Tuesday 24 August 2021

अजय असुर - तालिबान की जीत और साम्राज्वाद के सरगना अमेरिका के हार की कहानी.

तालिबान ने अमेरिका के साथ साल 2018 में बातचीत शुरू कर दी थी। फरवरी, 2020 में कतर की राजधानी दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ। जहां अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने को तैयार हुआ। समझौते में तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाके में अल कायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही। राष्ट्रीय स्तर की शांति बातचीत में शामिल होने का भरोसा भी दिया था। पर अमेरिका ने 2019 में ही अपनी अधिकांश सेना वापस बुला लिया था। दोहा समझौते से पहले, बस तालिबान में 4000 अमेरिकी और नाटो सौनिक बचे हुवे थे।

तालिबान को कलम से हथियार थमाने वाला अमेरिका ही है ! यह अलग बात है कि दुनिया की नजरों में तालिबान आया अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद। जब अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन 11 सितंबर, 2001 के आतंकी हमले की प्लानिंग कर रहा था, तालिबान ने उसे पनाह दे रखी थी। अमेरिका ने उससे ओसामा को सौंपने के लिए कहा लेकिन तालिबान ने इनकार कर दिया। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में घुसकर मुल्ला ओमर की सरकार को गिरा दिया। ओमर और बाकी तालिबानी नेता पाकिस्तान भाग गए। यहां उन्होंने फिर से अफगानिस्तान लौटने की तैयारी शुरू कर दी। सच तो यह है कि, रूस की सीमा से अफगानिस्तान लगा हुआ है और रूस को बर्बाद करने के लिए ही, अमेरिका ने अलकायदा के माध्यम से तालिबानियों के हाथों में किताबों की जगहं बंदूके थमा दीं और एक दिन इन्ही हथियारों से, अल कायदा ने, अमेरिका के वर्ड ट्रेड सेंटर की दोनो इमारतों को उड़ा दिया, जिसे पूरी दुनिया ने देखा। आतंकियो की कोई जाति, मजहब या घर नहीं होता इनका कोई अपना सगा भी नहीं होता तो अमेरिका ने फिर, यह गलतफहमी कैसे पाल लिया कि, ये आतंकी जिसको खुद पाल-पोस कर बड़ा किया वो अमेरिका के सगे ही रहेँगे । 

तालिबान का उदय वर्ष 1990 में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ जब अफगानिस्‍तान में सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। इसके बाद तालिबान ने अफगानिस्‍तान के कंधार शहर का अपना पहला केंद्र बनाया। अफगानिस्तान की जमीन कभी सोवियत संघ के हाथ में थी और 1989 में मुजाहिदीन ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी मुजाहिदीन का कमांडर बना पश्तून आदिवासी समुदाय का सदस्य मुल्ला मोहम्मद उमर। उमर ने आगे चलकर तालिबान की स्थापना की। तालिबान शब्द सुनते ही हमारे आपके मन में एक ही तस्वीर उभरती है, एक ऐसा आदमी जिसके पास दाढ़ी, ऊपर बड़ा कुर्ता, नीचे ऊंचा पायजामा पहने हुए हैं और पगड़ीनुमा एक कपड़ा सिर पर लपेटे है, जिसका एक सिरा कंधे पर लटक रहा है, और सबसे खास बात कि हाथ में बंदूक हो या फिर कंधे पर बंदूक टंगी हुई है यानी बन्दूख होना जरूरी है और यही हकीकत भी है। तालिबान अरबी भाषा का शब्‍द है, जिसका अर्थ है विद्यार्थी। ये बना है तालिब शब्द से तालिब का मतलब होता है ज्ञान। और ज्ञान को ग्रहण करने वाला विद्यार्थी यानी तालिबानी। तालिबान शब्द का पश्तून में भी मतलब होता है छात्र और इस संगठन के सदस्यों को जिन्हें उमर (मुल्ला मोहम्मद उमर) का छात्र माना गया। 1994 में उमर ने इसी कंधार में तालिबान को बनाया था। तब उमर के पास मात्र 50 समर्थक थे, जो अपराध और भ्रष्टाचार में बर्बाद होते अफगानिस्तान को संवारना चाहते थे। 

धीरे-धीरे तालिबान पूरे देश में फैलने लगा। सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान से लगे हेरात पर कब्जा कर लिया और फिर अगले साल 1996 के दौरान कंधार को अपने नियंत्रण में ले लिया और राजधानी काबुल पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके साथ ही राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को कुर्सी से हटा दिया। रब्बानी अफगानिस्तान मुजाहिदीन के संस्थापकों में से एक थे जिन्होंने सोवियत ताकत का विरोध किया था। साल 1998 तक करीब 90% अफगानिस्तान पर तालिबान काबिज था। शुरुआत में अफगानिस्तान के लोगों ने तालिबान का स्वागत और समर्थन भी किया। इसे मौजूदा अव्यवस्था के समाधान की शक्ल में देखा गया जनता का समर्थन मिलने के बाद धीरे-धीरे कड़े इस्लामिक नियम लागू किए जाने लगे। चोरी से लेकर हत्या तक के दोषियों को सरेआम मौत की सजा दी जाने लगी। समय के साथ रुढ़िवादी कट्टरपंथी नियम थोपे जाने लगे। टीवी और म्यूजिक को बैन कर दिया गया, लड़कियों को स्कूल जाने से मना कर दिया गया, महिलाओं पर बुर्का पहनने का दबाव बनने लगा….

शरिया कानून इस्लाम की तथाकथित कानूनी प्रणाली है, जो कुरान और इस्लामी विद्वानों के फैसलों पर आधारित बताई जाती है। शरिया कानून मुसलमानों के जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है, दरअसल पाकिस्तान, बांग्लादेश को छोड़कर लगभग हर मुस्लिम मुल्क ने अपने-अपने तरीके से शरिया को अपने यहां लागू किया है। लगभग ऐसे ही शरिया कानून सऊदी अरब में भी लागू हैं तो इन दलाल मीडिया और उनके भक्तों को नहीं दिखाई देता? क्योंकि सऊदी अरब ने मोदी को अपना सबसे बड़ा पुरस्कार दिया। इस पुरस्कार पर किसी भी मोदी भक्त ने आवाज़ नहीं उठाई। क्या सिर्फ इसलिए कि उसे अमेरिका का समर्थन हासिल है? ये दोगलापन लाते कंहा से हैं ये भक्तगण! ये शरिया कानून मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए कुछ अलग स्वरूप लिए है, सलाफियों के लिए अलग है और तालिबान, आईएस, बोको हरम के लिए कुछ अलग ही है। तालिबान ने अफगानिस्तान में अपने पिछले कार्यकाल में शरिया का सबसे सख्त स्वरूप लागू किया। ताल‍िबान ने दोषियों को कड़ी सजा देने की शुरुआत की। हत्‍या के दोषियों को फांसी दी जाती तो चोरी करने वालों के हाथ-पैर काट दिए जाते। पुरुषों को दाढ़ी रखने के लिए अनिवार्य तो स्त्रियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। इस कानून के तहत क्रूर सजाओं के साथ-साथ विरासत, पहनावा और महिलाओं से सारी स्वतंत्रता छीन लेने को भी जायज ठहराया जाता है। शरिया कानून के तहत तालिबान ने देश में किसी भी प्रकार के गीत-संगीत को भी प्रतिबंधित कर दिया था। यंहा गौर करने वाली बात ये है कि इस्लाम में औरतों को कई सारे अधिकार दिए गए हैं। उन्हें पढ़ने का, काम पर जाने का, अपनी मर्जी के मुताबिक शादी करने का, संपत्ति का अधिकार तक है। लेकिन जितने भी कट्टरपंथी व्याख्याएं हैं, वह इन इन सारे कानूनों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करतीं हैं। उनका पूरा जोर आधी आबादी की स्वतंत्रता और अधिकारों को कुचलने में लगा रहता । दरअसल अफगानिस्तान के 99 फीसदी लोगों को शरिया कानून पसंद था और निश्चित ही अभी भी होगा। यह बात 2013 में दुनिया में कई तरह के सामाजिक सर्वेक्षण करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध में सामने आई थी।

पर यंहा दोबारा तालिबान की वापसी बगैर जनता के समर्थन के संभव नहीं, निश्चित ही जनता के साथ के बाद ही तालिबान की वापसी हुई है। मौजूदा कठपुतली सत्ता अमेरिकी साम्राज्यवाद के बदौलत बढ़ती जा रही शोषण, दमन और अव्यवस्था के समाधान की शक्ल में विकल्प के रूप में तालिबान को देखा गया क्योंकि तालिबानीयों ने वंहा की आवाम को भरोसा दिलाया कि मौजूदा व्यवस्था का बलात तख्ता पलट के बाद तालिबान इस अमेरिकी साम्राज्यवाद के कठपुतली सरकार के शोषण, दमन…. और देश की खनिज संपदा की लूट से मुक्ति दिलाएगी और जनता को भरोसा हुवा तभी तालिबानीयों के साथ देकर अमेरिकी साम्राज्यवाद को देश से खदेड़ा। तो ये जो विरोध मीडिया दिखा रही है सब फर्जी है, ये सारे विडियो फर्जी तथ्यों के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने स्टूडियो में बना के मीडिया को परोस रही है और ये दलाल मीडिया उन विडियो और तथ्यों को जांचने की जहमत भी नहीं उठा रही है क्योंकि उन्ही के फंडिंग से ये दलाल मीडिया अपने जेब भर रही है। वैसे भी जनता के साथ के बिना किसी भी देश में राष्ट्रीय क्रांति संभव नहीं है और जनता साथ में है तो फिर विरोध कौन करेगा? वर्तमान में अफगानिस्तान की जनता दो खेमों में बंटी हुई है। तालिबान समर्थक बहुसंख्यक जनता जश्न मना रही है तो गनी के मुट्ठीभर समर्थक तालिबान को कोस रहे हैं और यही अमेरिकी साम्राज्यवाद के कठपुतली सरकार के समर्थक ही डर के मारे देश छोड़कर भाग रहें हैं, जो लोग देश छोड़कर भागने के लिए हवाईजहाज के पंखो के ऊपर चढ़ कर देश से निकालना चाहते हैं ये वही तालिबान के विरोधी हैं और अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थक ही हैं और ये साम्राज्यवाद की दलाल मीडिया अब दो आदमियों के गिरने पर आंसू बहा रही है। तब ये दलाल मीडिया कंहा थी जब भारत में लाकडाउन लगा और रास्ते में सैकड़ो लोग भूख से, थक के, मर गए थे। जीवन से निराश होके आत्महत्या तक कर लिए थे और वर्तमान में किसान आन्दोलन में 600 किसान के ठंड और गर्मी से मर गए हैं, कई किसानों ने आत्महत्या तक कर लिया है। इनके लिए तो घड़ियाली आंसू तक ना निकले थे और ना ही अब किसानों के लिए निकल रहें हैं। दूसरे देश के लोगों की फिक्र है पर खुद के देशवासियों की नहीं। ये कैसा दोगलापन है भारतीय दलाल मीडिया और उनके भक्तों का?

आखिर बर्बरता की हमारी परिभाषा क्या है? पहले के समय में दूर से हत्या करने को सभ्य और नज़दीक से हत्या करने को बर्बर माना जाता था। तालिबान जब किसी को नजदीक से गोली मारता है, या गला रेत कर मारता है तो वह हमें बर्बर लगता है, लेकिन अमेरिका जब ड्रोन से या हवाई हमले से किसी पर हमला करके बच्चों, महिलाओं की हत्या करता है तो वह हमें उतना बर्बर नहीं लगता। क्या ये दूर से हत्या करने वाले का कौशल कँहेँगे? या इसको भी बर्बरता ही कहेंगे? या सिर्फ कालांतर की तरह करीब से मारने वालों को ही बर्बर कहेंगे? 2001 में शुरूआती लड़ाई में अमेरिका समर्थित उत्तरी अलायंस ने अफ़गानी जनता विशेषकर अफ़गानी महिलाओं के साथ किस तरह की जघन्य बर्बरता की थी, उसे हम भूल गये! क्योंकि दलाल मीडिया में अब उसका ज़िक्र नहीं है। आखिर इसका जिक्र करेंगे ही क्यूँ? जिक्र करने पर इनके आका अमेरिका की कलाई खुल जाएगी।

अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) की सेनाओं के देश छोड़ने के बाद, वहां की अशरफ गनी सरकार की सेना बालू की भीत की तरह भरभारकर ढह गयी और तालिबान ने बड़ी आसानी से देश पर कब्ज़ा कर लिया है दलाल मीडिया के अनुसार। पर यह रातों-रात नहीं हुवा ना ही इतने आसानी से हुवा है जितने आसानी से दलाली कर मीडिया बता और दिखा रही है। असल कहानी दलाल मीडिया थोड़े ही बातयेगा और दिखाएगा। जब खाएगा अमेरिकी साम्राज्यवाद का तो गायेगा भी उन्ही का। तालिबान को अमेरिकी साम्राज्यवाद की कठपुतली सरकार के खिलाफ वंहा की आम जनता का समर्थन मिलने लगा क्योंकि ये कठपुतली अशरफ गनी सरकार अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर वंहा की मेहनतकश जनता का शोषण कर वंहा की खनिज संपदा को लूट कर अमेरिका अपने नागरिकों को वरोजगारी भत्ता देता है और पूरी दुनिया के देशों पर अपनी चौधराहट झाड़ता है। 

आज भारत की ये साम्राज्यवाद के तलवे चाटने वाली दलाल मीडिया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के चाटुकार और उनके भक्तगण राष्ट्रभक्ति की शर्त रख रहें हैं कि वही असली राष्ट्रभक्त है जो तालिबान की जीत का विरोध करने वाले को ही देशभक्त माना जा रहा है। ये कैसा पैमाना है राष्ट्रभक्ति की? आखिर तालिबान का विरोध भारत में देशभक्ति की शर्त क्यों हो? क्या ये तालिबानी शर्त नहीं है? पहले अपने गिरेबान में झांककर देखो फिर दूसरों के गिरेबान में झांकना भक्तों।

अफ़गानिस्तान में महिलाओं का एक भूमिगत संगठन है- रावा (Revolutionary Association of the Women of Afghanistan) इसकी एक कार्यकर्त्ता सामिया वालिद [Samia Walid] 2019 में दिए एक इंटरव्यू में कहती है-''अमेरिका ने 'महिला अधिकारों' के बहाने अफ़गानिस्तान पर हमला किया। लेकिन पिछले 18 सालों में हमने क्या पाया? सिर्फ हिंसा, हत्या, यौनिक हिंसा, आत्महत्या और दूसरी विपत्तियां. अमेरिका ने अफ़गान महिलाओं के सबसे घृणित दुश्मन इस्लामिक कट्टरपंथियों को सत्ता में बैठाया। पिछले 4 दशकों से यही साम्राज्यवादियों की रणनीति है। जिहादी, तालिबान, और आईएसआईएस जैसे इस्लामिक कट्टरपंथियों को बढ़ावा देकर, जो न सिर्फ हत्यारे अपराधी हैं, बल्कि कट्टर नारी विरोधी हैं, वास्तव में अमेरिका ने ही हम औरतों का दमन किया है। न्यूज एजेंसी न्यूज़क्लिक के अनुसार अमेरिका पूरी पृथ्वी पर प्रति 12 मिनट पर एक बम, और प्रतिदिन 121 बम यानी 44,096 बम प्रतिवर्ष बरसाता है। फिर भी अमेरिका सभ्य देश है? 2001 के बाद से पिछले 20 सालों में अमेरिकी हमलों में करीब 50 हज़ार अफ़ग़ान नागरिक मारे गये। यमन में 2014 के बाद से वहां के गृहयुद्ध में 2 लाख 33 हजार यमनी नागरिक मारे गए हैं। इसकी एकमात्र जिम्मेदारी अमेरिका समर्थित सऊदी अरब सरकार की ही है। पर दलाल मीडिया इस पर मौन धारण किए हुवे है जैसे कोई घटना घटी ही नहीं या फिर बहुत ही साधारण और छोटी सी घटना है। आखिर मीडिया का ये दोहरा और एकतरफा चरित्र क्यूँ? मीडिया निष्पक्ष क्यूँ नहीं?

तालिबान की स्थिति को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा। ये कहानी वहां से शुरू नहीं होती, जहां से ये साम्राज्वाद की दलाल मीडिया दिखा और सुना रही हैं। कहानी उससे भी बहुत पहले से शुरू होती है। लड़ाई सिर्फ दो दशक लंबी नहीं है बल्कि लड़ाई उससे भी 3 दशक पहले से शुरू होती है, जब सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था और एक समाजवादी, कम्‍युनिस्‍ट देश जो साम्यवाद की तरफ बढ़ता हुवा अपनी जनता की खुशहाली को बयां करते हुवे आगे बढ़ रहा था। असल में ये कहानी शुरू होती है सोवियत संघ के पड़ोसी देश अफगानिस्‍तान में कदम रखने से हालांकि थोड़ा पीछे जाएं तो कहानी वहां से भी शुरू हो सकती है, जब अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा ताकतवर मुल्‍क नहीं था और शक्ति का केंद्र ग्रेट ब्रिटेन था और आधी दुनिया उसका उपनिवेश यानी गुलाम था। तब ब्रिटेन ने अपने निजी, आर्थिक और सामरिक हितों के लिए अफगानिस्‍तान को एक युद्ध भूमि की तरह इस्‍तेमाल किया था। ये 18वीं सदी के अंत की बात है, तब तक रूस में क्रांति और जार का तख्‍तापलट भी नहीं हुआ था। रूस और ब्रिटेन आपस में लड़ रहे थे और जंग का मैदान था अफगानिस्‍तान। अफगानिस्‍तान के रास्‍ते रूस अपनी सीमा बढ़ाना चाहता था और ब्रितानियों को डर था कि एक बार अफगानिस्‍तान रूस के कब्‍जे में आ गया तो भारत को भी उसके हाथों जाने में देर नहीं लगेगी। उस वक्त भारत ब्रिटेन का गुलाम था। इतिहास का वो अध्‍याय मौजूदा राजनीतिक परिदृश्‍य में न सिर्फ अतीत, बल्कि अप्रासंगिक भी हो चुका है। इसलिए बहुत से पन्‍नों को बिना पलटे सीधे चलते हैं उस दौर में, जब रूस में क्रांति हो हो जाने के बाद, दूसरा विश्वयुद्ध हुवा, जर्मनी की हार हुई है और यूक्रेन, लातविया, लिथुआनिया, बेलारूस, जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्‍तान, उज्‍बेकिस्‍तान के बाद यूरोप का एक बड़ा हिस्‍सा रूस के जनता की खुशहाली और तरक्की के रास्‍ते एक-एक कर सोवियत सोशलिस्‍ट प्रजातंत्र संघ का हिस्‍सा बनता जा रहा था और रूस सोवियत संघ में तब्दील होकर वैश्विक राजनीतिक पटल पर सोवियत संघ एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा और उस वक्त जब रूस शेर की तरह दहाड़ता था तो अमेरिका की बकरी की तरह घिग्गी बंध जाती थी। उस वक्त रूस अमेरिकी साम्राज्‍यवाद के लिए एक उभरती हुई चुनौती थी। रूस ने किसी भी देश को मजबूर नहीं किया था सोवियत संघ में शामिल होने के लिए, सभी देश अपनी मर्जी से सोवियत संघ का हिस्सा बने और तो और रूस से सोवियत संघ से जुड़ने की स्वतः आजादी की तरह सोवियत संघ छोड़ने की भी आजादी दी थी। अपनी इच्छा से कोई भी देश सोवियत संघ छोड़कर जा सकता था।

रूस की सीमा, अफगानिस्‍तान की सीमा उत्‍तर में ताजिकिस्‍तान, तुर्कमेनिस्‍तान और उज्‍बेकिस्‍तान से लगी हुई थी। रूस और अफगानिस्‍तान में धीरे-धीरे मित्रता बढ़ने लगी। रूसी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सेक्रेटरी जनरल लियोनिड ब्रेजनेव की 1977 में अफगानिस्‍तान के पांचवे प्रधानमंत्री और तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति मोहम्‍मद दाऊद खान से मुलाकात काफी मुकम्‍मल रही। एक कूटनीतिक मुलाकात लंबी दोस्‍ती में तब्दील हो गई। अफगानिस्‍तान में रूस की पकड़ मजबूत होने लगी। लेकिन ये दोस्ती अमेरिका और पाकिस्‍तान दोनों को ही मंजूर नहीं था। दोनों ही बैकग्राउंड में साथ मिलकर रूस के खिलाफ काम कर रहे थे। पाकिस्‍तान इंटेलीजेंस एजेंसी आईएसआई और अमेरिकन इंटेलीजेंस एजेंसी सीआईए साथ मिलकर दारूद की सत्‍ता को गिराने और उसे अपनी ओर लाने का काम कर रहे थे। सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान के इस नाकाप इरादे को भांप गया और उनकी चाल पलटने के लिए रूस ने अपनी बाजी खेली और अफगानिस्‍तान का तख्‍तापलट करवा दिया और अफगानिस्‍तान में रूस की कठपुतली सरकार बन गई, जो रूसी सत्‍ता के इशारे पर चल रही थी। अब अफगानिस्‍तान में रूसियों के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान के अन्दर ही एक समानांतर सेना खड़ी की। मुजाहिदों की इस सेना को तैयार करने में पाकिस्‍तान ने भी अमेरिका का साथ दिया। पाकिस्‍तान सेना ही इन मुजाहिदों को सैन्‍य प्रशिक्षण दे रही थी। यहीं से जन्‍म हुआ ओसामा बिन लादेन का, जिसे अमेरिका ने खुद ही रूस के खिलाफ खड़ा किया था। अफगानिस्‍तान की धरती एक बार फिर युद्ध की चपेट में थी, लेकिन इस बार आमने-सामने थे तालिब मुजाहिदीन और रूसी सेना। रूस को इस बार काफी क्षति उठानी पड़ी। 1979 में रूसी सेना ने अफगानिस्‍तान का रुख करना शुरू किया था।

पाकिस्‍तान के रास्‍ते अमेरिका से अरबों डॉलर तालिबान के मुजाहिदीनों तक पहुंच रहे थे और अफगानिस्‍तान की सत्‍ता को भी हिलाकर रख दिया था अमेरिका अपनी चाल में आखिरकार कामयाब रहा। अफगानिस्‍तान की खूबसूरत सरजमीं को युद्धभूमि में बदल देने के पीछे अमेरिका की मंशा सिर्फ एक ही थी कि किसी भी तरह रूस की ताकत को कमजोर करना, उन्‍हें आगे बढ़ने से रोकना और नेस्‍तनाबूद कर देना। अगर इस लिहाज से देखें तो अमेरिका अपने मकसद में कामयाब भी रहा। लेकिन इतिहास ठीक वैसा ही नहीं होता, जैसा हम सोचते हैं और लिखते हैं। बहुत कुछ हमारे सोचने और लिखे से परे भी होता है, जो खुद ही अपनी तकदीर और अपना रास्‍ता लिख रहा होता है। जिस तालिबान को अपने निजी हित के लिए अमेरिका ने खड़ा किया था, अमेरिका ने भी नहीं सोचा था कि एक दिन वो तालिबान अपने उसी मालिक की जड़ उखाड़ देगा और अमेरिका की जमीन पर इतिहास के सबसे खतरनाक और सबसे विनाशकारी हमले को अंजाम देगा। जिस ओसामा बिन लादेन को खुद अमेरिका ने जन्‍म दिया था, जिसके बारे में एक जमाने में पश्चिमी मीडिया में छपने वाली खबरों की हेडलाइनें कुछ इस तरह होती थीं- “एंटी सोवियत वॉरियर पुट्स हिज आर्मी ऑन द रोड टू पीस”, (सोवियत विरोधी योद्धा अपनी सेना को शांति के रास्ते पर खड़ा करता है) यानी पश्चिम के मीडिया उस वक्त ओसामा बिन लादेन की छवि को शांतिदूत के रूप में प्रस्तुति करती थी। मीडिया ओसामा को शांतिदूत का वाहक इसलिए कहती थी क्योंकि ओसामा को अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई के लिए ही तैयार किया था। वही शांतिदूत ओसामा बिन लादेन एक दिन अमेरिका के लिए सबसे बड़ा आतंकवादी बन गया, जब सुसाइड मिशन पर निकले मुजाहिदीनों ने दो हवाई जहाज अमेरिका के वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर में घुसा दिया। तीसरा व्‍हाइट हाउस का रुख कर रहा था जिसे पेंटागन ने उसे बीच में ही मार गिराया।

अफगानिस्‍तान में अमेरिकी वॉर का दूसरा अध्याय उसके बाद से शुरू होता है। जो तालिब मु‍जाहिदीन पहले अमेरिका के दोस्‍त थे, अब वही सबसे बड़े दुश्‍मन हो गए। तालिबानों के लिए भी अब अमेरिका, सीआईए, पेंटागन सबसे बड़े दुश्मन थे। अमेरिकी सेना का निशाना था ओसामा बिन लादेन, जिसे 2 मई, 2011 को पाकिस्‍तान के एबटाबाद में अमेरिकी सेना ने मार गिराया। अमेरिका का अपना खड़ा किया हुआ दुश्‍मन तो मर गया, लेकिन एक दुश्‍मन को मारने में अमेरिका ने कितने अपनों की जान ली, उसका कोई हिसाब नहीं है। उसके बाद अफगानिस्तान में वंहा की मासूम जनता को की जो जान ली उसका भी कोई हिसाब नहीं। दोनों तरफ हजारों बेगुनाह मारे गए, नस्‍लें तबाह हो गईं। पहाड़ों, नदियों वाली खूबसूरत धरती एक विशालकाय श्‍मशान में तब्‍दील हो गई और इन सबसे हासिल क्‍या हुआ? इतिहास में ये भी नहीं लिखा जाएगा कि इस युद्ध में अमेरिका को जीत हासिल हुई। इतिहास में सिर्फ मौतों का, लाशों का, तबाहियों का जिक्र होगा। जीत उसके बाद भी न होगी। पर यंहा तालिबान का अमेरिकी साम्राज्यवाद पर जीत निश्चित ही इतिहास में दर्ज होगी। वियतनाम के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद की ये सबसे बड़ी हार है। महाबली की औकात वियतनाम के बाद एक बार फिर सारी दुनिया के सामने आ गयी है। विश्व जनवाद के सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका की पराजय, दुनिया की जनतांत्रिक शक्तियों को तसल्ली तो दे सकती है, लेकिन तालिबान जैसी कट्टर इस्लापंथी शक्ति का सत्तासीन होना, कहीं से सुकूनदायी नहीं है। अफगानिस्तान की जनता के दामन से साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन होने का कलंक तो मिट जायेगा, लेकिन जनता को अपने जनतंत्र की लड़ाई आगे भी उतनी ही मुस्तैदी से लड़नी होगी। इसके लिए उन्हें नए धरातल पर और नए ढंग से संगठित होना होगा। यह लड़ाई कठिन और लम्बी होगी तथा दुनिया में होने वाले बदलावों से प्रभावित होगी।

युद्ध के मैदान में खड़े जो दुश्‍मन खुद को भावी विजेता के रूप में देख रहे थे, वो अब युद्ध से दूर खड़े होकर युद्ध को कैसे देखते हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश है और विश्व पूँजीवाद का चौधरी। अमेरिकी शासकवर्ग अमेरिकी जनवाद (लोकतन्त्र) को लगातार महिमामण्डित करता है, लेकिन वास्तव में वह ऐसा पूँजीवादी जनवाद है जो न केवल पूरी दुनिया के लिए बल्कि थोड़े से धनपतियों को छोड़कर बहुसंख्यक आम अमेरिकी आबादी के लिए भी एक अपराधी, दमनकारी ख़ूनी तन्त्र है। जिसका एक छोटा सा उदाहरण जार्ज फ्लायड की मौत। इस तरह की अमेरिका में पहली घटना नहीं है। इस तरह की कई, कई क्या इससे बड़ी और शर्मनाक घटनाये हुई हैं। अमेरिका ने अभी तक अनगिनत युद्व किए और लगभग सभी युद्ध अमेरिका ने अपने भूमिखंड से दूर हुए हैं। हालांकि मेक्सिको से सीमा को लेकर हल्के-फुल्के विवाद भी बीच में हुए थे। नीचे जो सूची दी हुई है, वह अमेरिकी साम्राज्यवादियों के चुनिन्दा युद्ध-अपराधों और आतंकवादी कुकृत्यों की एक संक्षिप्त सूची है, जिनमें सी.आई.ए. से सहायता-प्राप्त सैन्य कार्रवाइयाँ और कठपुतली सत्ताओं द्वारा छेड़े गये युद्ध भी शामिल हैं ।

अर्जेण्टीना 1890; चिली 1891; हैती 1891; हवाई 1893; ब्लूफील्ड, निकारागुआ 1894 और 1899; चीन 1894-95; कोरिया 1894-96; कोरिण्टो, निकारागुआ 1896; चीन 1898-1900; उ 1901-14; पनामा कनाल ज़ोन 1914; होण्डुरास 1903; डोमिनिकन रिपब्लिक 1903-04; कोरिया 1904-05; क्यूबा 1906-09; निकारागुआ 1907; होण्डुरास 1907; पनामा 1908; निकारागुआ 1910; क्यूबा 1912; पनामा 1912; होण्डुरास 1912; निकारागुआ 1912; वे मेक्सिको (हेराक्रूज़) 1914; डोमिनिकन रिपब्लिक 1914; मेक्सिको1914-18; हैती 1914-34; डोमिनिकन रिपब्लिक 1916-24; क्यूबा 1917; सोवियत संघ 1918; पनामा 1918; होण्डुरास 1919; ग्वाटेमाला 1920; तुर्की 1922; चीन 1922; होण्डुरास 1924; पनामा 1925; अल सल्वाडोर 1932; कोरिया 1950-53; प्यूर्टो रिको 1950; ग्वाटेमाला 1954; मिस्र 1956; लेबनान 1958; पनामा 1958; क्यूबा 1962; डोमिनिकन रिपब्लिक 1965; वियतनाम 1965-75; ग्वाटेमाला 1967; ओमान 1970; ईरान 1980; अल सल्वाडोर 1981; निकारागुआ 1981; ग्रेनाडा; 1982; लेबनान 1982; होण्डुरास 1983; बोलीविया 1986; पनामा 1989; इराक़ 1991; युगोस्लाविया 1992; सोमालिया 1993; हैती 1994; लाइबेरिया 1996; सूडान 1998; अफगानिस्तान 1998 से अबतक; इराक़ 2003 से अबतक; लीबिया 2011 से अब 2019 तक; सीरिया 2013 से अब तक…. और आगे भी यही करता रहेगा। खरबों डॉलर और बेशकीमती जिंदगियां, किसी मां का बेटा, किसी पत्‍नी का पति, किसी बच्‍चे का पिता अमेरिकी अहंकार और जिद के नाम पर युद्ध की आग में झोंका जाता रहेगा। फिलहाल अफगानिस्‍तान में जो हुआ, वो कुछ और नहीं बल्कि अमेरिका के साम्राज्यवाद की नीतियां थी और एक मासूम धरती उस लड़ाई का मैदान बन गई जंहा हजारों बेगुनाह मनुष्य और निरीह जीव की सामधि बन गयी। पर अन्त सुखद रहा अमेरिका के हार के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के अन्त की शुरुवात हो ही गयी। अब 20 साल के युद्ध से अमेरिका ने नहीं सीखा तो जल्द ही अमेरिकी साम्राज्यवाद का अन्त निश्चित है।

© अजय असुर 
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उत्तर प्रदेश
#vss

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