Sunday 4 December 2022

कॉलेजियम सिस्टम और सरकार / विजय शंकर सिंह

सरकार को पता है संविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट को असीमित शक्तियां प्राप्त हैं, और यह ताकत ही उन्हे सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आशंकित किए रहती है, शेष सभी संवैधानिक संस्थाओं पर नियन्त्रण, जब तक कब्जे में, सुप्रीम कोर्ट/हाइकोर्ट न आ जाए, का, कोई विशेष अर्थ नहीं है। लगभग सभी महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता को चोट पहुंचाने के बाद, सरकार की नजरे इनायत, न्यायपालिका यानी सुप्रीम कोर्ट की ओर हुई है। 

अब सुप्रीम कोर्ट के वे विशेष अधिकार और शक्तियां, जो उसे संविधान से प्राप्त हैं, तो कम की नहीं जा सकतीं तो, क्योंकि संविधान का मूल ढांचा ही बदलना होगा, जो संभव नहीं है, लेकिन, थोड़ा बहुत नियंत्रण मनमाफिक जजों को नियुक्त कर के, लाया जा सकता है। अतः, अब सरकार जजों की नियुक्ति में अपना पूरा दखल चाहती है, पर वर्तमान सिस्टम उसमे बाधा बना हुआ है। इसीलिए कॉलेजियम की सिफारिश और सरकार के बीच एक रस्साकसी है। 

यह टकराव इसलिए भी है कि, वर्तमान सीजेआई चंद्रचूड़ का कार्यकाल लम्बा है, और जैसी उनकी छवि है, उसे देखते हुए सरकार आशंकित है कि, वह जजों की नियुक्ति में बेजा दबाव नहीं दे पाएगी। इसलिए न्यायपालिका की आजादी के नाम पर, कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ कानून मंत्री कुछ ज्यादा ही मुखर है। कानून मंत्री के बयानों पर, सरकार का अधिकतर मामलों में, पक्ष रखने वाले सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और यहां तक कह दिया कि, कानून मंत्री ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर दिया है। 

लेकिन, क्या न्यायपालिका से आजादी की अपेक्षा रखने वाली सरकार ने, अन्य संवैधानिक संस्थाओं, यहां तक कि संसद तक की गरिमा और स्थिति को, ठेस नहीं पहुंचाई है? जिस तरह से राज्यसभा से किसान बिल पास कराया गया, क्या वह संसदीय प्रणाली के अनुरूप था? यह अलग बात है कि, एक लम्बे और संगठित जन प्रतिरोध के बाद, यह बिल बाद में सरकार द्वारा ही वापस ले लिया गया। अरुण जेटली के वित्तमंत्री काल में तो, एक वित्तीय बिल भी बिना पर्याप्त विचार विमर्श के पारित करा दिया। 

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख को लगातार मिलता सेवा विस्तार, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन, (सीबीआई) निदेशक, का राफेल मामले पर, रातोरात हुआ तबादला, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, (आरबीआई) की मर्जी के बिना की गई नोटबंदी, निर्वाचन आयुक्त अरूण गोयल की, उनकी ऐच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद की गई, त्वरित नियुक्ति, स्टैंडिंग कमेटी में बिना विचार विमर्श के कुछ महत्वपूर्ण कानूनों को, पारित करा देना, सरकार की  नीयत को स्पष्ट कर देते हैं।

साफ जाहिर होता है कि, सरकार संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का कोई आदर नहीं करती है और हर हालत में उन्हे सरकार के एक विभाग के रूप के नियंत्रित करना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसी शक्तियां हैं जिससे वह, संवैधानिक संस्थाओं पर, सरकार के अतिक्रमण को विफल कर सकती है।

सरकार इसे जानती है कि, उसके हर कदम की सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और की भी गई है। ऐसी स्थिति में उसे मनमाफिक 'न्याय' चाहिए। इसी कॉलेजियम सिस्टम में जब सरकार को मनमाफिक निर्णय मिलने लगते हैं तो वह फिर जजों की नियुक्ति पर थोड़ा खामोश हो जाती है। और जैसे ही असहज करने वाले फैसले और टिप्पणियां आने लगते है तो वह बजाय, उन फैसलों पर न्यायिक टिप्पणी करने के, कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाने लगती है। 

यह बात बिलकुल सही है कि, कॉलेजियम सिस्टम एक त्रुटिविहीन तंत्र नहीं है। एक बेहतर तंत्र लाया जाना चाहिए। लेकिन, सरकार की यह कवायद और आलोचना बेहतर तंत्र विकसित करने की नीयत से नहीं बल्कि, न्यायपालिका को भी नियंत्रित करने की नीयत से है जो, कानून बदल कर किया जाना संभव नहीं है तो, मनमाफिक आदमी ही बिठा कर, नियंत्रित करने की एक कोशिश है। सरकार की नियंत्रणवादी मनोवृत्ति को देखते हुए, फिलहाल तो, कॉलेजियम ही एक बेहतर तंत्र लगता है।

अब यह जिम्मेदारी, CJI और कॉलेजियम के अन्य जजों की है जो, वे इस व्यवस्था को कैसे तार्किक, पारदर्शी और त्रुटिहीन रखते हैं। फिलहाल तो सरकार का कॉलेजियम सिस्टम के प्रति दृष्टिकोण और विरोध, किसी सदाशय के कारण नहीं, बल्कि, न्यायपालिका पर परोक्ष रूप से नियंत्रण के उद्देश्य से है।

संविधान का अनुच्छेद 142 इस संदर्भ में पढ़ा जाना समीचीन होगा, 

० जब तक किसी अन्य कानून को लागू नहीं किया जाता तब तक सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सर्वोपरि होगा।

० अपने न्यायिक निर्णय देते समय न्यायालय ऐसे निर्णय दे सकता है जो इसके समक्ष लंबित पड़े किसी भी मामले को पूर्ण करने के लिये आवश्यक हों और इसके द्वारा दिये गए आदेश संपूर्ण भारत संघ में तब तक लागू होंगे जब तक इससे संबंधित किसी अन्य प्रावधान को लागू नहीं कर दिया जाता है। 

० संसद द्वारा बनाए गए कानून के प्रावधानों के तहत सर्वोच्च न्यायालय को संपूर्ण भारत के लिये ऐसे निर्णय लेने की शक्ति है जो किसी भी व्यक्ति की मौजूदगी, किसी दस्तावेज़ अथवा स्वयं की अवमानना की जाँच और दंड को सुरक्षित करते हैं। 

(विजय शंकर सिंह)

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