Thursday 4 June 2020

तालाबंदी के समय की गयी राहत घोषणाओं को सरकार जनता तक पहुंचाए / विजय शंकर सिंह

जब लॉक डाऊन की घोषणा 24 मार्च को हुयी और सारी औद्योगिक गतिविधियां अचानक 4 घन्टे की नोटिस पर थम गायी थी तो सरकार ने तालाबंदी के बीच कुछ अहम वादे किये थे। 

जैसे, 
● सभी मज़दूरों और कर्मचारियों को उक्त अवधि का वेतन या मजदूरी मिलेगी। 
● बैंक तीन माह तक, अपने द्वारा दिये गए ऋणों की ईएमआई टाल सकते हैं। 
● स्कूलों में फीस में राहत मिल सकती है। 
ऐसे ही और भी कुछ राहते थीं। 

लेकिन सरकार द्वारा घोषित एक भी राहत इनमें से पूरी नहीं हुयी। इसके विपरीत जब इन सब कठिनाइयों के बारे में लोगों ने जनहित याचिकायें सुप्रीम कोर्ट में दायर कीं, तो सुप्रीम कोर्ट में सरकार का रुख अपनी ही घोषित राहतों के विपरीत रहा। 

लॉकडाउन के दौरान मजदूरी के भुगतान से छूट मिलने के लिए कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट में, सरकार के उक्त निर्देश के विरुद्ध एक याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने केंद्र को निर्देश दिया कि इस मुद्दे पर तत्काल अपना पक्ष स्पष्ट करें । कंपनियों के समूह का कहना था कि, वे श्रमिकों को मजदूरी का भुगतान नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास पर्याप्त वित्तीय भंडार नहीं है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से एक सप्ताह में विस्तृत जवाब दाखिल करने को कहा ।

दिनांक 4 जून को इस याचिका जो मज़दूरों को लॉक डाउन अवधि के वेतन देने के संबंध में है पर टिप्पणी करते हुऐ सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए कहा है कि, 
" नियोक्ता, वेतन न देने के लिये अपनी कमज़ोर आर्थिक स्थिति का हवाला नहीं दे सकता है। "
सरकार ने यह भी कहा कि, 
" वित्तीय असमर्थता, किसी ऐसे आदेश का पालन न करने का आधार नहीं बन सकती है, जो आदेश ऐसे अधिकृत संस्था द्वारा जारी किया गया है जो वैसा आदेश जारी करने के लिये कोई शक्तिसम्पन्न है। " 
सरकार अपने 29 मार्च के उक्त निर्देश का हवाला दे रही थी जिसमे सरकार ने सभी कम्पनियों को लॉक डाउन की अवधि का वेतन मजदूरी देने के लिये एक सर्कुलर जारी किया था। 

यह जवाब कर्नाटक की एक कम्पनी फाइकस पॉक्स की तरफ से दायर एक याचिका पर सरकार ने दिया है। इस याचिका में 29 मार्च को जारी वेतन और मजदूरी देने से संबंधित सर्कुलर को अतार्किक और एकतरफा बताया गया है। अपने इस याचिका में कंपनी फाइकस पॉक्स ने, 20 मार्च को श्रम मंत्रालय और 29 मार्च को गृह मंत्रालय द्वारा इस विषय मे जारी नोटिफिकेशन को चुनौती दी है। इन नोटिफिकेशन में सभी श्रमिकों और नौकरी करने वालों को, लॉक डाउन की अवधि का पूरा वेतन देने की बात कही गयी थी। 

याचिकाकर्ता का कहना है कि, सरकार का यह नोटिफिकेशन, एकतरफा, अवैध और अतार्किक है तथा संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत असंवैधानिक भी है। 
इसके उत्तर में, सरकार ने जो कहा है, उसे पढिये, 
" मार्च 29 के सरकार के नोटिफिकेशन को चुनौती देने का याचिकाकर्ता का आधार, मूलतः आर्थिक कठिनाइयों, अपने कर्मचारियों को लॉक डाउन की अवधि में उनका देय न देने की इच्छा का अभाव है जो काम नहीं तो वेतन नहीं के आधार पर बताया जा रहा है। वित्तीय असमर्थता ऐसे नोटिफिकेशन के न मानने के विंदु पर उसे चुनौती देने का आधार नहीं बन सकती है। " 

सरकार ने यह भी कहा कि, 
" सरकार का यह कदम मूलतः कामगारो को इस आपदा के कारण उत्पन्न वित्तीय कठिनाइयों से उबरने के लिये उठाया गया था, विशेषकर उन कामगारो के लिये जो संविदा पर काम करते हैं, और कैजुअल श्रमिक हैं। नियोक्ताओं को दिया गया यह निर्देश एक आर्थिक और कल्याणकारी निर्देश था, जिससे इस कठिनाई का सामना कर रहे लोगो को कुछ राहत मिल सके। "

सरकार ने यह भी कहा कि, यह व्यवस्था केवल 54 दिनों के लिये की गयी थी। 17 मई को एक और नोटिफिकेशन जारी कर के सरकार ने 29 मार्च के नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है। अतः यह उचित नहीं होगा कि इस याचिका पर जो केवल 54 दिन ही जारी रही है और अब समाप्त की जा रही है पर याचिका में दिए गये वित्तीय कठिनाइयों के आधार पर सुनवाई की जाय। 
सरकार ने यह भी कहा है कि, याचिका में ऐसा कोई आधार या दस्तावेज नहीं दिया गया है जिससे वित्तीय असमर्थता का आभास होता हो। 

इस याचिका पर सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि सरकार ने 17 मई को एक नई अधिसूचना पारित की है, जो 29 मार्च की गृह मंत्रालय की अधिसूचना को समाप्त कर देती है। 29 मार्च 2020 के आदेश में गृह मंत्रालय ने कंपनियों से लॉकडाउन की अवधि का वेतन न काटने का निर्देश दिया था। लॉक डाउन का निर्णय लेते समय यह सोचा गया था कि कंपनियां कम से कम लॉक डाउन की अवधि तक गरीब मज़दूरों को कुछ न कुछ राहत दे सकेंगी। 

लेकिन ऐसी राहत कम्पनियों ने नहीं दी। अचानक लोग सड़कों पर आ गए और जब उनके पैसे खत्म हो गए, रहने की जगह का वे किराया नहीं जुटा पाए तो अपने अपने घरों को निकल गए। जिसे जो भी साधन मिला वह उसे ही लेकर और अगर कोई साधन नहीं मिला तो पैदल ही घिसटते हुए अपने घरों की ओर चले आ रहे हैं। यह सिलसिला अब भी खत्म नहीं हुआ है। इधर सरकार ने अपना निर्देश वापस भी ले लिया और अब कम्पनियां अपनी ही तंगहाली का दुखड़ा सुप्रीम कोर्ट में लेकर खड़ी हैं। 

इस तमाम कानूनी दांव पेंच के बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल और मुद्दा यह है कि क्या 54 दिनों तक जब तक सरकार की राजाज्ञा जारी थी, उस अवधि का वेतन कामगारो को मिलेगा कि नही। इस पर अभी न तो सरकार ने कुछ कहा है न ही, सुप्रीम कोर्ट ने कोई निर्देश दिया है। सरकार को अपना ही आदेश लागू कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखना चाहिए। अभी सुनवाई चल रही है। 

इसी प्रकार की एक महत्वपूर्ण घोषणा, ईएमआई के बारे में, आरबीआई ने की थी। इसी लॉक डाउन की मुसीबतों के कारण, आरबीआई ने यह कहा था, कि 
" लोगों को बैंकों की ईएमआई की किश्ते तीन महीने तक नहीं देनी होंगी वे इन किश्तों को तीन महीने बाद चुका सकते हैं।"

लोगों को इस निर्णय से कुछ राहत मिली। भारतीय मध्यवर्ग का एक बड़ा तबका, अक्सर, फ्लैट और कार, बाइक के लिये बैंकों से लोन लेता है और फिर उसे वह अपने वेतन या मासिक आय से एक तयशुदा रकम जिसे ईएमआई कहते हैं, चुका देता है। यह तबका पूरी तरह से अपने वेतन या लोन लेकर बनवाये या खरीदे गए घर, अगर वे किराए पर चढ़े है तो, उनसे प्राप्त धन या, ऐसे ही कुछ आर्थिक राहतों पर ही निर्भर रहता है। अब जब लॉक डाउन की अवधि शुरू हुयी तो नियमित वेतन मिलने की समस्या भी सामने आ गयी। इसी को दृष्टिगत रखते हुए सरकार और आरबीआई ने यह निर्णय लिया था, तीन माह का मोरेटोरियम यानी राहत अपने उपभोक्ताओं को दे दी जाय। 

लेकिन कर्ज़ केवल सामान्य एकल वेतनभोगी उपभोक्ताओं ने ही नहीं लिया है बल्कि कर्ज़ लेने वालों में कंपनियां और कॉरपोरेट भी हैं। कोरोना लॉकडाउन जारी रहने की वजह से,  खासकर कॉरपोरेट जगत द्वारा, आरबीआई पर इस बात के लिए दबाव बनाया जा रहा था कि, मोरेटोरियम की सुविधा तीन महीने तक और बढ़ा दी जाए। रिजर्व बैंक ने पहले इसे मार्च से मई तक के लिए किया था, फिर इसे 1 जून से 31 अगस्त के तीन महीने तक और बढ़ा दिया गया है। 

इसे लेकर भी, सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें यह मांग की गई है कि लॉकडाउन के दौरान लोन की किस्त के ब्याज में छूट मिलनी चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक से जवाब मांगा ​था। मामले पर शुक्रवार को सुनवाई होगी।

आरबीआई ने अपना जवाब दाखिल किया और  इस मांग का विरोध किया है कि 
" कर्ज की किस्तें 6 महीने तक टालने की अवधि यानी मोरेटोरियम के दौरान बैंक ब्याज भी माफ करें। रिजर्व बैंक ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा कि इससे बैंकों को 2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होगा।"

पहले ​रिजर्व बैंक ने कहा कि 
" इस दौरान अगर कोई अपने लोन की किस्त नहीं चुका पाता है तो बैंक उस पर दबाव नहीं बनाएंगे और न ही ऐसे लोगों को डिफाल्टर की श्रेणी में रखा जाएगा। इस चूक पर किसी तरह की पेनाल्टी भी नहीं लगाई जाएगी और उनकी क्रेडिट रेटिंग भी नहीं खराब होगी, लेकिन इस माफी अवधि का पूरा ब्याज लोगों को चुकाना होगा।"

इस तरह लोगों को कुल 6 महीने तक लोन की ईएमआई नहीं देने का विकल्प मिल गया है.यह सुविधा सभी तरह के टर्म लोन ग्राहकों (आम लोगों, कॉरपोरेट, कारोबारियों) को मिलेगी. यह होम लोन, ऑटो लोन, क्रेडिट कार्ड लोन जैसे सभी टर्म लोन पर मिलेगी। लेकिन कुछ कर्जदार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की शरण में चले गए और उनका कहना है  कि, 
" इस दौरान बैंक उनसे ब्याज भी न लें. कर्जदारों का कहना है कि वह आर्थिक रूप से परेशान हैं, इसलिए लोन की किस्त नहीं दे पा रहे, ऐसे में उनसे ब्याज वसूलना कहां का न्याय है।" 

अब यहां कॉरपोरेट और कंपनियां भी लोन लेने वाली हैं और नौकरी पेशा वेतनभोगी मध्यम वर्ग भी। दोनो की समस्याएं और परिस्थितियां भी अलग अलग हैं। ऐसे में, आरबीआई को लोन लेने वालों की श्रेणी बांटनी पड़ेगी। वे ऋण लिए लोग,  जो नौकरी पेशा हैं और जिन्होंने एक घर, मकान फ्लैट या दुकान या ऑफिस और एक वाहन ईएमआई पर लोन ले रखा है और जिनकी आय सीमित है, वेतन भोगी हैं को छह महीने के लिये व्याज माफी की राहत दे देनी चाहिए। इससे न केवल उन्हें इस राहत का वास्तविक लाभ होगा अन्यथा छह माह के बाद जब वे अपना कर्ज़ चुकाएंगे तो उन्हें जितना वे पहले व्याज देते, उससे अधिक व्याज देना पड़ जायेगा। फिर इस राहत का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। 

इसमे भी आरबीआई घर और वाहन ऋण के लिये कोई सीमा तय कर सकता है जैसे घर के लिये ₹ 50 लाख तक की सीमा और वाहन के लिये 10 लाख तक की । यह एक सुझाव है जिस पर बैंकों को विचार करना चाहिए। 

वे ऋण धारक, जो व्यापारिक उद्देश्यों से लिये गए हैं और जिनकी आर्थिक हैसियत अच्छी है उनके लिये यह रियायत भले ही न दी जाय। लेकिन वेतनभोगी और नियमित मासिक आय वाले नौकरी पेशा लोगों के लिये ऐसी राहत देना ज़रूरी है क्योंकि अधिकतर गृह और वाहन ऋण ऐसे ही तबके के लोगो ने ले रखे हैं और इस आपदा जन्य आर्थिक स्थिति से वे सबसे अधिक प्रभावित हैं। 

ऐसी ही स्थिति स्कूलों के बारे में भी है। अधिकतर निजी स्कूल फीस के तकादे करने लगे हैं और उनका दबाव भी स्कूलों को खोलने के लिये सरकार पर पड़ने लगा है। स्कूलों ने ऑनलाइन पढ़ाई भी शुरू की है। ऑनलाइन पढ़ाई का अर्थ है कि स्कूल तो चल ही रहे हैं तो फिर फीस का भी आधार बनता है। पर जिस तरह से कोरोना आपदा का संक्रमण और अधिक हो चला है ऐसी स्थिति में स्कूलों और कॉलेजों को खोला जाना बिलकुल भी उचित नहीं होगा। सोशल डिस्टेंसिंग बस एक वैधानिक निर्देश ही बन कर रह जायेगी और उसे न तो कोई मानेगा और न ही स्कूलों में बच्चों पर इसे लागू ही कराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में अभिभावकों पर जो आर्थिक बोझ पड़ेगा उसका समाधान क्या होगा इसे सरकार को सोचना और हल करना है। 

बात तो मज़दूरों, कामगारो और मध्यम वर्ग के नौकरी पेशा लोगों की कर रहा था तभी एक खबर पर निगाह पड़ी तो एक और दुःखी आदमी नज़र आ गया तो, अब इसकी भी व्यथा सुन लीजिये। यह हैं अडानी समूह। आपदा में इन्हें भी एक अवसर मिल गया कि वे सरकार से कुछ और हड़प लें, जबकि इन्हें और हम सबको भी पता है कि कामगारो और मध्य वर्ग को कुछ मिले या न मिले सरकार इन्हें निराश नहीं करने वाली है।

हुआ यह कि अडानी समूह ने कुछ एयरपोर्ट पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में कॉन्टैक्ट पर लिया है । अब अडानी समूह ने इस कॉन्ट्रैक्ट के लिए आपातकालीन सुविधा 'फोर्स मैजर'  क्लॉज का इस्तेमाल किया है। इस क्लॉज़ के अंतर्गत, किसी प्राकृतिक आपदा या अन्य बड़े संकट जैसे दंगों, महामारी, अपराध आदि की हालत में संबंधित पक्ष कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें मानने के लिए बाध्य नहीं रहते हैं। कानूनी भाषा में ऐसी आपदाओं को 'एक्ट ऑफ गॉड' कहते हैं।

इंडिया टुडे की एक खबर के अनुसार, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया को ​लिखे एक पत्र में अडानी समूह ने मांग की है कि तीनों एयरपोर्ट के लिए 1,000 करोड़ रुपये का जो एसेट ट्रांसफर फीस, उन्हें जमा करनी है, उसको जमा करने की डेडलाइन अगस्त से बढ़ाकर दिसंबर 2020 तक कर दिया जाए।

अडानी समूह को साल 2018 में नीलामी के अंतर्गत कुल छह एयरपोर्ट के संचालन एवं विकास का ठेका मिला है। इनमें से तीन एयरपोर्ट लखनऊ, अहमदाबाद और बेंगलुरु के विकास, संचालन और रखरखाव के लिए अडानी ने एयरपोर्ट अथॉरिटी के साथ बाइंडिंग कन्सेसन एग्रीमेंट पर दस्तखत किए हैं। सभी छह एयरपोर्ट के लिए अडानी को करीब 2,000 करोड़ रुपये का एसेट ट्रांसफर फीस देना है। यह रकम वे दे नहीं पा रहे हैं, जैसा कि वे यह कह रहे हैं, अतः वे इस विशेष क्लॉज़ फोर्स मेज्योर के अंतर्गत एक्ट ऑफ गॉड की आड़ लेकर राहत चाह रहे हैं।

इसके पहले जीवीके ग्रुप ने भी फोर्स मैजर क्लॉज का इस्तेमाल करते हुए सिटी ऐंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (CIDCO) से कहा था कि वह 16,000 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाले नवी मुंबई एयरपोर्ट प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य समय से नहीं शुरू कर पाएगा।

सरकार को राहत की प्राथमिकता तय करनी ही होगी और उस प्राथमिकता में सबसे पहले गरीब मज़दूर और मध्यवर्ग की समस्याएं रहनी चाहिए। ऐसे निजीकरण से क्या लाभ जब कि ठेका लेने के बाद भी तयशुदा फीस यह कॉरपोरेट न चुका पाएं। इससे बेहतर है सरकार खुद ही प्रबंध करे और प्रबंधन में जो कमियां हैं उसे दूर करे।

(.विजय शंकर सिंह )

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