Wednesday 18 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (7)

कलकत्ता, 1816

“राम मोहन! जब तक यहाँ के लोग विज्ञान में रुचि नहीं लेंगे, तुम्हारे तर्क बेमानी हैं। यही बात पश्चिम पर भी लागू है।”, डेविड हेयर ने कहा

“हमारा विज्ञान समृद्ध था, मगर हम न जाने कब आडंबरों में उलझ गए और तर्क को किनारे रख दिया।”

“क्यों न हम एक कॉलेज की शुरुआत करें। हिन्दू अगर विज्ञान पढ़ेंगे, तो वह अवश्य तुम्हारी बात समझेंगे।”

“हिन्दू कॉलेज? विचार तो अच्छा है। मैं साथ देने को तैयार हूँ।”

“तुम्हारा नाम मैं सामने नहीं रख सकता। तुमसे तुम्हारे धर्म के लोग पहले ही नाराज़ हैं। मैं हिन्दू धर्म सभा की मदद ले रहा हूँ।”

“यह तो और भी अच्छा है। मेरा नाम भले न रहे, पर मैं पूरा सहयोग दूँगा।”

यह बातचीत एक स्कॉटिश घड़ी-निर्माता और राम मोहन राय के मध्य थी, जिसने भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव रखी। हिन्दू कॉलेज ही बाद में प्रेसीडेंसी कॉलेज नाम से मशहूर हुआ।

राम मोहन जाति और धर्म से लगभग बहिष्कृत ही रहे, मगर वह कभी ध्रुपद गीत, तो कभी गद्य, तो कभी वेदान्त पर पुस्तक लिख रहे होते। उनके कुछ लेख छद्म-नाम से भी हैं, जिनमें कुछ ईसाई की आलोचना हैं जो उस समय सत्ता में थे, और कुछ हिन्दू रीतियों की, जो उनका समाज था। यह बात और थी कि सभी जानते थे, यह लिखने वाला एक ही व्यक्ति हो सकता है।

सती-प्रथा पर सदियों पहले से प्रश्न उठ रहे थे। राजा हर्षवर्धन का ही संदर्भ है कि उन्होंने अपनी बहन को सती होने से रोका था। यह कई समाजों और क्षेत्रों से धीरे-धीरे लुप्त भी हो चुका था। यह मसला अंग्रेजों ने बंगाल में उछाला जब ‘कानूनी सती’ जैसे शब्द लाए, जिसके अनुसार स्वेच्छा से सती होना कानून के दायरे में उचित था। इस मुद्दे पर राम मोहन राय सहमत नहीं थे।

उस समय बंगाल में बहुपत्नी विवाह तो प्रचलित था ही, पति की मृत्यु के बाद विधवाओं को घर से निकाल दिया जाता। उनके सौतेले पुत्र उनकी देख-भाल नहीं करते। ऐसे में वह आत्महत्या या सती होने का चयन करना पसंद करती। कुछ समूह बना कर वृंदावन की ओर निकल जाती। राम मोहन राय ने विधवा स्त्रियों को पति की संपत्ति में अधिकार देने की भी बात कही। उन्होंने यह शास्त्रों के माध्यम से कहा कि स्त्रियों का स्थान हमारी संस्कृति में सर्वोपरि है, और उन्हें यह आर्थिक सुरक्षा मिलनी ही चाहिए।

अंग्रेज़ ऐसे किसी कानून के लिए तैयार नहीं थे। राम मोहन राय दस वर्ष तक गुहार लगाते रहे, मगर कुछ नहीं हुआ। उनके आखिरी वर्षों में जब लॉर्ड बैंटिक गवर्नर जनरल बन कर आए, तब जाकर 1829 में सती प्रथा के ख़िलाफ़ कानून बना।

उसी समय उन्होंने कलकत्ता में एकेश्वरवादी ब्रह्म समाज की स्थापना की, और इंग्लैंड के सफ़र पर निकले। वह एक असंभव दिवा-स्वप्न देख रहे थे कि पूरी दुनिया के भिन्न-भिन्न धर्मों के एकेश्वरवाद मिल जाएँगे और सभी एक ही ईश्वर मानने लगेंगे।

अब मैं पहली बार उनके नाम के साथ ‘राजा’ का उपयोग करता हूँ, जो अधिक लोकप्रिय है। भले ही, वह स्वयं इसका उपयोग बहुत कम कर सके। 

जब वह इंग्लैंड जा रहे थे, तो मुग़ल शासक अकबर द्वितीय ने उनसे कहा, “आपको आज मैं राजा नाम से नवाज़ता हूँ। मेरी सिर्फ़ एक गुज़ारिश है कि आप एक अर्ज़ी अंग्रेज़ हुकूमत तक पहुँचा दें। महाराजा विलियम से कह कर हमारी पेंशन बढ़वा दें।”

पेंशन का तो पता नहीं, इंग्लैंड से ‘राजा’ राम मोहन राय कभी नहीं लौट सके। वहीं ब्रिस्टॉल में उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें ईसाइयों से अलग दफ़नाया गया क्योंकि वह अपनी जनेऊ त्यागने को तैयार न थे। अगर वह भारत में मरते, तो शायद उन्हें हिन्दू श्मशान भी नसीब न होता। 

एक ऐसे ईसाई, जो ईसाई नहीं। एक ऐसे हिन्दू, जो हिन्दू नहीं। एक ऐसे राजा, जो कभी राज नहीं कर सके। एक ऐसे शिक्षाविद, जिनका नाम उस कॉलेज में ही दर्ज नहीं, जिसकी उन्होंने स्थापना की। अब भले ही उन्हें कोई ‘भारत के पहले उदारवादी’ नाम से पुस्तक लिखता है, तो कोई उन्हें ‘बंगाल रिनैशां का पितामह’ कहता है; उस वक्त उनको चाहने वाले गिने-चुने लोग थे। 

खैर, भारत तो किसी न किसी दिशा में बढ़ ही रहा था। उस वक्त ड्राइवर अंग्रेज़ थे। उनकी मर्ज़ी वह जिधर ले जाते। 

जिस समय राजा राम मोहन राय की मृत्यु हुई, उसी समय एक अंग्रेज़ लाट साहेब भारत जाने की तैयारी कर रहे थे। उनके बाद भारत की शिक्षा अगली कई पीढ़ियों के लिए बदलने वाली थी। उनका नाम था- थॉमस बैबिंग्टन मकाले। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (6) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/6_17.html 
#vss

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