Tuesday 8 February 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (12)


             (चित्र: फ़िल्म ‘असुरन’ से)

हिंसा का दौर धीरे-धीरे शुरू हुआ। राजनैतिक और सामाजिक हिंसा। तमिल फ़िल्मों में भी हिंसा। 

वर्ग-संघर्ष खत्म करने के लिए पेरियार अपनी कलम और ज़बान से लड़ते रहे, लेकिन कभी बंदूक उठाने नहीं कहा। न ही कभी किसी मंदिर में जाकर तोड़-फोड़ को बढ़ावा दिया। उनकी लड़ाई ब्राह्मणों से अधिक थी, और वह ब्राह्मणों की सत्ता के अंत को ही ब्राह्मणवाद का अंत मानते थे। वह सामंतवाद या अ-ब्राह्मणों द्वारा किए जा रहे जातिवाद से बहुत अधिक नहीं लड़ पाए। निजी समर्पणों के बावजूद उन्होंने ज़मींदारी खत्म करने और दलितों (SC-ST) के विशेषाधिकार पर कार्य कम किया। 

स्पष्ट कहूँ तो अम्बेडकर अगर दलितों के नेता थे, तो पेरियार ने पिछड़ा वर्ग (वर्तमान OBC) के विकास के लिए अधिक कार्य किया। जो सत्ता और आरक्षण अहीरों या अन्य पिछड़ा वर्गों ने उत्तर भारत में नब्बे के दशक से पानी शुरू की, वह मद्रास ने आज़ादी से ढाई दशक पहले ही हासिल कर ली थी। इस कारण इस बड़े वर्ग की शिक्षा-दीक्षा, आर्थिक उन्नति बहुत पहले ही हो गयी। लेकिन, दलित वहीं के वहीं रह गए। अछूत प्रथा भी कायम रही, और आज तक है। 

2016 में विधायक रवि कुमार ने यह बात कुछ यूँ रखी,

“तमिलनाडु में 21 प्रतिशत जनसंख्या दलित है, लेकिन आज तक एक भी दलित मुख्यमंत्री नहीं बना; जबकि बिहार में 16 प्रतिशत दलित होने के बावजूद महादलित मुख्यमंत्री* बने”

[*बिहार में जीतन राम माँझी के अतिरिक्त भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास भी दलित थे। आंध्र में संजीवय्या, महाराष्ट्र में सुशील शिंदे और उत्तर प्रदेश में मायावती दलित मुख्यमंत्री रहे]

तमिलनाडु की दलित राजनीति में कम्युनिस्टों (मार्क्सवादी) ने दखल देनी शुरू की। उनके कुछ गुट हिंसा को एक सशक्त माध्यम मानते थे, जो बाद में ‘नक्सलवाद’ कहलाया। इस बात के मायने हैं भी और नहीं भी, कि इन तमिल और मलयाली कम्युनिस्टों में कुछ मुखर नेता ब्राह्मण परिवार से थे। उनकी आवाज़ बना ‘द हिंदू’ अखबार भी ब्राह्मण परिवार संचालित रहा। एक ऐसी ही संभ्रांत ब्राह्मण परिवार की युवती मैथिली शिवरामन, की 1968 में तंजौर के गाँव से एक रिपोर्ट ने उन दिनों दिल दहला दिया।

तंजौर एक सामंतवादी क्षेत्र था, जहाँ सिर्फ पाँच प्रतिशत ज़मींदारों के पास अधिकांश जमीन थी। वहीं, इस क्षेत्र में भूमिहीन दलितों की संख्या सबसे अधिक थी। वे इन ज़मींदारों के लिए काम करते थे। कम्युनिस्टों ने इन मजदूरों को संगठित करना शुरू किया, और शुरू हुआ संघर्ष। वे अपनी माँग रखने लगे, और ज़मींदारों ने उनको हमेशा के लिए सबक सिखाने की ठान ली। 

25 दिसंबर, 1968 को कीलमेनवणी स्थित दलितों के गाँव को घेर कर आग लगा दी गयी। रिपोर्ट के अनुसार आग में जल रहे दलित अपने बच्चों को झोपड़ी से बाहर फेंक रहे थे कि वे बच जाएँ, और ज़मींदार उन्हें वापस आग में फेंक रहे थे। 

इस नरसंहार के बाद डीएमके की सरकार ने क्या किया? यूँ तो करुणानिधि दौरे पर आए, लेकिन न्यायालय ने दोनों पक्षों पर ज़िम्मेदारी तय की। एक जमींदार के एजेंट की भी हत्या हुई थी, इसलिए दलितों पर भी धाराएँ लगी। आश्चर्यजनक रूप से डीएमके सरकार ने कुछ ख़ास नहीं किया। मुख्य अभियुक्त गोपालकृष्ण नायडू बरी हो गया। उसी गाँव का एक दलित बालक नंदन, जो झाड़ियों में छुप कर अपने परिवार को जलता देख रहा था, उसने बारह वर्ष बाद नायडू को मौत के घाट उतार दिया। 2019 में आयी धनुष अभिनीत फ़िल्म ‘असुरन’ इस घटना से प्रेरित है।

करुणानिधि को यह लगने लगा कि दलित वोट-बैंक कम्युनिस्टों की ओर खिसक सकता है। उन्होंने यह कानून बनाया कि कोई भी व्यक्ति पंद्रह एकड़ से अधिक जमीन नहीं रखेगा, शेष जमीनें भूमिहीनों में बाँट दी जाएगी। मगर इस क़ानून में कई लूपहोल थे। लोगों ने परिवार में जमीन बाँट लिए। जो जमीनें दी भी गयी, वह दलितों से अधिक अन्य पिछड़ा वर्गों के हिस्से गयी। उन्होंने उसके बाद यह कानून बनाए कि मंदिरों के पुरोहित ग़ैर-ब्राह्मण बन सकते हैं, और विवाह के लिए ब्राह्मण पुरोहित आवश्यक नहीं। लेकिन, ऐसे धर्म-सुधार कानूनों में दलितों की रुचि कम थी। उनकी मामूली शिक्षा तो ठीक से हो नहीं पा रही थी, पुरोहितगिरी का क्या करते। 

दलितों को अपनी लड़ाईयों से अलग एक नायक बड़े पर्दे पर दिखने लगा था। एम जी रामचंद्रन अपनी फ़िल्मों में ट्विस्ट ला रहे थे। फ़िल्म ‘मत्तुकरा वेलन’ में एक गाय चराते गरीब नायक को उसके ज़मींदार की बेटी से प्रेम हो जाता है। उनकी नायिका एक ब्राह्मण परिवार की युवती थी, जिसने अभी-अभी बंबई में धर्मेंद्र के साथ हिंदी फ़िल्म भी की थी। पचास से अधिक बसंत देख चुके एमजीआर की वह बीस-बाइस वर्ष की नायिका थी - जयललिता।

मद्रास की गलियों में लगे इन फ़िल्मी पोस्टरों से तमिल राजनीति के किरदार एक-एक कर निकल रहे थे। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/02/11.html 
#vss 

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