इन ट्वीट्स से 'न्यायपालिका की चूलें हिल गयीं हैं,' ऐसा माननीय न्यायमूर्तियों ने 14 अगस्त को प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराते हुए कहा था। अब भारतीय न्यायपालिका के ऊपर कभी केरल हाई कोर्ट के एक समारोह में बोलते हुए देश के प्रसिद्ध कानूनविद और जज जस्टिस कृष्ण अय्यर ने जो कहा था, उसे पढ़े।
जस्टिस अय्यर ने कहा था,
इस देश में ईसा मसीह तो सूली पर चढ़ रहे हैं और जल्लाद न्यायपालिका की कृपा से बच रहे हैं। एक अंदरूनी जानकार होने के कारण मैं बहुत सी बातें खुलकर नहीं कह रहा हूं। हमारा न्यायिक अप्रोच कई बार सभ्य बर्ताव से पृथक हो जाता है। साफ साफ कहूं तो भारतीय न्यायपालिका अस्तित्वहीन ही हो गई है।
इस पर तब भी बवाल मचा था। अवमानना की बाते तब भी उठी थीं। लेकिन हाईकोर्ट ने कहा, यह टिप्पणी उन्हें उनकी कार्यशैली में सुधार के लिये प्रेरित करेगी।
आज कहा जा रहा है,
हम सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं, हमे आपस मे ही एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए। एक दूसरे से मिल बैठ कर रहना चाहिए।
यही शब्द तो न्यायमूर्ति अरुण मिश्र ने नहीं कहा लेकिन जो आपसी भाईचारे जैसी चीज कही, उसका मूल आशय यही था।
सुप्रीम कोर्ट के प्रति किसी के मन मे निरादर का भाव नहीं है। वही तो किसी भी कठिन समय मे एक प्रकाश स्तम्भ सा दीखता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट यह तो कहता है कि वह स्वस्थ आलोचना का स्वागत करता है, लेकिन जब स्वस्थ आलोचना होने लगती है तो अपनी झेंप को अवमानना के आरोप के पीछे छुपाने लगता है।
न्यायपालिका एक संस्थागत अहमन्यता के प्रभामंडल में जीता है। अदालत में ऊंचे डायस पर बैठे हुए न्यायमूर्ति में वादी प्रतिवादी सबकी आशाएं समाहित हो जाती है। जो भी आदेश होता है पक्ष विपक्ष सभी उसे स्वीकार करते है। अगर निर्णय से असहमत हैं तो अपील करते हैं और अगर निर्णय सुप्रीम कोर्ट का है तो रिव्यू, क्यूरेटिव पिटीशन आदि कानूनी उपचार भी होते हैं।
लेकिन इन विविध उपचारों के पीछे यह सोच है कि, पीठासीन अधिकारी, चाहे वह एक मैजिस्ट्रेट हो या सुप्रीम कोर्ट का न्यायमूर्ति, मूलतः मनुष्य ही होता है और मनुष्य गलत्तिया कर सकता है। इसी आधार पर यह भी सोचना चाहिए कि, मनुष्य भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, पक्षपातवाद भी कर सकता है। पर आज तक न्यायपालिका ने ऐसा कोई तंत्र गठित या विकसित करने की बात नहीं सोची, जिससे न्यायपालिका में व्याप्त अंदरूनी कदाचार की जांच हो सके या दोषी को दंडित कर सके।
यह काम सरकार या कार्यपालिका नहीं करेगी। अगर ऐसा होता है तो इसे न्यायपालिका अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप और संवैधानिक चेक और बैलेंसेस के सिद्धांत के उल्लंघन की बात करेगी। यह हो भी सकता है कि, न्यायपालिका में सेंधमारी करने का एक रास्ता सरकार को मिल भी जाय। फिर यह और भी विकट स्थिति होगी।अतः अपने घर को साफ सुथरा रखने का दायित्व न्यायपालिका को लेना ही होगा। इससे न केवल न्यायतंत्र सुदृढ होगा, वह साफ सुथरा होगा, बल्कि जनता का भरोसा भी न्यायपालिका के प्रति बढ़ेगी और न्यायपालिका की साख जो इधर गिरी है उस पर भी रोक लगेगा।
20 अगस्त, औऱ आज 25 अगस्त की अदालत की पूरी कार्यवाही को अगर गम्भीरता से पढ़े तो जब जब, 2009 के तहलका इंटरव्यू में जजो के ऊपर भ्रष्टाचार और प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे में उल्लिखित जजो के भ्रष्टाचार की बात, चाहे वह प्रशांत भूषण के वकील, दुष्यंत दवे ने उठाया हो, या राजीव धवन ने या अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने, तब तब अदालत असहज हुयी और भ्रष्टाचार के आरोपों वाले उस अंश को अदालत में पढने से रोक भी दिया। अंत मे आज 25 अगस्त को, उनमे से कुछ अंश पढ़े और फिर अदालत ने यह मामला बड़ी बेंच को संदर्भित कर दिया, जिसकी तारीख 10 सितंबर को पड़ी है।
जस्टिस अरुण मिश्र ने गांधी जी को उद्धृत करते हुए जो कहा है, वह तो बेहद आपत्तिजनक है। गांधी जी ने अपने पूरे जीवनकाल में ऐसी परिस्थितियों में कभी भी माफी नहीं मांगी। जस्टिस अरुण मिश्र ने गांधी जी के बारे में जो कहा है, उसे पहले पढिये,
" आप ही बताइए, माफी शब्द के प्रयोग में क्या बुराई है ? माफी मांगने में क्या बुरा है ? माफी मांग लेने से क्या आप दोषी हो जाएंगे ? माफी एक जादुई शब्द है। यह कई ज़ख्मो को भर देता है। मैं यह बात सामान्य रूप से कह रहा हूँ, न कि प्रशांत भूषण के मामले में। यदि आप क्षमा याचना करते हैं तो, इससे आप महात्मा गांधी की श्रेणी में आ जाएंगे। गांधी जी भी माफी मांगा करते थे। यदि आप ने किसी को आहत किया है तो उस पर आप ही को मलहम लगाना है । माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता है।"
अब गांधी जी से जुड़ा एक प्रकरण, यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसे भी पढ़ लें।
मोहनदास करमचंद गांधी और महादेव हरिभाई देसाई "यंग इंडिया" नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक और प्रकाशक थे। अहमदाबाद के जिला मजिस्ट्रेट (श्री बीसी कैनेडी) की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखे गए एक पत्र को प्रकाशित करने और उस पत्र के बारे में टिप्पणी प्रकाशित करने के कारण उनके खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू की गई।
मजिस्ट्रेट कैनेडी द्वारा लिखा गया पत्र अहमदाबाद कोर्ट के वकीलों के बारे में था, जिन्होंने "सत्याग्रह प्रतिज्ञा" पर हस्ताक्षर किए थे और रोलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था। यह पत्र 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में शीर्षक ओ डायरिज़्म इन अहमदाबाद के साथ प्रकाशित किया गया था। दूसरे पृष्ठ पर आलेख का शीर्षक शेकिंग सिविल रेजिस्टर्स था।
लगभग दो महीने बाद, हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी जी को 20 अक्टूबर 1919 को चीफ जस्टिस के कक्ष में उपस्थित होने का अनुरोध करते हुए एक पत्र लिखा और उन्हें पत्र के प्रकाशन और उस पर टिप्पणियों के बारे में अपना स्पष्टीकरण देने को कहा।
गांधी जी ने कहा, "मेरा विनम्र विचार है कि उक्त पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना, एक पत्रकार के रूप में मेरे अधिकारों के तहत था। मेरा विश्वास था कि पत्र सार्वजनिक महत्व का है और उसने सार्वजनिक आलोचना का आह्वान किया है।"
रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी जी को फिर से लिखते हुए कहा कि चीफ जस्टिस ने उनके स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं पाया। फिर उन्होंने 'माफी' का एक प्रारूप दिया और उसे 'यंग इंडिया' के अगले अंक में प्रकाशित करने के लिए कहा।
गांधी ने रजिस्ट्रार जनरल को फिर पत्र लिखा। उन्होंने 'माफी' प्रकाशित करने से इनकार करते हुए खेद व्यक्त किया और अपना 'स्पष्टीकरण' दोहराया। उन्होंने अपने पत्र में कहा, "माननीय, क्या इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, मैं सम्मानपूर्वक उस दंड को भुगतना चाहूंगा जो माननीय मुझे देने की कृपा कर सकते हैं।"
इसके बाद, हाईकोर्ट ने गांधी और देसाई को कारण बताओ नोटिस जारी किया। दोनों अदालत में पेश हुए। गांधी ने अदालत को बताया कि उन्होंने जिला जज पर जज के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में टिप्पणी की थी।
"अदालत की अवमानना का पूरा कानून यह है कि किसी को कुछ भी नहीं करना चाहिए, या अदालत की कार्यवाही पर टिप्पणी करना, जबकि मामला विचाराधीन हो। हालांकि यहां जिला मजिस्ट्रेट ने निजी स्तर पर कोई कार्य किया था।"
महात्मा गांधी ने अपने बयान में कहा था, "मेरे खिलाफ जारी किए गए अदालत के आदेश के संदर्भ में मेरा कहना है: - आदेश जारी करने से पहले माननीय न्यायालय के रजिस्ट्रार और मेरे बीच कुछ पत्राचार हुआ है।
11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा था, जिसमें पर्याप्त रूप से मेरे आचरण की व्याख्या की गई थी। इसलिए, मैं उस पत्र की एक प्रति संलग्न कर रहा हूं। मुझे खेद है कि माननीय चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सलाह को स्वीकार करना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके अलावा, मैं सलाह को स्वीकार करने में असमर्थ हूं क्योंकि मैं यह नहीं समझता कि मैंने मिस्टर कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उसके विषय में टिप्पणी करके कोई कानूनी या नैतिक उल्लंघन किया है।
मुझे यकीन है कि माननीय न्यायालय मुझे तब तक माफी मांगने को नहीं कहेगा, जब तक कि यह सच्ची हो और एक ऐसी कार्रवाई के लिए खेद व्यक्त करने के लिये कहेगा, जिसे मैंने एक पत्रकार का विशेषाधिकार और कर्तव्य माना है।
सम्पूर्ण गांधी वांग्मय में संभवतः एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा, जिससे यह आभास होता हो कि महात्मा गांधी ने कभी ऐसी परिस्थितियों में माफी मांगी हो। न तो अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान और न ही भारत मे। अब यह मामला, केवल एक व्यक्ति को दंडित करने या न करने का नहीं रह गया है, बल्कि यह मामला, न्यायपालिका की साख का है और साख के लिये यह ज़रूरी है कि, न्यायपालिका अपना अन्तरावलोकन करे और ऐसे कदम उठाए जिससे इस चौथे खंभे में दीमक न लगे और इसका क्षरण रुक सके ।
( विजय शंकर सिंह )
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