश मलीहाबादी की बहुचर्चित आत्मकथा, यादों की बारात, पुस्तक का अंत होता है। लेकिन आत्मकथा के बाद उन्होंने कुछ उन व्यक्तियों के व्यक्तिचित्र भी संकलित किए है, जो उनके करीब रहे हैं। मैं उनमें से, जवाहरलाल नेहरू, सरोजनी नायडू, मजाज लखनवी और फिराक गोरखपुरी के व्यक्तिचित्र आगे प्रस्तुत करूंगा। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, 'यादों की बारात' का अंश (18) पाकिस्तान उर्दू बोर्ड की नौकरी और वहां भी विवाद / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/08/18.html 

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