Wednesday 26 October 2016

एक कविता ... एक नयी दुनिया / विजय शंकर सिंह

एक नयी दुनिया 
रच ली ही है हमने 
थोड़ी अजब है और थोड़ी गज़ब 
भीड़ भी है , हंगामे भी , 
उथला उथला समुंदर,
टखनों से घुटनों तक डूबे बस ,
इतना पानी लिए 
ज्ञान का भण्डार भी । 
शोर तो है उसमें भी 
खेल भी खेलते हैं बच्चे 
पर उस शोर और खेल में 
उनकी मासूमियत कहीं गायब है, 
और शरारतों पर शातिरपना हावी है । 
वक़्त का तकाज़ा है, 
या गर्द ओ गुबार, 
जिसे, तेज़ी से भागती हुयी दुनिया, 
खुद में समेटे दौड़ रही है । 
मासूमियत और भोलापन, 
बच्चे जिनके लिए प्यार किये जाते थे, 
अब कितनी भी तलाश करूँ, 
उनमें नहीं मिलते !!

( विजय शंकर सिंह )

No comments:

Post a Comment