सुबह जब फेसबुक खोला तो पहली खबर मिली कि, हाथरस की, गैंगरेप पीड़िता का अंतिम संस्कार रात में ही कर दिया गया। चुपके से किये गये इस अंतिम संस्कार के निर्णय में घर और परिवार के लोग सम्मिलित नहीं थे। रात में ही शव अस्पताल से निकाल कर बिना घर परिवार की अनुमति और सहमति के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया ।
रात के अंधेरे में समस्त मानवीय और वैधानिक मूल्यों को दरकिनार कर के किया गया यह अंतिम संस्कार, मानवीयता का ही अंतिम संस्कार जैसा लगता है। यह अन्याय,अत्याचार और अमानवीयता की पराकाष्ठा है। पीड़िता के माँ बाप, घर परिवार के लोग, रोते कलपते रहे, लेकिन पुलिस ने खुद ही अंतिम संस्कार कर दिया। पीड़िता को न्याय मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर उसे अंतिम संस्कार भी सम्मानजनक और न्यायपूर्ण तरह से नहीं मिल सका।
यह कृत्य बेहद निर्मम और समस्त विधि विधानों के प्रतिकूल है। अगर शव लावारिस या लादावा है तो उस शव का उसके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करने का प्राविधान है। पुलिस ऐसे लावारिस और लादावा शवों का अंतिम संस्कार करती भी है। लेकिन यहां तो शव घरवाले मांग रहे थे और फिर भी बिना उनकी सहमति और मर्ज़ी के उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। जबकि पीड़िता का शव न तो लावारिस था और न ही लादावा।
कभी कभी किसी घटना जिसका व्यापक प्रभाव शांति व्यवस्था पर पड़ सकता है और कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो सकती है तो ऐसे शव के अंतिम संस्कार चुपके से, पुलिस द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन ऐसे समय मे भी अगर शव लावारिस और लादावा नहीं हैं तो घर परिवार को विश्वास में लेकर ही उनका अंतिम संस्कार होता है।
गैंगरेप की इस हृदयविदारक घटना से लोगो मे बहुत आक्रोश है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हों भी रही है। अब जब इस प्रकार रात के अंधेरे में चुपके से अंतिम संस्कार कर दिया गया है तो इससे यह आक्रोश और भड़केगा। यह नहीं पता सरकार ने क्या सोच कर इस प्रकार चुपके से रात 2 बजे अंतिम संस्कार करने की अनुमति दी।
यह निर्णय निश्चित रूप से हाथरस के डीएम एसपी का ही नहीं रहा होगा। बल्कि इस पर शासन में बैठे उच्चाधिकारियों की भी सहमति होगी। ऐसे मामले जो मीडिया में बहुप्रचारित हो जाते हैं, अमूमन डीएम एसपी के निर्णय लेने की अधिकार सीमा से बाहर हो जाते हैं। मुझे लगता है, इस मामले में भी ऐसा ही हुआ होगा।
सवाल उठेंगे कि आखिर पुलिस ने ऐसा क्यों किया और किस घातक संभावना के कारण ऐसा किया गया ? सरकार कहेगी कि, इससे कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। पर यह घटना और अपराध खुद ही इस बात का प्रमाण है कि कानून और व्यवस्था तो बिगड़ ही चुकी है। आधी रात का यह अंतिम संस्कार, व्यवस्था के ही अंतिम संस्कार की तरह लगता है और यह सब बेहद विचलित करने वाला तो है ही।
मानवाधिकार, न केवल जीवित मनुष्य का होता है, बल्कि शव के भी मानवाधिकार हैं। संविधान के मौलिक अधिकारों में एक अधिकार सम्मान से जीने का अधिकार भी है। यह अधिकार, मानवीय मूल्यों, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर दिया गया है। इसी मौलिक अधिकार के आलोक में, तरह तरह के नागरिक अधिकारों और श्रम अधिकारों के कानून बने हुए हैं। अब शव के अधिकार की भी बात हो रही है तो मृत्यु के बाद एक शव के क्या अधिकार हो सकते हैं, यह प्रश्न अटपटा लग सकता है, लेकिन राजस्थान के मानवाधिकार आयोग ने, शव के भी सम्मानजनक अंतिम संस्कार के रूप में यह सवाल उठाया है।
अक्सर सड़क पर शव रखकर चक्काजाम करने, बाजार बंद कराने, पुलिसकर्मियों या डॉक्टरों का घेराव करने की खबरें देश में आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं और इस प्रकार, शव एक आक्रोश की अभिव्यक्ति के साथ साथ सौदेबाजी के उपकरण के रूप में भी बदल जाते हैं। राजनीतिक दलों के ऐसे मामलों में प्रवेश करने से स्थिति और विकट हो जाती है और बेचारा शव इन सब आक्रोश, सौदेबाजी और तमाशे के बीच पड़ा रहता है। जनता यह सोचती है कि जब तक शव है तभी तक शासन और प्रशासन पर वह अपनी मांगों, वे चाहे जो भी हों, के लिये दबाव बना सकती है। ऐसे में अक्सर मुख्यमंत्री को मौके पर बुलाने और मांगे मानने की ज़िद भी उभर आती है।
इन सब ऊहापोह के बीच सरकार चाहती है कि शव का जल्दी से जल्दी अंतिम संस्कार हो जाय। राजस्थान के मानवाधिकार आयोग ने शव की इसी व्यथा को महसूस किया और उसने मृत्योपरांत मानवाधिकार या सम्मान से अंतिम संस्कार किया जाय और शव को अपमानजनक रूप से प्रदर्शित न किया जाय इसलिए एक निर्देश जारी किए। ऐसी स्थिति केवल राजस्थान में ही नहीं बल्कि लगभग हर राज्य में भी आयी है। अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में शव रख कर मांगें मनवाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर आपत्ति जताते हुआ आयोग ने स्पष्ट किया है कि शव के भी कुछ अधिकार होते हैं।
राजस्थान मानवाधिकार आयोग ने सरकार से सिफारिश की है कि
" शव रख कर मांगें मनवाने की घटनाओं को रोकने के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया जाए। राजस्थान ही नहीं समूचे देश में शव रख कर मुआवजा, सरकारी नौकरी और अन्य तरह की मांगें मनवाए जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। शव का दुरुपयोग किए जाने, इसकी आड़ में आंदोलन कर अवैध रूप से सरकार, प्रशासन, पुलिस, अस्पताल और डॉक्टरों पर दबाव बनाकर धनराशि या अन्य कोई लाभ प्राप्त करना गलत है। ऐसी घटनाओं को आयोग शव का अपमान और उसके मानवाधिकारों का हनन मानता है।"
अयोग ने कहा है कि
" इसे रोकने के लिए आवश्यक नीति निर्धारण और विधि के प्रावधानों को मजबूत किया जाना जरूरी है। आयोग ने इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश का भी उल्लेख किया है, जिसमें कहा गया है कि संविधान के तहत सम्मान और उचित व्यवहार का अधिकार जीवित व्यक्ति ही नहीं बल्कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शव को भी प्राप्त है। आयोग ने कहा है कि विश्व के किसी भी धर्म के अनुसार शव का एकमात्र उपयोग उसका सम्मान सहित अंतिम संस्कार ही है।"
आयोग ने इस संदर्भ में निम्न सिफारिशें कीं
● दाह संस्कार में लगने वाले समय से अधिक तक शव को नहीं रखा जाए।
● परिजन अंतिम संस्कार नहीं कर रहे हैं तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह कराए।
● यदि किसी अपराध की जांच के लिए शव की जरूरत नहीं है तो ऐसी स्थितियों में पुलिस को अंतिम संस्कार का अधिकार दिया जाए
● शव को अनावश्यक रूप से घर या किसी सार्वजनिक स्थान पर रखना दंडनीय अपराध घोषित हो।
● शव का किसी आंदोलन में उपयोग दंडनीय अपराध माना जाय।
लेकिन यह सब तब है जब शव का दुरूपयोग किया जाय। हाथरस मामले में सबसे बड़ी अनियमितता यह हुयी है कि शव का अंतिम संस्कार करने में अनावश्यक रूप से जल्दीबाजी की गयी है। शव का पोस्टमार्टम डॉक्टरों के अलग पैनल द्वारा कराये जाने की मांग की जा रही थी और इसके लिए धरना प्रदर्शन भी चल रहा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शव का उसके परिजनों की मांग के अनुसार अलग और बड़े डॉक्टरों के पैनल से पोस्टमार्टम कराया जाना चाहिए था और अब तो ऐसे पोस्टमॉर्टम की वीडियोग्राफी कराने के भी निर्देश हैं। यह सब इसलिए कि तमाम अफवाहें जो जनता में फैल रही हैं, उनका निराकरण हो जाय। अब यह स्पष्ट नहीं हो रहा है कि, ऐसे गुपचुप अंतिम संस्कार के लिये पीड़िता के माता पिता और अन्य परिजन सहमत थे या नही। अगर वे सहमत नहीं थे तब यह गलत हुआ है ।
अब एक उद्धरण पढ़ लिजिए।
" तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखते या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखते। यह स्वत:स्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ या बँधी हुई मुठ्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई अँगुली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है या एक काली गुफ़ा जैसा खुला हुआ उनका मुँह इतिहास में किसी ऐसे ही खुले हुए मुँह की नकल बन जाता है।
वे अपनी आँखों में काफ़ी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की सबसे क्रूर आँखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कराते हैं, भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते।
तानाशाह सुन्दर दिखने की कोशिश करते हैं, आकर्षक कपड़े पहनते हैं, बार-बार सज-धज बदलते हैं, लेकिन यह सब अन्तत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।इतिहास में कई बार तानाशाहों का अन्त हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं। "
तनाशाही का अर्थ केवल हिटलर और मुसोलिनी ही नही होता है, बल्कि हर वह मनोवृत्ति और राजनीतिक सोच जो देश के संविधान, कानून और समाज के स्थापित मूल्यों को दरकिनार कर के उपजती है वही एकाधिकारवाद या तानाशाही की ओर बढ़ती हुई कही जा सकती है। अधिकतर तानाशाह उपजते तो अपनी एकाधिकारवादी मानसिकता, ज़िद, ठसपने और अहंकार से हैं, पर वे फलते फूलते हैं, जनता की चुप्पी से, नियतिवाद के दर्शन से, आस्थावाद के मोहक मायाजाल से, कुछ लोगो की, सत्ता के करीब होने की आपराधिक लोलुपता से और अंत मे यह सब मिलकर व्यक्ति, समाज और देश को विनाश की ओर ही ले जाता है।
बचता तानाशाह भी नही है। उसका अंत तो और भी दारुण होता है। कभी वह आत्महत्या कर लेता है तो कभी वह उसी जनता द्वारा, जिसकी लोकप्रियता के दम पर वह सत्ता के शीर्ष पर पहुंच चुका होता है, सड़क के किनारे लैम्पपोस्ट पर लटका दिया जाता है। जिस लोकप्रियता की रज्जु पर वह तन कर दीर्घ और विशालकाय दिखता है और उसे खुद के अलावा कुछ भी नहीं दिखता है या यूं कहें वह कुछ और देखना भी चाहता है, वह भी जब यह तनी हुयी रस्सी टूटती है तो धराशायी ही नज़र आता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं। पर हम इतिहास से सीखते ही कब हैं !
( विजय शंकर सिंह )
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