Saturday 18 January 2020

एक फौजी जवान नरेन्द्र की एक कविता - ऐ शाहीनों / विजय शंकर सिंह

सीमा पर खड़े एक जवान नरेंद्र का, शाहीनबाग़ की शाहीनों को एक संदेश..  
" .मैं चाहूंगा, कि मेरा संदेश उन शाहीनों तक पहुंचे ...जो आज राष्ट्र के संविधान , और संविधान के अस्मत के लिए , बुर्के-घूंघट और रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़कर, इस कड़कड़ाती ठंड में ,अपने नन्हों को अपने साथ लेकर इस देश की भोली-भाली जनता की भलाई के लिए ,डटी हुई हैं । "
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ऐ शाहीनों...

चिलमन को हटा,अब चश्म मिला,
कर ख़त्म अज़ाब के अफसाने,
तू गा़र नहीं, तू गैर नहीं,
अब आसिम, खुद को पहचाने।
ये इज़्तिरार का वक्त नहीं, 
ये एतबार का वक्त नहीं, 
अब तोड़ कफ़स और काईदा, 
तू जंग का कर एलान यहीं।

लक्ष्मी बाई अब, तू ही है..
अब तू ही है, रजिया सुलतां
दुर्गा, चंडी अब तू ही है ,
तुझमे बसती है, देवी माँ..
ललकारो ,और संहार करो ! 
शक्ति का तुम विस्तार करो,
मिमियाती रही तू, अब गुर्रा..
के हलाल है ये, हराम नही !

शाहीन है तू, परवाज कर..
जमीं पे तेरा काम नही !
है खतरे में, अम्न-औ-चैन
तेरी किस्मत में, आराम नही ! 
बुर्के-घूंघट को उतार के तू
अब आजादी की बातें कर..
आवाज उठा 'नंगों' को बता
ये मुल्क है, कोई हमाम नही ! 

( नरेंद्र ) 
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(चिलमन-परदा, चश्म- आंख, अज़ाब-पीड़ा, गा़र-राजद्रोही,आसिम- दोषी,इज़्तिरार-विवशता,
कफ़स-पिंजड़ा/बंधन)
साभार अपूर्व भारद्वाज.

( विजय शंकर सिंह )

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