Monday 24 August 2020

न्यायपालिका को अपने आंतरिक दोषों से खुद ही निपटना होगा / विजय शंकर सिंह

लोकतंत्र को खतरा, सवाल उठाने से नहीं सवालों पर चुप्पी और मूल मुद्दों को नजरअंदाज करने से है। सुप्रीम कोर्ट ने ही कभी, कहा था,
" लोकतंत्र को बड़ा खतरा, लोक विमर्श को हतोत्साहित करने से है। जो विचार और सिद्धांत समाज के लिये हानिकारक हैं उनसे वैचारिक बहस से ही लड़ा जाना चाहिए।" 
प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामला के साबित हो जाने के बाद, अब केवल अदालत द्वारा सज़ा की औपचारिकता ही शेष है, जो 25 अगस्त तक पूरी हो सकती है। पर इस मामले ने अवमानना को लेकर कुछ अहम सवाल उठाए हैं। 

प्रशांत भूषण के दो ट्वीटों और 2009 के तहलका इंटरव्यू पर  अवमानना यह का मामला टिका है। 
●  एक   ट्वीट में, जिंसमे सीजेआई को एक महंगी मोटर साइकिल पर बैठे दिखाया गया है, पर अदालत ने इसे अवमानना नहीं माना है। 
● दूसरा ट्वीट जिस पर लॉक  डाउन में सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली का उल्लेख है और यह कहा गया है कि पिछले 6 सालों और विशेषकर पिछले चार सीजेआई के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली, मौलिक अधिकारों के संरक्षण के रूप के सन्देह के घेरे में है। 
● तीसरा मामला 2009 का तहलका को दिए गए इंटरव्यू से जुड़ा है जिंसमे सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार आदि के आरोप लगाए गए हैं। 

इस प्रकार, प्रशांत भूषण ने दो सवाल उठाए हैं, एक, सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों के प्रति अपना दायित्व निर्वहन उस प्रकार नहीं किया जिस प्रकार, उसे करना चाहिए था, और दूसरा, सुप्रीम कोर्ट में भी उच्चतम स्तर पर भ्रष्टाचार की शिकायतें हैं और उन पर कभी बात नहीं होती है और उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। प्रशांत भूषण के खिलाफ इस अवमानना मामले ने, जहां तक मौलिक अधिकारों की बात है, सुप्रीम कोर्ट की संविधान और मौलिक अधिकारों के संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता तथा दायित्व, तथा न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को बहस के केंद में ला दिया है। हाल ही में, कुछ मामलों के द्वारा, सुप्रीम कोर्ट ने, सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैसे देखा है इस पर एक संक्षिप्त चर्चा करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर, जनवरी से अब तक के कुछ फैसलो का एक संक्षिप्त विवरण देखें तो कुछ अजीब विरोधाभास मिलते हैं, जो सुप्रीम कोर्ट को ही कठघरे में खड़े करते हैं। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त, एक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है। भारत मे अभिव्यक्ति की आज़ादी की अवधारणा बहुत पुरानी है और इसी अवधारणा के कारण शास्त्रार्थ की परंपरा विकसित हुयी जिससे दर्शन और दार्शनिक चिंतन परंपरा की नींव पड़ी। राज्य के विरुद्ध, अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के लिये अदालत में दायर याचिका को, राज्य बनाम नागरिक अधिकार का एक महत्वपूर्ण मामला माना जाता है। लेकिन इस साल जनवरी से अब तक कुछ मामलों की इंडियन एक्सप्रेस अखबार द्वारा एक समीक्षा की गयी तो, उन्हें लेकर एक दिलचस्प निष्कर्ष सामने आ रहा है। इन सभी मामलों में याचिकाकर्ता, अपनी अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की रक्षा के लिये अदालत गया, और किसी को वहां राहत मिली तो किसी को राहत नहीं मिल सकी। 

जनवरी 2020 के बाद जो पहला मुकदमा था, जिंसमे सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को राहत दी थी वह रिपब्लिक टीवी के अर्नब गोस्वामी का था। अर्नब गोस्वामी में 21 अप्रैल को महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं और उनके वाहन चालक की पीट पीट कर हत्या कर देने के मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के विरुद्ध कुछ टिप्पणी की थी।  जिस पर मुम्बई सहित  अन्य जगहों पर अर्नब गोस्वामी के खिलाफ अभियोग पंजीकृत कराया गया था। यह मामला राजनीतिक मोड़ ले चुका था और अर्नब का बयान और उनके खिलाफ कराये गए दर्ज सभी मुकदमे भी राजनीति से प्रेरित थे। अर्नब ने इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात कहा और सुप्रीम कोर्ट से सभी दर्ज एफआईआर को रद्द करने का आदेश देने का अनुरोध किया। 19 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक एफआईआर को छोड़ कर शेष दर्ज सभी एफआईआर रद्द कर दिया और यह कहा कि, यह कानूनी प्राविधान का दुरुपयोग है। 

इसी प्रकार न्यूज़ 18 के एंकर और पत्रकार, अमिश देवगन पर, धार्मिक भावनाओं को भड़काने का आरोप लगाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल इन एफआईआर की विवेचनाओं को स्थगित कर दिया बल्कि सभी दर्ज एफआईआर को विवेचना के लिये नोयडा, गौतमबुद्ध नगर में स्थानांतरित कर दिया। 

अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के मामले में, भारत सरकार का पक्ष सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने रखा था, जिन्होंने अदालत से इन दोनों पत्रकारों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने की दलील दी थी। अर्नब गोस्वामी के मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने महाराष्ट्र पुलिस के विरुद्ध अपनी दलील दी थी और पालघर साधू भीड़ हिंसा के मामले में पुलिस के भूमिका की आलोचना भी । उन्होंने इस मुकदमे की जांच, सीबीआई को भी स्थानांतरित करने की बात भी कही थी। 

26 जून को अवकाशकालीन, दो जजो की बेंच ने पत्रकार नुपुर शर्मा को, उनके खिलाफ, पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा दर्ज मुकदमे में,  इकतरफा सुनवाई करते हुए स्थगनादेश दे दिया और किसी भी अग्रिम दंडात्मक कार्यवाही पर रोक लगा दिया। अपनी याचिका में नूपुर शर्मा ने केंद्रीय सरकार को भी एक पक्ष बनाया था, पर अदालत ने बिना पश्चिम बंगाल पुलिस और केंद्रीय सरकार को सुनें ही, नूपुर शर्मा को पहली सुनवाई पर ही राहत दे दी। 

अब कुछ उन मामलों की चर्चा करते हैं, जो उपरोक्त मामलो की ही तरह अभिव्यक्ति के विरुद्ध सरकारी कार्यवाही के हैं, पर उन पर सुप्रीम कोर्ट ने अलग दृष्टिकोण अपनाया और इन्हें, अर्नब गोस्वामी, अमीश देवगन और नूपुर शर्मा की तरह राहत नहीं मिल सकी। 

हरियाणा के कांग्रेस नेता पंकज पूनिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 30 मई को सुनवाई करते हुए दखल देने से इनकार कर दिया था। पंकज पूनिया के भी खिलाफ उनके एक ट्वीट को लेकर, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में अनेक मुकदमे दर्ज कराए गए हैं। यह मुकदमे भी, अर्नब गोस्वामी के खिलाफ दर्ज कराए गए मुकदमो की तरह राजनीतिक दृष्टिकोण से दर्ज कराए गए हैं। लेकिंन अर्नब गोस्वामी को जहां सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी, वहीं पंकज पूनिया के मामले में, अदालत ने दखल देने से इनकार कर दिया। 

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र शरजील इमाम के एक आपत्तिजनक भाषण पर, उनके खिलाफ, पांच राज्यो, असम, अरुणांचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मणिपुर में देशद्रोह और घृणा वक्तव्य, हेट स्पीच का एक मुकदमा दायर किया गया। शरजील इमाम ने, 26 मई को, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके, सुप्रीम कोर्ट से यह अनुरोध किया कि, इस सभी मुकदमो को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया जाय। पर अब तक शरजील की यह याचिका लंबित है। पिछले ही सप्ताह यह मुकदमा, आदेश के लिये सुप्रीम कोर्ट में लंबित था, पर अदालत ने इसे अगले एक हफ्ते के लिये टाल दिया। 

जैसे दो पत्रकारों, अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के खिलाफ विवादास्पद एंकरिंग करने और हेट स्पीच का मामला दर्ज है और उन्हें सुप्रीम कोर्ट से तुरंत राहत मिल गयी, वैसे ही प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भी हिमाचल प्रदेश में देशद्रोह, सेडिशन का एक मुकदमा, कुमारसाई पुलिस थाने दर्ज है। विनोद दुआ ने भी अदालत से स्थगन आदेश के लिये सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है, पर सुप्रीम कोर्ट ने जितनी तेजी और आसानी से अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन को राहत दी, विनोद दुआ के मामले में, सुप्रीम कोर्ट का स्टैंड उससे, बिल्कुल अलग रहा। 

21 अगस्त शुक्रवार को विनोद दुआ के मामले में अदालत ने उनके वकील को सुना। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता इस मामले में अदालत में, कह चुके हैं कि, विनोद दुआ के मामले को अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के मामलों की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन, दोनो ही की तरफ से सॉलिसिटर जनरल अदालत में उपस्थित हो चुके है। यानी सरकार उक्त दोनों पत्रकारो के मामले में, उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ थी, पर विनोद दुआ के मामले में वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में खड़ी नहीं दिख रही है। क्या केवल इसलिए कि, विनोद दुआ सरकार के आलोचक पत्रकार हैं और अर्नब गोस्वामी तथा अमीश देवगन, सरकार और सरकारी दल के एजेंडे के ध्वजवाहक हैं ? 

अब एक और दिलचस्प मामला है गोरखपुर के डॉ कफील खान का। गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कफील खान से उत्तर प्रदेश सरकार की नाराजगी 2017 के अगस्त से है जब अस्पताल में, कई बच्चों की ऑक्सिजन की कमी से इलाज के दौरान नृत्यु हो गयी थी। इसकी जांच हुयी और जांच में डॉ कफील खान को अब तक दोषी नहीं पाया गया है। बाद में डॉ कफील खान ने मेडिकल कॉलेज से त्यागपत्र दे दिया और सामाजिक कार्यो में लग गए। इसी बीच 2019 में जब नया नागरिकता कानून पास हुआ तो उसका व्यापक विरोध हुआ और यह विरोध देशव्यापी था। इसी क्रम में डॉ खान ने, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक भाषण दिया, जिसे आपत्तिजनक मानते हुए सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत निरुद्ध कर दिया। 

डॉ कफील खान की मां, नुज़हर परवीन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने जहां नूपुर शर्मा को राहत, पहली ही सुनवाई पर दे दी थी, वहीं इस याचिका को यह कह कर के खारिज कर दिया कि, पहले इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर किया जाय और उत्तर प्रदेश सरकार के, घृणा बयान वाले एफआईआर को चुनौती दी जाय। अब यह सवाल उठता है कि नूपुर शर्मा जिनके खिलाफ, पश्चिम बंगाल में एफआईआर दर्ज किया गया था, उन्हें क्यों नहीं, पहले  कलकत्ता हाईकोर्ट जाने और वहीं से राहत लेने को कहा गया ? इलाहाबाद हाईकोर्ट में अभी तारीख पड़ रही है और डॉ कफील खान, एनएसए में अब भी जेल में निरूद्ध हैं। 

शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के धरने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की याचिका आज तक लंबित है। मार्च महीने में उसकी तारीख़ पड़ी थी, और अब तक सुनवाई लंबित है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही आंदोलनकारियों से बातचीत करने के लिये सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े एवं एक अन्य सीनियर एडवोकेट को धरना स्थल भेजा था। दोनो वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है पर यह मामला अभी तक लंबित है। मार्च के बाद अब तक वह मुकदमा सूचीबद्ध भी नहीं हुआ।

हर्ष मंदर एक पूर्व आईएस अफसर और मानवाधिकारों तथा नागरिक आज़ादी के मुद्दों पर अक्सर मुखर रहने वाले एक्टिविस्ट हैं। सरकार कोई भी हो जनता के मौलिक अधिकारों के लिये वे सतत संघर्षरत रहते हैं। हर्ष मंदर ने फरवरी 2020 में हुए दिल्ली दंगो के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और अदालत से दखल देने को कहा। इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने, अदालत में यह कहा कि हर्ष मंदर पर तो दिल्ली दंगों को भड़काने का आरोप है। सुप्रीम कोर्ट ने हर्ष मंदर के वकील को अपनी बात रखने का भी अवसर नहीं दिया। 

5 अगस्त 2019 को जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक पारित करने के बाद, पूरे राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया और सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन सब प्रतिबंधों और अनुच्छेद 370 को संशोधित करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गयी। उन पर, अब तक कोई अंतिम आदेश नहीं हो सका है। इंटरनेट और कुछ नेताओं की गिरफ्तारी को लेकर ज़रूर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राहत भरे आदेश दिए हैं, पर वे धरातल पर लागू नहीं हैं। पर यहां यह भी कहना है जम्मू कश्मीर लम्बे समय से आतंकियों के निशाने पर है और राज्य पुनर्गठन विधेयक के अनुसार दो केंद शासित राज्यों में बंट जाने के बाद वहां अभी भी कानून व्यवस्था की स्थिति सामान्य नहीं हो पायी है। अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने इन याचिकाओं की सुनवाई पर यह कहा था कि, जम्मू कश्मीर के संदर्भ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के बारे में जब बात की जाय तो, यह भी ध्यान रखा जाय कि वहाँ आतंकवाद की एक जटिल समस्या है। अभी भी अनुच्छेद 370 के बहाली की मांग वहां के नेता कर रहे हैं। स्थिति अब भी वहां सामान्य नहीं है। मुकदमे लंबित हैं। 

लेकिन 23 जुलाई को अभिव्यक्ति और व्यक्ति स्वातंत्र्य के मुद्दे पर, सुप्रीम कोर्ट का एक बिल्कुल अलग स्वरूप सामने आया है। राजस्थान में सचिन पायलट के नेतृत्व में 19 विधायकों ने कांग्रेस विधायक दल से विद्रोह कर दिया । इसे लेकर, भाजपा और कांग्रेस में लंबी खींचतान चली। उसी दौरान 19 बागी विधायकों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका दायर पर सुनवाई करते हुए जस्टिस अरुण मिश्र ने कहा कि, " लोकतंत्र में विरोध के स्वर को दबाया नहीं जा सकता है। "  यह एक आदर्श वाक्य है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। 

इस प्रकार ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं , उनमे तीन अलग अलग प्रवित्तियाँ दिखती हैं। एक जगह, पत्रकार अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के खिलाफ मुकदमो में अदालत का रवैया, इन दोनों पत्रकारों के पक्ष में, यानी उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ओर रहता है, और अदालत ही नहीं सॉलिसिटर जनरल की पैरवी भी इन्ही पत्रकारों की तरफ रहती है। वहीं विनोद दुआ के संदर्भ में यही अदालत आज भी सुनवाई कर रही है और सॉलिसिटर जनरल का बिनोद दुआ के मुकदमे के संदर्भ में यह कहना कि, इस मामले की तुलना, अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के मुकदमे से नहीं है, एक पक्षपाती दलील है। उल्लेखनीय है कि अर्नब और अमीश के खिलाफ दर्ज मुकदमे, कांग्रेस शासित राज्यो के हैं, जबकि विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज मुकदमा भाजपा शासित राज्य का है। सॉलिसिटर जनरल का दृष्टिकोण सत्तारूढ़ दल की ओर, एक सरकारी वकील होने के कारण तो हो सकता है पर एक ही तरह के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का ऐसा रुख हैरान करता है। दूसरी प्रवित्ति, नूपुर शर्मा और डॉ कफील खान के बारे में हैं जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है और तीसरी  राजस्थान के विद्रोही विधायको के बारे में सुप्रीम कोर्ट का आदर्श वाक्य है जिसे ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है। 

यह सब उदाहरण, अदालती प्रतिभा और दलीलों के द्वारा लंबी बहसों में तो उलझाए जा सकते हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि न्यायपालिका या सुप्रीम कोर्ट पर, तहलका इंटरव्यू में, कुछ जजों पर, भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाए गए हैं, उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट खामोश क्यो है ? लॉक डाउन में काम न करने की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने आंकड़े देकर यह बताने की कोशिश की कि, वह लॉक डाउन में भी मुकदमो का निपटारा कर रही थी। लेकिन जब भी जजो पर भ्रष्टाचार की बात होती है अदालत मौन हो जाती है या फिर अवमानना के कानून का सहारा लेकर ऐसे शिकायत करने वालों को कठघरे में खड़ा करने लगती है। 

अब एक सवाल उठता है कि, क्या न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है ? जब न्यायपालिका कहा जाता है तो उसका आशय केवल सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई ही नहीं बल्कि मैजिस्ट्रेट से होती हुयी, ऊपर तक का पूरा न्याय तंत्र है। क्या यह खंभा, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, पक्षपातवाद आदि अन्य व्याधियों, जो कार्यपालिका के अन्य विभागों में गहरे तक जड़ जमा चुकी हैं, से मुक्त हैं ? 

अगर आप समझते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है तो यह सवाल आप नज़रअंदाज़ कर दें। लेकिन, यदि आप मानते हैं और आप का अनुभव है कि न्यायपालिका भी देश के अन्य प्रशासनिक विभागों की तरह उपरोक्त व्याधियों से ग्रस्त है, तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि, 
● न्यायपालिका ने अपने अंदरूनी तंत्र में भ्रष्टाचार न हो सके, इसके लिये क्या उपाय किये हैं ? 
● न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों पर क्या कार्यवाही होती है और जनता ऐसे लोगो के खिलाफ़ कहां, किसके पास किस फोरम में शिकायत कर सकती है ? 
● क्या न्यायपालिका की सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई सुप्रीम कोर्ट या राज्यो में हाईकोर्ट के पास ऐसा कोई आंकड़ा है कि हर साल, कितने न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ करप्शन की शिकायतें आयीं, कितनो के खिलाफ कार्यवाही हुयी और कितने दंडित किये गए ? 
ऐसा आंकड़ा आप को सरकार के सभी विभागों से मिल जाएगा। 
● शिकायत आमंत्रित करने और फिर जांच करने का, जो मेकेनिज़्म सरकार के अन्य विभागों के लिये, विजिलेंस, एन्टी करप्शन विंग के रूप में सभी राज्यो में, सभी सरकारी कॉर्पोरेशन में विजिलेंस अधिकारी और शीर्ष पर, मुख्य सतर्कता आयुक्त के रुप में है, के प्रकार का क्या कोई तंत्र न्यायपालिका में भी गठित है ? 
● भ्रष्टाचार के आरोपों पर अदालतें अवमानना कानून के आड़ में अपनी झेंप क्यों मिटाने लगती हैं ? 
● क्या यह न्यायिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार जो खुल कर कचहरियों में चर्चा का विषय बनता रहता है को उजागर करने वालो को हतोत्साहित करना नहीं हुआ ? 
यह सब सामान्य सवाल हैं जो बहुतों के मन मे उठ रहे हैं। 

न्यायालय में चल रहे प्रशांत भूषण अवमानना केस में, अदालत ने न तो प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामा में लिखे, उन अंशो को पढ़ा, जिंसमे उन्होंने कुछ जजो के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप मय सुबूतों के लगाए थे और न ही प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन को, उन्ही अंशो को, अदालत में जस्टिस अरुण मिश्र ने पढ़ने दिया। यहां तक कि जब अटॉर्नी जनरल ने 20 अगस्त को यह कहा कि वे पांच जजो के बारे में कुछ कहना चाहते हैं तो, उन्हें भी रोक दिया गया। कहने का आशय यह है कि जब जब जजो के खिलाफ भ्रष्टाचार की बात कही जाती है, तब तब अदालत में एक मौन पसर जाता है औऱ सुप्रीम कोर्ट जो न्याय प्रशासन का सर्वोच्च प्रशासनिक प्रमुख भी है अक्सर असहज होने लगता है। 

जब तक व्याधि की पहचान नहीं होगी, तब तक उसका निदान कैसे होगा ? इस महत्वपूर्ण सवाल पर केवल सुप्रीम कोर्ट को ही सोचना है। न्यायपालिका में भी मनुष्य ही हैं। वे भी काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मानवीय प्रवित्तियों से अलग नहीं है। वे भी देश के कानून से ऊपर नहीं है। फिर क्यों नहीं न्यायपालिका को भी अपने अधिकारियों और जजो के विरुद्ध शिकायत आमंत्रित करने, जांच कराने, और दोषी पाए जाने पर उनके विरुद्ध कार्यवाही करने के  संबंध में एक इन हाउस तंत्र का गठन और विकास नहीं किया जाना चाहिए ? 

और अंत मे पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी का इस मामले में क्या कहना है, पढा जाना चाहिए, 
" एक शख्स को अपने आरोपों को सही साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए। अगर भूषण अपने आरोपों के तथ्यों को स्थापित करने के लिए तैयार हैं तब आप उन्हें ऐसा करने से कैसे रोक सकते हैं…..उन्हें जबरन चुप नहीं कराया जाना चाहिए। निश्चित तौर पर अगर उनके आरोप आधारहीन, मनगढ़ंत हैं तब ज़रूर उन्हें दंडित करिए। लेकिन केवल यह कहने के लिए उन्हें दंडित मत कीजिए। ”

( विजय शंकर सिंह )




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