Sunday, 29 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (18)

अंग्रेज़ी किताबों में स्वामी विवेकानंद को एक हिंदू मिशनरी और उनकी सहयोगी भगिनी निवेदिता को हिंदू नन भी लिखते हैं। शायद इसलिए कि वे (और उनकी संस्था) ख़ास भेष-भूषा में एक आश्रम के तहत देश-विदेश में घूम-घूम कर न सिर्फ़ धर्म का प्रचार करते रहे बल्कि कालांतर में 140 देशों में हज़ारों ईसाई या अन्य धर्मावलम्बियों को जोड़ा भी। उनकी संस्था का नाम रामकृष्ण मिशन है, तो मिशनरी कहना शाब्दिक रूप से भी ग़लत नहीं। आज के यूरोप में ऐसी सनातन सभाएँ हैं, जिसमें योग करते, वैदिक रीति से जीवन जीते, शिखा रखते, और संस्कृत के मंत्र पढ़ते यूरोपीय मिलेंगे। लेकिन, वे भारत के हिंदुओं के सनातन धर्म का अंग नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार अधिकांश भारतीय सनातन जीवन शैली नहीं जीते, न ही उन्हें वेदों का ज्ञान है।

राम मोहन राय के विषय में मैंने लिखा कि उनका स्वप्न था कि पूरी दुनिया का एक ही धर्म, एक ही ईश्वर हो, तो कोई समस्या नहीं होगी। एक विश्वव्यापी, सार्वभौमिक धर्म जिसमें सभी मान्यताओं के कुछ गुण हों। धर्म तो बना नहीं, एक ब्रह्म समाज नामक छोटा संप्रदाय अवश्य बन गया। यही स्थिति गुरु नानक के साथ भी हुई थी, जब वह एकेश्वरवादी जाति-मुक्त धर्म की बात कर रहे थे जिसमें सनातन और इस्लामी गुणों का मिश्रण हो। वहाँ भी एक सिख संप्रदाय का निर्माण हो गया।

रिनैशाँ में धार्मिक पुनर्जागरण अलग-अलग स्थानों में हो रहा था। विवेकानंद से पहले पंजाब और उत्तर भारत में एक दयानंद सरस्वती नामक व्यक्ति अपनी प्रखर तर्कपूर्ण शैली में संवाद कर रहे थे। उनका मानना था कि भारत की ग़ुलामी की वजह इसका जातियों और संप्रदायों में बँटा होना है, और नैतिक पतन की वजह वेदान्त सिद्धांतों से भटकना है। वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बुरी असफलता के बाद उभरे थे, तो उनके इस तर्क में दम भी लग रहा था कि ‘वेदों की ओर लौटना’ ही अंतिम रास्ता है।

उनकी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के मुख्य बिंदुओं से गुजरते हुए मैं अपनी बात रखता हूँ।

वैदिक काल की जीवन-शैली और ग्रंथों (जो उस समय ऑडियो यानी श्रुति परंपरा से थे) को देखा जाए, तो वह काफ़ी हद तक एकरूप है। उनमें वर्णित देवी-देवता भी सार्वभौमिक हैं, और लगभग सभी सभ्यताओं में रहे हैं। जैसे वर्षा के देवता इंद्र, समुद्र के देवता वरुण, अग्निदेव, यमदेव आदि। ये प्रकृति के देव हैं, और इनकी अलग से मूर्ति-पूजा या मंदिरों में घंटा बजाने के बजाय, यज्ञ-शैली रही। ईश्वर का सिद्धांत तो है ही, लेकिन ईश्वर की आराधना का सूत्र आडंबरी धर्मस्थलों से गुजरता था या एकांत में योग-साधना से या अपने कर्मों से, यह मूल विषय है।

धीरे-धीरे वैदिक देवों की आराधना घटने लगी। अश्विनीकुमार या इंद्र की पूजाओं से अलग अब सीधे ईश्वर की आराधना होने लगी। उनके रूप-व्याख्या से संप्रदाय भी बँटने लगे, और उनके विवाद भी होने लगे। शैव एकेश्वरवाद से लेकर वैष्णव एकेश्वरवाद तक आए, और उनमें आपसी सहिष्णुता भी घटने लगी। बुद्ध, महावीर और चार्वाक के विचार भी आए। इस तरह भारत में यह विविधता बढ़ती चली गयी, जिसे अब गौरव की तरह देखा जाता है। लेकिन, उस समय दयानंद सरस्वती जैसे विचारक इसे एक कमजोरी मानते थे। उनका मानना था कि इन जैन, बुद्ध, सिख और यहाँ तक कि भारतीय मुसलमानों को वैदिक परंपरा में ‘घरवापसी’ करनी चाहिए, तभी ब्रिटिशों से लड़ पाएँगे।

मैं यहाँ उन तमाम संप्रदायों और धर्मग्रंथों पर उनकी टिप्पणियाँ नहीं लिखूँगा, क्योंकि वह पुस्तक न सिर्फ़ अन्य मान्यताओं बल्कि अब भारत के हिन्दू समाज के लिए भी उत्तेजक बन सकती है। लेकिन, सत्यार्थ प्रकाश के अंतिम समुल्लासों (अध्यायों) में सभी की समालोचना की गयी है, और वैदिक जीवन-शैली और सिद्धांतों को ही सर्वोपरि माना गया। उन्होंने हिन्दू शब्द के बजाय सनातन के उपयोग पर बल दिया, क्योंकि हिन्दू शब्द फ़ारसी मूल का और विदेशियों द्वारा प्रयोग किया शब्द है। जातियों पर उनकी टिप्पणी थी कि वर्ण कर्मों से ही निर्धारित हों, कुल से नहीं। शूद्र की संतान भी ब्राह्मण और ब्राह्मण की संतान शूद्र हो सकती है। अर्थात् एक शूद्र भी वेदाध्ययन कर सके, और एक चतुर्वेदी भी अगर वेदज्ञ नहीं तो उससे उसकी पदवी छीन ली जाए। मूर्ति-पूजा और मंदिरों के लिए धन-संग्रह को उन्होंने बहुधा आडंबरी कहा, और जीवन-शैली में सुधार पर अधिक बल दिया।

इतिहासकार दयानंद सरस्वती के राष्ट्रवाद को गांधी और सावरकर, दोनों पर प्रभाव डालने की बात लिखते हैं, जो अपने-आप में एक द्वंद्व है। लेकिन, यह बात बिंदुवार सिद्ध भी की जा सकती है कि उनके अपनी शैलियों से धार्मिक-नैतिक पुनर्जागरण से राष्ट्रवाद को जोड़ने में साम्य है। 

अब स्वामी विवेकानंद के भाषण को दुबारा पढ़ कर देखिए कि दोनों में क्या अंतर था। दयानंद सरस्वती न सिर्फ़ अन्य धर्मों बल्कि भारत की पूरी स्थापना की आलोचना कर रहे थे। ज़ाहिर है उनसे सिख, जैन, ईसाई और मुसलमान ही नहीं, बल्कि भारत की उच्च जातियाँ भी कुपित थी (आज भी होंगी)। अंत में तो उनकी येन-केन-प्रकारेण हत्या ही हो गयी। वह भारत को आमूल-चूल बदल कर एक सनातन धर्म में तब्दील करना चाहते थे।

वहीं विवेकानंद सभी धर्मों से सहिष्णुता और सभी मार्गों से ईश्वर-प्राप्ति की बात करते हैं। दोनों में महीन अंतर है। विवेकानंद अपने धर्म को इसी गुण के कारण श्रेष्ठ कहते हैं कि उन्हें अन्य धर्म स्वीकार्य हैं। लेकिन, यह कहते हुए वह नेपथ्य में यह भी कह रहे हैं कि चूँकि ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ियाँ अलग-अलग है, अगर लिफ़्ट लेना चाहें तो हिंदू धर्म वाली पाँती में आ जाएँ। जहाँ दयानंद सरस्वती भारत के एक धर्म के पक्ष में थे, विवेकानंद पूरे विश्व के एक ‘यूनिवर्सल’ धर्म की इच्छा रखते थे।
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (17)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/17.html
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