Sunday, 22 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (11)

“हिन्दू धर्म का खुल कर मज़ाक़ उड़ाया जाता। जूनियर लड़के सीनियरों से यही सीखते थे। जहाँ शिक्षक प्रार्थना में कोई मंत्र पढ़ने कहते, वे जोर-जोर से ग्रीक काव्य इलियड का पाठ करने लगते, और सामूहिक रूप से अपनी जनेऊ तोड़ कर फेंक डालते।”
- हरमोहन चटर्जी और प्यारे मोहन मित्रा (हिन्दू कॉलेज के छात्र जीवन संबंध में) 

कुछ शब्दों की फौरी चर्चा करता हूँ। अंग्रेज़ों ने जब कलकत्ता में स्वयं को स्थापित करना शुरू किया, तो उनके पास भारत पर शासन करने के दो रास्ते थे। पहला तरीका तो यह था कि वे भारतीय संस्कृति को समझ लें और भारतीयों को अपने प्राकृतिक अवस्था में रहने दें ताकि राज करना सुलभ हो। पहले पचास वर्ष यही पद्धति अपनायी गयी। यह ‘ओरिएंटलिस्ट’ पद्धति कही गयी। 

इसके अनुसार योजना यह थी कि धर्मों को सुदृढ़ किया जाएगा। धार्मिक संहिताएँ, जाति-संरचना, और रीति-व्यवहार न सिर्फ़ कायम रखे जाएँगे, बल्कि मजबूत किए जाएँगे। हिन्दुओं और मुसलमानों को उनके ग्रंथ उनकी प्राचीन भाषा में पढ़ाए जाएँगे। उनकी सोच थी कि ऐसा करने से वे कभी अंग्रेज़ों का विरोध नहीं करेंगे। इस सोच को आज के परंपरावादी भारतीयों का समर्थन मिल सकता है कि वे बड़े उदारवादी अंग्रेज़ थे, जो धर्म का आदर करते थे। कुछ यह भी कह सकते हैं कि वे भारत-प्रेमी थे, जो रामायण और महाभारत का अनुवाद कर रहे थे। औपनिवेशिक इतिहास से गुजरते हुए ‘भारत प्रेमी अंग्रेज़ शासक’ तो एक मिथक लगता है। 

वे उन रोमन शासकों की तरह थे जो जनता को तमाशे में लगा कर राज करते रहे। वे उनके वैज्ञानिक विकास को रोक रहे थे, और उन्हें कर्मकाण्डों में उलझा रहे थे। वे स्वयं बाइबल की आदम-कथाओं से आगे बढ़ कर यंत्र-युग में आ चुके थे, और यहाँ कॉलेज में पढ़ा रहे थे कि बाइबल का ‘स्केपगोट’ अश्वमेध की बलि के समकक्ष है। मुमकिन है वे बलि-प्रथा भी खूब ताम-झाम से शुरू कर देते। 

दूसरा तरीका मैक्यावली के कथन से प्रेरित था- ‘अगर कोई किसी राज्य पर विजय पाकर उसे पूर्णतया नष्ट नहीं करता, तो वह स्वयं नष्ट होने को तैयार रहे’। 

इस तरह के लोग आंग्लवादी (ऐंग्लिसियन) कहलाए। इनका उद्देश्य था भारतीय संस्कृति को एक निम्न संस्कृति सिद्ध कर, उन्हें अंग्रेज़ बनाना। उनके मन में धर्म और लोक-व्यवहार के प्रति घृणा डालना। आशीष नंदी के शब्दों में कहें तो एक ‘इंटिमेट एनिमी’ (अंतरंग शत्रु) बनाना। जब व्यक्ति अपनी पहचान से ही नफ़रत करने लगे। 

एक उदाहरण देता हूँ। बंगाल रिनैशां की पहली चिनगारी कहे जाने वाले व्यक्ति मात्र तेइस वर्ष में चल बसे। 

हेनरी डेरोज़ियो (1809-31) एक पुर्तगाली मूल के भारतीय थे, जिनके दादा कभी यूरोप से कलकत्ता आए थे। उन्होंने मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में भागलपुर में गंगा किनारे बैठ संभवत: भारत की पहली अंग्रेज़ी कविता लिखी। उसके बाद वह कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज के अंग्रेज़ी शिक्षक बन गए।

वहाँ उन्हें भद्रलोक परिवारों के युवा बंगाली मिले, जिनके साथ वह क्रिकेट का खेल खेलते, और अपनी वाक्पटुता से उन्हें आकर्षित करते। भारतीय होकर भी उनका रंग गोरा था, नीली आँखें थी, बीच मांग से बाल फेरते थे जो बाद में बंगाली फैशन बन गया। वह छात्रों के मध्य वाद-विवाद आयोजित करते, जिसमें धर्म और राजनीति पर तथ्यों के साथ भिड़ंत होती।

उनकी देशभक्ति कविता छात्र जोर-जोर से अंग्रेज़ी में पाठ करते

“मेरे देश! जिसके स्वर्णिम इतिहास में,
कभी ललाट पर था प्रभामंडल,
जो पूज्य था महादेव सदृश,
कहाँ है अब वह गौरव, वह सम्मान?”

उनके बंगाली शिष्य मानते कि हमारी रूढ़ संस्कृति ने ही देश को ग़ुलाम बना दिया। आज के प्रगतिवादी युवाओं की तरह उनके लिए ‘हमें चाहिए आज़ादी’ का अर्थ धर्म से आज़ादी था। डेरोजियो की अल्पायु मृत्यु के बाद ये लड़के ‘डेरोजियन्स’ कहलाए। 

राधानाथ सिकदर सामूहिक रूप से गोमांस खाते, और यह मानते कि देश के लिए लड़ने के लिए यह खाना ज़रूरी है। गांजा पर तो डेरोजियो की लिखी कविता थी, जिसमें इतिहास में पहली बार हिंग्लिश का प्रयोग हुआ-

“Without thy dreams, dear opium,
Without a single hope I am,
Spicy scent, delusive joy,
Chillum hither lao, my boy!”

कृष्णमोहन बनर्जी, रसिक कृष्ण मलिक, और रामगोपाल घोष गांजा पीकर हिन्दू कॉलेज के पत्थर पर खड़े होकर कहते, “तोड़ दो ये मूर्तियाँ, छोड़ दो यह धर्म, छोड़ दो यह रूढ़िवाद!” 

यह ‘बंगाल युवा आंदोलन’ (यंग बंगाल) एक छोटी सी चिनगारी थी जो अपरिपक्व और कुछ भटकी हुई थी। लेकिन, आज प्रगतिवाद के झंडाबरदारों को सनद रहे कि वे जो कर रहे हैं, दो सौ वर्ष पहले हो चुका है। 

डेरोजियन्स की सबसे बड़ी कमी यह थी, कि वे  शहरी युवक, वे जनेऊ फेंकते गोमांस खाते युवक, वे धर्म पर व्यंग्य करते युवक, कभी देश की नब्ज को नहीं छू सके। उनकी पहचान हिन्दू कॉलेज के कैम्पस तक सिमट कर रह गयी। वे भूल गए थे कि भारत गाँवों में बसता है, लोक-भाषा बोलता है, खेती-बाड़ी करता है और उनका धर्म ग्रंथों से अधिक उनकी आस्था से जुड़ा है। वे रूढ़ से अधिक संवेदनशील हैं। खैर, उनसे न ओरिएंटलिस्ट जुड़ पाए, न आंग्लवादी, न डेरोजियन्स। 

जब हिन्दू कॉलेज में ये युवक अपने रंग में थे, उसी वक्त एक ईश्वरचंद बंदोपाध्याय नामक किशोर वहीं पड़ोस में संस्कृत कॉलेज में प्रवेश ले रहा था। एक कॉलेज में धोती वाले पंडित पढ़ते, दूसरे में पैंट वाले बाबू। एक तरफ़ प्राच्यविद, दूसरी तरफ़ आंग्लवादी। दोनों कॉलेजों के मध्य एक लोहे की मोटी रेलिंग हुआ करती। यह रेलिंग जैसे ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच पहली प्रतीकात्मक दीवार थी। 
(क्रमश:) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/10.html 
#vss

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