एक बात समझ मे नहीं आ रही है कि, सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या के लिये उकसाने, या हत्या, जिस भी आपराधिक धारा में सीबीआई ने मुकदमा दर्ज किया हो, की जांच में सीबीआई की केस डायरी लीक होकर मीडिया के पास पहुंच रही है या फिर सीबीआई मीडिया के खुलासे का अपनी केस डायरी में उपयोग कर ले रही है ?
सीबीआई की जांच बेहद गोपनीय होती है। इतनी गोपनीय कि अगर वे किसी जांच में स्थानीय पुलिस की सहायता या सहयोग लेते भी हैं तो, बस उतना ही जितना उनके लिये जरूरी होता है। न तो उनसे कोई अनर्गल पूछता है, और न ही वे कुछ बताते हैं।
सीबीआई वाले बात बडी विनम्रता से करते हैं। एक एक सुबूत और दस्तावेज वे, धैर्य से देखते हैं और फिर उनका परीक्षण कर के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। पर वे हांकते नहीं है जैसा की अमूमन हम में से कुछ की आदत होती है कि हमने तो रगड़ दिया, घुटनो पर ला दिया, आदि आदि।
सीबीआई के विवेचक को भी, जांच करने की, उतनी ही वैधानिक शक्तियां प्राप्त है, जितनी कि, देश के किसी भी थाने में नियुक्त, एक सामान्य सब इंस्पेक्टर को। लेकिन सीबीआई के पास समय होता है, एक टीम होती है, कानूनी सलाहकार होता है और फिर केवल कुछ मुकदमो की विवेचना का ही काम रहता है तो, वे किसी भी केस की गहराई में पहुंचने की कोशिश करते हैं।
इसके विपरीत थाने के सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर के पास विवेचना के अतिरिक्त, कानून व्यवस्था से जुड़े, अन्य काम भी होते हैं, जो प्राथमिकता में, विवेचना से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं, तो उतनी गम्भीरता से वे दी गयी विवेचना का कार्य नहीं कर पाते हैं, जितनी दक्षता से उन्हें विवेचना कार्य करना चाहिए। इससे विवेचना की गुणवत्ता पर भी, असर पड़ता है जिसका प्रभाव अदालत में ट्रायल पर भी पड़ता है।
1980 से राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की रिपोर्ट में यह संस्तुति धूल खा रही है कि, विवेचना और कानून व्यवस्था यानी लॉ एंड ऑर्डर के लिये अलग अलग पुलिस तंत्र की व्यवस्था की जाय। 2007 से प्रकाश सिंह की याचिका के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट भी कह रहा है कि, पुलिस सुधार लागू किये जांय। पर इस पर किसी भी सरकार का कोई ध्यान नही है। किसी भी सरकार को विधिपालक पुलिस नहीं रास आती है, उसे जी जहाँपनाह पुलिस अधिक सुहाती है। यह एक तल्ख हक़ीक़त है।
अमूमन जिला पुलिस से तफ़्तीशों को इसलिए भी सीबीआई में स्थानांतरित किया जाता है, जिससे जो कुछ भी राजनीतिक दबाव हो, स्थानीय पुलिस पर पड़ रहा है, वह सीबीआई के ऊपर न पड़े और बिना किसी बाहरी अवैध दबाव के सीबीआई उस विवेचना को पूरा कर सके। लेकिन अब यह तर्क अविवादित नहीं रहा है। सीबीआई के खिलाफ भी राजनीतिक दबाव के सामने झुक जाने की शिकायतें आने लगीं है। 2012 में सीबीआइ को सुप्रीम कोर्ट ने तो केज्ड पैरट यानी पिजड़े में बंद तोता कह दिया था और मजेदार बात यह है कि, तत्कालीन सीबीआई प्रमुख ने प्रेस के सामने सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से सहमति भी जता दी थी।
आज कल पिछले कई हफ़्तों से हम टीवी पर सुशान्त केस के इन्वेस्टिगेशन के संबंध में जो बातें देख और सुन रहे हैं, उससे लगता है कि, या तो टीवी पत्रकार अपनी कोई समानांतर जांच चला रहे हैं या सीबीआई से उन्हें कोई नियमित ब्रीफ कर रहा है। यह ब्रीफिंग, न्यूज़ वैल्यू के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि प्रोपेगैंडा मैटेरियल के रूप में हो रही है। जो भी हो, दोनो ही स्थितियों में यह प्रथा अनुचित है।
जिला पुलिस के पास चूंकि कानून व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है तो उसे ऐसे हाई प्रोफाइल मामलों में प्रेस को ब्रीफ करना ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि शहर या लोगो की सब जानने की उत्कंठा बनी रहती है, और ऐसे चर्चित मामलो में कुछ न कुछ सार्थक परिणाम लाने का दबाव भी पुलिस पर लगातार पड़ता रहता है। ऐसे में थोड़ी बहुत चीज़े, प्रेस को ब्रीफ कर दी जाती हैं, जिससे प्रेस भी संतुष्ट हो जाय और यह सतर्कता भी बरती जाती है जिससे, जांच की गोपनीयता भी बनी रहे। अगर प्रेस को अधिकृत रूप से कुछ खबरे नहीं दी जाएंगी तो वे फिर सूत्रों के हवाले से खबरें छापेंगे और यह अदृश्य सूत्र, उनकी कल्पनाशीलता भी हो सकती है। क्योंकि उन पर भी ऐसी महत्वपूर्ण जांचों के अपडेट करने का दबाव रहता है।
पुलिस इन्वेस्टिगेशन या जांच और अदालत के ट्रायल में मौलिक अंतर है। पुलिस इन्वेस्टिगेशन या जांच एक गोपन प्रक्रिया है। सीबीआई या सीआईडी या एसटीएफ या कोई भी अन्य जांच एजेंसी अगर कोई इन्वेस्टिगेशन या जांच कर रही है, तो एजेंसी के बॉस और उक्त केस के विवेचक तथा सुपरवाइजरी अधिकारी के अतिरिक्त किसी को भी, उक्त इन्वेस्टिगेशन की अधिकृत जानकारी नहीं साझा की जाती है और अमूमन कोई पूछता भी नहीं है।
जबकि ट्रायल एक खुली अदालत में होता है। सारी गवाही, जिरह, बहस जनता के सामने होती है और सबके लिये सुलभ रहती है। उसमें कोई भी जाकर अदालत की कार्यवाही देख सकता है और उसे छाप सकता है। पर कुछ ट्रायल इन कैमरा भी होते है यानी बंद दरवाजे में, तो ऐसे ट्रायल को लोग नहीं देख सकते हैं। अदालत के बाहर उक्त ट्रायल से जुड़े पक्ष विपक्ष के वकील या वादी प्रतिवादी से टीवी पत्रकार पूछते भी हैं और उनकी बाइट भी लेते हैं।
जिस तरह से सीबीआई जांच की कमेंट्री और विवरण, चटखारे ले लेकर टीवी चैनलों पर दिखाया जा रहा है, उसका उद्देश्य जो भी हो, और इससे भले ही, किसी का कोई मक़सद हल हो पर, इससे इस केस की इन्वेस्टिगेशन पर असर भी पड़ सकता है और जब जांच के निष्कर्ष, टीवी द्वारा गढ़े गए, परसेप्शन के विपरीत जाते हैं तो जांच के ऊपर ही अनेक सवाल उठने लगते हैं और जांच एजेंसी की विश्वसनीयता को भी आघात पहुंचता है।
सीबीआई में भी जनसम्पर्क और प्रेस से लाइजन के लिये पीआरओ का पद होता है। उत्तर प्रदेश में भी डीजीपी मुख्यालय में एक पीआरओ का पद है जहां एडिशनल एसपी स्तर का अधिकारी नियुक्त रहता है। मैं 1995 - 96 में डीजीपी हेडक्वार्टर में पीआरओ रह चुका हूं। पीआरओ, महत्वपूर्ण केसों की विवेचना की प्रगति के बारे में प्रेस रिलीज जारी करता है और प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ सवालों के जवाब भी देता है। यदि, कोई महत्वपूर्ण निष्कर्ष होता है तो, पुलिस या सीबीआई के बड़े अफसर भी प्रेस के सामने आते हैं, और अपनी बात रखते हैं।
लेकिन, यह भी सही है कि, ऐसी प्रेस रिलीज या प्रेस वार्ता से टीवी चैनलों को ऐसी सामग्री नहीं मिल सकती है जिससे वे मसालेदार, ब्रेकिंग न्यूज़ की हेडिंग बना सकें। उनका उद्देश्य खबर देना नहीं खबर परोसना है और जब खबर परोसी जाएगी तो तीखी, चटपटी और मसालेदार बनानी ही होगी। अन्यथा वह न लोगो का ध्यान खींचेगी और न दिलचस्पी बनाये रखेगी जैसा कि सस्पेंस वाले क्राइम थ्रिलर सीरियल बनाये रखते हैं।
दस्तावेज, बयानों के शब्दशः विवरण, व्हाट्सएप्प चैट, आदि आदि, जो, टीवी स्क्रीन पर सार्वजनिक हो रहे हैं वे, विवेचना के अंग है और सुबूत के दस्तावेज हैं और, उन्हें जब तक अदालत में प्रस्तुत न कर दिया जाय, सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। पर इस विवेचना पर जैसी हास्यास्पद टीवी रिपोर्टिंग हो रही है उसे क्या कहा जाय।
सीबीआई को अधिकृत प्रेस वार्ता करके, इस मामले में, अगर अब तक कोई प्रगति हुयी है, और यदि इससे केस की इन्वेस्टिगेशन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो, उसे प्रेस को बता देना चाहिए और टीवी चैनल्स को अनावश्यक रूप से अपनी कल्पना से गढ़ी गयी जांच प्रगति को, जो केवल सनसनी फैलाने के लिये प्रसारित किया जा रहा है को, रोकने के लिए भी कहा जाना चाहिये। मीडिया इन्वेस्टिगेशन की यह परंपरा गलत है और इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
( विजय शंकर सिंह )
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