ब्रिटिश हुकूमत इस अवस्था के लिए क़तई तैयार नहीं थी कांग्रेस को किसी आंदोलन का अब आगे कोई मौक़ा दे। वायसराय लिनिलिथिगो ने 1940 में ही गवर्नरों को लिख दिया था कि "कांग्रेस के एक हिस्से द्वारा " युद्ध की घोषणा का एकमात्र संभावित उत्तर होगा उस पूरे संगठन को दृढ़ता से कुचल कर रख दिया जाय "। दो साल तक सीमित और व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाकर गाँधी ने सरकार को इस मनचाहे मौक़े को हासिल करने से रोके रखा। परंतु अब ज्यों ही "भारत छोड़ो प्रस्ताव" पारित हुआ सरकार कांग्रेस की किसी रणनीतिक अमल के लिए कोई समय देने को तैयार नहीं दिखी। सरकार पहले ही नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश राज्यों को भेज चुकी थी।
फलतः 9अगस्त की अहले सुबह ही गाँधी जी समेत तमाम नेता गिरफ्तार कर अनजानी ज़गह ले जाए गए । कांग्रेस को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया।
एक बात ग़ौर करने की है कि जितनी तेजी से सरकार ने कांग्रेस से निबटने का काम किया, आम आवाम की प्रतिक्रिया का भी उतनी ही तेज़ी से और उतनी सघनता के साथ विस्फोट हुआ। आंदोलन का स्वरूप और विस्तार एक तरफ तथा आंदोलन के दमन का रूप दूसरी तरफ़ दोनों अप्रत्याशित और अभूतपूर्व था जो आज तक के किसी आंदोलन में नहीं देखा गया था। स्वदेशी, ख़िलाफ़त-असहयोग, साइमन कमीशन विरोध, सिविल नाफ़रमानी इन सभी जनआंदोलनों से इस आंदोलन की जन-भागीदारी की व्यापकता, और सरकारी दमन की क्रूरता दोनों अपने आप में अद्वितीय थी । गाँधी के इस आखिरी आह्वान का कि अगर कोई नेता राह दिखाने के लिए नहीं बचा हो तो अपना नेता ख़ुद बनकर अपनी राह चुन लेना है जनता ने सौ फ़ीसदी पालन करना शुरू किया।
जनता ने ज्यों ही सुना कि नेताओं की गिरफ्तारियां हो चुकी हैं कि हजारो की तादाद में लोग बंबई के उस ग्वालियर टैंक मैदान की तरफ़ दौड़ पड़े जहाँ कांग्रेस नेताओं की आमसभा मुक़र्रर थी। वहाँ युवा नेत्री अरुणा आसफ़ अली ने मोर्चा संभाला। भीड़ की पुलिस से जबरदस्त भिड़ंत हुई। अहमदाबाद और पूणे में भी इसी तरह प्रतिरोध में भीड़ जमा हुई और महीना तक यह स्वयंस्फूर्त जनउभार देश के विभिन्न हिस्सों में ज़ारी रहा। कानपुर, पटना, बनारस, दिल्ली 10अगस्त को जहाँ संभव हुआ वहाँ हड़ताल ,जुलूस और जन-प्रदर्शनों का तांता लग गया । सरकार ने प्रेस पर ताले मार दिए। "नेशनल हेराल्ड" और "हरिजन" को तो पूरे आंदोलन की अवधि तक बंद कर दिया। शेष को कुछ दिनों के बाद प्रसारण की इज़ाज़त दे दी गई।
जो स्थानीय नेता गिरफ़्तारी से बच गए वे भूमिगत होकर देश के विभिन्न हिस्सों में आंदोलन के सूत्र पकड़े रहे। लेकिन अधिकांश ज़गह नेताविहीन और संगठन विहीन जनता ने जिस तरीक़े से ठीक समझा अपने को अभिव्यक्त किया।अगस्त के मध्य के बाद छात्र और राजनीतिक कार्यकर्ता गाँव पहुँचने लगे और वहाँ के किसानों को गोलबंद करना शुरू किया। किसानों से कहा गया था जो ज़मींदार आंदोलन का साथ नहीं दे उसे कर अदायगी बंद करो। छात्र और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने नारा देना शुरू किया, "थाने को जला डालो, स्टेशन को फूंक डालो, और " अंग्रेज़ भाग गया "! इन नारों का असर हुआ । स्कूलों , कालेजों के छात्र सड़क पर उतर आए और किसानों एवं मज़दूरों से मिलकर थाना, रेलवे स्टेशनों , डाकघरों तथा सरकारी दफ़तरों पर हमले शुरू कर दिए। दमन का दौर चलता तो जनता और हिंसक हो जाती। जनता का हिंसक रूप थाने जलाने, स्टेशनों को फूंकने, टेलिग्राफ के तारों को तोड़ने तथा रेल पटरियों को उखाड़ फेंकने तक सीमित नहीं थी । अंग्रेज़ी शासन के हर प्रतीकों पर तिरंगा फहराने का भी ज़ुनून सवार था।
लगभग 205 पुलिस चौकियाँ, 332 रेलवे स्टेशन और 664 पोस्ट आफ़िसेज को ध्वस्त कर दिया गया। ।सबसे ज़्यादा प्रतिक्रिया बिहार और पूर्वी युनाइटेड प्रॉविंस-यू पी में देखी गई जहाँ आंदोलन बग़ावत के स्तर पर पहुँच गया था । पटना में 11अगस्त को सचिवालय पर झंडा फहराने में सात छात्रों को गोली से उड़ा दिया गया। दो दिनों तक पटना में कोई नियंत्रण नहीं रहा। तिरहुत कमिश्नरी दो हफ़्ते तक पूरे देश से कटा रहा । उत्तर और मध्य बिहार के 80 फ़ीसदी( 72) पुलिस स्टेशन अस्थायी रूप से ही सही बाग़ियों को क़ब्जे में आ गए। यूरोपीयनों पर शारीरिक हमले की भी घटनाएं सामने आ गयीं । फतुहा में रॉयल एयर फोर्स के दो अधिकारियों को भीड़ ने मार डाला । बेगूसराय में मेघौल, दौलतपुर, बछवाड़ा,मंझौल तेघड़ा, मटिहानी में आंदोलन उग्र रूप ले लिया जब अंग्रेज़ निल्हे ज़मींदारों की कोठियों पर तिरंगा फहराया गया और रेल, थाने तथा डाकघरों पर हमले हुए। बदले में शहादतें हुईं और सामूहिक ज़ुर्माने भरने पड़े।पसराहा और रुहिया (खगड़िया, तब मुंगेर) मे क्रमशः 18 एवं ,30 अगस्त को जब रॉयल एयरफोर्स का विमान क्रैश हुआ तो उसके दो यूरोपीयन क्र्यु मेंबर को ग्रामीणों ने मार डाला। प्रतिरोध का प्रमुख केंद्र गया, शाहाबाद, पूर्णिया, चंपारण, मुज़फ़्फ़रपुर, सारण और भागलपुर था। वहीं , उत्तर प्रदेश में आज़मगढ़, बलिया और गोरखपुर में आंदोलन उरोज पर था
दक्षिण में कर्नाटक जो तब मैसूर था में अकेले तार काटने की 1600 घटनाएं दर्ज़ हुईं । आंध्र में गुंटूर विजयवाड़ा रेलवे लाइन की पटरियां हफ़्तों उखड़ी पड़ी रह गईं।
देश में कुल 664 बम विस्फोट की घटनाएं हुई । इनमें अधिकतर बंबई में हुई। सबसे अधिक 447 बम बंबई में फटे और सबसे कम 80बिहार में। मतलब , बिहार में जनता की भागीदारी सर्वाधिक रही जबकि बंबई में उग्र हिंसक हमले अधिक थे। आंदोलन का सामना करते हुए 63 पुलिस कर्मी भी मारे गए। 216 पुलिसकर्मी आंदोलनकारियों से जा मिले । बिहार के प्रसिद्ध समाजवादी नेता रामानंद तिवारी का नाम स्वर्णाक्षर में लिखा गया है। उनकी प्रेरणा से देश में सबसे अधिक 205 पुलिस कर्मी बिहार के थे जो आंदोलन में शामिल हो गए। पुलिस मेन्स एसोसिएशन इसी आंदोलन की मूल प्रेरणा का मूर्त रूप है। Shivanand Tivary , पूर्व सांसद व मंत्री, उन्हीं स्वातंत्र्य वीर रामानंद तिवारी के पुत्र हैं।
दिल्ली में हिंसा हड़ताली मिल मज़दूरों के कारण हुई। बंबई के बाद जमशेदपुर, अहमदाबाद में मज़दूरों ने व्यापक भागीदारी दिखाई। जमशेदपुर में टाटा इस्पात कारखाने में 20अगस्त से 13 दिनों की हड़ताल हो गयी और अहमदाबाद के कपड़ा मिलों मे तीन महीने तक हड़ताल चलती रही।अख़बारों ने और एक राष्ट्रवादी इतिहासकार ने इन दोनों शहरों को "स्तालिनग्राद" नाम दे दिया। स्तालिनग्राद की लड़ाई उस समय सबसे लोकप्रिय थी जहाँ पहली बार हिटलर को हार का स्वाद चखना पड़ा था। इसलिए मज़दूरों और सरकारी मशीनरी के बीच जारी जंग से आज़िज़ आकर दोनों शहर को ही स्तालिनग्राद कह दिया था।कोलकता मे 10 से17 अगस्त तक हड़तालें ज़ारी रहीं। लखनऊ और नागपुर, कोयंबटूर, गुंटूर विजयवाड़ा, बैंगलोर में भी टकराव और हड़ताल की ख़बरें थी। मैसूर दक्षिण का सबसे प्रभावित राज्य था।
आंदोलन के प्रथम चरण में शहरी लोगों का बोलबाला अधिक रहा लेकिन अगस्त के मध्य के बाद पटना, कटक, बनारस से जुझारू छात्र गाँवों में फैल गए। आंदोलन गाँव में पसर गया।
इसके अतिरिक्त , अमानवीय दमन से कमजोर पड़ा आंदोलन सितम्बर में सबसे लंबे लेकिन सबसे कम उग्र रूप में प्रवेश किया। यह वह दौर था जब कई सामानांतर सरकारें क़ायम हुईं। मिदनापुर के तामलुक, बंबई प्रेसीडेंसी मे सतारा उड़ीसा मे तलचर में राष्ट्रीय सरकारें क़ायम की गईं। छापामार कार्रवाईयाँ भी शुरू हुई ख़ासकर भूमिगत सोशलिस्ट नेताओं की प्रेरणा से। अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया, अरुणा आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी, बीजू पटनायक, आर पी गोयनका, छोटू पटनायक और बाद में जेल से भागकर आए जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन चलता रहा। उषा मेहता ने बंबई में कांग्रेस रेडियो की स्थापना की जिससे राममनोहर लोहिया अक्सर भाषण देते थे।यह भूमिगत आंदोलन बंबई प्रेसीडेंसी, मद्रास प्रेसीडेंसी और बिहार, यूपी दिल्ली में भी कायम था। सतारा, हज़ारीबाग़,कोरापुट, तलचर आदि जगहों पर आदिवासी समुदाय ने बड़ी भागीदारी दिखाई। कटक में रक्तवाहिनी और मिदनापुर में विद्युत वाहिनी नामक संगठन सक्रिय था।
दमन का दौर 1857 की याद दिला गया जैसे आंदोलन की उग्रता और सघनता देख लिन्लिथगो को भी 1857 की याद आ गयी थी।
निशस्त्र भीड़ पर पुलिस और सेना ने मिलकर ५३८ अवसरों पर गोलियां चलायीं। वायुयानों को नीचे उड़ाकर मशीनगनों से गोलियां दागी जातीं थीं। ग्रामीणों से 90 लाख सामूहिक जुर्माने से लूट और डकैती की तरह पैसे उगाहे गए। संदेह होने पर या प्रतिशोध में गाँव के गाँव जला दिए गए। 1942 के अंत तक 60,000 लोगों को हिरासत में लिया गया, 26,000 लोगों को सज़ा सुनाई गई, और 18,000 लोगों को भारत रक्षा क़ानून के तहत जेल में डाल दिया गया । दमन इतना भीषण था कि यह मार्शल लॉ से कम नहीं कहा जा सकता। गिरफ्तार लोगों में आधे से अधिक बंबई, यूपी और बिहार से थे।
मतंगिनी हाजरा और लक्ष्मण नायक समेत
लगभग 1060 लोग पुलिस या सेना की गोली से मारे गए। आज़मगढ़ के कलक्टर ने लिखा कि "आगलगाउु पुलिस दस्ते" को मीलों तक गाँवों में आग लगाने का काम सौंपा गया था। वहाँ का कलक्टर निबलेट आजमगढ़ में "सरकारी उन्मादी दौरों" की बात करता है जहाँ "प्रतिशोध की भावना" ही क़ानून" थी ! 1857 के प्रतिशोध से ही इसकी तुलना की जा सकती है। सार्वजनिक कोड़े लगाना तो आम बात थी। गुदा मार्ग से डंडे पेलने जैसी यंत्रणा भी दी जाती थी। लिनिलिथिगो ने 15 अगस्त को पटना के आसपास आसमान से मशीनगनों से गोलियां बरसाने का आदेश दिया था। तलचर में भी वायुयान से हमले कर आंदोलन को दबाया गया। लिनिलिथिगो ने ख़ुद कुबूल किया कि 1857 के बाद पहली बार ब्रिटिश सत्ता को इतनी बड़ी चुनौती से गुजरना पड़ा।
भगवान प्रसाद सिन्हा
© Bhagwan Prasad Sinha
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