Sunday, 29 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (18)

अंग्रेज़ी किताबों में स्वामी विवेकानंद को एक हिंदू मिशनरी और उनकी सहयोगी भगिनी निवेदिता को हिंदू नन भी लिखते हैं। शायद इसलिए कि वे (और उनकी संस्था) ख़ास भेष-भूषा में एक आश्रम के तहत देश-विदेश में घूम-घूम कर न सिर्फ़ धर्म का प्रचार करते रहे बल्कि कालांतर में 140 देशों में हज़ारों ईसाई या अन्य धर्मावलम्बियों को जोड़ा भी। उनकी संस्था का नाम रामकृष्ण मिशन है, तो मिशनरी कहना शाब्दिक रूप से भी ग़लत नहीं। आज के यूरोप में ऐसी सनातन सभाएँ हैं, जिसमें योग करते, वैदिक रीति से जीवन जीते, शिखा रखते, और संस्कृत के मंत्र पढ़ते यूरोपीय मिलेंगे। लेकिन, वे भारत के हिंदुओं के सनातन धर्म का अंग नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार अधिकांश भारतीय सनातन जीवन शैली नहीं जीते, न ही उन्हें वेदों का ज्ञान है।

राम मोहन राय के विषय में मैंने लिखा कि उनका स्वप्न था कि पूरी दुनिया का एक ही धर्म, एक ही ईश्वर हो, तो कोई समस्या नहीं होगी। एक विश्वव्यापी, सार्वभौमिक धर्म जिसमें सभी मान्यताओं के कुछ गुण हों। धर्म तो बना नहीं, एक ब्रह्म समाज नामक छोटा संप्रदाय अवश्य बन गया। यही स्थिति गुरु नानक के साथ भी हुई थी, जब वह एकेश्वरवादी जाति-मुक्त धर्म की बात कर रहे थे जिसमें सनातन और इस्लामी गुणों का मिश्रण हो। वहाँ भी एक सिख संप्रदाय का निर्माण हो गया।

रिनैशाँ में धार्मिक पुनर्जागरण अलग-अलग स्थानों में हो रहा था। विवेकानंद से पहले पंजाब और उत्तर भारत में एक दयानंद सरस्वती नामक व्यक्ति अपनी प्रखर तर्कपूर्ण शैली में संवाद कर रहे थे। उनका मानना था कि भारत की ग़ुलामी की वजह इसका जातियों और संप्रदायों में बँटा होना है, और नैतिक पतन की वजह वेदान्त सिद्धांतों से भटकना है। वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बुरी असफलता के बाद उभरे थे, तो उनके इस तर्क में दम भी लग रहा था कि ‘वेदों की ओर लौटना’ ही अंतिम रास्ता है।

उनकी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के मुख्य बिंदुओं से गुजरते हुए मैं अपनी बात रखता हूँ।

वैदिक काल की जीवन-शैली और ग्रंथों (जो उस समय ऑडियो यानी श्रुति परंपरा से थे) को देखा जाए, तो वह काफ़ी हद तक एकरूप है। उनमें वर्णित देवी-देवता भी सार्वभौमिक हैं, और लगभग सभी सभ्यताओं में रहे हैं। जैसे वर्षा के देवता इंद्र, समुद्र के देवता वरुण, अग्निदेव, यमदेव आदि। ये प्रकृति के देव हैं, और इनकी अलग से मूर्ति-पूजा या मंदिरों में घंटा बजाने के बजाय, यज्ञ-शैली रही। ईश्वर का सिद्धांत तो है ही, लेकिन ईश्वर की आराधना का सूत्र आडंबरी धर्मस्थलों से गुजरता था या एकांत में योग-साधना से या अपने कर्मों से, यह मूल विषय है।

धीरे-धीरे वैदिक देवों की आराधना घटने लगी। अश्विनीकुमार या इंद्र की पूजाओं से अलग अब सीधे ईश्वर की आराधना होने लगी। उनके रूप-व्याख्या से संप्रदाय भी बँटने लगे, और उनके विवाद भी होने लगे। शैव एकेश्वरवाद से लेकर वैष्णव एकेश्वरवाद तक आए, और उनमें आपसी सहिष्णुता भी घटने लगी। बुद्ध, महावीर और चार्वाक के विचार भी आए। इस तरह भारत में यह विविधता बढ़ती चली गयी, जिसे अब गौरव की तरह देखा जाता है। लेकिन, उस समय दयानंद सरस्वती जैसे विचारक इसे एक कमजोरी मानते थे। उनका मानना था कि इन जैन, बुद्ध, सिख और यहाँ तक कि भारतीय मुसलमानों को वैदिक परंपरा में ‘घरवापसी’ करनी चाहिए, तभी ब्रिटिशों से लड़ पाएँगे।

मैं यहाँ उन तमाम संप्रदायों और धर्मग्रंथों पर उनकी टिप्पणियाँ नहीं लिखूँगा, क्योंकि वह पुस्तक न सिर्फ़ अन्य मान्यताओं बल्कि अब भारत के हिन्दू समाज के लिए भी उत्तेजक बन सकती है। लेकिन, सत्यार्थ प्रकाश के अंतिम समुल्लासों (अध्यायों) में सभी की समालोचना की गयी है, और वैदिक जीवन-शैली और सिद्धांतों को ही सर्वोपरि माना गया। उन्होंने हिन्दू शब्द के बजाय सनातन के उपयोग पर बल दिया, क्योंकि हिन्दू शब्द फ़ारसी मूल का और विदेशियों द्वारा प्रयोग किया शब्द है। जातियों पर उनकी टिप्पणी थी कि वर्ण कर्मों से ही निर्धारित हों, कुल से नहीं। शूद्र की संतान भी ब्राह्मण और ब्राह्मण की संतान शूद्र हो सकती है। अर्थात् एक शूद्र भी वेदाध्ययन कर सके, और एक चतुर्वेदी भी अगर वेदज्ञ नहीं तो उससे उसकी पदवी छीन ली जाए। मूर्ति-पूजा और मंदिरों के लिए धन-संग्रह को उन्होंने बहुधा आडंबरी कहा, और जीवन-शैली में सुधार पर अधिक बल दिया।

इतिहासकार दयानंद सरस्वती के राष्ट्रवाद को गांधी और सावरकर, दोनों पर प्रभाव डालने की बात लिखते हैं, जो अपने-आप में एक द्वंद्व है। लेकिन, यह बात बिंदुवार सिद्ध भी की जा सकती है कि उनके अपनी शैलियों से धार्मिक-नैतिक पुनर्जागरण से राष्ट्रवाद को जोड़ने में साम्य है। 

अब स्वामी विवेकानंद के भाषण को दुबारा पढ़ कर देखिए कि दोनों में क्या अंतर था। दयानंद सरस्वती न सिर्फ़ अन्य धर्मों बल्कि भारत की पूरी स्थापना की आलोचना कर रहे थे। ज़ाहिर है उनसे सिख, जैन, ईसाई और मुसलमान ही नहीं, बल्कि भारत की उच्च जातियाँ भी कुपित थी (आज भी होंगी)। अंत में तो उनकी येन-केन-प्रकारेण हत्या ही हो गयी। वह भारत को आमूल-चूल बदल कर एक सनातन धर्म में तब्दील करना चाहते थे।

वहीं विवेकानंद सभी धर्मों से सहिष्णुता और सभी मार्गों से ईश्वर-प्राप्ति की बात करते हैं। दोनों में महीन अंतर है। विवेकानंद अपने धर्म को इसी गुण के कारण श्रेष्ठ कहते हैं कि उन्हें अन्य धर्म स्वीकार्य हैं। लेकिन, यह कहते हुए वह नेपथ्य में यह भी कह रहे हैं कि चूँकि ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ियाँ अलग-अलग है, अगर लिफ़्ट लेना चाहें तो हिंदू धर्म वाली पाँती में आ जाएँ। जहाँ दयानंद सरस्वती भारत के एक धर्म के पक्ष में थे, विवेकानंद पूरे विश्व के एक ‘यूनिवर्सल’ धर्म की इच्छा रखते थे।
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (17)
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Saturday, 28 August 2021

स्वाधीनता का सरकारी अमृत महोत्सव औऱ नेहरू का बहिष्कार / विजय शंकर सिंह

सरकार चाहती है कि, नेहरू और सावरकर बराबर चर्चा में बने रहें। लोग यह याद करते रहें कि नेहरू के ही सभापतित्व में पूर्ण आज़ादी का प्रस्ताव कांग्रेस ने 1930 में पारित किया था और  स्वाधीनता संग्राम में उनकी क्या भूमिका थी। लोग नेहरू की भूमिका को जानें। उनके योगदान का मूल्यांकन करें। उनकी खूबियों और खामियों पर भी चर्चा करें। नयी पीढ़ी देश के उंस गौरवशाली संघर्ष को याद करे जब क्रांतिकारी आंदोलन से लेकर आज़ाद हिंद फौज तक, आज़ादी की अलख जल रही थी तो, आरएसएस उंस समय उस महान संघर्ष से अलग, क्या कर रहा था। 

साथ ही लोग यह भी याद करते रहे कि, सावरकर ₹ 60 की मासिक पेंशन पर, अंगेजो की मुखबिरी कर के जिन्ना के हमख़याल बने रहे, और आज जब संघ के मानस पुत्रों की सरकार सत्ता में आयी है तो वे उसके अमृत महोत्सव के पोस्टर में 'आड मैन आउट' की तरह दिख रहे हैं। सावरकर की ज़िंदगी के इस पक्ष को बार बार याद करें। सावरकर माफी मांग कर जेल से बाहर आये। हो सकता है वे यातना सह नही पाए हों। हर व्यक्ति की यातना सहन करने की क्षमता अलग अलग होती है। पर अंग्रेजों की पेशन क्यों उन्होंने स्वीकार की और उनका स्वाभिमान तब कहाँ खो गया था, यह उनके मन और दिशा परिवर्तन का, एक जटिल पक्ष है, जिसपर, अध्ययन किया जा सकता है। इसे पढा जाना चाहिए। 

गांधी को केंद्र में रखना तो इनकी मजबूरी हैं। इन्होंने गांधी को मारा, हत्या की, पर गांधी की ही ताकत है कि, वह इनको बार बार, अपने सामने शीश नवाने को, मजबूरी में ही सही, बाध्य कर देते हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान, गांधी को यह रावण के रूप में देखते थे। आज भी हत्या के कारणों का निर्लज्जता के साथ समर्थन करते हैं। आज इस सरकारी पोस्टर में जिन महानुभावों के फोटो आप देख रहे हैं, उनमे से, अधिकांश, कभी रावण के दस शिर हुआ करते थे ! 

1925 से लेकर 1947 तक आरएसएस ने किसी भी स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं लिया है। न ही, अंग्रेजों के खिलाफ, अपना ही कोई आंदोलन छेड़ा। जिस हिंदुत्व की बात करते यह थकते नहीं है, उसी हिन्दू धर्म की कुरीतियों के खिलाफ इन्होंने कोई जागरूकता आंदोलन नही किया। गांधी के अस्पृश्यता विरोधी अभियान और अंबेडकर के दलितोत्थान से जुड़े कदमो से यह दूर ही बने रहे। इन सारे तथ्यों से यह अनजान नहीं है, और यही इनकी हीन भावना का एक बड़ा कारण है। अमृत महोत्सव के इस पावन वर्ष में आप सब स्वाधीनता संग्राम का इतिहास तो पढ़े ही, साथ ही सावरकर, डॉ मुखर्जी और संघ के नेताओ ने क्या कहा और लिखा है, उसे भी पढ़े।

© विजय शंकर सिंह )

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (17)


विश्व धर्म संसद, शिकागो, 11 सितंबर, 1893

“अमेरिका के बहनो और भाइयो! 

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूँ। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूँ। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था, और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। 

भाइयों! मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है। 

“रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।”

जिस तरह अलग अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है,

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।�मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

अर्थात, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधर्मिता से लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिंकजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कईं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। 

मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।”
- स्वामी विवेकानंद
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (16)
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Friday, 27 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (16)

“बंकिम! तुम्हारे नाम का अर्थ है ‘झुका हुआ’। तुम्हें किसने झुकाया?”

“अंग्रेज़ों के जूतों ने ही झुकाया होगा”

(रामकृष्ण परमहंस और बंकिमचंद्र चटर्जी के मध्य संवाद)

हम अक्सर ब्रिटिश इतिहास के किसी किरदार पर आरोप लगा देते हैं कि फलाना अंग्रेज़ों के साथी थे, फलाना एजेंट थे, फलाना उनके लिए काम करते थे। अमुक ने मुखबिरी की, अमुक ने माफ़ीनामा लिखा। सच तो यह है कि कमो-बेश सभी भारतीयों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष, ब्रिटिशों के लिए काम किया होगा, उनके स्कूल-कॉलेज में पढ़ा होगा, या लाटसाहबों का आदर किया होगा। ऐसा नहीं कि अंग्रेज़ देखते ही हमारे पुरखे ढेला लेकर मारते होंगे। अंग्रेज़ों ने सैन्य आक्रमण कर भारत पर कब्जा नहीं किया, बल्कि वे शातिरी से धीरे-धीरे भारत में (और भारतीयों में) घुस गए। शायद यही कारण है कि इंग्लैंड में रह रहे तमाम भारतीय आज यह योजना नहीं बनाते कि बकिंघम पैलेस उड़ा दिया जाए, बल्कि उस लूट से बने महल के सामने तस्वीर खिंचा कर गर्व महसूस करते हैं।

बंकिमचंद्र चटर्जी राष्ट्रवाद के मूर्त रूप माने जाते हैं। उनका लिखा ‘वन्दे मातरम्’ उन प्रथम गीतों के रूप में माना जाता है जब भारत-भूमि को एक माता रूप में चित्रित किया गया। लेकिन, यह भी सत्य है कि जब 1857 में भारत में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, वह ब्रिटिश राज के कलकत्ता विश्वविद्यालय में एडमिशन ले रहे थे। वह ब्रिटिश राज के पहले ग्रैजुएट हुए। उन्होंने आजीवन अंग्रेज़ों की ही नौकरी की। एक प्रकरण है जब राजा राममोहन राय की तरह ही उनको पालकी से उतार कर बेइज्जत किया गया, क्योंकि उनकी पालकी क्रिकेट मैदान से गुजर गयी थी। फिर भी उन्होंने नौकरी जारी रखी। वह डिप्टी कलक्टर बने। उनको अंग्रेज़ों ने इस कार्य के लिए न सिर्फ़ ‘रायबहादुर’ बल्कि ‘कमांडर ऑफ ऑर्डर’ से भी सम्मानित किया। 

इसके बावजूद बंकिमचंद्र चटर्जी का नाम बंगाल रिनैशां के पहले मुखर राष्ट्रवादियों में है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यार्थी उनसे प्रभावित थे। उनके जूनियर रहे सुरेंद्रनाथ बनर्जी, शिवनाथ शास्त्री और आनंद मोहन बोस ने मिल कर 1876 में भारत का पहला राष्ट्रवादी संगठन ‘इंडियन एसोसिएशन’ बनाया। ये भारतीयों की समस्या को ब्रिटिश सरकार के समक्ष उठाने लगे, और इन्हीं कोशिशों का बृहत रूप ‘इंडियन नैशनल कांग्रेस’ के रूप में आया। 

बंकिमचंद्र ने बंगाली राष्ट्रवाद जगाने के लिए बंगाली में लिखना आवश्यक माना। 

उन्होंने कहा, “हम कॉलेज से पढ़े लोग बंगाली में लिखना पसंद नहीं करते। हर लेखक अंग्रेज़ी से ही शुरुआत करता है, और बंगाली को दूसरा दर्जा देता है।”

उनका कथन माइकल मधुसूदन दत्त जैसों के लिए था। हालाँकि उन्होंने स्वयं भी शुरुआत अंग्रेज़ी उपन्यास ‘राजमोहन्स वाइफ़’ से ही की, लेकिन वह उपन्यास उन्होंने पत्रिकाओं के लिए शृंखला रूप में लिखा था। बंगाली में उनसे पहले दो ही उपन्यास लिखे गए थे। पहला उपन्यास हान्ना कैथरीन मुलेन्स ने लिखा था ‘फूलमणि ओ करुणार विवरण’ (1852), लेकिन ईसाई महिला होने के नाते उनका महत्व कमतर था। दूसरा उपन्यास प्यारे चंद्र मित्रा ने लिखा- ‘अलरेर घरेर दुलाल’ (1858)। 

बंकिमचंद्र का पहला उपन्यास ‘दुर्गेशनंदिनी’ (1865) कुछ इतिहासकार भारतीय भाषा का पहला उपन्यास मानते हैं। उन पर आरोप लगा कि यह वाल्टर स्कॉट की ‘इवानहो’ की नकल है, हालाँकि उन्होंने स्वयं कहा कि अमुक पुस्तक उन्होंने पढ़ी ही नहीं थी। 

जब उन्होंने ‘आनंदमठ’ (1882) लिखा, उस समय भारत के राष्ट्रवाद की कुछ कोपलें फूट रही थी। इस उपन्यास और ख़ास कर ‘वन्दे मातरम’ कविता ने जैसे इसमें जान फूँक दी। आनंदमठ में सिर्फ़ राष्ट्रवादी ही नहीं, बल्कि हिन्दू राष्ट्रवादी स्वर भी था। 

बंकिमचंद्र ने इसे मुखर होकर लिखा था, और बाद में धर्म पर अपने लेखों में उन्होंने स्पष्ट ही लिखा, “हिन्दू धर्म सकल धर्मेर मध्ये श्रेष्ठ धर्म।”

उस समय के भारत में उनके इन कथनों को राष्ट्रवादी चेतना के रूप में ही देखा गया, क्योंकि धर्म आधारित राष्ट्रवाद पहले इस कदर उभरा नहीं था। हालाँकि मुसलमान इससे खुश नहीं थे, और उसकी माकूल वजह भी थी। लेकिन यह भारतीयों के मध्य ‘हीनभावना’ को कुछ हद तक खत्म करने लगा। 

बंकिमचंद्र का यह कहना कि उनका धर्म, उनकी भूमि, उनकी संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है, यह ब्रिटिशों और ईसाई श्रेष्ठता पर एक चोट थी। मगर इस बात के तर्क क्या थे कि हिन्दू धर्म या कोई भी धर्म श्रेष्ठ है? इसका निर्णय कौन करेगा? हर व्यक्ति तो यही कहेगा कि उसी का धर्म श्रेष्ठ है। ऐसा कोई सम्मेलन हो, जिसमें सभी धर्म के लोग बैठ कर अपने विचार बाँटें तो संभवत: कुछ आदान-प्रदान हो। 

1893 में जब बंकिमचंद्र मृत्यु-शय्या पर थे, तो शिकागो में ऐसा ही एक सम्मेलन आयोजित हो रहा था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (15)
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Thursday, 26 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (15)

          ( रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज )

ब्रिटिश राज में पहले विश्वविद्यालय उस वक्त खुले, जिस समय स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था। 1857 में एक साथ कलकत्ता, बंबई और मद्रास में यूनिवर्सिटी बनाए गए। कलकत्ता में सबसे पहले। इसी क्रम में भारतीय रिनैशां भी आया। अगर वारेन हेस्टिंग्स मद्रास में ही रह जाते, कलकत्ता को केंद्र न बनाते, तो संभवत: मद्रास में पहले आता। मैं बंगालियों की नहीं, मद्रासियों की कथा कह रहा होता। हालाँकि अगली कथाएँ मद्रासियों की भी होगी, क्योंकि यह पुनर्जागरण उनके बिना पूर्ण होगा ही नहीं। दिल्ली और आगरा में यूनिवर्सिटी उस वक्त नहीं खुली। आखिर यह कोई मामूली वर्ष नहीं था। यह 1857 था! 

मैं स्वतंत्रता संग्राम की चर्चा यहाँ नहीं करूँगा, वह अलग ही धारा है। लेकिन, कुछ विडंबनाएँ तो धीरे-धीरे दिखेगी ही। खैर। 

महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में क्या अंतर है? हिन्दू कॉलेज, संस्कृत कॉलेज, बिशप कॉलेज, ला मार्टिनिएर आदि तो कलकत्ता में थे ही। फिर कलकत्ता यूनिवर्सिटी से आखिर क्या होता? अब तो हम जानते हैं कि लोग पढ़ते कॉलेज में हैं, डिग्री यूनिवर्सिटी देती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ऐसी एक इमारत या कैम्पस नहीं, जिसे पूरा विश्वविद्यालय कहा जा सके। नॉर्थ कैम्पस से साउथ कैम्पस जाने के लिए पूरे दिल्ली का ही चक्कर लगाना पड़ जाए। 

यह ब्रिटिश पद्धति है। ऑक्सफ़ोर्ड या कैम्ब्रिज रिटर्न का अर्थ यह न समझा जाए कि सब एक ही कॉलेज से पढ़ कर आए। वहाँ भी स्टीफेंस, वेंकी, हिंदू, सत्यवती कॉलेज हैं। अमरीकी विश्वविद्यालयों में कुछ अंतर है। वहाँ अमूमन एक भौगोलिक क्षेत्र में यूनिवर्सिटी मिल जाएँगे, भले उनके संकाय दूर-दूर हों। यह नहीं दिखता कि एक ही डिग्री, एक ही कोर्स एक ही यूनिवर्सिटी के बीस कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा हो। 

उस समय अंग्रेज़ों के विश्वविद्यालय का ध्येय शिक्षा को व्यवस्थित और स्थापित करना था, जिससे उनके अधिकारी, मुंशी, इंजिनियर, चिकित्सक, सैनिक, शिक्षक आदि तैयार हो सकें। 1854 में चार्ल्स वुड द्वारा लॉर्ड डलहौज़ी को लिखा पत्र भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का ‘मैग्ना कार्टा’ कहलाता है। उन्होंने लिखा,

“प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषा में ही दी जाए। हाइ स्कूल भारतीय और अंग्रेज़ी भाषा मिला कर। कॉलेज शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी हो।”

पहले से चल रहे निजी कॉलेजों को विश्वविद्यालय में शामिल कर लिया गया। जैसे हिन्दू कॉलेज का नामकरण प्रेसिडेंसी कॉलेज हो गया। संस्कृत कॉलेज और कलकत्ता मेडिकल कॉलेज भी जुड़ गये। अन्य जितने छोटे-बड़े कॉलेज चल रहे थे, वे अर्जी देने लगे कि उन्हें भी मिला लिया जाए। 

इंजीनियरिंग कॉलेज की शुरुआत कलकत्ता में नहीं हुई, बल्कि पहला कॉलेज संयुक्त प्रांत (अब उत्तराखंड) के शहर रुड़की में खुला। इसका आरंभिक उद्देश्य नहर और सिंचाई इंजीनियर तैयार करना था, जो थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग रूप में 1847 में स्थापित हुआ। अब यह आइआइटी रूप में है। 

उन दिनों विज्ञान की अलग से पढ़ाई नहीं होती थी। मेडिकल, इंजीनियरिंग और कानून से इतर सभी डिग्री BA और MA ही कहलाते थे। गणित, भौतिकी, रसायन आदि की शिक्षा दी जाती थी, लेकिन आर्ट्स संकाय में ही। जबकि असल आर्ट जैसे कला और संगीत की शुरुआत में कोई जगह नहीं थी।

यूनिवर्सिटी खुलते ही यहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी आकर पढ़ने लगे। चूँकि अब तीन स्तर की ब्रिटिश शिक्षा लागू थी, तो गाँव से पढ़ कर शहर के हाइ-स्कूल, और वहाँ से निकल कर कलकत्ता, बंबई, मद्रास। यह एक नियम बन गया। पहले पच्चीस वर्ष में कुल 1726 ग्रैजुएट तैयार हो गए।  यह भले कम नज़र आए, मगर उस वक्त ग्रैजुएट तो क्या मैट्रिक पास होना आसान न था। 

जब 1858 में पहली बीए परीक्षा हुई, तो दस परीक्षार्थी शामिल हुए। छह विषय थे। सभी के सभी फेल। दो विद्यार्थी ऐसे थे, जिन्होंने पाँच विषय पास किए थे, और छठे में सिर्फ़ छह अंक से फेल थे। उनको ‘ग्रेस मार्क्स’ से पास किया गया, और भारत के पहले दो ग्रैजुएट तैयार हुए। एक का नाम था जदू नाथ बोस।दूसरे का नाम था बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (14)
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राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का सराहनीय दृष्टिकोण / विजय शंकर सिंह

राजनीति के अपराधीकरण पर लंबे समय से बहस चल रही है। भारत निर्वाचन आयोग भी इस दिशा मे कुछ न कुछ करता रहता है। अब चुनाव के हलफनामे में प्रत्याशी को अपने खिलाफ दर्ज मुकदमो का विवरण देना अनिवार्य कर दिया गया है। पर अपराधीकरण के इस गम्भीर मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल, चर्चा तो करते हैं, चिंता भी व्यक्त करते हैं, पर जब चुनाव में प्रत्याशियों को टिकट देने की बात आती है तो यह मुद्दा 'युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है' के मंत्र से तय हो जाता है। इधर सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक शुचिता को ध्यान रखते हुए, कुछ बेहद अहम फैसले किये हैं, यदि उनपर गंभीरता से अमल कर लिया गया तो, कैंसर की तरह बढ़ती इस बीमारी पर अंकुश लग सकता है। सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों इस विषय पर एक लंबी सुनवाई चल रही है। यह सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट के एक एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर की जा रही है। यह याचिका, संसद और विधानमंडलों में दागी यानी आपराधिक इतिहास और मुकदमो में संलिप्त जनप्रतिनिधियों को न आने देने के संबंध में है। सुप्रीम कोर्ट में इन जनहित याचिका पर क्या हुआ है, या हो रहा है पर चर्चा करने के पहले एडीआर एसोशिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के कुछ आंकड़ो पर नज़र डालते हैं।

एडीआर, एक एनजीओ है जो राजनीति में अपराधीकरण के संबंध में सर्वेक्षण करके आंकड़े जुटाता और इन पर अध्ययन करता रहता है। यह संस्था 1999 में गठित की गयी है। नीचे दिए आंकड़े, एडीआर की वेबसाइट से लिये गए हैं। 

लोकसभा चुनाव 2019 में देश की जनता ने 542 सांसदों को चुनकर दिल्ली भेजा है। जिनमें से 353 सांसद एनडीए के हैं। इनमे से भाजपा के 303 लोकसभा सदस्य हैं। लेकिन यह एक दुःखद तथ्य है कि इनमे बड़े पैमाने पर, वे सांसद हैं, जिनपर आपराधिक धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं। हम अक्सर यह चर्चा करते हैं कि, राजनीति का अपराधीकरण न हो, और देश की संसद और विधानमंडलों में, साफ सुथरे पृष्ठभूमि के लोग चुने जांय। पर हर आम चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधि, न केवल, चुन के आ रहे हैं, बल्कि चुनाव दर चुनाव उनकी संख्या भी बढ़ती जा रही है। 

राजनीति में शुचिता की बात करने वाले राजनीतिक दलों ने भी जब चुनाव में, टिकट देने की बारी आयी तो, उन्होंने भी उन्हें ही प्राथमिकता दी, जिनपर या तो आपराधिक धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं या उनके खिलाफ आर्थिक घोटाले के आरोप लगे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में, चुनकर आए सांसदों में से 233 पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। इनमें से सबसे अधिक सांसद भाजपा के टिकट पर चुनकर संसद पहुंचे हैं। भाजपा के चुनकर आए, कुल 116 सांसदों पर, आईपीसी की विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज है और कांग्रेस के 29 सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। बंगाल में टीएमसी ने 22 लोकसभा की सीटें जीती थीं, इनमें से 9 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बसपा के 10 में से 5 सांसदों पर भी आपराधिक मामले चल रहे हैं। सपा के भी पांच सांसदों में से दो पर केस दर्ज हैं। जदयू ने इसबार बिहार में 16 सीटें जीती हैं और उसके 13 सांसदों पर केस दर्ज है। बाकी पार्टियों में भी दागी नेताओं की कमी नहीं है। साल दर साल इनकी संख्या बढ़ती ही गई है।
 
अब एक आंकड़ा देखिए। 
● 2009 के लोकसभा चुनाव में, 543 सांसदों में से 162 सांसद आपराधिक मुकदमे वाले यानी दागी सांसद है। यह प्रतिशत के हिसाब से, 30% होता है। 162 में 76 वे एमपी हैं, जिनपर गम्भीर धाराओं के केस दर्ज हैं। 
● 2014 में कुल 185 सांसद यानी 34% एमपी आपराधिक मुकदमो में मुल्जिम थे, जिंसमे से 112 पर तो, गम्भीर धाराएं लगी हैं।
● 2019 के लोकसभा चुनाव में दागी सांसदों की संख्या बढ़ी है। वर्तमान लोकसभा में, 233 दागी सांसद हैं, जिनका प्रतिशत 43% है और इनमे से 159 एमपी गम्भीर धाराओं में मुल्जिम हैं। 

अब एक नज़र उन जनप्रतिनिधियों के आपराधिक इतिहास पर जो मंत्री के पद पर जलवा अफरोज हैं। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार के नए मंत्रिमंडल में अधिकांश मंत्री दागी हैं। कईयों पर हत्या और हत्या के प्रयास जैसे गंंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। एडीआर ने, यह रिपोर्ट मंत्रियों के चुनावी हलफनामे के आधार पर तैयार की है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय मंत्रिमंडल के 78 मंत्रियों में से 42% पर आपराधिक केस दर्ज है। इनमे हत्या जैसे गंभीर अपराध भी शामिल हैं। 24 मंत्रियों, यानी 31% मंत्रियों पर गंभीर आपराधिक केस दर्ज है। देश के सबसे कम उम्र के नए गृह राज्यमंत्री निशीथ प्रमाणिक तो हत्या के अपराध, (302 आईपीसी) के आज भी मुल्जिम हैं। तीन अन्य मंत्री जिनमे, अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री जॉन बारला, वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी और विदेश व संसदीय कार्य राज्यमंत्री वी मुरलीधरन पर धारा 307 आईपीसी, हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज है। यहीं यह सवाल उठता है कि दागी सांसदों को मंत्री बनाने की क्या मजबूरी थी ? मंत्रिमंडल गठन, प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है, पर दागी ही क्यों मंत्री बनाये गए, यह एक लोकतांत्रिक सवाल है, जिसे सरकार से पूछा जाना चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर, जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए, 25 अगस्त को, एमिकस क्यूरी ने बताया कि,
" उत्तर प्रदेश सरकार ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित 77 आपराधिक मामलों को, बिना किसी कारण का उल्लेख किये, वापस ले लिया है।  इनमें से कुछ मामले तो, आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों से संबंधित हैं।"
यह जानकारी, कानून बनाने वाले जनप्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज क्रिमिनल मामलों के त्वरित निपटान से संबंधित याचिका की सुनवाई के दौरान दी गयी। यह सूचना, एमिकस क्यूरी वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने एक रिपोर्ट दाखिल कर के कहा है। उनकी रिपोर्ट में, कहा गया है कि, 
" 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के संबंध में 510 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे। इनमें से 175 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया गया, 165 मामलों में अंतिम रिपोर्ट पेश की गई, 170 मामलों को खारिज कर दिया गया।"
रिपोर्ट में आगे कहा गया है,
" इसके बाद राज्य सरकार द्वारा सीआरपीसी की धारा 321 के तहत 77 मामले वापस ले लिए गए। सरकारी आदेश (जीओ) में, सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मामले को वापस लेने का कोई कारण अंकित नहीं हैं।"
जाहिर है, जीओ केवल यह कहता है कि प्रशासन ने पूरी तरह से विचार करने के बाद विशेष मामले को वापस लेने का निर्णय लिया है। शासन द्वारा बहुधा प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द, 'विचारोपरांत' अक्सर गूढ़ और जटिल अर्थ समेटे रहता है, जो मुश्किल से ही डिकोड हो पाता है। 
"ऐसे कई मामले धारा 397 आईपीसी यानी डकैती के अपराधों से संबंधित हैं जिनमे आजीवन कारावास तक की सज़ा का प्राविधान है।" 

उन्होंने सुझाव दिया कि उत्तर प्रदेश के उक्त 77 मामलों को, जिन्हें अब वापस ले लिया गया हैं, की उच्च न्यायालय द्वारा सीआरपीसी की धारा 401 के तहत "पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार" का प्रयोग करके, दुबारा ट्रायल किया जा सकता है। केरल राज्य बनाम के अजित, मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी एक रूलिंग के आधार पर यह कानूनी उपचार विद्यमान है, जिसके आलोक में यह कार्यवाही की जा सकती है।"

उल्लेखनीय है कि, सुप्रीम कोर्ट ने 10 अगस्त 2021 को निर्देश दिया था कि, संबंधित राज्य के, उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना,  सांसदों और विधायकों के खिलाफ कोई मुकदमा वापस नहीं लिया जाएगा। हाल ही में केरल विधानसभा हंगामे के मामले (केरल राज्य बनाम के अजीत और  अन्य) में, बेंच ने एमिकस क्यूरी और वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया के इस अनुरोध के अनुसार निर्देश जारी किया था कि, 
" धारा 321 सीआरपीसी के तहत किसी भी अभियोजन को वापस लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।  उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना किसी संसद सदस्य या विधान सभा/परिषद के सदस्य (बैठे और पूर्व) के विरुद्ध कोई भी मुकदमा, सरकारें वापस नहीं ले सकती हैं।" 

सुप्रीम कोर्ट को ऐसा इसलिए करना पड़ा कि, सरकारें अपनी राजनीतिक प्रतिबध्दता और एजेंडे के अंतर्गत, अपने लोगो के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले, बिना यह सोचे कि, उनके मुकदमा वापसी के कदम का क्या असर, पुलिस और अन्य लॉ इंफोर्समेंट एजेंसियों पर पड़ेगा, मुकदमे वापस लेने लगीं हैं। धारा 321 एक अपवाद के रूप में सरकार को मुकदमा वापस लेने की शक्ति देता है, पर सरकारों ने इसे एक नियम बना लिया है। इसके व्यापक दुरुपयोग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को यह अंकुश लगाना पड़ा कि, बिना संबंधित हाईकोर्ट की अनुमति के सरकारें, दर्ज और विचाराधीन मुकदमो को वापस नहीं ले सकती हैं। यह समस्या केवल उत्तरप्रदेश की ही नहीं है, बल्कि अन्य प्रदेशों में भी है। एडवोकेट हंसारिया की रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि,
"उक्त प्रावधान के तहत तमिलनाडु में 4, तेलंगाना में 14 और केरल में 36 औऱ कर्नाटक सरकार ने भी बिना कोई कारण बताए 62 मामले वापस ले लिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि धारा 321 सीआरपीसी के तहत अभियोजन वापसी, जनहित में अनुमेय है और इस प्राविधान का प्रयोग, "राजनीतिक विचारों" के लिए नहीं किया जा सकता है।"

सरकार ने 25 अगस्त को इस विषय मे अपनी कुछ कठिनाइयों का उल्लेख किया और सुप्रीम कोर्ट से पुनर्विचार के लिये आग्रह किया। सरकार चाहती थी कि 'दुर्भावनापूर्ण अभियोजन' के मामलों मे उसे सुप्रीम कोर्ट यह अनुमति दे दे कि, सरकार दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के मामलों में, वह मुकदमा वापस ले सकती है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने 25 अगस्त को राज्य सरकारों को मौजूदा और पूर्व सांसदों/विधायकों के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के आधार पर आपराधिक मामले वापस लेने की अनुमति देने के प्रस्ताव से असहमति जताई है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के आधार पर मामलों को वापस लेने के लिए भी उच्च न्यायालय की मंजूरी की आवश्यकता अनिवार्य है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 
" यदि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन है तो, हम मामले वापस लेने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन अदालतों द्वारा इसकी जांच की जानी चाहिए। हम मामलों को वापस लेने का विरोध नहीं कर रहे हैं, लेकिन साथ ही, न्यायिक अधिकारियों द्वारा और उच्च न्यायालयों द्वारा इसकी जांच की जानी चाहिए। न्यायालय और यदि उच्च न्यायालय संतुष्ट हैं तो वे सरकार को वे तदनुसार अनुमति दे देंगे।"
यह कहना है, भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना का।

सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा, उसे पढ़े, 
" वह केवल "दुर्भावनापूर्ण अभियोजन" के आधार पर मामलों को वापस लेने की अनुमति नहीं दे सकता है क्योंकि राज्य सरकारें बिना किसी झिझक के ऐसा कर सकती हैं यदि वे मामलों को वापस लेना चाहती हैं तो। सरकारें जिन मुकदमो को वापस लेना चाहेंगी, उनके शासनादेश में वे बस यह जोड़ देंगी कि, यह मामला, दुर्भावनापूर्ण अभियोजन का है।" 
बेंच ने तब एमिकस क्यूरी से कहा, 
"आपने खुद कहा था कि सैकड़ों और हजारों मामले हैं जिन्हें वे वापस ले रहे हैं। आप चाहते हैं कि हम 'दुर्भावनापूर्ण अभियोजन' शब्द जोड़ने की अनुमति दे दें और यह उचित होगा ? यह तो, सरकार द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के किया जा सकता है यदि वे मामलों को वापस लेना चाहें तो वे, बस यह शब्द जोड़ दें कि, अमुक मामला दुर्भावनापूर्ण अभियोजन का है। ऐसा नहीं हो सकता, हम ऐसे वाक्यों की अनुमति नहीं दे सकते, जिनकी आड़ में, सीआरपीसी की धारा 321 की शक्ति का दुरुपयोग होने लगे। हम इस आधार पर भी, उन्हें मामले वापस लेने की अनुमति नहीं दे सकते हैं।"

एडवोकेट विजय हंसारिया ने कहा कि,
" जनहित में धारा 321 सीआरपीसी में, अभियोजन वापसी की अनुमति का प्राविधान है, लेकिन इसका आधार राजनीतिक नहीं हो सकता है। राजनीतिक और अन्य स्वार्थपूर्ण बाहरी कारणों से अभियोजन वापस लेने में राज्य द्वारा, इस प्रावधान के अंतर्गत प्रदत्त शक्ति के बार-बार दुरुपयोग की आशंका रहती है और जैसी की स्टेटस रिपोर्ट बता रही है, यह आशंका सत्य भी साबित हो रही है। 

धारा 321 सीआरपीसी के तहत शक्ति के प्रयोग के संबंध में निम्नलिखित सुझाव भी एमिकस क्यूरी द्वारा दिए गए, जो निम्नानुसार हैं, 
● उपयुक्त सरकार लोक अभियोजक को निर्देश तभी जारी कर सकती है, जब किसी मामले में सरकार इस निर्णय पर पहुंच जाय कि, अभियोजन दुर्भावना से प्रेरित होकर शुरू किया गया था और आरोपी पर मुकदमा चलाने का कोई आधार नहीं है।
● ऐसा आदेश संबंधित राज्य के गृह सचिव द्वारा प्रत्येक मामले के लिए, व्यक्तिगत रूप से, कारणों सहित, दर्ज किया जा सकता है।
● किसी भी श्रेणी के व्यक्तियों या किसी विशेष अवधि के दौरान किए गए अपराधों के अभियोजन को वापस लेने के लिए कोई सामान्य आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।
इस पर बेंच ने कहा, कि, 
"हमने उस सुझाव को देखा है, हम अभी सहमत होने की स्थिति में नहीं हैं।"  

अब उन मामलो की स्थिति देखें, जो लंबे समय से लंबित है। अधिवक्ता और एक अन्य एमिकस क्यूरी, स्नेहा कलिता के माध्यम से दायर की गई एक अन्य रिपोर्ट में विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र में सांसदों / विधायकों के खिलाफ मामलों की लंबित स्थिति के बारे में दर्ज की गई, स्टेटस रिपोर्ट भी शामिल है। विभिन्न राज्यों द्वारा प्रस्तुत स्टेटस रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए एमिकस क्यूरी ने अपनी रिपोर्ट में मुकदमे में तेजी लाने और मामलों के त्वरित निपटान के संबंध में सुझाव दिए हैं।

एमिकस क्यूरी और वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने, 24 अगस्त को, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। यह रिपोर्ट भारत सरकार की 9 अगस्त 2021 की एक स्टेटस रिपोर्ट पर आधारित है। इस स्टेटस रिपोर्ट पर,  भरोसा करते हुए, विजय हंसारिया ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि, 
"कुल 51 सांसद और 71 विधायक/एमएलसी मनी लॉन्ड्रिंग निवारण अधिनियम, 2002 के तहत विभिन्न अपराधों के उत्पन्न मामलों में आरोपी हैं। इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि "सांसदों के खिलाफ 19 मामले और विधायकों / एमएलसी के खिलाफ 24 मामले हैं, जिनकी सुनवाई में अत्यधिक देरी की जा रही है। इसके अलावा, विशेष अदालतों, सीबीआई के समक्ष लंबित 121 मामलों में से 58 मामले आजीवन कारावास के दंडनीय अपराधों के हैं। इनमे से 45 मामलों में आरोप तक तय नहीं किए गए हैं, हालांकि आरोपपत्र कई साल पहले सम्बंधित अदालतो में दाखिल कर दिए गए हैं।" 
इसी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने त्वरित सुनवाई करने का आदेश जारी किया। 

एमिकस क्यूरी ने ईडी और सीबीआई द्वारा जांचे गए मामलों के निपटारे के लिए सुझाव भी दिए हैं, जो इस प्रकार हैं,
1. जिन न्यायालयों के समक्ष विचारण लंबित हैं, उन्हें सीआरपीसी की धारा 309 के अनुसार सभी लंबित मामलों की दैनिक आधार पर सुनवाई में तेजी लाने का निर्देश दिया जा सकता है।
2. उच्च न्यायालयों को इस आशय का प्रशासनिक निर्देश जारी करने का निर्देश दिया जा सकता है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांच किए गए मामलों से निपटने वाले संबंधित न्यायालय प्राथमिकता के आधार पर सांसदों/विधायकों के समक्ष लंबित मामलों को निपताएंगे और अन्य मामलों को सुनवाई के बाद ही निपटाया जाएगा इन मामलों में खत्म हो गया है।
3. उच्च न्यायालयों से उन मामलों की सुनवाई करने का अनुरोध किया जा सकता है जहां अंतरिम आदेश एक समय सीमा के भीतर पारित किए गए हैं।
4. ऐसे मामले जहां प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई के समक्ष जांच लंबित है, जांच में देरी के कारणों का मूल्यांकन करने के लिए एक निगरानी समिति का गठन किया जा सकता है और जांच को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए संबंधित जांच अधिकारी को उचित निर्देश जारी किया जा सकता है।

अब अगर सुप्रीम कोर्ट में, इस जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान, सरकार के तर्क और बहस के विंदु को देखें तो यह साफ झलक रहा है कि, सरकार सुप्रीम कोर्ट की इस विंदु पर की जा रही सक्रियता से, असहज है। धारा 321 सीआरपीसी के अंतर्गत मुकदमो की वापसी पर वह कोई अंकुश सहन करने के लिये तैयार नहीं है। देश का हर कानून व्यापक जनहित के दृष्टिकोण और लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के प्रति प्रतिबद्ध है। यह धारा भी जनहित में मुकदमो की वापसी का अधिकार सरकार को देती है। पर जनहित के बजाय दलहित जब वरीयता पाने लगता है तो, ऐसी याचिकाएं दायर होती हैं और सुप्रीम कोर्ट को न्याय की मंशा के अनुरूप सक्रिय होना पड़ता है। सरकार दुर्भावनापूर्ण अभियोजन की आड़ में पतली गली के रूप में एक वैधानिक राह तलाश रही थी, पर सुप्रीम कोर्ट ने इस चालाकी को भांप लिया औऱ उसने यह शब्द जोड़ने से इनकार कर दिया। 

यहीं यह सवाल भी उठता है कि कौन तय करेगा कि यह अभियोजन दुर्भावनापूर्ण है ? यदि अभियोजन दुर्भावनापूर्ण है, तो पुलिस की तफ्तीश और चार्जशीट दोनो ही दुर्भावनापूर्ण हुए। फिर सवाल उठता है कि, पुलिस के विवेचक के विरुद्ध, दुर्भावनापूर्ण तफ्तीश और चार्जशीट लगाने के लिये क्या कोई कार्यवाही की गयी है या की जाएगी ? कुल मिलाकर इससे स्थिति और भी जटिल होती जाएगी। सरकार को यह याद रखना होगा कि वह तो खुद ही अभियोजन और एक पक्ष है, और सारे आपराधिक मुक़दमे राज्य बनाम ही चलते हैं। फिर राज्य अपने पक्ष को ही दुर्भावनापूर्ण कैसे कह सकता है ? यदि उसके पास अभियोजन को दुर्भावनापूर्ण कहने के आधार हैं तो वह सम्बंधित हाईकोर्ट में इसे रखे और उनकी अनुमति से धारा 321 सीआरपीसी के अंतर्गत कार्यवाही करें। अब सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से, राजनीति के अपराधीकरण पर कितना अंकुश लगेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा। 

© विजय शंकर सिंह 

Wednesday, 25 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (14)


अब तीन महिलाओं की कथा लिखता हूँ। उनमें भी माइकल मधुसूदन दत्त से ईश्वरचंद्र विद्यासागर के रूप मिल सकते हैं, लेकिन सनद रहे कि ये उन्नीसवीं सदी की भारतीय लड़कियाँ थी।

                       ( तरुदत्त )

पहली लड़की वह थी, जो मात्र इक्कीस वर्ष में चल बसी, और उन्हें जॉन कीट्स के समकक्ष कहा गया। मैंने उनकी विष्णु पुराण पर लिखी दो अंग्रेज़ी कविताएँ पढ़ी। यह नहीं कह सकता कि वह कीट्स के कितनी करीब थी, लेकिन इक्कीस वर्ष के जीवन में बहुत कुछ रचा भी और जिया भी। 

तरु दत्त (1856-77) बंगाल के उन संभ्रांत परिवारों में से थी, जो लाट साहेबों के साथ उठते-बैठते उनकी तरह ही बनने लगे। ईसाई धर्म स्वीकार लिया। जिस समय भारतीय पुरुष भी सात समंदर पार जाने से हिचकते, उस समय वह अपनी बहन के साथ पढ़ने के लिए फ़्रांस चली गयी। वह भारत की पहली महिला थी, जो अंग्रेज़ी और फ़्रेंच में कविताएँ लिख रही थी, और उनके फ़्रेंच से अनुवाद प्रकाशित हो रहे थे। 

वह लॉर्ड मकाले की कल्पित ऐसी जादुई गुड़िया थी, जो सिर्फ़ दिखने में भारतीय थी, और अपनी सोच में अंग्रेज़ महिलाओं से भी आगे! 

(नोट: अंग्रेज़ महिलाएँ भी शिक्षा में भारत से बहुत आगे नहीं थी। पहली ब्रिटिश महिला ग्रैजुएट 1879 में हुई, और भारत में कादम्बरी बोस 1883 में, जो बाद में चिकित्सक भी बनी) 

                      ( रस सुंदरी )

दूसरी कहानी तरु दत्त के ठीक विपरीत एक ग्रामीण, अनपढ़ और बाल-विवाहित महिला की है, जो पहली भारतीय महिला बनी जिनकी जीवनी प्रकाशित हुई, बेस्टसेलर बनी, और उसके दूरगामी प्रभाव हुए। रससुंदरी देवी (1801-99) की आत्मकथा ‘आमार जीवन’ का सारांश अपनी भाषा में लिखता हूँ, 

“मेरी नींद खुली तो मैं अजनबियों के मध्य एक नाव पर थी। मैं जोर-जोर से रोने लगी, और लोग मुझे खिलौने देकर चुप कराने लगे। मैंने अपने गहने देखे तो मुझे याद आया कि कल मेरा विवाह हो रहा था और ये अवश्य मेरे सासुरबाड़ी के लोग होंगे। मेरी माँ ने कहा था कि जब डर लगे तो कुलदेवता दयामाधव का स्मरण करना, तो मैं करने लगी। 

सासुरबाड़ी में मुझे एक और माँ मिली, जिन्होंने मुझे बहुत सारे खिलौने दिए। मेरी तीन ननद थी जो विधवा होकर बापेरबाड़ी आ गयी थी। वे मुझे बहुत दुलार करती। जब मैं कुछ बड़ी हुई तो मैं घर की कर्ता-ठाकुरानी बन गयी। मेरा काम बढ़ गया, लेकिन मुझे अच्छा लग रहा था। मेरे पति कोई बड़ा काम करते थे, उनकी बहुत इज्जत थी। उन्होंने मुझे नौ बेटे और दो बेटियाँ दी। मैं उनके पालन-पोषण में व्यस्त होती गयी। 

मेरे स्वप्न में एक दिन चैतन्य महाप्रभु आए और भागवत पढ़ने कहा। उस समय लड़कियों का पढ़ना वर्जित था। मगर मैं चैतन्य का कहना कैसे टालती? मैं छुप कर अपने बेटे का ताल-पत्र उठा लेती, जिस पर वह लिखने का रियाज़ करता था। मैं धीरे-धीरे अक्षर सीख गयी, और छुप कर पति के संग्रह से भागवत पढ़ने लगी। एक दिन मेरी ननद ने देख लिया, तो मैं डर गयी! 

मगर उन्होंने शिकायत करने के बजाय लिखना सिखाने को कहा, और मैंने सबको भागवत पढ़ाना शुरू कर दिया। हमें लगा जैसे हम किसी पिंजरे से आज़ाद हो गए। सरस्वती की कृपा से आज मैं यह पुस्तक लिख रही हूँ।”

1860 में ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयास से बाल-विवाह (दस वर्ष से कम) पर रोक लगी। हालाँकि इसका पालन ख़ास नहीं हुआ। तीसरी कथा ऐसी ही लड़की की है जो इस कानून के बाद भी बाल-विवाहित हुई। 

                        ( हेमावती )

हेमावती (1866-1933) का विवाह नौ वर्ष की अवस्था में एक शराबी और वेश्याओं को घर लाने वाले रईस व्यक्ति से हुई। अगले ही वर्ष वह विधवा हो गयी, और अपने पिता के घर लौट आयी। वहाँ वह भाइयों के साथ कुछ पढ़ने-लिखने लगी, और एक दिन बनारस के विधवाश्रम चली गयी। वहीं एक विद्यालय में शिक्षिका बनी। 

आगे पढ़ने की इच्छा से वह कलकत्ता लौटी, तो ब्रह्म समाज से जुड़ गयी। कलकत्ता में बिपिन चंद्र पाल (लाल-बाल-पाल में एक) ने उन्हें शरण दिया और आगे पढ़ने को प्रेरित किया। उन्होंने अपने एक संपन्न मित्र से विवाह भी करा दिया। हेमवती के पति कुंजबिहारी सेन ने उनका मेडिकल कॉलेज में एडमिशन कराया, उन्हें किताबें लाकर देते, परीक्षा दिलाते। वह कैम्पबेल मेडिकल कॉलेज में सिल्वर मेडल जीती और बाद में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की टॉपर रही! 

तरु, रससुंदरी, और हेमावती में एक को अवसर पालने से ही मिले, दूसरे ने अवसर बनाए, तीसरे ने हासिल किए। ऐसी स्त्रियाँ शायद आज के भारत में भी किसी न किसी रूप में हों? 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/13.html
#vss 

फ़ोटो 1.तरुदत्त  2.रससुन्दरी देवी  3.हेमावती

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (13)

बोला तब इंद्रजीत, 
“क्षत्र-कुल का तू है कलंक, 
तुझे धिक् है लक्ष्मण! 
नहीं है तुझे लज्जा किसी बात की
मूँद लेगा कान वीर-वृन्द घृणा करके,
सुन कर तेरा नाम
दुष्ट! इस गृह में चोर सा प्रविष्ट हुआ है तू
अभी दण्ड दे करता हूँ निरस्त हे नीच!”
- माइकल मधुसूदन दत्त (मेघनाध-वध काव्य में)

आज जब नव-प्रवासियों को देखता हूँ कि चार दिन विदेश में रह कर उनके रंग-ढंग मे ढल जाते हैं, तो सोचता हूँ कि उस वक्त तो अंग्रेज़ ही शासक थे। हर शहर में लाट साहब दिखते, हर कॉलेज में अंग्रेज़ शिक्षक, और गोरी अंग्रेज़ लड़कियाँ। क्या उस समय एक नवयुवक को उनकी संस्कृति से, उनके पहनावे, रहन-सहन, धर्म से आकर्षण न होता होगा? यह मोह न होता होगा कि उनके परिवेश में रह कर कुछ धन, कुछ यश पाया जाए? लंदन घूम कर आया जाए?

मधुसूदन पैदा अंग्रेज़ नहीं हुए थे, बल्कि एक संभ्रांत कायस्थ बंगाली परिवार में हुए। लेकिन, उनका मन अंग्रेज़ था। वह गाँव से उसी वक्त कलकत्ता पढ़ने आए, जब लॉर्ड मकाले अपना भाषण देकर गए थे। हिन्दू कॉलेज में उनके सीनियर अंग्रेज़ होते जा रहे थे। उनके गुरु डेविड रिचर्डसन एक लब्धप्रसिद्ध अंग्रेज़ी कवि थे। मधुसूदन  भी उनकी ही तरह बनना चाहते थे। लेकिन, उनके पिता को जब उनकी मंशा पता लगी तो गाँव में शादी तय कर दी। मधुसूदन ने इस विवाह से मुक्ति पाने के लिए और अपनी इच्छा से वह ईसाई बन गए! ज़ाहिर है, विवाह रद्द कर दिया गया। 

ईसाई बनते ही उन्हें ‘हिन्दू’ कॉलेज से भी निकाल दिया गया, और उन्होंने हुगली पार के बिशप कॉलेज में दाखिला लिया। उनके पिता मन मार कर धन भेजते रहे कि शायद बेटा वापस हिन्दू बन जाए। वह तो ईसाई-बहुल कॉलेज था, जहाँ वह ग्रीक, लैटिन और अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने लगे और एक पादरी के घर में रहने लगे। आखिर, उनके पिता ने सहयोग बंद कर दिया। मधुसूदन पढ़ाई बीच में छोड़ कर एक नाव से मद्रास की ओर निकल पड़े! 

तीन हफ्ते तक नाव में बैठे-बैठे वह मद्रास पहुँचे। वहाँ वह एक अनाथों के ईसाई स्कूल में पढ़ने लगे, जहाँ एक फ़िरंगी विद्यार्थी रिबेक्का से उन्होंने विवाह कर लिया। इसी विवाह के प्रमाण-पत्र में उन्होंने पहली बार अपना नाम लिखा- ‘माइकल’ मधुसूदन दत्त, और इस नए नाम से एक कविता लिखी- ‘द कैप्टिव लेडी’। उनके चार बच्चे भी हुए, लेकिन इस मध्य उन्हें एक और फ़िरंगी लड़की हेनरिएट से प्रेम हो गया। अब वह इस नयी प्रेमिका के साथ वापस कलकत्ता भाग आए।

भागने की वजह प्रेमिका तो थी ही, दूसरी वजह थी कि उनके माता-पिता मृत्युशय्या पर थे। उनकी मृत्यु के बाद वह कलकत्ता में ही अपनी प्रेमिका हेनरिएट के साथ रहने लगे। कलकत्ता में उनके मित्र ईश्वरचंद्र विद्यासागर उनके अंग्रेज़पन के ठीक विपरीत बंगाली का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने मधुसूदन को अपनी भाषा में लिखने के लिए प्रेरित किया हो, यह संभव है। 

मधुसूदन ने पहली बार बंगाली में नाटक लिखा- शर्मिष्ठा। यह राजा ययाति, रानी देव्यानी और सेविका शर्मिष्ठा के प्रेम-त्रिकोण पर आधारित था। इसे मधुसूदन अपने जीवन की दो प्रेमिकाओं की कथा से जोड़ पा रहे थे। 

मधुसूदन का यह नाटक लोकप्रिय हुआ। उन्होंने एक पत्र में लिखा है, “मेरे मुँह खून लगा गया, मैं और लिखने लगा”

खून लगा नहीं था, यही तो उनका असल खून था। वहीं चितपुर रोड के अपने घर में उन्होंने वह कालजयी काव्य लिखा- ‘मेघनाद-वध काव्य’। यह काव्य लक्ष्मण द्वारा मेघनाद वध पर आधारित था, जिसमें मेघनाद ही नायक थे। यह एक क्रांतिकारी रचना कई मामलों में थी। एक तो इसका विषय ही था। दूसरा, यह छंदमुक्त काव्य था, और इसकी भाषा तत्सम बंगाली होने के बावजूद पश्चिम का कलेवर लिए थी। इस काव्य की हज़ार से ऊपर प्रतियाँ बिक गयी। 

नीरद सी चौधरी ने लिखा है, “बंगाली घरों में उच्चारण सुधारने के लिए इस काव्य का पाठ किया जाता”

उन्होंने तिलोत्तमा पर भी एक काव्य लिखा, जो उनकी पत्नी हेनरिएट चाव से पढ़ती। वह भी अब बंगाली धारा-प्रवाह बोलने लगी थी। उन्होंने अपनी बेटी का नाम भी शर्मिष्ठा रखा। 

मगर माइकल के सर से अभी अंग्रेज़ भूत उतरा नहीं था। वह कविता त्याग कर बैरिस्टर बनने इंग्लैंड निकल गए। इस यात्रा में भी उनकी आर्थिक मदद ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने की। लंदन पहुँच कर उनका भ्रम टूट गया। 

वहाँ से उन्होंने लिखा, “यहाँ हम भारतीयों के साथ नीग्रो की तरह व्यवहार किया जाता है।"

माइकल वहाँ से भाग कर वर्साय (फ़्रांस) चले गए, लेकिन अंग्रेज़ी का प्रेम पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। वहाँ जब उनके शिशु का जन्म हुआ, उन्होंने उसका नाम अपने प्रिय कवि के नाम पर मिल्टन रखा। आखिर वह फिर से इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बने, और बड़े अरमानों से कलकत्ता लौटे।

उन दिनों भारतीय बैरिस्टर गिने-चुने ही थे। माइकल की शुरुआत तो ठीक-ठाक रही, लेकिन जल्द ही शराब की आदत ने उन्हें सड़क पर ला दिया। वह अंग्रेज़ों के मुहल्ले से निकल कर उत्तरपारा की गरीब बस्ती में आ गए। 26 जून, 1873 को वह कलकत्ता के एक अस्पताल में लेटे थे, जब उन्हें पता लगा कि उनकी प्रेमिका हेनरिएट की मृत्यु हो गयी। 

तीन दिन बाद बंगाल रिनेशां के इस इंद्रजीत ने भी दम तोड़ दिया। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/12.html
#vss

Tuesday, 24 August 2021

उमर खालिद का मुकदमा और दिल्ली पुलिस की तफ्तीश / विजय शंकर सिंह

हाल के वर्षों में यदि किसी एक महानगर की पुलिस के पेशेवराना काम काज पर सवाल उठा है तो वह है दिल्ली पुलिस। हमलोग जब नौकरी में आये थे तो यह सुनते थे कि मुंबई पुलिस देश की सबसे पेशेवराना ढंग से काम करने वाली पुलिस है। पर बाद में दिल्ली पुलिस को राजधानी की पुलिस और सीधे भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आधीन होने के कारण और भी बेहतर बनाया गया। उसे जनशक्ति सहित अन्य आधुनिक संसाधन दिए गए। पर हाल ही में हुए दिल्ली दंगों में, दिल्ली पुलिस की भूमिका की बहुत अधिक आलोचना हुयी है। चाहे, दिल्ली दंगे में, कानून व्यवस्था और दंगा नियंत्रण करने का मामला हो, या दंगे से जुड़े अपराधों की विवेचना का, दोनो ही दायित्वों में, दिल्ली पुलिस की भूमिका सन्देह के घेरे में रही। 
फरवरी 2020 के दिल्ली दंगे के दौरान, चाहे कानून व्यवस्था बनाये रखने का मामला हो, या दंगो से जुड़े मुकदमो की जांचों का, दिल्ली पुलिस, स्पष्ट रूप से एक राजनीतिक पक्ष की ओर झुकी दिखी और दंगा नियंत्रण के लिये, समान रूप से सभी दंगाइयों पर, बिना उनके धार्मिक आस्था से प्रभावित हुए, दिल्ली पुलिस द्वारा जो भी कार्यवाही की जानी चाहिए थी, उसे करने में पुलिस विफल रही। सत्तारूढ़ दल के उपद्रवी तत्वों पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी और उन्हें कहीं कहीं संरक्षण भी दिया गया, जबकि जो लोग सत्तारूढ़ दल से नहीं जुड़े थे, उनपर ज्यादतियां की गयी और तरह तरह के मुकदमे लादे गए।  दंगा नियंत्रण का यह आलम था कि, देेश का यह सम्भवतः पहला दंगा था, जिसे नियंत्रित करने और दंगा पीड़ितों से उनकी बात सुनने के लिये देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को दिल्ली की सड़कों और गलियों में उतरना पड़ा। सत्तारूढ़ दल के जिन नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए, उनके खिलाफ आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुयी। पुलिस का सत्तारूढ़ दल के प्रति यह अनुराग, सत्तारूढ़ दल को तो ज़रूर कुछ लाभ पहुंचा दे, पर जनमानस में, पुलिस की जो विपरीत क्षवि इससे बनी है, उससे केवल पुलिस की ही हानि होगी। 

दंगे भड़काने के आरोपों में, कई मुक़दमे दिल्ली पुलिस ने दर्ज किये और उसमें आरोपित लोगों को गिरफ्तार भी किया। सभी मुकदमो के विस्तार में न जाकर सबसे चर्चित मुक़दमे का उल्लेख मैं यहां करता हूँ। यह मुक़दमा है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद का। उमर खालिद, वही छात्र नेता हैं जिनके ऊपर जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार, के साथ कैम्पस में कथित अलगाववादी नारे लगाने का आरोप है। वह मुक़दमा अभी चल रहा है और उस मुक़दमे में उमर खालिद जमानत पर हैं। पर यह मुक़दमा जिसका मैं उल्लेख करने जा रहा हूँ वह दिल्ली दंगे के भड़काने के आरोप से जुड़ा है। यह मुक़दमा एफआईआर संख्या, 59/2020 का है। उमर पर आरोप है कि उन्होने एक भड़काऊ भाषण दिया था, जिससे दिल्ली में दंगे फैले। उमर खालिद को इसी मामले में गिरफ्तार कर के जेल में रखा गया है। 

उमर ने इसी मामले में, अपने को जमानत पर छोड़े जाने का प्रार्थना पत्र सेशन्स जज के यहां दिया है। जिस पर कल 23 अगस्त को अदालत में बहस हुयी और उस बहस ने दिल्ली पुलिस के तफतीशी हुनर की कलई उतार कर रख दी। यूएपीए के तहत इन आरोपों से जुड़े एक बड़े षड्यंत्र के मामले मे, जेएनयू के छात्र, उमर खालिद की जमानत अर्जी पर हुयी  सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष की दलीलों के सामने अभियोजन पक्ष, कमज़ोर और साक्ष्य विहीन ही दिखा। यह एक दुःखद तथ्य है कि, दिल्ली दंगो की विवेचना के मामले में, दिल्ली पुलिस को लगभग हर मुकदमे में, अदालत की झाड़ सुननी पड़ रही है और एक बार तो उसपर ₹ 25,000/- का जुर्माना भी लग चुका है। दिल्ली पुलिस की इन मामलों में क्या भूमिका रही है, इस पर चर्चा करने के पहले, हम इस जमानत की रोचक अदालती कार्यवाही की चर्चा करते हैं। 

अदालत में उमर खालिद की जमानत अर्जी पर 23 अगस्त को बहस चल रही थी। अभियोजन पक्ष के आरोपों का खंडन करते हुए, उमर खालिद के एडवोकेट, त्रिदीप पेस ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत के समक्ष तर्क दिया कि,
" दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज, एफआईआर संख्या 59/2020 में, विवेचना के बाद अदालत में दायर की गई पूरी चार्जशीट एक मनगढ़ंत कहानी है, और उनके मुवक्किल के खिलाफ दर्ज मामला और आरोप, एक वीडियो क्लिप पर आधारित है। यह वीडियो क्लिप,  रिपब्लिक टीवी और न्यूज 18 द्वारा चलाए जा रहे उनके भाषण के कुछ अंशो का प्रसारण है। न्यूज चैनल रिपब्लिक टीवी और न्यूज 18 ने पिछले साल 17 फरवरी को अमरावती, महाराष्ट्र में उमर खालिद द्वारा दिए गए एक भाषण का छोटा संस्करण चलाया था। दिल्ली पुलिस के पास रिपब्लिक टीवी और सीएनएन-न्यूज18 के अलावा कुछ नहीं है।"

एडवोकेट त्रिदीप पेस ने आरोप लगाया कि, 
" न्यूज18 ने अपने द्वारा प्रसारित वीडियो से खालिद द्वारा एकता और सद्भाव की आवश्यकता के बारे में दिए गए एक महत्वपूर्ण बयान को हटा दिया।"
जहां तक ​​रिपब्लिक टीवी का संबंध है, पेस ने चैनल से प्राप्त एक उत्तर पत्र पढ़ा जिसमें कहा गया था कि, 
" इसकी क्लिप भाजपा सदस्य अमित मालवीय द्वारा किए गए एक ट्वीट पर आधारित थी।"
पेस ने वीडियो फुटेज की एक प्रति के लिए सीआरपीसी की धारा 91 के तहत पुलिस द्वारा की गई मांग पर रिपब्लिक टीवी द्वारा दिए गए इस जवाब को अदालत में पढ़ा।  रिपब्लिक टीवी के जवाब में कहा गया, 
"यह फुटेज हमारे कैमरापर्सन ने रिकॉर्ड नहीं किया था। इसे श्री अमित मालवीय ने ट्वीट किया था।"
पेंस ने पत्रकारिता के आचरण पर एक गम्भीर टिप्पणी की और कहा, 
"आप की सामग्री एक यूट्यूब वीडियो है, जिसे एक ट्वीट से कॉपी किया गया है। न्यूज 18 चैनल ने भाषण से वाक्यों को हटा दिया, इस प्रकार इसका अर्थ और संदर्भ बदल गया। इससे दुनिया में फर्क पड़ता है... गांधी जी पर आधारित एकता का संदेश उस दिन दिया गया था और इसे एक आतंक करार दिया गया था। रिपब्लिक टीवी ने उमर खालिद के भाषण का एक संपादित संस्करण दिखाया जिसे अमित मालवीय ने ट्वीट किया था। पत्रकार की वहां जाने की जिम्मेदारी भी नहीं थी। यह पत्रकारिता की नैतिकता नहीं है। यह पत्रकारिता की मृत्यु है। मेरे मुवक्किल को, प्रेस द्वारा फंसाया गया है। प्रेस ने, भाषण के अन्य हिस्सों को क्यों छोड़ दिया? इस तथ्य के अलावा कि (फरवरी) 17 को कुछ भी नहीं हुआ, आप (दिल्ली पुलिस) मार्च में इस भाषण का संज्ञान लेते हैं। 6 मार्च को जब आपने (पुलिस ने ) कहा कि उन्होंने भाषण दिया, तो आपके पास क्या था? आपके पास एक भाषण था जिसे एक ट्वीट से कॉपी किया गया था और वह कहानी जुलाई में आई थी जब आपने 18 लोगों को गिरफ्तार किया था। उमर खालिद अपने उंस भाषण में लोकतांत्रिक सत्ता की बात कर रहे थे।  उन्होंने हिंसा/हिंसक तरीकों का आह्वान नहीं किया।" त्रिदीप पेस ने कोर्ट के लिए खालिद के भाषण की पूरी क्लिप भी चलाई।

अब बात पुलिस द्वारा दायर आरोपपत्र और अभियोजन की करते हैं। अभियोजन पक्ष के आरोपों के अनुसार, 'खालिद ने 8 जनवरी, 2020 को अन्य आरोपियों के साथ मिलकर राष्ट्रपति ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान दंगे भड़काने की साजिश रची थी।'
इस आरोप का खंडन करते हुए, बचाव पक्ष के वकील त्रिदीप पेस ने कहा, कि, 'ट्रम्प की यात्रा के बारे में समाचार की घोषणा विदेश मंत्रालय द्वारा 11 फरवरी, 2020 को ही की गई थी।' उन्होंने वेबसाइट, 'द क्विंट' द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, 
"जब विदेश मंत्रालय को ही यूएस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा का नहीं पता था, और उनका कार्यक्रम सार्वजनिक रूप से घोषित भी नही हुआ था, तब कैसे यह महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम उमर खालिद को पता चल गया ? यह एक शानदार सिद्धांत है ... वास्तविक पत्रकारिता के लिए धन्यवाद, सच्चाई सामने आई।"
एडवोकेट त्रिदीप पेस ने अंत मे यह कहा कि, 
" उमर खालिद और अन्य के खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी 59/2020 पूरी तरह से अनावश्यक थी और नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के विरोध के आधार पर चुनिंदा लोगों को लक्षित करने के लिए यह मसौदा तैयार किया गया था और बाद में मुकदमा दायर किया गया था। आपके ( पुलिस के ) पास 6 मार्च को मामला नहीं था। दंगों में सभी 750 प्राथमिकी अलग-अलग अपराध हैं। लेकिन मैं यह निवेदन कर रहा हूं कि जब वे प्राथमिकी दर्ज की गईं, तो अपराध थे। लेकिन इस प्राथमिकी में ऐसा कुछ नहीं था। यह  इतने व्यापक तरीके से तैयार किया गया था ताकि आप लोगों को फंसाने के लिए बयान प्राप्त कर सकें।" 
सभी बयानों को दिल्ली पुलिस का विचार बताते हुए पेस ने कहा कि,
" इस मामले में दायर आरोपपत्र पूरी तरह से मनगढ़ंत है। बयान बनाए जाते हैं जिनका भौतिक साक्ष्य से कोई संबंध नहीं है। इस प्राथमिकी में किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था और यह प्राथमिकी दर्ज नहीं की जानी चाहिए थी। अभियोजन पक्ष के पास अपने मामले का समर्थन करने के लिए शुरुआत से ही कोई सबूत या सामग्री नहीं थी। बयान और सबूत प्राथमिकी दर्ज करने और संज्ञेय अपराधों के घटने के कुछ दिनों बाद एकत्र किए गए थे। अभियोजन ने हास्यास्पद बयान दर्ज किए हैं। इससे अभियोजन पक्ष को क्या हासिल होगा? यह पाखंड है। इस प्राथमिकी में शामिल लोगों में से किसी को भी हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिए। जिस दिन आपने ( पुलिस ने ) मामला दर्ज किया, आपने कहा कि भाषण थे। बाद में आपने कहा कि एक गुप्त मुखबिर था। आज न तो आपके पास गुप्त मुखबिर है, न ही भाषण।"

त्रिदीप पेस ने यह भी दलील दी कि खालिद को हिरासत में रखने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि वह जांच में पूरा सहयोग कर रहा है।  पेंस ने कहा, 
"इस मामले में पहली बार मुझसे ( उमर खालिद से ) 30 जुलाई को पूछताछ की गई है। मुझे बुलाया गया और मैं तुरंत उपस्थित हुआ। बिल्कुल देरी नहीं हुई ... मुझे पहुंचने के लिए गुवाहाटी से यात्रा करनी पड़ी लेकिन मैं पहुंच गया। इस प्राथमिकी में मेरी गिरफ्तारी भी थी।  पेश होने के लिए नोटिस दिया। मुझे कहीं से नहीं उठाया गया।"

कोर्ट 3 सितंबर को सुनवाई जारी रखेगी। उमर खालिद के खिलाफ एफआईआर में यूएपीए की धारा 13/16/17/18, आर्म्स एक्ट की धारा 25 और 27 और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान की रोकथाम अधिनियम, 1984 की धारा 3 और 4 सहित अन्य आरोप हैं।  आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत उल्लिखित विभिन्न अपराधों के तहत भी आरोप लगाए गए हैं। पिछले साल सितंबर में पिंजरा तोड़ के सदस्यों और जेएनयू के छात्रों देवांगना कलिता और नताशा नरवाल, जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा और छात्र कार्यकर्ता गुलफिशा फातिमा के खिलाफ मुख्य आरोप पत्र दायर किया गया था।

पुलिस के पास सुबूत के नाम पर रिपब्लिक टीवी और न्यूज़ 18 पर चलाये गए वीडियो की आधी अधूरी क्लिपिंग है। खबरें क्यों और किस मक़सद से दी जा रही हैं, यह न्यूज़ चैनल वाले जानें पर उक्त क्लिपिंग को यदि, उमर खालिद के खिलाफ सुबूत के रूप में अदालत में पुलिस द्वारा पेश किया जा रहा है तो, उन सुबूतों की गहराई से छानबीन करने का दायित्व पुलिस के विवेचक का है। पुलिस ने या तो पूरा भाषण सुना नहीं और यदि सुना भी तो, उसने वही अंश चुने जो न्यूज चैनलों ने दिखाया। न्यूज़ चैनल जांच एजेंसी नही हैं और ब्रेकिंग न्यूज़ सिंड्रोम इतना गहरे पैठा हुआ है कि जो भी खबर हो उसे तुरंत फैलाओ। यह पत्रकारिता के बाज़ारवाद का दुष्परिणाम और बाध्यता है। पर पुलिस की ऐसी कोई बाध्यता नहीं। यदि कोई निहित राजनीतिक संकेत हो कि, ऐसा करना ही है तभी ऐसी बातें हो सकती हैं। कमाल की बात यह भी है कि यह डॉक्टर्ड वीडियो क्लिपिंग भी न्यूज़ चैनलों को भाजपा आईटी सेल के अमित मालवीय ने ही उपलब्ध कराया था। क्या पुलिस को अमित मालवीय से पूछताछ नहीं करनी चाहिए थी ? 

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि, अदालत में दिल्ली दंगे को लेकर दिल्ली पुलिस को पहली बार ऐसी असहजता का सामना करना पड़ा है। इसकी भी क्रोनोलॉजी कम रोचक नहीं है। सीएए आंदोलन के दौरान, जेएनयू हॉस्टल में घुसकर मारपीट करने वाली कोमल शर्मा का मामला हो, या जामिया यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय में घुसकर पुलिस द्वारा बर्बर बल प्रयोग का मामला हो, या धरने के बीच पुलिस के सामने खड़े होकर रिवाल्वर ताने हुए युवक, गोपाल, जिसे बाद में गिरफ्तार किया गया, का मामला हो, या केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के गोली मारो वाले विवादित बयान का मामला हो, या डीसीपी के बगल में खड़े होकर खुद ही कानून व्यवस्था सम्भालने वाले स्वयंभू पुलिस अफसर के रूप में खड़े भाजपा के नेता कपिल मिश्र का, आंदोलनकारियों द्वारा सड़क खाली करने के लिये दिए गए अल्टीमेटम का मामला हो, या भाजपा की नेता रागिनी तिवारी द्वारा दिया गया अत्यंत आपत्तिजनक भाषण हो, दिल्ली पुलिस इन सब पर खामोश रही। अगर कुछ मामलों पर कार्यवाही की भी गयी तो, उसका कारण सोशल मीडिया पर हंगामा था या आलोचना का डर, पर अधिकतर मामलों में वह कार्यवाही करने से बचती ही रही। यह खामोशी किसके इशारे पर ओढ़ी गयी यह तो दिल्ली पुलिस के अफसर ही बता पाएंगे। 

बात यहीं तक नहीं रुकी। दिल्ली दंगे के मामले में ही, स्वतः संज्ञान लेकर सरकार सहित सभी पक्षो को, 26 फ़रवरी 2020 को अचानक तलब करने वाले, दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जज, जस्टिस मुरलीधर को उनके तबादले पर उनके द्वारा सुनवाई के लिए, रखी गयी तारीख़, जो 27 फरवरी थी, पर, वह, सुनवाई करते तब तक, सरकार ने 26 फरवरी 2020 की रात में ही उन्हें, उनके तबादले पर, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के लिये कार्यमुक्त कर दिया। दंगे पर अदालत का सक्रिय होकर स्वतः संज्ञान ले लेना, किसे असहज कर रहा था ? ज़ाहिर है सरकार को। दिल्ली दंगे की लगभग हर तफ्तीश में पुलिस को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। यह बात दिल्ली पुलिस के अफसर भी जानते हैं। 

दिल्ली दंगो के मामले में जो कुछ भी कानून व्यवस्था और पुलिस विवेचना के स्तर पर हो रहा था, उसपर निरन्तर अखबारों और सोशल मीडिया में लगातार छप भी रहा था। गिरफ्तार मुल्जिमों की जमानत की अर्जियों पर पुलिस और अभियोजन, अदालत में अपनी किरकिरी करा रहे थे। और यह क्रम आज भी जारी है। इसे लेकर तब देश के प्रतिष्ठित पुलिस अफसरों मे से एक, जेएफ रिबेरो ने तत्कालीन पुलिस कमिश्नर दिल्ली को दो पत्र लिखे थे, और उन्होंने पुलिस को इस मसले में प्रोफेशनल रवैया अपनाने की एक बुजुर्गाना सलाह भी दी थी। पर पुलिस का रवैया बाहरी और अवांछित दबाव के आरोपों से मुक्त न हो सका।

दिल्ली दंगो से जुड़े मुक़दमों में 16 व्यक्तियो के विरुद्ध यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, के अंतर्गत की धाराएं भी लगायी गयी हैं। यह धाराएं केवल इस उद्देश्य से लगाई गयी हैं जिससे इन व्यक्तियों की जमानत न हो सके। जबकि यह अधिनियम आतंकवाद को रोकने और उनके नियंत्रण के लिये 1967 में बनाया गया था और वर्तमान सरकार ने 2019 में इसे और सख्त बना दिया है। इसके पहले भी यह अधिनियम, वर्ष 2004, 2008, और 2012 में भी संशोधित किया गया था। 2019 के संशोधन में मुख्य बात यह है कि, किसी संगठन को तो आतंकवादी घोषित किया ही जा सकता पर अब किसी भी व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित किया जा सकता है। 

इस संशोधन के बाद यूएपीए कानून के दुरुपयोग की शिकायतें भी बहुत आने लगीं और इन शिकायतों के ही कारण सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि, केवल जमानत न हो सके, इसलिए इस कानून का उपयोग नहीं किया जा सकता है। यह इस कानून का दुरुपयोग है। यूएपीए के दुरुपयोग के बारे में, 100 से अधिक सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने एक खुला पत्र लिखकर यूएपीए के दुरुपयोग को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खतरा बताया। इन पूर्व वरिष्ठ नौकरशाहों ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को, जी 7 शिखर सम्मेलन में लोकतंत्र पर की गयी उनकी टिप्पणियों को याद दिलाया और उनके प्रति खरा उतरने और इस कानून के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने और उसका दुरुपयोग न हो सके, ऐसा कदम उठाने का आग्रह किया। 

उन्होंने प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र में लिखा है, 
"हालांकि यह कानून भारत की क़ानून की किताबों में पांच दशकों से अधिक समय से अस्तित्व में है, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें किए गए कठोर संशोधनों ने इसे कठोर, दमनकारी और सत्तारूढ़ राजनेताओं और पुलिस के हाथों घोर दुरुपयोग के एक साधन के रूप में, बना दिया है।"  
पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों महानुभावों ने, तीन सीएए विरोधी छात्र प्रदर्शनकारियों, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा के मामलों का हवाला देते हुए कहा, 
" इन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था और हाल ही में सलाखों के पीछे एक साल से अधिक समय के बाद जमानत मिली थी।" 
उन्होंने, गृह राज्य मंत्री द्वारा संसद में दिए गए एक उत्तर का उल्लेख करते हुए, कहा कि, 
"2015 से यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की संख्या में 72 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यूएपीए के तहत अधिकांश गिरफ्तारियां सिर्फ डर फैलाने और असंतोष फैलाने के लिए विशिष्ट आधार पर की गई थीं।''

यूएपीए के तहत जेल में बंद कुछ प्रमुख व्यक्तियों, सुधा भारद्वाज, रोना विल्सन, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे, अरुण फरेरा और वरवर राव के अलावा दिवंगत स्टेन स्वामी का उल्लेख करते हुए पत्र में, पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि,
"एनआईए द्वारा जांच की जा रही कुल 386 मामलों में से 74 मामले गैर-यूएपीए अपराधों के लिए थे जबकि 312 यूएपीए अपराधों से संबंधित थे।  उन्होंने कहा कि एनआईए इनमें से 56 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट जमा नहीं कर पाई है, जिसका अर्थ है कि इन मामलों में आरोपी अभी भी हिरासत में हैं।  ये आंकड़े निश्चित रूप से 'भय के शासन' की अस्वास्थ्यकर प्रथा की ओर इशारा करते हैं, जिसका लोकतंत्र में कोई वैध स्थान नहीं है।'' 
पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन और सुजाता सिंह सहित, कई सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी भी शामिल हैं।

पुलिस की अधिकतर शिकायतें, उनकी जनता के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार और पक्षपात पूर्ण कार्यवाही के कारण होती हैं। धीरे धीरे एक ऐसी क्षवि बन गयी है कि पुलिस के हर कदम, हर बयान और हर कार्यवाही में लोग खोट ढूंढने लगते हैं। कानून को लागू कराना वह भी एक ऐसे समाज और वातावरण में जो आदतन विधितोडक मानसिकता से संक्रमित हो रहा हो, मुश्किल काम है। पर ऐसे में यहीं यह सवाल उठता है कि पुलिस बिना किसी बाहरी दबाव के अपना काम क्यों नही कर पाती है। निश्चित ही राजनीतिक दबाव होता है और यह दबाव नियुक्ति और तबादलों तक ही सीमित नहीं रहता है, बल्कि यह एक वायरस की तरह संक्रमित होकर पुलिस की पेशेवराना दिन प्रतिदिन की कार्यवाहियों जैसे, मुकदमो की विवेचना को भी डिक्टेट करने लगा है कि, इसे पकड़ो, इसे निकालो। जब पकड़ना और निकालना, किसी बाहरी दिकटेशन पर होने लगेगा तो विधिपूर्वक तफ़्तीशो का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। उमर खालिद की जमानत होती है या नही यह बिलकुल महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि, पुलिस दंगो जैसे महत्वपूर्ण मामलों की तफ़्तीशो में जो कैजुअल और ग़ैरपेशेवराना दृष्टिकोण अपना रही है वह पुलिस की क्षवि जो अब भी अच्छी नहीं है को, और अधिक नुकसान पहुंचाएगी। पुलिस सुधार की बारंबार बात करते हुए एक सवाल अक्सर सामने खड़ा हो जाता है कि,  हम ही न सुधरना चाहें तो कोई क्या करे !

© विजय शंकर सिंह


अजय असुर - तालिबान की जीत और साम्राज्वाद के सरगना अमेरिका के हार की कहानी.

तालिबान ने अमेरिका के साथ साल 2018 में बातचीत शुरू कर दी थी। फरवरी, 2020 में कतर की राजधानी दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ। जहां अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने को तैयार हुआ। समझौते में तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाके में अल कायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही। राष्ट्रीय स्तर की शांति बातचीत में शामिल होने का भरोसा भी दिया था। पर अमेरिका ने 2019 में ही अपनी अधिकांश सेना वापस बुला लिया था। दोहा समझौते से पहले, बस तालिबान में 4000 अमेरिकी और नाटो सौनिक बचे हुवे थे।

तालिबान को कलम से हथियार थमाने वाला अमेरिका ही है ! यह अलग बात है कि दुनिया की नजरों में तालिबान आया अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद। जब अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन 11 सितंबर, 2001 के आतंकी हमले की प्लानिंग कर रहा था, तालिबान ने उसे पनाह दे रखी थी। अमेरिका ने उससे ओसामा को सौंपने के लिए कहा लेकिन तालिबान ने इनकार कर दिया। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में घुसकर मुल्ला ओमर की सरकार को गिरा दिया। ओमर और बाकी तालिबानी नेता पाकिस्तान भाग गए। यहां उन्होंने फिर से अफगानिस्तान लौटने की तैयारी शुरू कर दी। सच तो यह है कि, रूस की सीमा से अफगानिस्तान लगा हुआ है और रूस को बर्बाद करने के लिए ही, अमेरिका ने अलकायदा के माध्यम से तालिबानियों के हाथों में किताबों की जगहं बंदूके थमा दीं और एक दिन इन्ही हथियारों से, अल कायदा ने, अमेरिका के वर्ड ट्रेड सेंटर की दोनो इमारतों को उड़ा दिया, जिसे पूरी दुनिया ने देखा। आतंकियो की कोई जाति, मजहब या घर नहीं होता इनका कोई अपना सगा भी नहीं होता तो अमेरिका ने फिर, यह गलतफहमी कैसे पाल लिया कि, ये आतंकी जिसको खुद पाल-पोस कर बड़ा किया वो अमेरिका के सगे ही रहेँगे । 

तालिबान का उदय वर्ष 1990 में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ जब अफगानिस्‍तान में सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। इसके बाद तालिबान ने अफगानिस्‍तान के कंधार शहर का अपना पहला केंद्र बनाया। अफगानिस्तान की जमीन कभी सोवियत संघ के हाथ में थी और 1989 में मुजाहिदीन ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी मुजाहिदीन का कमांडर बना पश्तून आदिवासी समुदाय का सदस्य मुल्ला मोहम्मद उमर। उमर ने आगे चलकर तालिबान की स्थापना की। तालिबान शब्द सुनते ही हमारे आपके मन में एक ही तस्वीर उभरती है, एक ऐसा आदमी जिसके पास दाढ़ी, ऊपर बड़ा कुर्ता, नीचे ऊंचा पायजामा पहने हुए हैं और पगड़ीनुमा एक कपड़ा सिर पर लपेटे है, जिसका एक सिरा कंधे पर लटक रहा है, और सबसे खास बात कि हाथ में बंदूक हो या फिर कंधे पर बंदूक टंगी हुई है यानी बन्दूख होना जरूरी है और यही हकीकत भी है। तालिबान अरबी भाषा का शब्‍द है, जिसका अर्थ है विद्यार्थी। ये बना है तालिब शब्द से तालिब का मतलब होता है ज्ञान। और ज्ञान को ग्रहण करने वाला विद्यार्थी यानी तालिबानी। तालिबान शब्द का पश्तून में भी मतलब होता है छात्र और इस संगठन के सदस्यों को जिन्हें उमर (मुल्ला मोहम्मद उमर) का छात्र माना गया। 1994 में उमर ने इसी कंधार में तालिबान को बनाया था। तब उमर के पास मात्र 50 समर्थक थे, जो अपराध और भ्रष्टाचार में बर्बाद होते अफगानिस्तान को संवारना चाहते थे। 

धीरे-धीरे तालिबान पूरे देश में फैलने लगा। सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान से लगे हेरात पर कब्जा कर लिया और फिर अगले साल 1996 के दौरान कंधार को अपने नियंत्रण में ले लिया और राजधानी काबुल पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके साथ ही राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को कुर्सी से हटा दिया। रब्बानी अफगानिस्तान मुजाहिदीन के संस्थापकों में से एक थे जिन्होंने सोवियत ताकत का विरोध किया था। साल 1998 तक करीब 90% अफगानिस्तान पर तालिबान काबिज था। शुरुआत में अफगानिस्तान के लोगों ने तालिबान का स्वागत और समर्थन भी किया। इसे मौजूदा अव्यवस्था के समाधान की शक्ल में देखा गया जनता का समर्थन मिलने के बाद धीरे-धीरे कड़े इस्लामिक नियम लागू किए जाने लगे। चोरी से लेकर हत्या तक के दोषियों को सरेआम मौत की सजा दी जाने लगी। समय के साथ रुढ़िवादी कट्टरपंथी नियम थोपे जाने लगे। टीवी और म्यूजिक को बैन कर दिया गया, लड़कियों को स्कूल जाने से मना कर दिया गया, महिलाओं पर बुर्का पहनने का दबाव बनने लगा….

शरिया कानून इस्लाम की तथाकथित कानूनी प्रणाली है, जो कुरान और इस्लामी विद्वानों के फैसलों पर आधारित बताई जाती है। शरिया कानून मुसलमानों के जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है, दरअसल पाकिस्तान, बांग्लादेश को छोड़कर लगभग हर मुस्लिम मुल्क ने अपने-अपने तरीके से शरिया को अपने यहां लागू किया है। लगभग ऐसे ही शरिया कानून सऊदी अरब में भी लागू हैं तो इन दलाल मीडिया और उनके भक्तों को नहीं दिखाई देता? क्योंकि सऊदी अरब ने मोदी को अपना सबसे बड़ा पुरस्कार दिया। इस पुरस्कार पर किसी भी मोदी भक्त ने आवाज़ नहीं उठाई। क्या सिर्फ इसलिए कि उसे अमेरिका का समर्थन हासिल है? ये दोगलापन लाते कंहा से हैं ये भक्तगण! ये शरिया कानून मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए कुछ अलग स्वरूप लिए है, सलाफियों के लिए अलग है और तालिबान, आईएस, बोको हरम के लिए कुछ अलग ही है। तालिबान ने अफगानिस्तान में अपने पिछले कार्यकाल में शरिया का सबसे सख्त स्वरूप लागू किया। ताल‍िबान ने दोषियों को कड़ी सजा देने की शुरुआत की। हत्‍या के दोषियों को फांसी दी जाती तो चोरी करने वालों के हाथ-पैर काट दिए जाते। पुरुषों को दाढ़ी रखने के लिए अनिवार्य तो स्त्रियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। इस कानून के तहत क्रूर सजाओं के साथ-साथ विरासत, पहनावा और महिलाओं से सारी स्वतंत्रता छीन लेने को भी जायज ठहराया जाता है। शरिया कानून के तहत तालिबान ने देश में किसी भी प्रकार के गीत-संगीत को भी प्रतिबंधित कर दिया था। यंहा गौर करने वाली बात ये है कि इस्लाम में औरतों को कई सारे अधिकार दिए गए हैं। उन्हें पढ़ने का, काम पर जाने का, अपनी मर्जी के मुताबिक शादी करने का, संपत्ति का अधिकार तक है। लेकिन जितने भी कट्टरपंथी व्याख्याएं हैं, वह इन इन सारे कानूनों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करतीं हैं। उनका पूरा जोर आधी आबादी की स्वतंत्रता और अधिकारों को कुचलने में लगा रहता । दरअसल अफगानिस्तान के 99 फीसदी लोगों को शरिया कानून पसंद था और निश्चित ही अभी भी होगा। यह बात 2013 में दुनिया में कई तरह के सामाजिक सर्वेक्षण करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध में सामने आई थी।

पर यंहा दोबारा तालिबान की वापसी बगैर जनता के समर्थन के संभव नहीं, निश्चित ही जनता के साथ के बाद ही तालिबान की वापसी हुई है। मौजूदा कठपुतली सत्ता अमेरिकी साम्राज्यवाद के बदौलत बढ़ती जा रही शोषण, दमन और अव्यवस्था के समाधान की शक्ल में विकल्प के रूप में तालिबान को देखा गया क्योंकि तालिबानीयों ने वंहा की आवाम को भरोसा दिलाया कि मौजूदा व्यवस्था का बलात तख्ता पलट के बाद तालिबान इस अमेरिकी साम्राज्यवाद के कठपुतली सरकार के शोषण, दमन…. और देश की खनिज संपदा की लूट से मुक्ति दिलाएगी और जनता को भरोसा हुवा तभी तालिबानीयों के साथ देकर अमेरिकी साम्राज्यवाद को देश से खदेड़ा। तो ये जो विरोध मीडिया दिखा रही है सब फर्जी है, ये सारे विडियो फर्जी तथ्यों के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने स्टूडियो में बना के मीडिया को परोस रही है और ये दलाल मीडिया उन विडियो और तथ्यों को जांचने की जहमत भी नहीं उठा रही है क्योंकि उन्ही के फंडिंग से ये दलाल मीडिया अपने जेब भर रही है। वैसे भी जनता के साथ के बिना किसी भी देश में राष्ट्रीय क्रांति संभव नहीं है और जनता साथ में है तो फिर विरोध कौन करेगा? वर्तमान में अफगानिस्तान की जनता दो खेमों में बंटी हुई है। तालिबान समर्थक बहुसंख्यक जनता जश्न मना रही है तो गनी के मुट्ठीभर समर्थक तालिबान को कोस रहे हैं और यही अमेरिकी साम्राज्यवाद के कठपुतली सरकार के समर्थक ही डर के मारे देश छोड़कर भाग रहें हैं, जो लोग देश छोड़कर भागने के लिए हवाईजहाज के पंखो के ऊपर चढ़ कर देश से निकालना चाहते हैं ये वही तालिबान के विरोधी हैं और अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थक ही हैं और ये साम्राज्यवाद की दलाल मीडिया अब दो आदमियों के गिरने पर आंसू बहा रही है। तब ये दलाल मीडिया कंहा थी जब भारत में लाकडाउन लगा और रास्ते में सैकड़ो लोग भूख से, थक के, मर गए थे। जीवन से निराश होके आत्महत्या तक कर लिए थे और वर्तमान में किसान आन्दोलन में 600 किसान के ठंड और गर्मी से मर गए हैं, कई किसानों ने आत्महत्या तक कर लिया है। इनके लिए तो घड़ियाली आंसू तक ना निकले थे और ना ही अब किसानों के लिए निकल रहें हैं। दूसरे देश के लोगों की फिक्र है पर खुद के देशवासियों की नहीं। ये कैसा दोगलापन है भारतीय दलाल मीडिया और उनके भक्तों का?

आखिर बर्बरता की हमारी परिभाषा क्या है? पहले के समय में दूर से हत्या करने को सभ्य और नज़दीक से हत्या करने को बर्बर माना जाता था। तालिबान जब किसी को नजदीक से गोली मारता है, या गला रेत कर मारता है तो वह हमें बर्बर लगता है, लेकिन अमेरिका जब ड्रोन से या हवाई हमले से किसी पर हमला करके बच्चों, महिलाओं की हत्या करता है तो वह हमें उतना बर्बर नहीं लगता। क्या ये दूर से हत्या करने वाले का कौशल कँहेँगे? या इसको भी बर्बरता ही कहेंगे? या सिर्फ कालांतर की तरह करीब से मारने वालों को ही बर्बर कहेंगे? 2001 में शुरूआती लड़ाई में अमेरिका समर्थित उत्तरी अलायंस ने अफ़गानी जनता विशेषकर अफ़गानी महिलाओं के साथ किस तरह की जघन्य बर्बरता की थी, उसे हम भूल गये! क्योंकि दलाल मीडिया में अब उसका ज़िक्र नहीं है। आखिर इसका जिक्र करेंगे ही क्यूँ? जिक्र करने पर इनके आका अमेरिका की कलाई खुल जाएगी।

अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) की सेनाओं के देश छोड़ने के बाद, वहां की अशरफ गनी सरकार की सेना बालू की भीत की तरह भरभारकर ढह गयी और तालिबान ने बड़ी आसानी से देश पर कब्ज़ा कर लिया है दलाल मीडिया के अनुसार। पर यह रातों-रात नहीं हुवा ना ही इतने आसानी से हुवा है जितने आसानी से दलाली कर मीडिया बता और दिखा रही है। असल कहानी दलाल मीडिया थोड़े ही बातयेगा और दिखाएगा। जब खाएगा अमेरिकी साम्राज्यवाद का तो गायेगा भी उन्ही का। तालिबान को अमेरिकी साम्राज्यवाद की कठपुतली सरकार के खिलाफ वंहा की आम जनता का समर्थन मिलने लगा क्योंकि ये कठपुतली अशरफ गनी सरकार अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर वंहा की मेहनतकश जनता का शोषण कर वंहा की खनिज संपदा को लूट कर अमेरिका अपने नागरिकों को वरोजगारी भत्ता देता है और पूरी दुनिया के देशों पर अपनी चौधराहट झाड़ता है। 

आज भारत की ये साम्राज्यवाद के तलवे चाटने वाली दलाल मीडिया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के चाटुकार और उनके भक्तगण राष्ट्रभक्ति की शर्त रख रहें हैं कि वही असली राष्ट्रभक्त है जो तालिबान की जीत का विरोध करने वाले को ही देशभक्त माना जा रहा है। ये कैसा पैमाना है राष्ट्रभक्ति की? आखिर तालिबान का विरोध भारत में देशभक्ति की शर्त क्यों हो? क्या ये तालिबानी शर्त नहीं है? पहले अपने गिरेबान में झांककर देखो फिर दूसरों के गिरेबान में झांकना भक्तों।

अफ़गानिस्तान में महिलाओं का एक भूमिगत संगठन है- रावा (Revolutionary Association of the Women of Afghanistan) इसकी एक कार्यकर्त्ता सामिया वालिद [Samia Walid] 2019 में दिए एक इंटरव्यू में कहती है-''अमेरिका ने 'महिला अधिकारों' के बहाने अफ़गानिस्तान पर हमला किया। लेकिन पिछले 18 सालों में हमने क्या पाया? सिर्फ हिंसा, हत्या, यौनिक हिंसा, आत्महत्या और दूसरी विपत्तियां. अमेरिका ने अफ़गान महिलाओं के सबसे घृणित दुश्मन इस्लामिक कट्टरपंथियों को सत्ता में बैठाया। पिछले 4 दशकों से यही साम्राज्यवादियों की रणनीति है। जिहादी, तालिबान, और आईएसआईएस जैसे इस्लामिक कट्टरपंथियों को बढ़ावा देकर, जो न सिर्फ हत्यारे अपराधी हैं, बल्कि कट्टर नारी विरोधी हैं, वास्तव में अमेरिका ने ही हम औरतों का दमन किया है। न्यूज एजेंसी न्यूज़क्लिक के अनुसार अमेरिका पूरी पृथ्वी पर प्रति 12 मिनट पर एक बम, और प्रतिदिन 121 बम यानी 44,096 बम प्रतिवर्ष बरसाता है। फिर भी अमेरिका सभ्य देश है? 2001 के बाद से पिछले 20 सालों में अमेरिकी हमलों में करीब 50 हज़ार अफ़ग़ान नागरिक मारे गये। यमन में 2014 के बाद से वहां के गृहयुद्ध में 2 लाख 33 हजार यमनी नागरिक मारे गए हैं। इसकी एकमात्र जिम्मेदारी अमेरिका समर्थित सऊदी अरब सरकार की ही है। पर दलाल मीडिया इस पर मौन धारण किए हुवे है जैसे कोई घटना घटी ही नहीं या फिर बहुत ही साधारण और छोटी सी घटना है। आखिर मीडिया का ये दोहरा और एकतरफा चरित्र क्यूँ? मीडिया निष्पक्ष क्यूँ नहीं?

तालिबान की स्थिति को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा। ये कहानी वहां से शुरू नहीं होती, जहां से ये साम्राज्वाद की दलाल मीडिया दिखा और सुना रही हैं। कहानी उससे भी बहुत पहले से शुरू होती है। लड़ाई सिर्फ दो दशक लंबी नहीं है बल्कि लड़ाई उससे भी 3 दशक पहले से शुरू होती है, जब सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था और एक समाजवादी, कम्‍युनिस्‍ट देश जो साम्यवाद की तरफ बढ़ता हुवा अपनी जनता की खुशहाली को बयां करते हुवे आगे बढ़ रहा था। असल में ये कहानी शुरू होती है सोवियत संघ के पड़ोसी देश अफगानिस्‍तान में कदम रखने से हालांकि थोड़ा पीछे जाएं तो कहानी वहां से भी शुरू हो सकती है, जब अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा ताकतवर मुल्‍क नहीं था और शक्ति का केंद्र ग्रेट ब्रिटेन था और आधी दुनिया उसका उपनिवेश यानी गुलाम था। तब ब्रिटेन ने अपने निजी, आर्थिक और सामरिक हितों के लिए अफगानिस्‍तान को एक युद्ध भूमि की तरह इस्‍तेमाल किया था। ये 18वीं सदी के अंत की बात है, तब तक रूस में क्रांति और जार का तख्‍तापलट भी नहीं हुआ था। रूस और ब्रिटेन आपस में लड़ रहे थे और जंग का मैदान था अफगानिस्‍तान। अफगानिस्‍तान के रास्‍ते रूस अपनी सीमा बढ़ाना चाहता था और ब्रितानियों को डर था कि एक बार अफगानिस्‍तान रूस के कब्‍जे में आ गया तो भारत को भी उसके हाथों जाने में देर नहीं लगेगी। उस वक्त भारत ब्रिटेन का गुलाम था। इतिहास का वो अध्‍याय मौजूदा राजनीतिक परिदृश्‍य में न सिर्फ अतीत, बल्कि अप्रासंगिक भी हो चुका है। इसलिए बहुत से पन्‍नों को बिना पलटे सीधे चलते हैं उस दौर में, जब रूस में क्रांति हो हो जाने के बाद, दूसरा विश्वयुद्ध हुवा, जर्मनी की हार हुई है और यूक्रेन, लातविया, लिथुआनिया, बेलारूस, जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्‍तान, उज्‍बेकिस्‍तान के बाद यूरोप का एक बड़ा हिस्‍सा रूस के जनता की खुशहाली और तरक्की के रास्‍ते एक-एक कर सोवियत सोशलिस्‍ट प्रजातंत्र संघ का हिस्‍सा बनता जा रहा था और रूस सोवियत संघ में तब्दील होकर वैश्विक राजनीतिक पटल पर सोवियत संघ एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा और उस वक्त जब रूस शेर की तरह दहाड़ता था तो अमेरिका की बकरी की तरह घिग्गी बंध जाती थी। उस वक्त रूस अमेरिकी साम्राज्‍यवाद के लिए एक उभरती हुई चुनौती थी। रूस ने किसी भी देश को मजबूर नहीं किया था सोवियत संघ में शामिल होने के लिए, सभी देश अपनी मर्जी से सोवियत संघ का हिस्सा बने और तो और रूस से सोवियत संघ से जुड़ने की स्वतः आजादी की तरह सोवियत संघ छोड़ने की भी आजादी दी थी। अपनी इच्छा से कोई भी देश सोवियत संघ छोड़कर जा सकता था।

रूस की सीमा, अफगानिस्‍तान की सीमा उत्‍तर में ताजिकिस्‍तान, तुर्कमेनिस्‍तान और उज्‍बेकिस्‍तान से लगी हुई थी। रूस और अफगानिस्‍तान में धीरे-धीरे मित्रता बढ़ने लगी। रूसी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सेक्रेटरी जनरल लियोनिड ब्रेजनेव की 1977 में अफगानिस्‍तान के पांचवे प्रधानमंत्री और तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति मोहम्‍मद दाऊद खान से मुलाकात काफी मुकम्‍मल रही। एक कूटनीतिक मुलाकात लंबी दोस्‍ती में तब्दील हो गई। अफगानिस्‍तान में रूस की पकड़ मजबूत होने लगी। लेकिन ये दोस्ती अमेरिका और पाकिस्‍तान दोनों को ही मंजूर नहीं था। दोनों ही बैकग्राउंड में साथ मिलकर रूस के खिलाफ काम कर रहे थे। पाकिस्‍तान इंटेलीजेंस एजेंसी आईएसआई और अमेरिकन इंटेलीजेंस एजेंसी सीआईए साथ मिलकर दारूद की सत्‍ता को गिराने और उसे अपनी ओर लाने का काम कर रहे थे। सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान के इस नाकाप इरादे को भांप गया और उनकी चाल पलटने के लिए रूस ने अपनी बाजी खेली और अफगानिस्‍तान का तख्‍तापलट करवा दिया और अफगानिस्‍तान में रूस की कठपुतली सरकार बन गई, जो रूसी सत्‍ता के इशारे पर चल रही थी। अब अफगानिस्‍तान में रूसियों के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान के अन्दर ही एक समानांतर सेना खड़ी की। मुजाहिदों की इस सेना को तैयार करने में पाकिस्‍तान ने भी अमेरिका का साथ दिया। पाकिस्‍तान सेना ही इन मुजाहिदों को सैन्‍य प्रशिक्षण दे रही थी। यहीं से जन्‍म हुआ ओसामा बिन लादेन का, जिसे अमेरिका ने खुद ही रूस के खिलाफ खड़ा किया था। अफगानिस्‍तान की धरती एक बार फिर युद्ध की चपेट में थी, लेकिन इस बार आमने-सामने थे तालिब मुजाहिदीन और रूसी सेना। रूस को इस बार काफी क्षति उठानी पड़ी। 1979 में रूसी सेना ने अफगानिस्‍तान का रुख करना शुरू किया था।

पाकिस्‍तान के रास्‍ते अमेरिका से अरबों डॉलर तालिबान के मुजाहिदीनों तक पहुंच रहे थे और अफगानिस्‍तान की सत्‍ता को भी हिलाकर रख दिया था अमेरिका अपनी चाल में आखिरकार कामयाब रहा। अफगानिस्‍तान की खूबसूरत सरजमीं को युद्धभूमि में बदल देने के पीछे अमेरिका की मंशा सिर्फ एक ही थी कि किसी भी तरह रूस की ताकत को कमजोर करना, उन्‍हें आगे बढ़ने से रोकना और नेस्‍तनाबूद कर देना। अगर इस लिहाज से देखें तो अमेरिका अपने मकसद में कामयाब भी रहा। लेकिन इतिहास ठीक वैसा ही नहीं होता, जैसा हम सोचते हैं और लिखते हैं। बहुत कुछ हमारे सोचने और लिखे से परे भी होता है, जो खुद ही अपनी तकदीर और अपना रास्‍ता लिख रहा होता है। जिस तालिबान को अपने निजी हित के लिए अमेरिका ने खड़ा किया था, अमेरिका ने भी नहीं सोचा था कि एक दिन वो तालिबान अपने उसी मालिक की जड़ उखाड़ देगा और अमेरिका की जमीन पर इतिहास के सबसे खतरनाक और सबसे विनाशकारी हमले को अंजाम देगा। जिस ओसामा बिन लादेन को खुद अमेरिका ने जन्‍म दिया था, जिसके बारे में एक जमाने में पश्चिमी मीडिया में छपने वाली खबरों की हेडलाइनें कुछ इस तरह होती थीं- “एंटी सोवियत वॉरियर पुट्स हिज आर्मी ऑन द रोड टू पीस”, (सोवियत विरोधी योद्धा अपनी सेना को शांति के रास्ते पर खड़ा करता है) यानी पश्चिम के मीडिया उस वक्त ओसामा बिन लादेन की छवि को शांतिदूत के रूप में प्रस्तुति करती थी। मीडिया ओसामा को शांतिदूत का वाहक इसलिए कहती थी क्योंकि ओसामा को अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई के लिए ही तैयार किया था। वही शांतिदूत ओसामा बिन लादेन एक दिन अमेरिका के लिए सबसे बड़ा आतंकवादी बन गया, जब सुसाइड मिशन पर निकले मुजाहिदीनों ने दो हवाई जहाज अमेरिका के वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर में घुसा दिया। तीसरा व्‍हाइट हाउस का रुख कर रहा था जिसे पेंटागन ने उसे बीच में ही मार गिराया।

अफगानिस्‍तान में अमेरिकी वॉर का दूसरा अध्याय उसके बाद से शुरू होता है। जो तालिब मु‍जाहिदीन पहले अमेरिका के दोस्‍त थे, अब वही सबसे बड़े दुश्‍मन हो गए। तालिबानों के लिए भी अब अमेरिका, सीआईए, पेंटागन सबसे बड़े दुश्मन थे। अमेरिकी सेना का निशाना था ओसामा बिन लादेन, जिसे 2 मई, 2011 को पाकिस्‍तान के एबटाबाद में अमेरिकी सेना ने मार गिराया। अमेरिका का अपना खड़ा किया हुआ दुश्‍मन तो मर गया, लेकिन एक दुश्‍मन को मारने में अमेरिका ने कितने अपनों की जान ली, उसका कोई हिसाब नहीं है। उसके बाद अफगानिस्तान में वंहा की मासूम जनता को की जो जान ली उसका भी कोई हिसाब नहीं। दोनों तरफ हजारों बेगुनाह मारे गए, नस्‍लें तबाह हो गईं। पहाड़ों, नदियों वाली खूबसूरत धरती एक विशालकाय श्‍मशान में तब्‍दील हो गई और इन सबसे हासिल क्‍या हुआ? इतिहास में ये भी नहीं लिखा जाएगा कि इस युद्ध में अमेरिका को जीत हासिल हुई। इतिहास में सिर्फ मौतों का, लाशों का, तबाहियों का जिक्र होगा। जीत उसके बाद भी न होगी। पर यंहा तालिबान का अमेरिकी साम्राज्यवाद पर जीत निश्चित ही इतिहास में दर्ज होगी। वियतनाम के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद की ये सबसे बड़ी हार है। महाबली की औकात वियतनाम के बाद एक बार फिर सारी दुनिया के सामने आ गयी है। विश्व जनवाद के सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका की पराजय, दुनिया की जनतांत्रिक शक्तियों को तसल्ली तो दे सकती है, लेकिन तालिबान जैसी कट्टर इस्लापंथी शक्ति का सत्तासीन होना, कहीं से सुकूनदायी नहीं है। अफगानिस्तान की जनता के दामन से साम्राज्यवादी शक्तियों के अधीन होने का कलंक तो मिट जायेगा, लेकिन जनता को अपने जनतंत्र की लड़ाई आगे भी उतनी ही मुस्तैदी से लड़नी होगी। इसके लिए उन्हें नए धरातल पर और नए ढंग से संगठित होना होगा। यह लड़ाई कठिन और लम्बी होगी तथा दुनिया में होने वाले बदलावों से प्रभावित होगी।

युद्ध के मैदान में खड़े जो दुश्‍मन खुद को भावी विजेता के रूप में देख रहे थे, वो अब युद्ध से दूर खड़े होकर युद्ध को कैसे देखते हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश है और विश्व पूँजीवाद का चौधरी। अमेरिकी शासकवर्ग अमेरिकी जनवाद (लोकतन्त्र) को लगातार महिमामण्डित करता है, लेकिन वास्तव में वह ऐसा पूँजीवादी जनवाद है जो न केवल पूरी दुनिया के लिए बल्कि थोड़े से धनपतियों को छोड़कर बहुसंख्यक आम अमेरिकी आबादी के लिए भी एक अपराधी, दमनकारी ख़ूनी तन्त्र है। जिसका एक छोटा सा उदाहरण जार्ज फ्लायड की मौत। इस तरह की अमेरिका में पहली घटना नहीं है। इस तरह की कई, कई क्या इससे बड़ी और शर्मनाक घटनाये हुई हैं। अमेरिका ने अभी तक अनगिनत युद्व किए और लगभग सभी युद्ध अमेरिका ने अपने भूमिखंड से दूर हुए हैं। हालांकि मेक्सिको से सीमा को लेकर हल्के-फुल्के विवाद भी बीच में हुए थे। नीचे जो सूची दी हुई है, वह अमेरिकी साम्राज्यवादियों के चुनिन्दा युद्ध-अपराधों और आतंकवादी कुकृत्यों की एक संक्षिप्त सूची है, जिनमें सी.आई.ए. से सहायता-प्राप्त सैन्य कार्रवाइयाँ और कठपुतली सत्ताओं द्वारा छेड़े गये युद्ध भी शामिल हैं ।

अर्जेण्टीना 1890; चिली 1891; हैती 1891; हवाई 1893; ब्लूफील्ड, निकारागुआ 1894 और 1899; चीन 1894-95; कोरिया 1894-96; कोरिण्टो, निकारागुआ 1896; चीन 1898-1900; उ 1901-14; पनामा कनाल ज़ोन 1914; होण्डुरास 1903; डोमिनिकन रिपब्लिक 1903-04; कोरिया 1904-05; क्यूबा 1906-09; निकारागुआ 1907; होण्डुरास 1907; पनामा 1908; निकारागुआ 1910; क्यूबा 1912; पनामा 1912; होण्डुरास 1912; निकारागुआ 1912; वे मेक्सिको (हेराक्रूज़) 1914; डोमिनिकन रिपब्लिक 1914; मेक्सिको1914-18; हैती 1914-34; डोमिनिकन रिपब्लिक 1916-24; क्यूबा 1917; सोवियत संघ 1918; पनामा 1918; होण्डुरास 1919; ग्वाटेमाला 1920; तुर्की 1922; चीन 1922; होण्डुरास 1924; पनामा 1925; अल सल्वाडोर 1932; कोरिया 1950-53; प्यूर्टो रिको 1950; ग्वाटेमाला 1954; मिस्र 1956; लेबनान 1958; पनामा 1958; क्यूबा 1962; डोमिनिकन रिपब्लिक 1965; वियतनाम 1965-75; ग्वाटेमाला 1967; ओमान 1970; ईरान 1980; अल सल्वाडोर 1981; निकारागुआ 1981; ग्रेनाडा; 1982; लेबनान 1982; होण्डुरास 1983; बोलीविया 1986; पनामा 1989; इराक़ 1991; युगोस्लाविया 1992; सोमालिया 1993; हैती 1994; लाइबेरिया 1996; सूडान 1998; अफगानिस्तान 1998 से अबतक; इराक़ 2003 से अबतक; लीबिया 2011 से अब 2019 तक; सीरिया 2013 से अब तक…. और आगे भी यही करता रहेगा। खरबों डॉलर और बेशकीमती जिंदगियां, किसी मां का बेटा, किसी पत्‍नी का पति, किसी बच्‍चे का पिता अमेरिकी अहंकार और जिद के नाम पर युद्ध की आग में झोंका जाता रहेगा। फिलहाल अफगानिस्‍तान में जो हुआ, वो कुछ और नहीं बल्कि अमेरिका के साम्राज्यवाद की नीतियां थी और एक मासूम धरती उस लड़ाई का मैदान बन गई जंहा हजारों बेगुनाह मनुष्य और निरीह जीव की सामधि बन गयी। पर अन्त सुखद रहा अमेरिका के हार के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के अन्त की शुरुवात हो ही गयी। अब 20 साल के युद्ध से अमेरिका ने नहीं सीखा तो जल्द ही अमेरिकी साम्राज्यवाद का अन्त निश्चित है।

© अजय असुर 
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उत्तर प्रदेश
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प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (12)

विज्ञान हौले-हौले भारत में भारतीय तरीके से ही लौट रहा था। जॉर्ज एवरेस्ट उन दिनों पहाड़ों से घूमते हुए मैदान तक आए थे। उन्हें किसी सहायक की ज़रूरत थी। वह कलकत्ता आए तो गणित विभाग के अध्यक्ष जॉन टाइटलर से मिले। 

उन्होंने कहा, “एक लड़का है मेरी कक्षा में। राधानाथ सिकदर। वह पहला भारतीय है जिसने न्यूटन की प्रिंसिपिया पढ़ ली, और कुछ शुरुआती सिद्धांत भी बना दिए। मगर है थोड़ा सनकी।”

यह वही डेरोजियन्स ‘यंग बंगाल’ समूह के राधानाथ थे, जो अफ़ीम और गोमांस का सेवन कर रहे थे। उन्नीस वर्ष की उम्र में उन्होंने ऐसे सिद्धांत दिए, जिससे एक काग़ज पर पहाड़ की ऊँचाई नापी जा सकती थी। उस समय कंचनजंगा दुनिया की सबसे ऊँची चोटी थी। जॉर्ज एवरेस्ट के साथ काम करते हुए राधानाथ ने यह काग़ज़ पर गणना कर दावा किया कि सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट है। बाद में यह बात सिद्ध हुई। गणित की यह विधा अब ‘जियोडेसी’ कहलाती है, जिसकी शुरुआत राधानाथ जैसे गणितज्ञ ने की। 

जहाँ एक तरफ़ आधुनिक विज्ञान अंगड़ाई ले रहा था, वहीं ईश्वरचंद्र जैसे विद्यार्थी संस्कृत कॉलेज में हिन्दू ग्रंथों का अध्ययन कर रहे थे। जब वह हिन्दू कानून की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तो उनके प्रमाण-पत्र पर नीचे टिप्पणी लिखी थी ‘विद्यासागर’। बाद में वह इसी नाम से जाने गए।

ईश्वरचंद्र, डेरोजियन्स से पूरी तरह अलग थे। वह शराब-अफ़ीम की दुनिया से दूर, भारतीय पहनावे में रहते। जब कलकत्ता में हैजा फैला, और डेरोजियो की मृत्यु हुई, तो विद्यार्थी घबरा गए थे। मगर ईश्वरचंद्र कलकत्ता के हैजा-पीड़ितों की सेवा कर रहे थे। 

यह अक्सर कहा जाता है कि भारत में आधुनिक मानवतावाद ईसाई मिशनरी लाए, उन्होंने ही कुष्ठरोगियों का उद्धार करना सिखाया। यह बात पूरी तरह सही नहीं हैं। मानवतावाद भारत की थाती रही है, और भारतीय ग्रंथों में बहुधा वर्णित है। ईश्वरचंद्र जैसे विद्यार्थी ने यह गुण किसी मिशनरी से नहीं सीखा कि रोगियों की सेवा करनी चाहिए।

यही विद्यार्थी महज पैंतीस वर्ष की अवस्था में संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य बन गए। उन्होंने उस वक्त लॉर्ड मकाले की ग़लती को सुधारने का प्रस्ताव भी रखा। उन्होंने दलील दी-

‘अंग्रेज़ी में एक ग्रामीण व्यक्ति आखिर कैसे पढ़ पाएगा? आज बिहार-बंगाल के मात्र आठ प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित हैं, और वे शहरों में हैं। शहरों में तो यूँ भी शिक्षा आ जाएगी, लेकिन गाँवों का क्या? वहाँ उनकी बोल-चाल भाषा में शिक्षा शुरू करनी होगी। बंगाल में बंगाली में।’

आखिर 1854 में उनके प्रयास सफल हुए और ब्रिटिश शिक्षा अधिनियम में बदलाव हुआ। भारतीय भाषाओं में पढ़ाई की शुरुआत हुई और गाँवों में बंगाली माध्यम विद्यालय खुलने लगे। स्वयं उन्होंने ही पहला बंगाली व्याकरण ‘वर्ण-परिचय’ भी लिखा। यह एक शुरुआत थी जिससे अन्य भारतीय भाषा भी अपना व्याकरण तैयार करने लगे, और अंग्रेज़ी के समकक्ष आने के प्रयास करने लगे। सिर्फ़ अंग्रेज़ी नहीं, बल्कि बंगाली में लिखने-पढ़ने लगे। 

पंडित विद्यासागर पोंगा पंडित नहीं थे। उन्होंने बंगाली मे गैलिलियो, न्यूटन, कोपरनिकस आदि की जीवनियाँ लिख कर बच्चों में बाँटी। उनका मानना था कि बंगाली भाषा में विज्ञान शिक्षा संभव है।

गाँवों के विद्यालयों में घूमते हुए उन्होंने जब विधवाओं की स्थिति देखी, तो उनके लिए पुनर्विवाह की बात कही। उन्हें, पंडितों ने कहा कि यह हमारी संस्कृति नहीं कि विधवा विवाह करे। 

ईश्वरचन्द्र ने पराशर संहिता से श्लोक कहा,

“नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ।
पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते।।”

अर्थात् पति के नष्ट (लापता), मृत, प्रव्रज्रित (संन्यासी), नपुंसक या पतित होने पर पुन: विवाह किया जा सकता है। 

यही बात पहले डेरोजियन्स ने धर्म का मज़ाक उड़ाते हुए कही थी, और यहाँ ईश्वरचंद्र ने शास्त्र के संदर्भ के साथ कही। हिन्दू धर्म सभा ने उनके ख़िलाफ़ मुकदमा लड़ा, लेकिन ईश्वरचंद्र ने घर-घर घूम कर हस्ताक्षर लिए, और उनकी बदौलत 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम आ गया! 

लेकिन, कानून से क्या होता है? विधवाओं से विवाह करता कौन? बंगाल की युवा विधवाएँ अब भी उसी हाल में थी। यह शुरुआत भी शायद उन्हें ही करनी थी। उनके पुत्र नारायण ने एक विधवा से विवाह करने का फ़ैसला लिया। इसकी सजा मिली। पंडित विद्यासागर का परिवार ब्राह्मण समाज से बहिष्कृत हुआ। 

खैर, ज्योति तो जल चुकी थी। जब ईश्वरचंद्र विज्ञान की बंगाली पुस्तिकाएँ बाँट रहे थे, एक पुस्तिका बालक जगदीश को मिली। वह बालक बाद में वैज्ञानिक जेसी बोस बने। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (11)
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Sunday, 22 August 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (11)

“हिन्दू धर्म का खुल कर मज़ाक़ उड़ाया जाता। जूनियर लड़के सीनियरों से यही सीखते थे। जहाँ शिक्षक प्रार्थना में कोई मंत्र पढ़ने कहते, वे जोर-जोर से ग्रीक काव्य इलियड का पाठ करने लगते, और सामूहिक रूप से अपनी जनेऊ तोड़ कर फेंक डालते।”
- हरमोहन चटर्जी और प्यारे मोहन मित्रा (हिन्दू कॉलेज के छात्र जीवन संबंध में) 

कुछ शब्दों की फौरी चर्चा करता हूँ। अंग्रेज़ों ने जब कलकत्ता में स्वयं को स्थापित करना शुरू किया, तो उनके पास भारत पर शासन करने के दो रास्ते थे। पहला तरीका तो यह था कि वे भारतीय संस्कृति को समझ लें और भारतीयों को अपने प्राकृतिक अवस्था में रहने दें ताकि राज करना सुलभ हो। पहले पचास वर्ष यही पद्धति अपनायी गयी। यह ‘ओरिएंटलिस्ट’ पद्धति कही गयी। 

इसके अनुसार योजना यह थी कि धर्मों को सुदृढ़ किया जाएगा। धार्मिक संहिताएँ, जाति-संरचना, और रीति-व्यवहार न सिर्फ़ कायम रखे जाएँगे, बल्कि मजबूत किए जाएँगे। हिन्दुओं और मुसलमानों को उनके ग्रंथ उनकी प्राचीन भाषा में पढ़ाए जाएँगे। उनकी सोच थी कि ऐसा करने से वे कभी अंग्रेज़ों का विरोध नहीं करेंगे। इस सोच को आज के परंपरावादी भारतीयों का समर्थन मिल सकता है कि वे बड़े उदारवादी अंग्रेज़ थे, जो धर्म का आदर करते थे। कुछ यह भी कह सकते हैं कि वे भारत-प्रेमी थे, जो रामायण और महाभारत का अनुवाद कर रहे थे। औपनिवेशिक इतिहास से गुजरते हुए ‘भारत प्रेमी अंग्रेज़ शासक’ तो एक मिथक लगता है। 

वे उन रोमन शासकों की तरह थे जो जनता को तमाशे में लगा कर राज करते रहे। वे उनके वैज्ञानिक विकास को रोक रहे थे, और उन्हें कर्मकाण्डों में उलझा रहे थे। वे स्वयं बाइबल की आदम-कथाओं से आगे बढ़ कर यंत्र-युग में आ चुके थे, और यहाँ कॉलेज में पढ़ा रहे थे कि बाइबल का ‘स्केपगोट’ अश्वमेध की बलि के समकक्ष है। मुमकिन है वे बलि-प्रथा भी खूब ताम-झाम से शुरू कर देते। 

दूसरा तरीका मैक्यावली के कथन से प्रेरित था- ‘अगर कोई किसी राज्य पर विजय पाकर उसे पूर्णतया नष्ट नहीं करता, तो वह स्वयं नष्ट होने को तैयार रहे’। 

इस तरह के लोग आंग्लवादी (ऐंग्लिसियन) कहलाए। इनका उद्देश्य था भारतीय संस्कृति को एक निम्न संस्कृति सिद्ध कर, उन्हें अंग्रेज़ बनाना। उनके मन में धर्म और लोक-व्यवहार के प्रति घृणा डालना। आशीष नंदी के शब्दों में कहें तो एक ‘इंटिमेट एनिमी’ (अंतरंग शत्रु) बनाना। जब व्यक्ति अपनी पहचान से ही नफ़रत करने लगे। 

एक उदाहरण देता हूँ। बंगाल रिनैशां की पहली चिनगारी कहे जाने वाले व्यक्ति मात्र तेइस वर्ष में चल बसे। 

हेनरी डेरोज़ियो (1809-31) एक पुर्तगाली मूल के भारतीय थे, जिनके दादा कभी यूरोप से कलकत्ता आए थे। उन्होंने मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में भागलपुर में गंगा किनारे बैठ संभवत: भारत की पहली अंग्रेज़ी कविता लिखी। उसके बाद वह कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज के अंग्रेज़ी शिक्षक बन गए।

वहाँ उन्हें भद्रलोक परिवारों के युवा बंगाली मिले, जिनके साथ वह क्रिकेट का खेल खेलते, और अपनी वाक्पटुता से उन्हें आकर्षित करते। भारतीय होकर भी उनका रंग गोरा था, नीली आँखें थी, बीच मांग से बाल फेरते थे जो बाद में बंगाली फैशन बन गया। वह छात्रों के मध्य वाद-विवाद आयोजित करते, जिसमें धर्म और राजनीति पर तथ्यों के साथ भिड़ंत होती।

उनकी देशभक्ति कविता छात्र जोर-जोर से अंग्रेज़ी में पाठ करते

“मेरे देश! जिसके स्वर्णिम इतिहास में,
कभी ललाट पर था प्रभामंडल,
जो पूज्य था महादेव सदृश,
कहाँ है अब वह गौरव, वह सम्मान?”

उनके बंगाली शिष्य मानते कि हमारी रूढ़ संस्कृति ने ही देश को ग़ुलाम बना दिया। आज के प्रगतिवादी युवाओं की तरह उनके लिए ‘हमें चाहिए आज़ादी’ का अर्थ धर्म से आज़ादी था। डेरोजियो की अल्पायु मृत्यु के बाद ये लड़के ‘डेरोजियन्स’ कहलाए। 

राधानाथ सिकदर सामूहिक रूप से गोमांस खाते, और यह मानते कि देश के लिए लड़ने के लिए यह खाना ज़रूरी है। गांजा पर तो डेरोजियो की लिखी कविता थी, जिसमें इतिहास में पहली बार हिंग्लिश का प्रयोग हुआ-

“Without thy dreams, dear opium,
Without a single hope I am,
Spicy scent, delusive joy,
Chillum hither lao, my boy!”

कृष्णमोहन बनर्जी, रसिक कृष्ण मलिक, और रामगोपाल घोष गांजा पीकर हिन्दू कॉलेज के पत्थर पर खड़े होकर कहते, “तोड़ दो ये मूर्तियाँ, छोड़ दो यह धर्म, छोड़ दो यह रूढ़िवाद!” 

यह ‘बंगाल युवा आंदोलन’ (यंग बंगाल) एक छोटी सी चिनगारी थी जो अपरिपक्व और कुछ भटकी हुई थी। लेकिन, आज प्रगतिवाद के झंडाबरदारों को सनद रहे कि वे जो कर रहे हैं, दो सौ वर्ष पहले हो चुका है। 

डेरोजियन्स की सबसे बड़ी कमी यह थी, कि वे  शहरी युवक, वे जनेऊ फेंकते गोमांस खाते युवक, वे धर्म पर व्यंग्य करते युवक, कभी देश की नब्ज को नहीं छू सके। उनकी पहचान हिन्दू कॉलेज के कैम्पस तक सिमट कर रह गयी। वे भूल गए थे कि भारत गाँवों में बसता है, लोक-भाषा बोलता है, खेती-बाड़ी करता है और उनका धर्म ग्रंथों से अधिक उनकी आस्था से जुड़ा है। वे रूढ़ से अधिक संवेदनशील हैं। खैर, उनसे न ओरिएंटलिस्ट जुड़ पाए, न आंग्लवादी, न डेरोजियन्स। 

जब हिन्दू कॉलेज में ये युवक अपने रंग में थे, उसी वक्त एक ईश्वरचंद बंदोपाध्याय नामक किशोर वहीं पड़ोस में संस्कृत कॉलेज में प्रवेश ले रहा था। एक कॉलेज में धोती वाले पंडित पढ़ते, दूसरे में पैंट वाले बाबू। एक तरफ़ प्राच्यविद, दूसरी तरफ़ आंग्लवादी। दोनों कॉलेजों के मध्य एक लोहे की मोटी रेलिंग हुआ करती। यह रेलिंग जैसे ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच पहली प्रतीकात्मक दीवार थी। 
(क्रमश:) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (10)
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