Tuesday 19 May 2020

राहत पैकेज में, कितनी राहत, किसको राहत / विजय शंकर सिंह

आज से लॉक डाउन का चौथा चरण शुरू हो गया जो 31 मई तक प्रभावी रहेगा। यह संकट स्वास्थ्य से जुड़ा तो है ही पर लगभग दो महीने की तालाबंदी के कारण देश एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दलदल में भी पहुंच गया है। देश को उस दलदल से निकालने के लिये प्रधानमंत्री ने 12 मई जो 20 लाख करोड़ का एक राहत पैकेज घोषित किया है जिसका खुलासा कई चरणों की नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने किया है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पैकेज के बारे में जो घोषणाएं की उन्हें अध्ययन की दृष्टि से तीन भागों, एक मज़दूरों और किसानों के लिये, दूसरा मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के लिये, और तीसरा कॉरपोरेट के लिये, बांट कर देखते हैं।

मज़दूर और किसानों के लिये ~
●  8 करोड़ प्रवासी मजदूरों के राशन के लिए 3500 करोड़ का प्रावधान सरकार करने जा रही है। प्रति व्यक्ति 2 महीने मुफ्त 5-5 किलो चावल और गेहूं और 1 किलो चना प्रत्येक परिवार को दिया जाएगा।
● प्रवासी मजदूरों को जुलाई तक मुफ्त अनाज दिया जाएगा। 
●  मुफ्त अनाज का पूरा खर्च केंद्र सरकार उठाएगी। इसमें कार्ड धारक के साथ ही बिना कार्ड वालों को भी राशन दिया जाएगा। इससे 8 करोड़ मजदूरों को फायदा होगा। एक ही राशन कार्ड पूरे देश में मान्य होगा।
● राज्यों ने किसानों को 6700 करोड़ रुपये की मदद की। ये मदद कृषि उत्पादों के जरिये व अन्य तरीकों से की गई।
●  किसानों के खाते में सीधे पैसा भेजा गया। 3 करोड़ किसानों के लिए जो 4,22,000 करोड़ के कृषि ऋण का लाभ दिया गया है। इसमें पिछले तीन महीनों का लोन मोरटोरियम है। 
● 25 लाख नए किसान क्रेडिट कार्ड की मंजूरी दी गयी है जिसकी लिमिट 25000 करोड़ होगी। 
● कृषि उत्पादों की खरीद के लिए 6700 करोड़ की वर्किंग कैपिटल भी राज्यों को उपलब्ध करवाई गई है।
● सरकार की तरफ से मनरेगा एक्ट के जरिये राज्यों को मदद की जाएगी। राज्यों को प्रवासी मजदूरों को काम देने को कहा गया है। 
● औसत मजदूरी को 182 से बढ़ाकर 202 रुपये कर दिया गया है। 
● विभिन्न राज्यों में 2.33 करोड़ प्रवासी मजदूरों को काम मिला है।
● मनरेगा के तहत पिछले दो महीने में 14.62 करोड़ मानव श्रम दिवस रोजगार सृजित किये गये। इस पर कुल 10,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए। 
● 3 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों को लाभ देने के लिए 30000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त सुविधा नाबार्ड के अलावा दी जाएगी। यह राशि स्टेट, जिला और ग्रामीण कॉपरेटिव बैकों के माध्यम से राज्यों को दी जाएगी। 
● शहरी गरीबों और प्रवासियों के लिए किफायती रेंटल स्कीम लाई जाएगी। पीपीपी के जरिये रेंटल हाउसिंग विकसित की जाएगी। इसमें किफायती दर पर मजदूरों को आवास मिल सकेगा।
● ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए राज्यों को मार्च में 4200 करोड़ की रुरल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड राशि दी गई। 
● राज्यों ने किसानों को 6700 करोड़ रुपये की मदद की। ये मदद कृषि उत्पादों के जरिये व अन्य तरीकों से की गई। किसानों के खाते में सीधे पैसा भेजा गया। 
● पिछले मार्च और अप्रैल महीने में 63 लाख ऋण मंजूर किए गए जिसकी कुल राशि 86600 करोड़ रुपया है जिससे कृषि क्षेत्र को बल मिला है।
● कोरोना की स्थिति के बाद लॉकडाउन के दौरान 63 लाख लोन कृषि क्षेत्र के लिए मंजूर किए गए। नाबार्ड और अन्य सहकारी बैंकों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

एमएसएमई इकाइयों के लिये,
● मझोली और लघु इकाइयों के लिए 3 लाख करोड़ की क्रेडिट गारंटी योजना। यानी, अगर ये इकाईयां 3 लाख करोड़ का लोन न चुका पाएं तो सरकार उनके लोन का पैसा चुकायेगी। 
● इमरजेंसी क्रेडिट के तहत लोन की सीमा बढ़ा दी गयी है। यानी इन्हीं इकाईयों को अब 2.8 लाख करोड़ और दिए जा सकेंगे। 

कॉरपोरेट के लिये. 
● वित्तमंत्री ने कोयला, खनिज, रक्षा उत्पादन, अंतरिक्ष कार्यक्रम, हवाई अड्डा, केंद्र शासित राजयी के विद्युत वितरण, वायु उड़ान प्रबंधन, और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्रों को इस राहत पैकेज के दौरान खोल दिया है। 
● इसके बाद टाटा पावर, जेएसडब्ल्यू स्टील, जीवीके, हिंडाल्को और जीएमआर को लाभ मिलेगा। 
● अडानी ग्रुप के सामने कोयला, विद्युत विवरण, रक्षा, खनिज और हवाई अड्डे के क्षेत्रों में सबसे अधिक अवसर होगा। 
● वेदांता और आदित्य बिड़ला ग्रुप के हिंडाल्को को खनिज और खनन में लाभ मिलेगा। 
● 50,000 करोड़ कोयला खनन के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर व्यय किये जायेंगे। 
● छह नए एयरपोर्ट निजी कंपनियों को दिए जाएंगे और, 12 नए एयरपोर्ट पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप में बनाये जाएंगे। 
● कुल 50 खनिज क्षेत्रों की नीलामी की जाएगी। कोकिंग कोयला और बॉक्साइट की नीलामी मिला कर की जाएगी जिससे एल्युमिनियम निर्माता कंपनी हिंडाल्को और वेफन्ता को इसका लाभ मिल सके।
● 500 नए खनिज क्षेत्र भी नीलामी के लिये खोले जाएंगे। 
● नए और वर्तमान खदान धारकों की श्रेणी जो कैप्टिव और नॉन कैप्टिव में विभक्त है को रद्द कर एक कर दिया जाएगा। 
● अडानी ग्रुप के पास इस समय 6 एयरपोर्ट, अहमदाबाद, तिरुअनंतपुरम, लखनऊ, मंगलुरु, गुआहाटी और जयपुर एयरपोर्ट हैं। यह ग्रुप नए एयरपोर्ट की नीलामी लेने में सबसे आगे है। 
● अनिल अंबानी के रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर के पास 648 करोड़ का राजकोट एयरपोर्ट का ठेका पहले से है। जीएमआर और जीवीके ग्रुप भी एयरपोर्ट खरीदने में रुचि रखते हैं, जो इस क्षेत्र में बड़े नाम हैं। 
● कल्याणी ग्रुप जो पुणे का है की रुचि रक्षा उत्पादन में हैं और वह हथियार तथा आयुध निर्माण के क्षेत्र में कदम बढ़ाने को तैयार है। 

उपरोक्त राहत पैकेज का अगर सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाय तो मज़दूरों और किसानों को प्रवासी कामगारो को तीन वक़्त के भोजन, मनरेगा में अधिक राशि का प्राविधान, एक राशनकार्ड, बिना कार्ड वालों को भी राशन, जैसी कुछ राहत की बातों को छोड़कर, शेष घोषणाएं, ऋण, क्रेडिट, और उद्योग विस्तार से जुड़ी हैं। उद्योग विस्तार, ऋण और क्रेडिट तीनो ही बहुत ज़रूरी है, पर यह सब, तभी संभव हो सकेगा जब बाजार में मांग आये। बाजार में मांग की कमी 2016 की नोटबन्दी के बाद से लगातार घट रही है। यही कारण है कि बैंकों से लोन भी लोग नही ले रहे है। बैंकों की स्थिति यह है कि उनके पास लगभग, 70 खरब रुपये जमा हो गए थे, क्योंकि एनपीए के डर से बैंक कर्ज़ देने से बच रहे थे। मार्च 2020 तक बैंक 2-3% कर्ज़ ही बांट पा रहे थे। फिर आरबीआई ने एक लाख करोड़ रुपये बैंकिंग सिस्टम में वापस डाले, लेकिन सरकार के अनुसार, छोटे और मझोले उद्योगों ने ऋण लेने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। कारण,यहां भी वही, सुस्त बाजार और मांग की कमी का रहा, जो अब भी बना हुआ है। जबकि, कॉरपोरेट में, रिलायंस, टाटा, एलएंडटी और महिंद्रा जैसी कम्पनियों ने, खूब कर्ज़ उठाया। उसके बाद भी, आरबीआई ने छोटे बैंकों के लिए दूसरा पैकेज दिया। उसमें से 250 करोड़ ही बैंकों ने उठाया। ये बैंक छोटे माइक्रो फाइनेंस कंपनियों को कर्ज़ देते हैं। यह कर्ज़ मेला भी असफल हुआ। 

अर्थ समीक्षकों के अनुसार, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में 30 % योगदान है, और पावर सेक्टर के लिये 6 लाख करोड़ के  पैकेज की घोषणा की गयी है । पावर सेक्टर की देनदारी, इधर तालाबन्दी से  ₹ 94000 करोड़ हो गयी थी तो, सरकार ने इस सेक्टर को 90 हज़ार करोड़ की मदद कर दी। भारत की सूक्ष्म, लघु और मध्यम इकाईयों की हालत नोटबन्दी के बाद से लगातार खराब है, जिससे, बैंक इन्हें लोन देने से बचते हैं। लेकिन सरकार  अब अपनी गारंटी की बात कर रही। पर लोन मिल भी जाय, उनका सदुपयोग हो भी जाय, पर जब तक मांग की कमी बनी रहेगी, तब तक इन कंपनियों में कोई भी उत्पादन कम्पनियों के लिये लाभ का सौदा नहीं रहेगा। यह बात मैं कई उद्यमियों से बातचीत के बाद कह रहा हूँ। एसबीआई के एक शोध के अनुसार, भारत की 45 लाख एमएसएमई पर 1 मार्च 20 तक 14 लाख करोड़ की धनराशि बकाया थी। वित्त मंत्री ने इमरजेंसी क्रेडिट के तहत लोन की सीमा और बढ़ा दी है। यानी इन्हीं इकाईयों को अब 2.8 लाख करोड़ और दिए जा सकेंगे। सरकार ने एमएसएमई  की बेहतरी के लिए जिस 50 हज़ार करोड़ के फण्ड का ऐलान किया है, उसकी सच्चाई यह है कि सरकार सिर्फ 10 हज़ार करोड़ रुपए खुद दे रही हैं, और शेष पैसा एसबीआई और एलआईसी  को देना है। एसबीआई की हालात एनपीए ने खराब कर रखी है और एलआईसी की भी वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। 

पहले यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में यह मंदी कोरोना आपदा के ही कारण है। निश्चय ही कोरोना आपदा, लॉक डाउन और व्यावसायिक गतिविधियों के ठप हो जाने के कारण आज हम अधिक संकट में घिर गए हैं, पर इस संकट की शुरुआत नोटबन्दी के बाद से ही शुरू हो गयी थी। 2016-17 से ही अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज होने लगी थी, जो कोरोना आपदा के कारण लगभग बैठ गयी है। अगर कोरोना आपदा न भी आती तो भी यह गिरावट आगे होती ही, बस यह होता कि इसकी गति थोड़ी कम होती। देश की गिरती अर्थव्यवस्था ने सरकार को 2018 - 19 से ही परेशानी में डाल रखा है। सरकार  इससे निपटने के लिए हांथ पांव मार भी रही है। देश में रोजगार में मौके 2016 - 17 से ही कम हो रहे है, जीडीपी 3 साल के निचले स्तर पर एक साल पहले ही आ चुकी है, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक  और थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट जारी है। देश का चालू खाता घाटा जीडीपी के 2.4 फीसदी 2018 - 19 में ही आ चुका था। अब तो स्थिति और चिंताजनक है। ऐसे में सरकार के लिए बड़ी चिंता यह है कि, क्या राहत पैकेज से सबकुछ पटरी पर लौट आएगा। 

अब अर्थव्यवस्था के कुछ प्रमुख संकेतकों को देखते हैं। 
● जीडीपी में गिरावट का सिलसिला पिछले छह तिमाहियों से लगातार जारी है। 2017- 18 में तो जीडीपी 3 साल के निचले स्तर पर आ चुकी है। इस दौरान केवल 5.7 फीसदी का जीडीपी ग्रोथ दर्ज किया गया।
● चालू खाता घाटा, अप्रैल-जून तिमाही के दौरान चार साल के उच्चतम स्तर पर है। इस दौरान सीएडी बढक़र जीडीपी के 2.4 फीसदी पर पहुंच गयी है ।
● जबकि पिछले वित्त वर्ष में यह जीडीपी के 0.1 फीसदी पर था, जो कि करीब 3.4 अरब डॉलर थी। गौरतलब है कि एक्सपोर्ट में कमी आने की वजह से देश का चालू खाता घाटे में, बढ़त देखने को मिला है।
● अगस्त 2019 में थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति बढक़र चार महीने के उच्च स्तर 3.24 प्रतिशत पर पहुंच गई। जबकि जुलाई में वह 1.88 फीसदी थी।
● अगस्त 19 के महीने मे खुदरा महंगाई दर 3.36 फीसदी पर पहुंची, जबकि जुलाई में ये दर 2.36 फीसदी थी. अगर केवल खाद्य पदार्थों की खुदरा महंगाई दर की बात की जाए तो यह (-) 0.36 फीसदी से बढक़र 1.52 फीसदी पर आ गयी। नए आंकड़े अभी नहीं आये हैं। 
● रोजगार के आंकड़ों में, पिछले तीन साल में 60 फीसदी की कमी आई है।
● देश में करीब 40 बड़ी कंपनियों के पास बैंको का 2 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है, जो फंसा हुआ है। एसबीआई रिपोर्ट के अनुसार साल 2017-18 में 18 अगस्त तक इंक्रीमेंटल क्रेडिट ग्रोथ में 1.37 लाख करोड़ की कमी आई है।
● पिछले 3 साल में मैन्‍यूफैक्‍चरिंग सेक्‍टर की ग्रोथ 10 से घट कर शून्य को छूने लग गई है। जिसकी वजह से दूसरे सेक्‍टर में ग्रोथ नहीं हो रही है। 
● पिछले 3 साल के दौरान नई नौकरियों में गिरावट आने की सबसे बड़ी वजह मैन्‍यूफैक्‍चरिंग सेक्‍टर ग्रोथ में तेज गिरावट है।
● इकोनॉमिक ग्रोथ की रफ्तार में प्राइवेट सेक्टर के खर्च का भी अहम हिस्सा है। लेकिन आंकड़ों की बात करें तो बीते एक साल में प्राइवेट सेक्टर के खर्च में कोई बढ़ोत्तरी नही दिख रही है। 2016 - 17 की पहली तिमाही में प्राइवेट सेक्टर का खर्च 8.4 फीसदी था जो अब घटकर 2017-18 की पहली तिमाही में केवल 6.7 फीसदी पर रह गया है।

अब कुछ अर्थविशेषज्ञों की राय पढ़ लें। अधिकांश के अनुसार, नोटबंदी, हाउसिंग फॉर ऑल, स्‍मार्ट सिटीज, स्टार्टअप्‍स इंडि‍या, किसानों की आय दोगुनी करने, स्किल डेवलपमेंट मिशन जैसी योजनाएं पुरी तरह से सफल नहीं हो पाई। अगर सरकार की ये योजनाएं सफल होती तो इकोनॉमी को इतना बड़ा नुकसान नहीं होता। 
क्रिसिल के चीफ इकोनॉमिस्ट डी के जोशी के अनुसार, 
" चाहे नोटबंदी हो या जीएसटी सरकार ने रिफॉर्म के लिए जो भी कदम उठाए वो लॉन्ग टर्म को सोचकर उठाएं, इसी के चलते इकोनॉमी ग्रोथ में कमी देखी गई है। अगर सरकार को इससे निपटना है तो इंफ्रा पर फोकस करना होगा। क्योकिं यही एक ऐसा क्षेत्र है जहां से सरकार को जल्द से जल्द आमदनी हो सकती है। "
कृषि वैज्ञानिक, देवेंदर शर्मा के अनुसार, 
" किसानों को करीब 3 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की जरूरत है। जिससे वह नोटबंदी और आपदा की मार से उबर सकें। 
अर्थशास्त्री और माल्कोम इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के चेयरपर्सन अरुण कुमार के अनुसार, 
" देश की इकोनॉमी का 45 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र से आता है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों से इस क्षेत्र को सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। इकोनॉमी को बूस्ट करने के लिए सरकार को कम से कम 2.5 लाख करोड़ के बड़े पैकेज का ऐलान करना होगा, वरना इकोनॉमी में गिरावट लंबे समय तक जारी रहेगी। कुमार का कहना है कि सरकार जो 5.7 फीसदी के आंकड़ें बता रही है, हकीकत उससे भी बुरी है। सही तरह से देखा जाए तो ये आंकड़ां 1 फीसदी के आस-पास है।"
यह आकलन कोरोना पूर्व से चल रही आर्थिक मंदी के समय के हैं। अब तो स्थिति और बिगड़ गयी है। 

अब वित्तमंत्री को चाहिए कि, वे एक और प्रेस कांफ्रेंस कर के यह बताये कि,  अब तक जिन कदमो की घोषणा की गई है, उनका क्या असर,  बाजार में मांग पर पड़ेगा ? 
क्या लोगों के पास तत्काल पैसा आ पाएगा जिससे उनकी क्रयशक्ति बढ़ेगी ? 
क्रयशक्ति बढ़ने से मांग को पूरा करने के लिये फैक्ट्री और उद्योगों के थमे पहिये चल पड़ेंगे ? 
सबसे पहले किन उद्योगों पर इस क्रयशक्ति की मांग का असर पड़ेगा ?
मांग की समस्या आज की सबसे बडी समस्या है। डॉ रघुराम राजन, डॉ अभिजीत बैनर्जी, ज्यां द्रेज, डॉ मनमोहन सिंह जैसे अर्थविशेषज्ञों जो भारत की आर्थिकि का लम्बे समय से अध्ययन करते रहे है, जिसमे डॉ मनमोहन सिंह तो देश के पीएम रहते हुए 2008 की मंदी को झेल भी चुके हैं, आदि सबका कहना है कि जब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी अर्थव्यवस्था में गति नहीं पकड़ सकती। तभी यह सवाल उठता है कि इस राहत पैकेज में घोषित किन कदमों से मांग बढ़ेगी और बाजारों में रौनक आएगी, यह बात भी सरकार को बतानी चाहिए। 

अर्थव्यवस्था एक चक्र की तरह होती है। सब एक दूसरे पर आश्रित। कोई भी विंदु या चरण आत्मनिर्भर नहीं है। हो भी नहीं सकता है। समाज के सहअस्तित्व का यही विधान है। ग्लोबलाइजेशन या मुक्त बाजार, इसी सहअस्तित्व का तो परिणाम है। सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं। यही स्थिति अर्थतंत्र की भी है। अगर क्रयशक्ति नहीं बढ़ती है तो मांग भी नहीं उत्पन्न होगी, जब मांग नहीं उठेगी तो, उद्योगों में सन्नाटा बना रहेगा, जब सन्नाटा बना रहेगा तो रोजगार के अवसर नहीं बढ़ेंगे, जब रोजगार के अवसर नहीं बढ़ेंगे तो फिर बेरोजगारी बढ़ेगी जो पहले से ही बढ़ रही है। फिर घूमफिर कर बात वहीं आ जायेगी कि लोगो के पास पैसे नहीं पहुंचेंगे जिससे उनकी क्रयशक्ति बेहद कमजोर हो जाएगी । इस जटिल तंत्र को राहत पैकेज से गति कैसे मिलेगी, यही सबसे बड़ा सवाल है और इसी का समाधान सरकार को करना है। 

यह कोई कल्पना नहीं हक़ीक़त है। आज  के आर्थिकी की सबसे बडी समस्या ही यह है, बाजार में मांग की कमी। ऐसा बिलकुल भी, इसलिए नही है, कि अब लोगो की ज़रूरतें कम हो गयी है या लोग संतुष्ट हो गए हैं, या सब अपरिग्रह मार्ग पर चल पड़े हैं, बल्कि लोग मजबूर हैं। वे चाहते हैं बाजार से कुछ खरीदना, ऐश से जीना, पर वे आशंकित है भविष्य की आशंका से, देश की बिगड़ती हुयी औद्योगिक दुरावस्था से। लोग अपनी जरूरत कम कर रहे हैं। पहले जो चीजें, विलासिता की समझी जाती थी, वे ज़रूरत बन गयी हैं, कुछ एकाध चीजें यूँही एक्स्ट्रा खरीद ली जाती थीं, अब उन पर लगाम लगेगी। लेकिन यह लगाम मज़बूरी की होगी, अपरिग्रह भाव से नहीं होगी। यही स्थिति, होटल, रेस्टोरेंट, सिनेमाघर, मॉल हर जगह एक आदत बन कर आएगी। जब खर्चे कम होंगे तो किसी की आय कम होगी, यह भी निश्चित है। 

कोरोनोत्तर समाज मे यह एक महत्वपूर्ण  बदलाव होगा कि, लोगों में सामान्यतया फिजूलखर्ची की जो आदत होती थी, वह अब थमने लगेगी। लोगों में अल्पव्ययता की प्रवित्ति आएगी।  मितव्ययिता तो एक ठीक सोच है क्योंकि वह बचत को बढ़ावा देती है। बचत की आदत भारतीय समाज की पुरानी आदत रही है। हमारी मानसिकता ही गाढ़े समय के लिये बचत की होती है। इसलिए कम से कम वेतन में भी लोग कुछ न कुछ बचाने की सोच लेते हैं। पर 1991 के बाद जब ग्लोबलाइजेशन का दौर आया तो इस मितव्ययिता की आदत को कृपणता समझ लिया गया। इस आदत को भी पुरातनपंथी समझा गया और 'खाओ पीयो ऐश करो' की मानसिकता से मध्यवर्ग का युवा प्रेरित होने लगा। इसका कारण निजी क्षेत्रों में अच्छे अच्छे वेतन पैकेज पर मिलने वाली नौकरियां भी हैं। अब लोग इस महामारी और अभूतपूर्व लॉक डाउन के कारण, पुनः बचत की ओर प्रेरित होंगे। क्योंकि बचत का महत्व अब सबकी समझ मे आने लगा है। 

उपभोक्ताबाद और बैंकों के उदारतापूर्वक, भवन, बाहन ऋणों की परंपरा ने लोगों को उधार पर जीने की जो आदत डाली उससे आर्थिक विकास के कई नए आयाम तो खुले, विकास भी हुआ, पर लोगों की जीवनशैली को भी उधार की अर्थव्यवस्था पर भी आधारित बना दिया। ऋण अब उतना बड़ा बोझ नहीं समझा गया जितना 'सवा सेर गेहूं' के समय मे समझा जाता था। जिसका एक बेहद विपरीत परिणाम कोरोनोत्तर आर्थिक युग मे लोगों को भुगतना पड़ सकता है। उपभोक्तावाद का मूल ही है, जो धन है, उसे खर्च करो। 'बाय वन गेट वन', सेल, कुछ प्रतिशत की छूट, यह सब मार्केटिंग के जो नए फंडे हैं, यह बचत और अपरिग्रह विरोधी हैं और यह इन दोनों गुणों को दकियानूसी मान कर चलते हैं। इसीलिए बैंकों ने ऋणों को तो प्रोत्साहित किया, पर बचत पर लगातार व्याज घटाकर उसे हतोत्साहित भी किया। 

आज ज़रूरत है कि अधिक से अधिक तरलता बाजार में आये। नकदी भी आये। कैशलेस, लेसकैश, कार्ड पेमेंट अच्छी प्रथा है पर इन सबका मूल भी वहीं जा कर टिक जाता है कि लोगों के पास पैसा कितना है। आम जन को, आपदा से निकलने के लिये राहत पैकेज, और कॉरपोरेट को निजीकरण की राहत, यह दोनों बातें, अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से अलग अलग हैं।  समृद्ध कॉरपोरेट भी नौकरी देता है और देश के विकास में अहम योगदान भी उसका है। लेकिन,  मांग और आपूर्ति का जो मूल सिद्धांत का प्रश्न, जिसपर बाजार टिका हुआ है, वह फिर, प्रासंगिक हो जाता है कि, जब बाजार में मंदी आएगी तो कॉरपोरेट कैसे अछूता रहेगा ? अर्थव्यवस्था, सीमित साधनों के बेहतर अर्थ प्रशासन की बात करती है। इसीलिए, त्वरित, लधु और दीर्घ अवधि की योजनाओं को अपनाने की बात समय और चुनौती के अनुरूप की जाती है। यह पैकेज सरकार की गिरोहबंद पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्था का एक दस्तावेज भी है जिसमे निजीकरण, एफडीआई, और कॉरपोरेटीकरण की खुल कर न सिर्फ बात ही की गयीं है बल्कि सब कुछ निजी क्षेत्रों में सौंपने का अपना एजेंडा पूरा किया गया है। कॉरपोरेट के लिये यह आपदा एक अवसर ही तो हैं। प्रत्यक्ष रूप से इस राहत पैकेज में मज़दूरों, किसानों, नौकरी पेशा, मध्यवर्ग, छोटे और मझोले उद्योगपतियों और व्यापारियों के लिये ऐसा कुछ भी उत्साहवर्धक नहीं है, जिससे यह उम्मीद की जा सके कि, इनका कल, बेहतर होगा। 

कोरोनोत्तर काल मे तो अब यह सारा औद्योगिक चक्र ही जाम हो गया है। अब तक, 13 करोड़ लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। जिनकी शेष हैं उनकी तनख्वाहें कम हो रही हैं। परिणामस्वरूप उनकी क्रय शक्ति और कम हो रही है। उनमे से भी जिन्होंने, लोन पर मकान, फ्लैट, वाहन आदि खरीद रखे हैं, उनके लिये, ईएमआई और कर्ज़ अदायगी एक बड़ी समस्या बनने वाली है। सरकार द्वारा ₹ 20 लाख करोड़ का राहत पैकेज किस तरह से देश के लोगों की इन समस्याओं का समाधान कर सकेगा, आज का सबसे ज्वलन्त सवाल यही है। वित्तमंत्री को एक प्रेस कांफ्रेंस इस ज्वलंत विदुओँ पर भी करना चाहिए। आगर सरकार इन विन्दुओं को स्पष्ट नही  कर पाती है तो यह बीस लाखकरोड रुपये का राहत पैकेज अब तक का सबसे महंगा जुमला बन कर रह जायेगा। 

( विजय शंकर सिंह )

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