Monday, 16 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (5)

राम मोहन राय को एक ब्रिटिश एजेंट मान लेना भूल होगी। वह भारतीय चेतना के व्यक्ति थे, ईसाई चेतना के नहीं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए, वह उस समाज और उस काल-खंड के व्यक्ति थे जब हज़ार वर्षों तक मुसलमानों ने शासन किया, और उनके बाद अंग्रेज़ आ गए थे। हिन्दू समाज तमाम संप्रदायों में बिखरा पड़ा था। राजनैतिक सत्ता से दूर तो था ही। जिस समृद्ध वैदिक परंपरा की दुहाई दी जा सकती है, वह उस समय अपने विकृत रूप में थी। उससे विरक्ति और एकेश्वरवाद की ओर बढ़ना कोई अजूबी बात नहीं थी। 

राम मोहन राय से दयानंद सरस्वती तक का सफ़र देखें, तो यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण की पहल थी। वेदों के और लौटने और तमाम सनातन संप्रदायों की एकीकरण की मुहिम थी। वेदांत सिद्धांतों का समर्थन और आडंबरों का विरोध था। यह बात कुछ खोल कर आगे रखता हूँ।

राम मोहन राय की पैदाइश एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में उस वक्त हुई, जब वारेन हेस्टिंग्स पहले गवर्नर जनरल बने।  महज नौ वर्ष की अवस्था में उनका बाल-विवाह हुआ, तीन विवाह किए गए। एक पत्नी की मृत्यु बाल्य-काल में हुई, दूसरी यौवन में चल बसी, तीसरी उनके बाद तक रही। वह इस पूरी व्यवस्था से नाखुश थे। 

उन्होंने बाद में लिखा,
“कुलीन ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला बहु-पत्नी विवाह एक कुरीति है, जो नए ब्राह्मणों ने अपने जीवन में जोड़ लिया है। यह हमारी प्राचीन परंपरा नहीं।”

उनके पिता और दादा मुगल जमाने के सामंतों से जुड़े थे, और उस समय काम-काज की भाषा फ़ारसी थी। इस कारण उन्हें भी पटना के मदरसा में भेजा गया। अमूमन बच्चे भाषा सीख कर लौट आते, लेकिन राम मोहन राय धर्म में रुचि लेने वाले व्यक्ति थे। किशोरावस्था में इस्लाम की शिक्षा ने उन्हें प्रभावित किया। 

उन्होंने लौट कर अपने पिता से पूछा, “हम मूर्तियों में क्यों ईश्वर तलाशते हैं?”

ज़ाहिर है उनके ब्राह्मण पिता भड़क गए। राम मोहन भी अपने उत्तरों के खोज में तिब्बत चले गए, और बौद्ध धर्म का ज्ञान लिया। वहाँ से वह काशी आए, और वेदों के अध्ययन में समय लगाया। घूम-फिर कर जब वह कलकत्ता लौटे, ईस्ट इंडिया कंपनी खुद को अच्छी तरह स्थापित कर चुकी थी। 

राम मोहन राय को अपने पिता से विरासत में अच्छी-खासी जमीन मिली। उन्होंने साहूकारी शुरू कर दी, ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सरों से बढ़िया संबंध बनाए, और उनके मुंशी बने। जहाँ तक बैप्टिस्ट मिशनरियों की बात है। उन्होंने उन्हें ईसाई बनाने का प्रयास किया, मगर राम मोहन राय उल्टे उन्हीं को एकेश्वरवाद का ज्ञान देने लगे। 

उन्होंने ईसाई धर्म के त्रिदेव (ईश्वर, ईश्वर के पुत्र, और पवित्र आत्मा) को ख़ारिज किया, और यीशु मसीह को भगवान का रूप मानने से इंकार कर दिया। धीरे-धीरे वह पंडितों से लेकर मिशनरी तक से पंगा ले रहे थे। लेकिन, उनको झट से ‘मार्क्सवादी’ खेमे में डालने वालों को सनद रहे कि यह तब की बात है, जब मार्क्स पैदा भी नहीं हुए थे। 

कलकत्ता में राम मोहन राय अपनी बैठक में गीत गाते - ‘मोन, ए की भ्रांति तोमार?’ (मन! तुम्हें क्या भ्रांति है?) 

उनके साथ सुर में सुर मिला रहे एक नवयुवक होते द्वारकानाथ ठाकुर (टैगोर)! 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/4_15.html
#vss 

[चित्र: द्वारकानाथ टैगोर]

No comments:

Post a Comment