Tuesday 7 January 2020

जेएनयू, छात्र आन्दोलन, पुलिस और सरकार. / विजय शंकर सिंह

5 जनवरी को जब टीवी पर यह खबर फ्लैश हुयी कि, जेएनयू में छात्रों के दो गुटों में झगड़ा हुआ है तो यह खबर बहुत महत्वपूर्ण नहीं लगी। फिर जब अन्य चैनलों और सोशल मीडिया को खंगाला गया तो पता चला कि, दंगा कराने के एक्सपर्ट गुंडों ने नकाबपोश होकर जेएनयू के हॉस्टल में घुस कर मारपीट और तोड़फोड़ की है। पुलिस के बारे में पता चला कि वह जेएनयू में भीतर घुसने के लिये जेएनयू के वीसी की अनुमति का इंतजार कर रही है। याद आया, अभी कुछ ही दिन पहले, जामिया यूनिवर्सिटी में घुसने के लिये जामिया यूनिवर्सिटी के वीसी की इजाज़त लेने की कोई ज़रूरत ही दिल्ली पुलिस ने नहीँ समझी थी। जामिया यूनिवर्सिटी मे पुलिस ने लाइब्रेरी तक घुस तक तोड़ फोड़ कर दिया, लड़कों को हैंड्स अप कराकर कतारबद्ध लाते हुये एक फोटो सबने देखी है। पुलिस ने बस यही कृपा की, कि, लाइब्रेरी में आग नहीं लगायी, किताबों को नहीं फाड़ा। 5 जनवरी की रात में, जेएनयू में जब गुंडे हॉस्टल में छात्रों से मारपीट कर रहे थे, तो पुलिस वीसी की अनुमति की प्रतीक्षा कर रही है। बेचारी अंदर घुसे कैसे। कानून व्यवस्था के प्रति यह सेलेक्टिव अप्रोच है। मुझे अंदाज़ा और अनुभव है इसका। इसकी भी क्रोनोलॉजी समझ लें। पहले गुंडे घुसाओ फिर, जब मारपीट होने लगे तो, थोड़ा इंतजार कराओ, बाद में घुसो और सुबह कह देना कि यह तो छात्रों के ही दो गुटों की मारपीट थी। आपसी झगड़ा था। क्या आपसी झगड़े में दखल देने के लिये पुलिस को किसी के आदेश की ज़रूरत होती है ?

देर रात होते होते जेएनयू की यह खबर, टीवी चैनलों पर छा गयी। जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष आइशी घोष सहित अन्य छात्रों का घायल चेहरा सोशल मीडिया पर प्रसारित होने लगा। कुछ मित्रों से जो जेएनयू और छात्र आंदोलनों पर नज़र रखते हैं, फोन से बात भी होने लगी और आधी रात तक यह स्पष्ट हो गया कि, यह एक प्रायोजित हिंसक खीज थी। इस हिंसा का कारण, सरकार की चिढ़ थी या जेएनयू से वैचारिक मतभेद की कुंठा, या सीएए के प्रबल और दबाए न जा सकने वाले, हो रहे स्वयंस्फूर्त आंदोलनों का भय, या अक्षम और मूढ़ शासकों का अहंकार, या इन सबका एक मिला जुला रूप ? पर यह कानून व्यवस्था की समस्या सरकार के ही कुछ कदमों से पैदा हुई है या यूं कहें इसकी जनक सरकार ही है।

जेएनयू में 5 जनवरी के आतंकी और हिंसक हमले की बात अभी छोड़ दें आखिर ऐसा हुआ क्या है कि यह सरकार छात्रों के पीछे पड़ गयी ? बात जेएनयू और जामिया की ही नहीं है, बल्कि पिछले छह साल से देश की महत्वपूर्ण शिक्षा संस्थानों और यूनिवर्सिटी में सरकार का बेजा दखल होना है, बात बात पर छात्र उत्पीड़न है, उनकी बात सुनी नहीं जा रही है और छात्र आन्दोलन को एक अपराधी समूह की गतिविधियों के अनुरूप देखा जा रहा है ? हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला का मामला हो या इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र आंदोलन का, या बीएचयू, एएमयू, जादवपुर के छात्र असंतोष हों,  हर जगह छात्र ही निशाने पर क्यो हैं ? अगर यूनिवर्सिटी में छात्र असंतोष है तो, उस असंतोष के निवारण के लिये कुलपति ने क्या किया ? यूनिवर्सिटी कोई कल कारखाना और सरकारी महकमा नहीं है, और न ही, छात्र वहां के कर्मचारी और कुलपति उसका चीफ एक्जीक्यूटिव। यह एक शिक्षा संस्थान है। प्राचीन काल की गुरुकुल परंपरा की बात करें तो, तब भी गुरुकुल राज्याश्रय भले ही पाते रहे हों पर वे राजा के अधीनस्थ एक विभाग के तौर पर नहीं कभी नही थे। राजा का भी गुरुकुल में प्रवेश बिना कुलपति की अनुमति या सहमति के सम्भव नहीँ था। प्राचीन वांग्मय में इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। यह परंपरा राजा या राज्य के प्रति किसी अवज्ञा या विरोध के कारण नहीं थी, बल्कि यह परंपरा गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों, अधतापको के लिये एक खुला और सत्ता के किसी भी दबाव से मुक्त वातावरण बनाने के लिये थी। भारत मे, जहां तक्षशिला, नालंदा आदि विश्वविश्रुत विश्वविद्यालय रहे हैं,  यूनिवर्सिटी की परिकल्पना नयी नहीं है पर वर्तमान यूनिवर्सिटी परंपरा का आधार भी अन्य कानूनों की तरह ब्रिटिश परंपराएं ही रही है। भारत मे यूनिवर्सिटी की स्थापना संसद या विधानसभा के द्वारा एक यूनिवर्सिटी अधिनियम द्वारा की जाती है। यह अधिनियम, विश्वविद्यालय को एक स्वायत्तता प्रदान करता है। यह स्वायत्तता ज्ञान के अबाध प्रवाह और आ नो भद्रा कृतवो यन्तु विश्वतः की ही परंपरा का विस्तार है। मैं यह एक आदर्श परिस्थिति की बात कर रहा हूँ। 

लेकिन यह आदर्श परिस्थिति सदैव रहती नहीं है। यूनिवर्सिटी में जब जब सरकार का दखल बढ़ता है, उसकीं स्वायत्तता से समझौता किया जाता है, तब तब वहां स्थितियां बिगडती हैं और कुछ न कुछ समस्याएं आती हैं। लेकिन ऐसी सरकार कभी नहीं होगी जो यूनिवर्सिटी में लेशमात्र भी दखल न दे। यह अपेक्षा करना खुद को बहकावे में रखना होगा। 2014 के बाद देश के मानव संसाधन विभाग के मंत्री के पद पर जो भी नियुक्त रहा है उसने विश्वविद्यालय को एक सरकारी महकमे की तरह ही चलाया है। हर यूनिवर्सिटी में एक ही तरह की विचारधारा मौजूद रहे यह संभव ही नहीं है। यूनिवर्सिटी भी एक लघु संसार ही है। अलग अलग सोच और विचारों के वाद विवाद संवाद का सम्यक स्थान विश्वविद्यालय के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? दिक्कत तब होती है जब इन सारे बाद विवाद के बीच प्रतिशोध और हिंसा की मनोवृत्ति जड़ जमाने लगती है। कुलपति का अहम भाव भी समस्या को सुलझाने के बजाय उसे और विकृत कर देता है। 

जेएनयू का ही उदाहरण लें तो फीस वृध्दि को लेकर वहां एक आंदोलन शुरू हुआ। उसके पहले से ही जेएनयू में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और वामपंथी छात्र संगठनों में आपसी प्रतिद्वंद्विता थी। वामपंथी संगठन मज़बूत पड़ते गये। अब जब सरकार एबीवीपी के विचारधारा की आयी तो उनकी महत्वाकांक्षा जागी कि वे अपना वर्चस्व छात्र राजनीति में ले आएं। यह भी कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। लोकतंत्र में यह अधिकार सबको है। दिक्कत तब हुई जब इस प्रतिद्वंद्विता में सरकार भी एक पक्ष बन गयी और कुलपति उसके मोहरे। अब एक और विंदु है जो कम महत्वपूर्ण नहीं है वह है सरकार की गिरती अर्थव्यवस्था । जब सरकार को धन की कमी पड़ने लगी तो शिक्षा के बजट में कटौती होंने लगी और इसका असर यूनिवर्सिटी पर पड़ा तो फीस सहित विभिन्न मदों में वृध्दि की जाने लगी। इससे असंतोष उपजा और चूंकि जेएनयू में वामपंथी छात्र संगठन लंबे समय से हावी हैं और फीसवृद्धि के खिलाफ आंदोलन उनके ही नेतृत्व में शुरू हुआ तो इसे सत्ता के विरोधी विचारधारा का आंदोलन मानते हुए इसे अर्बन नक्सल, देशद्रोही और अराजक आंदोलन के रूप में चित्रित किया जाने लगा। धीरे धीरे यह आंदोलन जेएनयू की सीमा पर के देशव्यापी होने लगा और इसका मुद्दा सस्ती शिक्षा हो गया तब भी सरकार ने कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे यह समस्या हल हो। कुलपति का कोई संवाद ही उनके छात्रों से नहीं था। शिक्षक संघ अलग उपेक्षित था। आईआईटी आईआईएम दिल्ली यूनिवर्सिटी सहित कई प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान आंदोलित थे। परिणामस्वरूप पूरे देश मे छात्र असंतोष फैलता गया। सरकार ने खुद ही जेएनयू को एक चुनौती मान ली और अब यही उसके लिये गले की हड्डी बन गया है। 

यह भी एक अजीब विडंबना है कि, यह दुनिया की अकेली सरकार है जो चाहती है कि, 
● देश की अर्थव्यवस्था गर्त में जाय।
● पुलिस एक अराजक समर्थक समूह में तब्दील हो जाय।
● शिक्षा संस्थानों में ताले लग जाँय।
लोग पढ़ने लिखने की बातें करना बंद कर दे। 
● जनता से चुने गये लोग ही यह चाहते हैं कि जनता अपनी नागरिकता साबित करने के लिये दस्तावेज जुटाने में लग जाय और कोई भी सवाल सरकार से जनता नहीं पूछे। 

दुनिया का हर सत्ता प्रतिष्ठान सबसे अधिक अगर किसी बात से डरता और असहज होता है तो वह सवाल पूछने से डरता है। कहा जा रहा है कि जेएनयू के छात्र आंदोलन से त्रस्त सरकार और जेएनयू प्रशासन ने गुंडों का सहारा लेकर इस आंदोलन को तोड़ने की यह हिंसक कोशिश की है। अब तक गिरती जीडीपी, घटता मैन्युफैक्चरिंग सूचकांक, ध्वस्त होती हुयी अर्थव्यवस्था और लुढकते रुपये की खबरें मिल रही थीं, अब एक और विकास हुआ है कि, आने वाले दिनों में अब दंगा, मारपीट, उन्माद, साम्प्रदायिक पागलपन की भी खबरें हमें मिलने लगेंगी। सरकार अब यह सोच ही नहीं पा रही है कि वह क्या करे। उधर सीएए और एनआरसी को लेकर अलग ही जनाक्रोश है और देश भर में जन आंदोलन छिड़ा हुआ है। सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी है । 

जैसे जैसे सीएए और एनआरसी के खिलाफ देश भर में आंदोलन छिड़ा, वैसे ही बुद्धिजीवी जुड़ने लगे, फ़ैज़ साहब न जाने कहाँ से नमूदार हो गए, अब दिनकर भी कुहरा छँटा तो खिल कर आ गए, धूमिल, हबीब जालिब तो रोज़ ही दिख रहे हैं। दुष्यंत , रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध के लिखे के पन्ने पलटे जा रहे हैं। कुछ कुछ 1974 और 75 का माहौल बनने लगा है। सरकार और सरकार के समर्थक दलों तथा संघ का वैचारिक दारिद्र्य इतना निम्न  है कि वह इन बौध्दिक सवालों के जवाब में, जब कुछ कह सुन, तर्क वितर्क, बहस, संवाद कर ही नहीं पाता है तो ढाटा बांध कर लाठी उठा लेता है । एक मुखबिर मार्का  फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद और धर्मांधता भरी सोच जो श्रेष्ठतावाद पर आधारित है, बस वही एक मुर्दा विरासत है जो वे ढो रहे हैं। पढ़ने लिखने, वैज्ञानिक सोच और तर्क वितर्क से उन्हें कोई मतलब नहीं । उन्हें जब कुछ भी तर्क समझ मे नहीं आता तो वे हिंसा की भाषा बोलना शुरू कर देते हैं। जब सत्ता और संसद में आपराधिक मानसिकता के जनप्रतिनिधि आएंगे तो सरकार या तो सबक सिखाएगी या बदला लेगी। 

जेएनयू देश की चुनिंदा यूनिवर्सिटी और शिक्षा संस्थानों में से एक है जिसके पूर्व छात्र दुनियाभर मे फैले हुये हैं और महत्वपूर्ण पदों पर हैं। मैं जेएनयू में पढ़ा नहीं हूं, पर मेरा सम्पर्क वहां पढें कुछ महत्वपूर्ण पूर्व छात्रों से अब भी बना हुआ है। दुनियाभर के देशों के छात्र भी जेएनयू में पढ़ते हैं। जेएनयू पर कल रात पुलिस संरक्षण में जो गुंडई की गयी है वह सोशल मीडिया के कारण पल पल में सबके पास, जिसकी रुचि जेएनयू या जन आंदोलनों में रहती है, पहुंचती रही है। सिविल सोसायटी ने भी अपनी सक्रिय भूमिका 5 जनवरी के जेएनयू हिंसा के विरोध में आवाज़ उठाकर  निभाई। कुछ राजनीतिक दल जेएनयू के पक्ष में लामबंद हुये तो कुछ ने मक्कारी भरी दूरी बनाई। मुंबई भी खामोश नहीं रही। वहां भी छात्र गेट वे ऑफ इंडिया पर रात में ही आकर बैठ गए। दिल्ली के लोग भी जेएनयू के मुख्य द्वार और पुलिस मुख्यालय पर इकट्ठे होने लगे। सुबह होते होते जेएनयू में पुलिस की उदासीनता और गुंडों के हमले की  यह खबर दुनियाभर में फैल गयी। जेएनयू में 5 जनवरी की रात जो कुछ भी हुआ वह बीभत्स था। दुनियाभर में इससे केवल एक ही बात फैलेगी कि हम अपनी शिक्षा संस्थानों को लेकर बेहद प्रतिशोध पूर्ण रवैया अपना रहे हैं। उदाहरण के लिये, हैदराबाद, जादवपुर, इलाहाबाद, बनारस जेएनयू और जामिया के घटनाक्रम हैं ही। हमारी संस्कृति भले ही दुनिया की महानतम संस्कृति में से एक हो पर हम अब एक अराजक देश बनने की राह पर चल पड़े हैं। यह भी 2014 के बाद की एक उपलब्धि ही कही जाएगी ! 

देश मे, छात्र आंदोलन कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पर बिना किसी उत्तेजना के रात के अंधेरे में छात्र और छात्राओं के हॉस्टल में सौ पचास गुंडों को, ढाटा बांध, घुसा कर कुलपति की साजिश के साथ पिटवाना, उन पर जानलेवा हमला करना, पुलिस को खामोश रहने देना, यह पहली बार हुआ है। शुरू में जब यह खबर फ़्लैश हुयी तो, लगा कि यह छात्रों के दो गुटों में कुछ झगड़ा जैसी कोई चीज हुयी होगी। जो अक्सर यूनिवर्सिटी और हॉस्टल में हो भी जाती है। पर जल्दी ही समझ मे आ गया कि यह एक हमला था। यह एक प्रतिशोध था। बदला था। यह एक सबक था जो सिखाया जा रहा था। जब सरकार सबक सिखाने और बदला लेने की बात सार्वजनिक मंचों पर करने लगे तो पुलिस एक प्रशिक्षित गुंडों के गिरोह के अतिरिक्त, औऱ कुछ नहीं रह जाती है। जो भी हो, सत्ता द्वारा, जो यह नयी परंपरा और परिपाटी, अपने विरोधी विचारधारा को निपटाने हेतु, पुलिस के इस्तेमाल के रूप में डाली जा रही है, यह पुलिस सिस्टम, पुलिस के विचार, और प्रतिशोध की ऐसी राजनीतिक संस्कृति को विकसित करेगी जहां, वाद विवाद संवाद के बजाय ढाटे बांधे गुंडे और उन्हें संरक्षण देती पुलिस ही मुख्य भूमिका में रहेगी। सुरक्षा का यह तँत्र, प्रतिशोध का एक साधन बनकर रह जायेगा। पुलिस, कानून लागू करने वाली एजेंसी के बजाय, सत्ता का एक सशस्त्र और वर्दीधारी गिरोह बन कर रह जायेगा। 

आज सरकार यानी गवर्नेंस जैसी कोई चीज देश मे, शेष नहीं है। आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि सरकार को अपनी कम्पनियां बेच कर आरबीआई, सेबी आदि से धन लेकर काम चलाना पड़ रहा है। देश मे कोई अर्थव्यवस्था सुधारने की सोचे, ऐसी कोई प्रतिभा सरकार के पास नहीं है। गृहमंत्री सबक सिखाने की बात कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री एंटायर मौन धारण कर चुके हैं। देश के उन यूनिवर्सिटी और शिक्षा संस्थानों, जैसे आईआईटी, आईआईएम, आईआईएस, आदि आदि के छात्र आंदोलित हैं जो अमूमन शांत रहते हैं। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी से शुरू हुआ छात्र, शिक्षक और शिक्षा विरोधी यह एजेंडा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू, जादवपुर होते हुये, कल जिस बीभत्स रूप में जेएनयू पहुंचा, उसकी गूंज दुनियाभर में जेएनयू पर हमले के रूप में हो रही है। हमला गुंडे कर रहे हैं, उन्हें प्रश्रय पुलिस दे रही है और सहमति कुलपति की है। कुलपति , गुंडे और पुलिस का यह अजीब गिरोहबंद गठजोड़ है। ऐसा गठजोड़ तभी बनता है जब फ़र्ज़ी डिग्री, फ़र्ज़ी हलफनामे और आपराधिक मानसिकता वाले लोग भारत भाग्य विधाता बन जाते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ एडवोकेट इंदिरा जयसिंह ने ट्वीट किया है कि जेएनयू की घटना के बारे में जो सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर आ रहा है वह भयावह है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले में स्वतः संज्ञान लेने के लिये ईमेल भेज कर अनुरोध करें। अमूमन छात्र आंदोलनों से कोई सरोकार न रखने वाले उद्योगपति आनन्द महिंद्रा और खुद दिल्ली पुलिस के स्टैंडिंग काउंसिल ने भी ट्वीट कर के पुलिस के इस उदासीनता भरे कदमों की भर्त्सना की है। लेकिन, खामोश बने रहो, इसका निर्णय दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का था यह सरकार के गृह मंत्रालय का इस पर कुछ भी कयास लगाने की ज़रूरत नहीं है। ऐसा निर्णय बिना सरकार के होता भी नहीं है। 

हाल ही में हुयी उत्तर प्रदेश और दिल्ली की घटनाओं के संदर्भ में एक सवाल उठ खड़ा होता है कि, हम कैसी पुलिस चाहते हैं ? हम किस फितरत से पेश आते हैं कि, एक ही कदम से पुलिस को कभी नायक तो कभी खलनायक के रूप में देखने और आंकने लगते हैं। कानून और व्यवस्था को लागू करते समय, पुलिस की क्या प्राथमिकताएं होनी चाहिये और उसे कैसे अपने काम को अंजाम देना चाहिये जिससे वह खुद ही कानून व्यवस्था को तोड़ती और अपने ही नियम कायदों की धज्जियां उड़ाती न दिखे। पर ऐसा होता नहीं है। जिसकी सरकार, उसकी पुलिस। यह एक तयशुदा अघोषित कानून है जो सभी कानूनों के ऊपर शनीचर की तरह से बैठा है। केरल हाईकोर्ट ने एक पूर्व डीजीपी शिवकुमार के स्थानांतरण सम्बंधित याचिका पर सुनवायी करते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है जिसका मैं यहां उल्लेख कर रहा हूँ। केरल हाईकोर्ट ने कहा कि, 
"राज्य का मुख्य सचिव सरकार की मंशा से विकास कार्यक्रम लागू करने के लिये बाध्य है लेकिन राज्य का डीजीपी सरकार की मंशा के ही अनुरूप कानून और व्यवस्था को लागू करने के लिये बाध्य नहीं है। "
 सरकार एक राजनीतिक दल की होती है और राजनीतिक दलों का आधार वैचारिक या अन्य कुछ भी हो सकता है। विभिन्न राजनीतिक दल परस्पर विपरीत विचारधारा के भी होते हैं और कभी कभी ध्रुवीय विचारधारा के भी हो सकते हैं। ऐसे में गठित सरकार, अपने दलीय विचारधारा के विपरीत विचारधारा के दलों या संगठनों के प्रति कुछ ऐसे निर्णय ले सकती है जो विधिसम्मत नहीं भी हो सकते हैं। ऐसे में पुलिस की भूमिका सरकार के मंशा के विपरीत जा कर देश के कानून के प्रति होनी चाहिए।
लेकिन क्या यह संभव है, कि पुलिस तंत्र सरकार के दलीय विचारधारा के विपरीत विचारधारा के दमन के लिये कानून के उल्लंघन का उपकरण बन जाने के बजाय एक विधिपालक पुलिस बनी रहे ?  यह व्यवहारतः संभव नहीं है। बेहद निष्ठावान और कानून के प्रति पाबंद अफसर और पुलिस भी सरकार के मंशा के विपरीत नहीं जा पाते हैं। और अगर कुछ एक्टिविस्ट प्रवित्ति के लोग सरकार की मंशा के विपरीत जाते भी हैं तो वे किसी अन्य पद पर भेज दिए जाते हैं। सरकार जिस विचारधारा के बल पर सत्ता में आयी है, उसे वह कैसे छोड़ दे ? 

फिर, धीरे धीरे पुलिस, कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपकरण के बजाय, सरकार और सत्तारूढ़ दल के एक मिलिशिया के रूप में बदलने लगती है। हालांकि यह स्थिति अभी भारतीय पुलिस में आयी नहीं है। लेकिन हाल की कुछ घटनाओं से ऐसा संकेत मिलता है। पुलिस का यह रूपांतरण जनता के लिये दुखदायी तो होगा ही, और  खुद राजनीतिक दलों के लिये भी कष्टकर ही साबित होगा। आप अगर यह सोचते हैं कि जेएनयू, जामिया, उत्तर प्रदेश या अन्य जगहों पर जहां से पुलिस ज्यादती की खबरें मिल रही हैं और एक पक्ष जो आज सरकार में है, उनकी सराहना कर रहा है, कल जब ऋतु परिवर्तन होगा तो भी पुलिस का यही रवैया रहेगा तो आप बहुत मासूम है। जिन कारणों ने पुलिस को आज कुछ लोग सराह रहे हैं, वही तब पुलिस के खिलाफ खड़े होंगे क्योंकि पुलिस तब भी अपने सरकार आका के ही इशारे पर डंडा भांजेगी और वही सब करेगी जो आज कर रही है। अगर आज दंक्षिणपंथी ताकतें सत्ता में हैं और वे पुलिस के कंधे पर हांथ रखकर अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वी वामपंथी लोगों को हिंसक रूप से पिटवा रहे हैं, तो कल यही क्रम उल्टा भी होगा। हुआ भी है। ऐसे में सबसे अधिक पिसते हैं वे पुलिसजन जो, जब जांच होती है और जांच कमेटी जब मक्षिका स्थाने मक्षिका रख कर कानून की धाराओं, उपधाराओं के अनुसार असहज करने वाले सवाल उठाती है और तब, सरकार गलती हो गयी, कहने के अतिरिक्त उनके पास कुछ भी विशेष नहीं बचता है। 

यह आंदोलन केवल पुलिस और भाड़े के गुंडों के दम पर दबाया नहीं जा सकता है। सरकार को छात्र असंतोष के कारणों को समझना होगा और खुले मन से उनसे वार्ता करनी होगी। किसी भी प्रकार का बेवकूफी भरा बल प्रयोग न केवल सरकार को खलनायक के रूप में उभरेगा बल्कि एक ऐसा सुप्त आक्रोश पनपाता रहेगा जो किसी भी दिन ज्वालामुखी की तरह घातक हो सकता है। 

© विजय शंकर सिंह 

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