राज्यसभा में, हंगामा होते हुए अशांत वातावरण के बीच न यह स्पष्ट हो पा रहा था कि , बिल के समर्थन में हुंकारी कौन भर रहा है, और विरोध में 'ना' कौन कर रहा है, राज्य सभा के उपसभापति बस, यह घोषित कर के कि, यह बिल पास हो गया अपनी व्यासपीठ के पीछे, सदन स्थगित कर के चलते बने। अब यह बिल पास हो गया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर महज औपचारिकता होते हैं। जब यह हस्ताक्षर हो जाएंगे तो यह बिल, कानून की शक्ल ले लेगा। कानून बनते रहते हैं। कानून टूटते भी हैं। बदलते भी हैं और रद्द भी होते हैं। यह सब लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग हैं।
अच्छी बात है अब बनारस का किसान, दस बोरा अनाज लेकर, किसी सांधन से केरल तक जाकर उसे बेचने के लिये मुक्त है। पैसा वह मुंहमांगा लेगा। जहां पोसायेगा वहीं बोरा पटकेगा, दाम तहियेगा और फिर अपने दुआर आ कर पंचायत जमाएगा। यह तो बहुत ही क्रांतिकारी कदम है। हमे आशान्वित रहना चाहिए।
नोटबन्दी, जीएसटी, तालाबंदी, के बाद अब यह चौथा मास्टरस्ट्रोक है। नोटबन्दी, मौद्रिक सुधार था, जीएसटी कर सुधार, तालाबंदी महामारी से बचाव के लिये और यह कृषि मुक्ति किसानों को मुक्त करने के लिये लाया गया है। अधिकतर मास्टरस्ट्रोक सुधार ही कहे जाते हैं। पर सुधार किसका होता है और सुधरता कौन है यह सुधारक कभी नही बताता। वह अगले सुधार में लग जाता है।
अब खेत की मेड पर, आमने सामने बैठ कर, सरकार के कानून द्वारा मिले अधिकार सुख की मादकता से परिपूर्ण होकर, किसान , कॉरपोरेट से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की सौदेबाजी करेगा। एक कानून ने कॉरपोरेट और पांच बिगहा के किसान को एक ही सफ़ में लाकर खड़ा कर दिया यह तो एक बहुत ही क्रांतिकारी कदम है। अब देखना है कि, किसान की साफगोई जीतती है या कॉरपोरेट का शातिर प्रबंधकीय कौशल।
अब तो आवश्यक वस्तु अधिनियम भी संशोधित हो गया। यह एक्ट जिसे आम तौर पर ईसी एक्ट कहते हैं, बहुत दिनों से व्यापारियों के निशाने पर रहा है। यह जमाखोरी रोकने के लिये 1955 में सरकार ने पारित किया था। अब कोई भी पैनकार्ड धारक कितना भी अनाज खरीदे और उसे असीमित रूप से कहीं भी जमा कर के रखे, जब अभाव हो तो बाजार में निकाले, और जब बेभाव होने लगे तो वह उसे रोक ले, यानी बाजार की दर, किसान की उपज, मेहनत और ज़रूरत नहीं तय करेगी, बल्कि अनाज की कीमत यही पैनकार्ड धारक व्यापारी, जमाखोरी करने वाले आढ़तिये और नए जमीदार कॉरपोरेट तय करेंगे। वे जमाखोरी करेंगे पर उनपर जमाखोरी का इल्जाम आयद नहीं होगा। किसान अपनी ही भूमि पर इन तीनो के बीच मे फंस कर रह जायेगा और सरकार दर्शक दीर्घा में बैठ कर यह तमाशा देखेगी क्योंकि उसके पास कोई नियंत्रण मैकेनिज़्म है ही नहीं या यूं कहें उसने ऐसा कुछ अपने आप रखा ही नही कि वह बाजार को नियंत्रित कर सके।
किसान और कॉरपोरेट की शिखर वार्ता के बीच, अब सरकार कहीं नहीं है। उसने बाजार खोल दिये, व्यापारी, कॉरपोरेट और जिसके पास एक अदद पैन कार्ड है, उन्हें यह अख्तियार दे दिए कि, वे भी एक लोडर लें और कही भी जाकर किसी खेत से अनाज खरीद लें। दाम बेचने वाले किसान और खरीदने वाले पैनकार्डधारक तय करेंगे। अपना अपना सब समझिए बूझिये। सरकार को चैन से आराम करने दीजिए। अब वह भले ही अनाज के दाम तय कर दे, पर वह उस पर अनाज या उससे कम कीमत पर अनाज खरीदने के लिये किसी पैनकार्ड धारक को बाध्य करने से रही। यह अलग बात है कि अन्नदाता का खिताब बरकरार रहेगा।
कानून के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ लिखा गया है और अब भी लिखा जाता रहेगा, मैंने भी लिखा है और अब भी लिख रहा हूँ। मैं इस कानून को किसानों के हित मे नहीं मानता हूं। अभी इन कानूनों का क्या असर पड़ता है यह थोड़े दिनों में पता चल पाएगा। फिलहाल कुछ सवाल हैं जो मुझे एक मित्र ने भेजे हैं, उन्हें आप सबसे साझा कर रहा हूँ।
यह सवाल संदीप गुप्त जी की फेसबुक टाइमलाइन से लेकर यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ।
● अगर सरकार की एमएसपी को लेकर नीयत साफ है तो वो मंडियों के बाहर होने वाली ख़रीद पर किसानों को एमएसपी की गारंटी दिलवाने से क्यों इंकार कर रही है?
● एमएसपी से कम ख़रीद पर प्रतिबंद लगाकर, किसान को कम रेट देने वाली प्राइवेट एजेंसी पर क़ानूनी कार्रवाई की मांग को सरकार खारिज क्यों कर रही है?
● कोरोना काल काल के बीच इन तीन क़ानूनों को लागू करने की मांग कहां से आई? ये मांग किसने की? किसानों ने या औद्योगिक घरानों ने?
● देश-प्रदेश का किसान मांग कर रहा था कि सरकार अपने वादे के मुताबिक स्वामीनाथन आयोग के सी2 फार्मूले के तहत एमएसपी दे, लेकिन सरकार ठीक उसके उल्ट बिना एमएसपी प्रावधान के क़ानून लाई है। आख़िर इसके लिए किसने मांग की थी?
● प्राइवेट एजेंसियों को अब किसने रोका है किसान को फसल के ऊंचे रेट देने से? फिलहाल प्राइवेट एजेंसीज मंडियों में एमएसपी से नीचे पिट रही धान, कपास, मक्का, बाजरा और दूसरी फसलों को एमएसपी या एमएसपी से ज़्यादा रेट क्यों नहीं दे रहीं?
● उस स्टेट का नाम बताइए जहां पर हरियाणा-पंजाब का किसान अपनी धान, गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, सरसों, बाजरा बेचने जाएगा, जहां उसे हरियाणा-पंजाब से भी ज्यादा रेट मिल जाएगा?
● जमाखोरी पर प्रतिबंध हटाने का फ़ायदा किसको होगा- किसान को, उपभोक्ता को या जमाखोर को?
● सरकार नए क़ानूनों के ज़रिए बिचौलियों को हटाने का दावा कर रही है, लेकिन किसान की फसल ख़रीद करने या उससे कॉन्ट्रेक्ट करने वाली प्राइवेट एजेंसी, अडानी या अंबानी को सरकार किस श्रेणी में रखती है- उत्पादक, उपभोक्ता या बिचौलिया?
● जो व्यवस्था अब पूरे देश में लागू हो रही है, लगभग ऐसी व्यवस्था तो बिहार में 2006 से लागू है। तो बिहार के किसान इतना क्यों पिछड़ गए?
● बिहार या दूसरे राज्यों से हरियाणा में बीजेपी - जेजेपी सरकार के दौरान धान जैसा घोटाला करने के लिए सस्ते चावल मंगवाए जाते हैं। तो सरकार या कोई प्राइवेट एजेंसी हमारे किसानों को दूसरे राज्यों के मुकाबले मंहगा रेट कैसे देगी?
● टैक्स के रूप में अगर मंडी की इनकम बंद हो जाएगी तो मंडियां कितने दिन तक चल पाएंगी?
● क्या रेलवे, टेलीकॉम, बैंक, एयरलाइन, रोडवेज, बिजली महकमे की तरह घाटे में बोलकर मंडियों को भी निजी हाथों में नहीं सौंपा जाएगा?
● अगर ओपन मार्केट किसानों के लिए फायदेमंद है तो फिर "मेरी फसल मेरा ब्योरा" के ज़रिए क्लोज मार्केट करके दूसरे राज्यों की फसलों के लिए प्रदेश को पूरी तरह बंद करने का ड्रामा क्यों किया?
● अगर हरियाणा सरकार ने प्रदेश में 3 नए कानून लागू कर दिए हैं तो फिर मुख्यमंत्री खट्टर किस आधार पर कह रहे हैं कि वह दूसरे राज्यों से हरियाणा में मक्का और बाजरा नहीं आने देंगे?
● अगर सरकार सरकारी ख़रीद को बनाए रखने का दावा कर रही है तो उसने इस साल सरकारी एजेंसी FCI की ख़रीद का बजट क्यों कम दिया? वो ये आश्वासन क्यों नहीं दे रही कि भविष्य में ये बजट और कम नहीं किया जाएगा?
● जिस तरह से सरकार सरकारी ख़रीद से हाथ खींच रही है, क्या इससे भविष्य में ग़रीबों के लिए जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में भी कटौती होगी?
● क्या राशन डिपो के माध्यम से जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम, ख़रीद प्रक्रिया के निजीकरण के बाद अडानी-अंबानी के स्टोर के माध्यम से प्राइवेट डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम बनने जा रहा है?
आज तक किसी भी सरकार ने किसानों के लिये कानून बनाते समय, किसानों के संगठन से कभी कोई विचार विमर्श नहीं किया जबकि हर बजट से पहले सरकार उद्योगपतियों के संगठन फिक्की या एसोचेम से बातचीत करती रहती है और उनके सुझावों पर अमल भी करती है। किसानों के सगठनों के साथ ऐसे विचार विमर्श क्यो नहीं हो सकते हैं ?
( विजय शंकर सिंह )
सर यही हुआ है,दूसरे के गिरने पर,अन्य सभी हंसे है कि वो तो सुरक्षित है।जब उन पर पड़ी तब पता चला कि गिरने में ओर दूसरों के हंसने में कितनी पीड़ा मिलती है।अगर पहले के गिरने पर अन्य सभी ने सहारा दिया होता, तो शायद आज ये नोबत नही आती।इस गिरती अर्थव्यवस्था के दौर में भी सिर्फ कृषि क्षेत्र ने ही धनात्मक ग्रोथ की थी।शहरी लोग अगर समझ रहे है कि,ये तो गांव का मामला है,तो थोड़े समय मे वो भी इसके दुष्प्रभावों से अछूते नही रहेंगे।
ReplyDeleteसाहब गिरती अर्थव्यवस्था के कारण हताश हो गये है और काफ़ी दबाव में है, और दबाव में कुछ तो करना पड़ेगा ही, और भविष्य के गर्त में क्या है डर उसका भीं है!!
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