यदि ईश्वर ने इस जन्म में संगीत दिया है तो एक बार संगीतकार को यह रहस्यमयी बात जरूर पढ़नी चहिये।
काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनन्द कानन एवं महाश्मशान- आधुनिक बनारस के ये 5 प्राचीन नाम- इसकी 5 भिन्न विशेषताओं को रेखांकित करते हैं। डा. काणे ने हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में लिखा है कि काशी रोम, येरुशेलम और मक्का से भी प्राचीन तथा पवित्र है। सिस्टर निवेदिता ने इसे वैटिकन सिटी से हजार गुना पवित्र लिखा है। संगीतेश्वर महादेव का क्रीड़ांगन होने के कारण यह स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी कि बनारस और संगीत का संबंध अनन्य, अभिन्न और अटूट है। तभी तो इसे न केवल भारत की सांस्कृतिक और सांगीतिक राजधानी, बल्कि इसे संगीत की जननी भी कहा गया है। बौद्ध ग्रंथों में बनारस के सांगीतिक महत्व का उल्लेख बार-बार हुआ है। गुत्तिल जातक कथा के अनुसार भी संगीत विद्या का एक प्रमुख केंद्र बनारस था। यहां वीणा वादन की प्रतियोगिताएं होती थीं। बौद्ध कालीन संगीतकारों गुत्तिल और मुसिल के बीच संगीत प्रतियोगिता यहीं हुई थी। बनारस संगीत की समस्त विधाओं का प्रमुख केंद्र रहा है। यह एकमात्र ऐसा शहर है जहां गायन, वादन और नर्तन-तीनों विधाओं की धाराएं पनपी और विकसित हुई….. उनके घराने बनें।वैदिक साहित्य में काशी का उल्लेख इसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में इसका उल्लेख हुआ है। गोपथ ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, वृहदारण्यक उपनिषद एवं पातंजल महाभाष्य में भी काशी नगरी की चर्चा है। चीनी यात्री फहियान भी बनारस आए थे। ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में जैन तीर्थंकर पार्श्वदेव का जन्म यहीं हुआ था। चौथी शताब्दी में काशी को जनपद और वाराणसी को उसकी राजधानी कहा जाता था। मशूहर शायर ग़ालिब ने भी काशी की प्रशंसा में 108 शेर लिखे थे। धरती से अलग शंकर के त्रिशूल पर बसे इस नगर ने ही सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को तब आश्रय दिया था जब उन्होंने स्वप्न में मुनि विश्वामित्र को सारी धरती दान कर दी थी।
काशी शिव की नगरी है…. और शिव संगीतेश्वर हैं….. गायन, वादन और नर्तन की अनेक धाराएं उन्हीं से सर्जित हुई हैं। इसलिए यह संगीत का भी प्रधान केंद्र रहा। किंतु संगीत के कलाकारों, इतिहासकारों ने बनारस के सांगीतिक महत्व को शुरु से ही अनदेखा किया है।
पिछले दिनों बनारस घराने के प्रतिष्ठित गायक द्वय पद्मभूषण पं. राजन मिश्र और पद्मभूषण पं. साजन मिश्र से उनके दिल्ली स्थित निवास पर यूं ही अनौपचारिक बातचीत के दौरान यह चर्चा निकल पड़ी कि बनारस घरानें को दूसरे घरानों द्वारा मान्यता नहीं दी जाती है… और नहीं दी जाती है तो क्यों नहीं दी जाती है? और जब बात निकल पड़ी तो दूर तलक गई।
प्रश्न का जवाब सर्वप्रथम पं. राजन मिश्र ने दिया- ‘ठीक ही तो है। बनारस घराना है भी नहीं…. यह तो घरानों का उद्गम स्थल है। घरानों का इतिहास तो बस तीन चार सौ साल पुराना है, जबकि बनारस में अनादिकाल से संगीत चला आ रहा है।’
और फिर बनारस के कालजयी महान कलाकारों की चर्चा चल पड़ी। पं. साजन मिश्र बोले- ‘यहीं…. जहां अभी आप बैठे हैं, वहीं पं. सामता प्रसाद गुदई महाराजजी बैठे थे। उन्होंने आते ही कहा कि- मुझे पता चला है कि आपलोगों के पास पं. अनोखेलाल जी की रिकार्डिंग है। मैं बस उसे सुनने के लिए आया हूं।- और, फिर अनोखेलालजी का तबला सुनते हुए वे रोने लगे थे। बाद में वे पं. अनोखेलालजी से जुड़ी कई घटनाएं याद कर-करके हमलोगों को बताते रहे। उन्होंने बताया था कि अनोखेलाल जी देखने में बहुत दुबले-पतले थे। लेकिन, उनके कंधे इतने मजबूत थे कि हमलोग उनके कंधे पर झूल जाते थे, लटक जाते थे, किंतु उनका कंधा झुकता नहीं था। बज्र की तरह मजबूत थे उनके कंधे।’
पं. साजन मिश्र ने पं. सामता प्रसाद के हवाले से बताया कि मुंबई के रंगभूमि में सात दिनों का एक समारोह हुआ था और सातो दिन एक-एक वरिष्ठ तबला वादक का स्वतंत्र वादन भी हुआ था। संयोग से पं. अनोखेलालजी की ट्रेन छूट जाने के कारण वे अपने एकलवादन के दिन नहीं पहुंच पाए। अंतिम दिन उन्हें उस्ताद विलायत खान के साथ बजाना था। तब तक वे आ भी गए थे। सबके अनुरोध करने पर आयोजकों ने उन्हें 15 मिनट का समय मुक्त तबला वादन के लिए दिया। अनोखेलालजी जब बजाने बैठे तो बोले कि इन सात दिनों में इतना तबला, इतने बोल बज चुके हैं कि मेरे बजाने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। इसलिए शुरुआती कायदा धा धा ते टे धा धा तू ना, ता ता ते ते धा धा तू ना- बजाने जा रहा हूं- जिसे बच्चा-बच्चा बजाता है लेकिन यहां किसी ने नहीं बजाया। उसके बाद जब उन्होंने इस कायदे को बजाना शुरु किया तो लोगों की आंखे फटी रह गईं। यह कायदा इस लय में इस तरह से भी बज सकता है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। और, हम सब अचम्भित थे। सात दिनों में सात वरिष्ठ तबला वादकों का तबला बज चुका था। लेकिन, उस 15 मिनट के तबला के आगे सात दिनों में बजे सात वरिष्ठ तबला वादकों का तबला लोग भूल गए थे। स्वयं वे तबला वादक भी अपना तबला भूलकर पं. अनोखेलालजी के तबले का अमृत रसपान करने लगे थे। चारो ओर की दरोदीवार से धाधा तेटे धाधा तूना की गूंज आती हुई मालूम हो रही थी।’पं. सामता प्रसादजी ने आगे बताया था’- पं. साजन जी बोले- ‘एक कार्यक्रम जयपुर में था। हम सबलोग गए हुए थे। लेकिन, जो भी कलाकार आता-पूछता कि कौन-कौन से तबला वादक हैं, और ज्योंही अनोखेलाल जी का नाम सुनते, कहते- मेरे साथ उन्हें ही दे दो। हालत यह हो गई कि हम जैसे कई तबला वादक दो दिनों तक खाली बैठे रहे और पं. अनोखेलालजी एक के बाद एक सारे कार्यक्रमों में बजाते रहे। जब दो दिनों तक हमलोगों की यही हालत रही तो तीसरे दिन मैं अनोखेलालजी के पास पहुंच गया और बोला कि- भैया, अब आप यहां से चले जाइए। क्योंकि, जब तक आप यहां रहेंगे हम लोगों को कोई प्रोग्राम नहीं मिलेगा। और, हमलोग भूखों मर जाएंगे। और….. अनोखेलालजी सचमुच चले गए।’ साजन जी बोले- ‘यह साधारण बात नहीं है कि मुत्यु के 56-57 वर्ष बाद भी….. आज भी अनोखेलालजी को इतने आदर से याद किया जाता है। उनके वादन की चर्चा छिड़ते ही कभी आंखों में आंसू आ जाते हैं तो कभी मन रोमांचित हो जाता है। ऐसे अद्वितीय तबला वादक थे पं. अनोखेलाल जी।’पं.सामता प्रसाद उर्फ गुदई महाराज पर चर्चा की डोर अपने हाथों में लेते हुए पं. राजनजी बोले- ‘जबकि पं. सामता प्रसाद गुदई महाराजजी स्वयं जादुई तबला बजाते थे। उनके अपने तबले ने भी तबले का नया इतिहास रचा है। आज तो यांत्रिक तकनीक बहुत ज्यादा विकसित हो गया है। लेकिन आज के 80 वर्ष पहले तो यह यांत्रिक क्रान्ति नहीं आई थी। बावजूद इसके आहूजा के उसी साधारण माईक्रोफोन के सहारे उन्होंने ध्वनि का जो सम्मोहक मायाजाल रचा था, उसका तोड़ तो आज 80 वर्ष बाद भी सारी तकनीकी करामातों के बावजूद आज के युवा तबला वादक नहीं ढूंढ़ पाए हैं। उन्होंने 80 वर्ष पहले जब अपने बाएं का मुंह घुमाकर बजाना शुरु किया तो हिन्दुस्तान के आधे से अधिक तबला वादकों ने अपने बाएं का मुंह घुमा दिया, लेकिन तबले के उनके प्रभाव का अंश मात्र भी अपने तबले में नहीं ला पाए। ऐसे महान् तबला वादक थे पं. सामता प्रसादजी। डायनेमिक कलाकार….. डायनेमिक तबला…….. ।
वार्ता को आगे बढ़ाते हुए पं. राजन मिश्र बोले- ‘उस्ताद अलाउद्दीन खां के सर्वाधिक प्रिय तबला वादक थे पं. कंठे महाराजजी। उस समय इन दोनों कलाकारों की जोड़ी बहुत लोकप्रिय भी थी। एक बार उ. अहमद जान थिरकवा सहित कई अन्य लोगों के भी अत्याधिक दबाव पर उ. अलाउद्दीन खां साहब ने पंडित कंठे महाराज के साथ-साथ उ. अहमद जान थिरकवा को भी अपनी संगत के लिए बैठा लिया। अब थिरकवा खां साहब चूंकि अत्यधिक उत्साह में थे, अतः वे ही लगातार बजाए जा रहे थे, और पं. कंठे महाराज सज्जनता वश मुस्कुराते हुए उनकी प्रशंसा करते जा रहे थे। जब, काफी देर तक ऐसा ही चलता रहा तो उसी कार्यक्रम में उपस्थित पं. सामता प्रसाद जी सरोद के स्वर में अपना तबला मिलाकर मंच पर जा पहुंचे और थिरकवा खान से बोले- ‘खान साहब पहले मेरे साथ बजा लीजिए, फिर मेरे अग्रज पं. कंठे महाराज के साथ बजाइएगा। उनकी सौम्यता, शालीनता और सज्जनता को उनकी कमजोरी मत मानिए। यह उनका बड़प्पन है। फिर बड़ी मुश्किल से पं. कंठे महाराज जी ने ही पं. सामता प्रसाद को समझा बुझाकर शान्त किया। पं. सामता प्रसाद जी के निधन की सूचना जब हमलोगों को मिली तब हमलोग कार्यक्रम के सिलसिले में अमेरिका में थे। उसी कार्यक्रम में उ. विलायत खां साहब भी गए हुए थे। हमलोग साथ ही थे जब पं. सामता प्रसादजी के निधन की सूचना आई। उ. विलायत खान की आंखों में आंसू आ गए थे। वे बोले कि ऐसा तबला नहीं सुना। उनका तबला उनके साथ ही मर गया। जब मुलायम बजाते थे तो ऐसा लगता था जैसे ख्वाबों की दुनिया में सैर कर रहे हैं और जब जोरदारी से बजाते थे तो उनके तबले की आवाज के आगे सारी आवाजें दब जाती थी। फिर तो सिर्फ उनका तबला ही तबला सुनाई पड़ता था।’
‘इसी तरह बनारस में एक और तबला वादक हुए- पं. रंगनाथ मिश्र। दुर्भाग्यवश उनके विषय में अधिक लोग नहीं जान पाए। वे जिंदगी भर तबले की एक नई भाषा गढ़ते रहे…. उन्होंने तबले को एक नई जुबान देने का महत्वपूर्ण कार्य किया। भातखंडे हिंदुस्तान संगीत महाविद्यालय-लखनऊ से जब उ. अहमद जान थिरकवा साहब रिटायर हुए तो उस पद पर पं. रंगनाथ मिश्र की ही नियुक्ति हुई थी। लेकिन, नियुक्ति के पहले लोकसेवा आयोग के तहत साक्षात्कार हुआ था जिसमें विषय विशेषज्ञ के रुप में स्वयं थिरकवा साहब उपस्थित थे। थिरकवा साहब भी बनारस को तबले का घराना नहीं मानते थे, जबकि रंगनाथ जी बनारस घराने के ही तबला वादक थे। जब बाज (वादन शैली) पर चर्चा छिड़ी और बंद तथा खुले बाज पर आई तो रंगनाथजी ने कहा कि तबले का एकमात्र शुद्ध घराना बनारस है। थिरकवा साहब ने जब बंद बाज की विशेषताओं पर बोलना शुरु किया तो रंगनाथजी ने उन्हें यह कहकर रोक दिया कि चूंकि तबले में स्याही लगती है, इसलिए यह खुला साज है। और चूंकि यह खुला साज है इसलिए इस पर बंद बाज बजाना ही उचित नहीं है। रंगनाथजी ने यह भी कहा कि ढ़ोलक, नाल, दुक्कड़ आदि बंद बाज के साज हैं। और, तबला तथा पखावज स्याही युक्त होने के कारण खुले बाज के साज। रंगनाथजी ने दावा किया कि बंद बाज के ताबलिक जिन-जिन बोलों को बजाते हैं उन सभी बोलों को नाल, ढ़ोलक या दुक्कड़ पर बजाया जा सकता है लेकिन खुले बाज के बोलों को इन साजों पर नहीं बजाया जा सकता है। और बंद बाज वाले ताबलिक स्याही से परहेज करने के कारण अधिकांशतः ढ़ोलक, दुक्कड़ और नाल आदि के बोलों को ही प्रकारांतर से बजाते हैं। उ. अहमद जान थिरकवा उनकी इस बात से बहुत नाराज हुए थे, तथापि चयन पं. रंगनाथ मिश्र का ही हुआ, और वे इस पद पर 24 वर्षों तक रहे। तबला विषय पर इस ढ़ंग से सोचने वाले और कितने लोग हैं? और कहां हैं?’-बातचीत इन विचारों के साथ आगे बढ़ती जा रही थी।
‘उ. रईस खान अपने समय के बड़े टेढ़े सितार वादक माने जाते थे। अपने साथी कलाकारों, संगतकारों को अपमानित करने में जैसे उन्हें आनंद आता था। लखनऊ के भातखंडे जयंती में पं. रंगनाथ मिश्र उनके साथ बजाने बैठे। पूरे कार्यक्रम में रंगनाथ जी उ. रईस खान पर हावी थे। अंत में उ. रईस खान ने अति द्रुत लय में झाला बजाना शुरु कर दिया। रंगनाथ जी का खड़ी अंगुली का नाधिंधिंना बहुत मशहूर था। उ. रईस खां बोले कि भाई रंगनाथजी, मुझे आप से खड़ी अंगुली का नाधिंधिंना सुनना है। रंगनाथ जी ने जब नाधिंधिंना बजाना शुरु किया तो पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उसके बाद रंगनाथजी तो खड़ी अंगुली का नाधिंधिंना बजाते रहे और रईस खान अत्यन्त धीमी लय में आलाप करते रहे। रंगनाथजी कुछ देर तक तो बजाते रहे, लेकिन बाद में रईस खान को टोकते हुए बोले- रईस! अगर खड़ी अंगुली का नाधिंधिंना सुनने का इतना ही शौक है तो इसी लय में झाला भी बजाओ और झाले में चारो स्ट्रोक बराबर सुनाई देने चाहिए जैसे मेरा नाधिंधिंना सुनाई दे रहा है। उन्होंने यह कहकर नाधिंधिंना की गति और बढ़ा दी। उसके बाद रईस खान ने जल्दी ही तिहाई लेकर कार्यक्रम समाप्त कर दिया।’ पं. साजनजी को रुकते देखकर पं. राजनजी बोले- ’रंगनाथजी जब धिरधिर किटितक बजाते थे तो ऐसा लगता था जैसे हजारों कबूतर एक साथ उड़ गए हों।’राजनजी ही बात को आगे बढ़ाते हुए बोले- ‘पं. दरगाही मिश्र ने बनारस के बांस फाटक इलाके में पं. भातखंडे जी से संगीत के गूढ़ रहस्यों पर शास्त्रार्थ करके जब उन्हें निरुत्तर कर दिया था तो उन्हें संगीत नायक की उपाधि मिली थी। 1906 में उत्तर प्रदेश का पहला संगीत विद्यालय काशी संगीत समाज की स्थापना उन्होंने प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद की सहायता से की थी, जिसके वे संस्थापक प्राचार्य भी थे। लेकिन, इन तथ्यों की इतिहासकारों ने एक तरह से उपेक्षा कर दी।वार्ताकार- ‘पं. दरगाही मिश्र जी के विषय में एक बार विदुषी गिरिजा देवी ने बताया था कि कोलकाता के एक संगीत समारोह में वे लगभग साढ़े तीन चार घंटे तक जब सितार पर सोहनी राग बजाकर उठे तो उसके बाद उ. इमदाद खां ने सितार बजाने से मना कर दिया था।’
पं. साजन मिश्र- ‘उ. विलायत खान कहते थे कि मेरे अब्बा मुझसे कहते थे कि जब बनारस के कलाकार तुम्हारी तारीफ कर दें तब- समझना कि थोड़ा बहुत कुछ हासिल कर पाए हो।’ साजन मिश्र वार्ता की दिशा इतिहास की ओर मोड़ते हुए कहते हैं- ’ अनेक वैदिक और प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में काशी को सर्वाधिक प्राचीन नगरी कहकर संबोधित किया गया है, इसे उन्नत, विकसित और सांस्कृतिक नगरी भी लिखा गया है। आजकल के घरानों का अस्तित्व तो अधिक से अधिक तीन चार सौ साल पुराना है, जबकि, काशी में तो बौद्धकाल में भी संगीत की गंगा बह रही थी….।’
पं. राजन मिश्र बोले- ‘यह एकमात्र ऐसा शहर है जहां गायन, वादन और नृत्य तीनों के घराने बने, लोकप्रिय हुए और लोगों के दिलों पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल हुए…. और विस्तार देखिए…. छंद-प्रबंध ध्रुपद, धमार, ,खयाल, गुलनक्श, टप्पा, ठुमरी, दादरा, तराना, कजरी, चैती, होली तक को यहां के गायक सफलतापूर्वक गाते हैं। जबकि, आज के कई खयाल गायकों को तो खयाल भरने तक की तमीज नहीं है। एक मुखड़ा से दूसरे मुखड़ा तक बंदिश को भरा कैसे जाना चाहिए- इसकी तक समझ नहीं है। लेकिन, सामाजिक प्रचार तंत्र (सोशल मीडिया) के माध्यम से अपना खुद का प्रचार-प्रसार करके अपनी दुकान चलाते रहते हैं। बनारस में पं. श्रीचंद्र मिश्र एक गायक थे- ऐसे लोगों को उनसे सीखना चाहिए था। गिरिजा देवी उन्हीं की शिष्या थीं। अब चूंकि, आज पं. बडे़ रामदासजी जीवित नहीं हैं, पं. श्रीचंद्र मिश्र नहीं हैं, पं. हरिशंकर मिश्र और पं. महादेव मिश्र नहीं हैं, इसलिए हमलोगों के पीठ पीछे भले ही कोई कुछ कह ले….. लेकिन…. हमलोगों के मुंह पर बनारस घराने को नकारने की बात कोई नहीं कर सकता है। अब भारत के चारो कोनों में लोग बनारस घरानें की खयाल गायकी को मानने लगे हैं, स्वीकारने लगे हैं, सराहने और सीखने भी लगे हैं। देश-विदेश के कितने ही लोग हमलोगों से बनारस घरानें की गायकी को पूरी गंभीरता और संजीदगी के साथ सीख रहें हैं।’फिर जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गई हो, उस अंदाज में बोले- ‘अभी पिछले दिनों बनारस के युवा तबला वादक संजू सहाय अपने तबला वादन से यहां तहलका मचाकर गए हैं। मेरे बगल में उ. हशमत अली खान बैठे हुए थे। उनका कहना था कि बाल्टी-बाल्टी भर पसीना इसने बहाया है, तब ऐसा तबला बजा रहा है। बोलों में क्या सफाई और स्पष्टता थी! गत-फर्द, टुकड़े उस जगह पर बज रहे थे कि दूसरा आदमी सोच तक नहीं सकता।’ साजन मिश्र बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं- ‘अभी पिछले दिनों किसी के नाम के साथ सारंगी सम्राट सुना। मेरे पास कुछ रिकार्डिंग हैं। उन्हें 20 मानकर कोई 19 भी बजा दे तो एक लाख रुपये का इनाम मैं अपनी ओर से देने को तैयार हूं। ध्यान, दीजिए मैं उस रिकार्डिंग के स्तर के बराबर बजाने को नहीं कह रहा हूं….. उससे थोड़ा कम बजा दे तो भी मैं उन्हें इनाम दे दूंगा।’
वार्ताकार- ’आपलोगों की बातों से मन में दो प्रश्न किसी सर्प की तरह फण उठा रहें हैं? एक तो यह कि क्या बनारस के संगीतकारों को जान बूझकर किसी योजना की तहत अनदेखा किया गया? नकारा गया? और, दूसरा यह कि क्या कारण था कि बनारस घरानें के अनेक संगीतकारों को बनारस के बाहर के लोगों ने जाना ही नहीं ? निश्चित तौर पर कुछ कमी तो बनारस की ओर से भी रही ही होगी?’
पं. साजन मिश्र- ‘यह सच है कि बनारस के संगीतकारों को जान बूझकर अनदेखा किया गया, नकारा गया। यह समाज का नियम है ही कि जो अपने से श्रेष्ठ है, उसे अपने समाज में मत शामिल करो, लोगों की नजरों से दूर रखो नहीं तो अपनी पूछ कम हो जाएगी, अपना मान घट जाएगा, अपनी दुकान बंद हो जाएगी। उदाहरण के लिए, प्रो. रंगनाथ मिश्र ने जिस तरह से उ. अहमदजान थिरकवा को या उ. रईस खां को उत्तर दे दिया, उसके बाद यह तो स्पष्ट ही है कि न तो थिरकवा खान साहब कभी भी, कहीं भी उनकी प्रशंसा करते और न तो उ. रईस खान अपनी संगत के लिए सहर्ष लेंते। यही हुआ भी। भातखंडेजी के छोटे-बडेे़ हर काम पर विस्तार से अनेक पुस्तकों में प्रकाश डाला गया है, लेकिन, बनारस में उनकी संगीत नीति को, उनके विचारों को पं. दरगाही मिश्र ने जिस प्रकार चुनौती दी थी, और उनके साथ शास्त्रार्थ किया था, इस घटना का जिक्र कहीं नहीं हुआ। इसका अर्थ स्पष्ट है कि संगीत का इतिहास ईमानदारी से नहीं लिखा गया।’
पं. राजन मिश्र- ‘बनारस के संगीतकारों को बनारस के बाहर बहुत अधिक ख्याति न मिलने के भी दो कारण थे। एक तो यह कि ये लोग थोड़े में ही संतुष्ट हो जाते थे। बहुत अधिक की चाह नहीं थी, इसलिए बहुत ज्यादा हाय-तौबा नहीं किया। अपने घर-परिवार में ही मस्त रहे। दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि ये सभी कलाकार ब्राह्मण वर्ग के थे। अगर इन्हें कभी घर से बाहर जाना पड़ता था तो ये अपना भोजन आदि स्वयं बनाते थे। होटल वगैरह में खानें पीने से इन्हें परहेज होता था। इसलिए भी ये लोग अपने दायरे में ही सिमटे रह गए। जिन लोगों ने इस दायरे को तोड़ा उन्हें बनारस के बाहर भी ख्याति मिली।
बीरेंद्र कुमार सिंह Kumar Virendra की फेसबुक टाइमलाइन से।
( विजय शंकर सिंह )
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