Monday, 3 August 2020

न्यायपालिका - अवहेलना, अवमानना और अवज्ञा / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण के विरुद्ध एक अवमानना की कार्यवाही की शुरुआत की है। यह कार्यवाही सीजेआई जस्टिस बोबडे द्वारा, एक महंगी मोटरसाइकिल पर बैठ कर फोटो खिंचाने और उस पर ऐसी टिप्पणी करने के संदर्भ में है जिसे अदालत नागवार और अवमानना समझती है। अभी सुनवाई चल रही है तो इस विषय पर किसी भी टिप्पणी से बचा जाना चाहिए। पर यह सवाल उठता है कि अदालत के अवमानना की अवधारणा क्या है और इसका विकास कैसे हुआ है। 

कानून का सम्मान बना रहे, यह किसी भी सभ्य समाज की पहली शर्त है। पर कानून कैसा हो ? इस पर बोलते हुए प्रसिद्ध विधिवेत्ता लुइस डी ब्रांडिस कहते हैं, 
" अगर हम चाहते हैं कि लोग कानून का सम्मान करें तो,  हमे सबसे पहले, यह ध्यान रखना होगा कि जो कानून बने वह सम्मानजनक भी हो। "
अगर कोई कानून ही धर्म, जाति, रंग, क्षेत्र आदि के भेदभाव से रहित नहीं होगा तो उस कानून के प्रति सम्मान की अपेक्षा किया जाना अनुचित ही होगा। आज न्यायपालिका के समक्ष एक अहम सवाल आ खड़ा हो गया है कि, न्यायालय की अवमानना, या अवहेलना या अवज्ञा जो एक ही शब्द में समाहित कर दें तो कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट, बनता है, तो ऐसे मामलों से कैसे निपटें। अवमानना के मामले, सुलभ और स्वच्छ न्यायिक प्रशासन के लिये अक्सर चुनौती भी खड़े करते हैं और न्यायालय की गरिमा को भी कुछ हद तक ठेस पहुंचाते हैं। 

अवमानना है क्या ? इसके बारे में इसे परिभाषित करते हुए लॉर्ड डिप्लॉक इस प्रकार कहते हैं, 
" हालांकि, आपराधिक अवमानना कई तरह की हो सकती है, लेकिन इन सबकी मूल प्रकृति एक ही तरह की होती है। जैसे न्यायिक प्रशासन में दखलंदाजी करना, या किसी एक मुक़दमा विशेष में जानबूझकर कर ऐसा कृत्य करना या लगातार करते रहना,  जिससे उस मुक़दमे की सुनवाई में अनावश्यक बाधा पड़े, अवमानना की श्रेणी में आता है । कभी कभी न्याय जब भटक जाता है या भटका दिया जाता है, तो वह भी एक प्रकार की अवमानना ही होती है, जो किसी अदालत विशेष की नहीं बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र की अवमानना मानी जाती है। " 

कंटेम्प्ट का अर्थ क्या है ? ब्लैक के  लीगल शब्दकोश के अनुसार, 
" कंटेम्प्ट वह कृत्य है, जो न्यायालय की गरिमा गिराने, न्यायिक प्रशासन में अड़ंगा डालने या अदालत द्वारा दिये गए दंड को मानने से इनकार कर देने से सम्बंधित है । यह सभी कृत्य आपराधिक अवमानना हैं, जिनकी सज़ा कारावास या अर्थदंड या दोनो ही हो सकते हैं। " 
भारत मे कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट का प्राविधान, कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, 1971 की धारा 2(ए) के अंतर्गत दिया हुआ है। यह धारा आपराधिक और सिविल अवमानना दोनो की ही प्रकृति और स्वरूप को परिभाषित करती है। लेकिन इस प्राविधान के संबंध में यह भी  माना जाता है कि, यह कानून अवमानना के संदर्भ में उठे कई बिंदुओं को स्पष्ट करने में असफल है। 

अब अवमानना के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं । शब्द, न्यायालय की अवमानना या कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट, उतना ही पुराना है जितनी पुरानी कानून की अवधारणा है। जब भी कानून बना होगा, तो उसकी अवज्ञा, अवहेलना और अवमानना भी स्वतः बन गयी होगी। लेकिन एक सभ्य समाज मे कानून का राज बना रहे, इसे सुनिश्चित करने के लिये, कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट  सम्बन्धी कानून, सौ साल पहले संहिताबद्ध होने शुरू हुए थे, जिसके अंतर्गत, न्यायालय की गरिमा को आघात पहचाने के लिये दंड की व्यवस्था की गयी। प्राचीन काल मे राजतंत्र होता था जिससे, राजा या सम्राट में ही सभी न्यायिक शक्तियां, अंतिम रूप से निहित होती थीं। उसे सर्वोच्च अधिकार और शक्तियां प्राप्त थीं और उसका सम्मान करना उसकी प्रजा का दायित्व और कर्तव्य था। यदि कोई राजाज्ञा की अवज्ञा अथवा  राजा की निंदा करता या उसके प्रभुत्व को चुनौती देता था तो, उसे दंड का भागी होना पड़ता था। दंड का स्वरूप, राजा की इच्छा पर निर्भर करता था। लेकिन बाद मे, न्याय का दायित्व एक अलग संस्था,  न्यायपालिका के रूप में विकसित हो गया। तभी न्यायाधीशों के पद बने और एक न्यायिक तन्त्र अस्तित्व में आया। लेकिन यह सब होने के पहले ही, एक ऐतिहासिक संदर्भ के अनुसार, इंग्लैंड में, बारहवीं सदी में राजा की अवज्ञा का कानून भी बना था और उसे एक दंडनीय अपराध घोषित किया गया। 

देश की प्रशासनिक और न्यायिक प्रशासन की नींव भी ब्रिटिश न्यायिक व्यवस्था के आधार पर रखी गयी है। 1765 ई, के एक फैसले के ड्राफ्ट में जस्टिस विलमोट ने जजो की शक्तियां और अवमानना के बारे में सबसे पहले एक टिप्पणी की थी। यह फैसला अदालत ने जारी नहीं किया था अतः इसे एक ड्राफ्ट और अघोषित निर्णय कहा जाता है। इस अघोषित निर्णय में जजो की गरिमा की रक्षा करने के लिये कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट सम्बन्धी कानूनों के बनाये जाने की आवश्यकता पर बात की गयी है। बाद में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के एक मामले में जो कलकत्ता की तरफ से प्रिवी काउंसिल तक गया था, में, प्रिवी काउंसिल ने कंटेम्प्ट के बारे में कहा था कि, 
" हाईकोर्ट को अदालती अवमानना के मामलों को सुनने की शक्तियां हाईकोर्ट के गठन में ही निहित है। यह शक्ति किसी कानून के अंतर्गत हाईकोर्ट को नहीं प्रदान की गयी है, बल्कि यह हाईकोर्ट की मौलिक शक्तियां हैं। "
ब्रिटिश काल मे प्रिवी काउंसिल सर्वोच्च न्यायिक पीठ होती थी और यह ब्रिटिश सम्राट की न्यायिक मामलो में सबसे बड़ी सलाहकार संस्था भी होती है। 1926 ई में पहली बार अवमानना के मामलों में पारदर्शिता लाने के लिये कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट की अवधारणा के अनुसार कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट बनाया गया, जिससे अधीनस्थ न्यायालयों की न्यायिक अवहेलना या अवज्ञा के मामलों में दोषी  व्यक्ति को दंडित किया जा सके। 

लेकिन 1926 के अधिनियम में डिस्ट्रिक्ट जज की कोर्ट तो शामिल थीं, पर उससे निचली अदालतों के संदर्भ में अवमानना का कोई उल्लेख नहीं था। इस प्रकार आज़ादी मिलने के बाद, 1952 में एक नया, कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1952 बनाया गया, जिंसमे सभी न्यायिक अदालतों को अवमानना के संदर्भ में, सम्मिलित किया गया। बाद में,  यही अधिनियम 1971 ई मे कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 के रूप में दुबारा बनाया गया। इस प्रकार अवमानना के संदर्भ में जो कानून अब मान्य है वह 1971 का ही कानून है। 1971 का कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, एचएन सान्याल की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी द्वारा ड्राफ्ट किया गया था। इस अधिनियम की आवश्यकता इस लिये पड़ी कि, कंटेंप्ट के संदर्भ में, 1952 के अधिनियम में कई कानूनी विंदु स्पष्ट नहीं थे, और उससे कई कानूनी विवाद उठने भी लगे थे। अतः एक बेहतर और अधिक तार्किक कानून की ज़रूरत महसूस की जाने लगी थी, इसलिए 1971 में यह अधिनियम नए सिरे से पारित किया गया। कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 एक सुलझा हुआ और न्याय की अवधारणा को केंद्र में रखते हुए अदालती गरिमा को किसी भी प्रकार से ठेस न पहुंचे, सभी विन्दुओं पर सोच समझकर बनाया गया, अधिनियम है। 

1971 का कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट, न्यायालय की अवमानना को दो अलग अलग भागों मे बांट कर देखता है। एक सिविल कंटेम्प्ट और दूसरा क्रिमिनल या फौजदारी कंटेम्प्ट। कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 की धारा 2(बी) के अंतर्गत सिविल अवमानना की जो परिभाषा दी गयी है, वह इस प्रकार है। 
" जो कोई भी, जानबूझकर, किसी निर्णय ( जजमेंट ) डिक्री, आदेश, या अदालत द्वारा दिये गए किसी भी निर्देश,या अदालत में बिधिक कार्यवाही के दौरान दिये गए अंडरटेकिंग से मुकर जाता है या उसकी अवज्ञा करता है तो वह व्यक्ति अवमानना का दोषी ठहराया जा सकता हैं। " 

इसी अधिनियम की धारा 2(सी) के अंतर्गत क्रिमिनल अवमानना को भी  परिभाषित किया गया है। इसके अंतर्गत,   
" जो कोई भी जानबूझकर, शब्दों द्वारा, जो या तो, बोला गया हो या, लिखा गया हो, या किसी प्रतीक या इशारे से कहा गया हो, या किसी भी अन्य प्रकार से, निम्न के संदर्भ में अभिव्यक्त किया गया हो तो, वह न्यायालय की अवमानना मानी जायेगी। जैसे, अदालत की गरिमा गिराने की कोई कोशिश करते हुए दुष्प्रचार किया जाय या दुष्प्रचार में साथ दिया जाय, या पूर्वाग्रह से अथवा किसी अन्य तरह से न्यायिक कार्य मे बाधा पहुचाई जाय या बाधा पहुंचाने की कोशिश की जाय, या न्यायिक कार्य मे हस्तक्षेप किया जाय या हस्तक्षेप करने की कोशिश की जाय, या न्यायिक प्रशासन में अड़ंगा डालने की कोशिश की जाय, तो यह सभी कृत्य अवमानना की श्रेणी में आएंगे । 

सिविल और क्रिमिनल कंटेम्प्ट में अंतर क्या है, इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने  विजय प्रताप सिंह बनाम अजित सिंह के एक मामले में बेहद स्पष्टता से बताया है। न्यायालय के अनुसार, 
" एक सिविल कंटेम्प्ट और क्रिमिनल कंटेम्प्ट में मूल अंतर यह है कि, सिविल अवमानना के दोषी के विरुद्ध की जाने वाली, कार्यवाही का उद्देश्य यह है कि,अवमानना करने वाले  व्यक्ति पर यह दबाव डाला जाय कि  दूसरे पक्ष को न्यायिक लाभ देने के लिये कुछ करे। लेकिन क्रिमिनल कंटेम्प्ट की कार्यवाही में अवमानना  करने वाले व्यक्ति पर कार्यवाही इसलिए की जाती है कि, उसके कृत्य से न्याय की सर्वोच्चता को आघात पहुंचता है। यह जनता के लिये एक संदेश के रूप में होती है कि न्याय की सर्वोच्चता और गरिमा हर दशा में बनी रहनी चाहिए। जैसे ही किसी व्यक्ति द्वारा न्यायालय की अवहेलना या अवज्ञा होती है तो सिविल कंटेम्प्ट भी क्रिमिनल कंटेम्प्ट में बदल जाता है। सिविल अवमानना में भी, जैसे ही कारावास या अर्थदंड जैसे दंड दिए जाते हैं, उनका स्वरूप भी क्रिमिनल अवमानना में बदल जाता है। अतः सिविल और क्रिमिनल अवमानना के स्वरूपों में बहुत ही क्षीण अंतर होता है और कहीं कहीं तो, सिवाय नाम के और कोई अंतर दिखता भी नहीं है। हालांकि अगर कोई, किसी न्यायिक आदेश की अवज्ञा करता है तो, वह किसी न किसी निजी पक्ष को ही अनुचित लाभ पहुंचाता है, तो यह अवमानना, सिविल अवमानना की श्रेणी में आएगा। लेकिन अवमानना करने वाला व्यक्ति यदि अदालत के आदेश की अवज्ञा और अवहेलना करता है तो, ऐसा करके वह न्यायिक तंत्र की गरिमा को आघात पहुंचा रहा है और न्याय की सर्वोच्चता को सीधे चुनौती दे रहा है, जिसमे जनता में न्यायपालिका के संदर्भ में विपरीत और प्रतिकूल संदेश भी दे रहा है, तो ऐसी सिविल अवमानना, क्रिमिनल अवमानना में भी बदल जाती है। अतः यह दोनो अवमाननाये लगभग मिली जुली ही हो जाती हैं।"

अब कंटेम्प्ट के संबंध में कुछ प्रमुख मुकदमो का उल्लेख करते हैं। 
● पारस सखलेचा ने मध्यप्रदेश के चीफ जस्टिस, जस्टिस एएम खानविलकर पर, अदालत में सुनवाई के दौरान यह आरोप लगाया था कि जस्टिस खनविलकर ने उसके एक मुक़दमे की सुनवाई में कुछ आपत्तिजनक बातें कही थीं, जिनसे अदालत की ही गरिमा गिरी थी और यह अवमानना है। पर हाईकोर्ट की एक बड़ी बेंच ने इसे अवमानना नहीं माना था। 

● वी जयरंजन बनाम केरल हाईकोर्ट का मामला बेंच के खिलाफ अमर्यादित शब्दो के उल्लेख का है। जयरंजन ने अदालत में जज को मलयालम भाषा मे, शुम्भनमर यानी बेवकूफ और पुलुविला यानी नीच कह दिया था और इसके लिये उसने माफी भी नहीं मांगी तो इस कंटेम्प्ट में केरल हाईकोर्ट ने सज़ा दे दी। मुक़दमे की अपील, सुप्रीम कोर्ट में हुयी। जिसने कहा कि, 
" जजो से उम्मीद की जाती है कि वे, अनपढ़ व्यक्ति से भी, मुक़दमे के विषय में, तर्कसंगत चर्चा करें और वादी प्रतिवादी के विचार ही न सुने बल्कि उन्हें अपनी बात रखने के लिये  प्रेरित भी करें, पर वादी प्रतिवादी की अभद्र भाषा को सहन न करें। " 
साथ ही केरल हाईकोर्ट द्वारा दी गयी चार हफ्तों की सज़ा को बहाल रखा। 

● जीएन साईंबाबा की जमानत याचिका रद्द किए जाने पर, अरुंधति रॉय द्वारा जस्टिस अरुण बी चौधरी की आलोचना में, एक लेख लिखने के कारण अरुंधति रॉय के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की गयी थी और उन्हें दण्डित भी किया गया था। 

● अटॉर्नी जनरल बनाम टाइम्स न्यूज़पेपर लिमिटेड में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में अवमानना पर हुयी एक बहस के अंश को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि, अवमानना कानून के मुख्यतः तीन उद्देश्य हैं, 
1. वादी और प्रतिवादी, उभय पक्ष और उनके गवाहों को बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के न्यायालय में सुनवाई के लिये आने जाने देना, 
2. बिना हस्तक्षेप के अदालतों को उनका काम करने देना, 
3. न्यायिक प्रशासन का अधिकार और उनके प्रभुत्व को बरकरार रखना। 

● राम सूरत सिंह बनाम शिव कुमार पांडेय के मामले में अदालत ने अवमानना पर कहा है कि, 
" अवमानना का प्राविधान, न्यायपालिका के लिये अक्षमता और भ्रष्टाचार छिपाने तथा अच्छी नीयत से की गयी कठोर आलोचना को हतोत्साहित करने का एक उपकरण नहीं है। न्यायिक प्रशासन तब तक सक्षम नहीं रह सकता है जब तक कि वह खुद अपने सम्मान के लिये सचेत न रहे।" 

● एक रोचक मामला केरल के पूर्व मुख्यमंत्री और सीपीएम के शीर्ष नेता ईएमएस नंबूदरीपाद के संम्बंध में भी है। नंबूदरीपाद को हाईकोर्ट ने अदालत के विरुद्ध किसी टिप्पणी को कंटेम्प्ट मानते हुए सज़ा सुना दी थी, जिसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में हुयी। इस अपील की सुनवाई, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद हिदायतुल्लाह, जीके मित्तर और एएन रे की बेंच ने की। इस मुक़दमे में कंटेम्प्ट की धारणा को और अधिक स्पष्ट किया गया है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि, 
" अवमानना कानून, अदालतों के, न्याय करने की निर्बाध राह को, बाधा रहित बनाने के उद्देश्य पर आधारित है। अतः न्याय में बाधा पहुंचाने वाले लोगों को कारावास या अर्थदंड से दंडित करने का प्राविधान इस कानून में रखा गया है। भारत मे यह अधिकार, सभी अदालतों  को दिया गया है, पर अवमानना पर सुनवाई और दण्डित करने का अधिकार उच्चतर न्यायालयों को है। शुरुआत में यह कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड्स के अंतर्गत, न्यायालय की मूल शक्तियों में माना जाता था, बाद में इसे संवैधानिक जामा भी पहनाया गया। अवमाननाये भी कई तरह की होती है। जिंसमे मुख्य हैं, जजो का अपमान करना, उनपर हमला करना,  मुकदमो की सुनवाई के दौरान बाधा पहुंचाना, अदालत के किसी कर्मचारी द्वारा कर्तव्य की अवहेलना करना, जजों के बारे में उनकी मानहानि के उद्देश्य से, जानबूझकर कोई दुष्प्रचार फैलाना, और कानून की अवज्ञा और अवहेलना करना। ऐसा कोई भी आचरण करना जिससे न्यायालय की बदनामी या न्यायालय के प्रति असम्मान उपजता हो और न्याय के प्रभुत्व और अधिकार को चुनौती मिलती हो तो, उसे न्यायालय की अवमानना का आधार माना जा सकता है। "
नंबूदरीपाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने, मार्क्स और एंगेल्स के ही अनेक उद्धरणों को उद्धृत करते हुए अपना फैसला सुनाया तथा, नंबूदरीपाद को दी गयी सज़ा को बहाल रखा। 

सभी अवमाननाये भी एक ही तरह की नहीं होती हैं। कुछ अवमाननाये, सैद्धांतिक दृष्टिकोण से की गयी होती हैं, और कुछ कंटेम्प्ट जानबूझकर कर किये गए होते हैं। जैसे अदालत के किसी आदेश को न मानना। ऐसे मामलों में अदालत के अधिकार को स्पष्ट रूप से चुनौती मिलती है तो, यह एक दंडनीय अवमानना का मामला बनता है। 
" विधिक प्रशासन में दखलंदाजी, न्याय को उससे उद्देश्य से भटकाने का एक कृत्य है, जिससे न केवल न्यायालय की गरिमा ही प्रभावित होती है, बल्कि इससे इस मौलिक अवधारणा कि, कानून ही सर्वोच्च है को, चुनौती भी मिलती है। " 
कंटेम्प्ट के कानूनों पर यह महत्वपूर्ण टिप्पणी, लॉर्ड क्लाइड की है। 

कंटेम्प्ट के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन के बाद यह स्पष्ट होता है कि, अवमानना कानून का मूल उद्देश्य है जनता में न्याय के प्रति सम्मान को बनाये रखना। न्यायपालिका का यह दायित्व है कि वह इस अधिकार और शक्तियों का उपयोग विवेकपूर्ण ढंग और पूर्वाग्रह मुक्त होकर करे। अवमानना अधिनियम 1971 का उद्देश्य ही यह है कि अदालतें न्याय प्रदान करने के मार्ग में आने वाली अनावश्यक बाधाओं से, वैधानिक रूप से निपट सकें और अपने लक्ष्य की ओर बढ़े। हालांकि कोई भी वैधानिक प्राविधान त्रुटिरहित नहीं होता है और यह एक्ट भी कोई अपवाद नहीं है। इस अधिनियम में कुछ कमियां है, जो इस प्रकार से लिपिबद्ध की जा सकती हैं। 
● अदालतों को अपनी आलोचना खुले मन से सुनने के लिये मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। इससे न्यायिक फैसलों में तेजी आएगी और न्याय के अनुसंधान में दृढ़ता से बढ़ने में मदद मिलेगी। 
●न्यायपालिका को न्यायालय की अवमानना और न्यायाधीश की अवमानना, के बीच जो अंतर है, उसे समझना होगा। किसी जज विशेष की निजी आलोचना संस्थान की अवमानना नही समझी जानी चाहिए। 
● कंटेम्प्ट के प्राविधान का उपयोग अंतिम आश्रय के रूप में ही किया जाना चाहिए, जब यह भरोसा पुख्ता हो जाय कि, न्याय के मार्ग में बाधा पहुंचाई जा रही है और विधि की सर्वोच्चता को चुनौती दी जा रही है, न कि बिना किसी दुराशय के कही गयी बातों के ही आधार पर उसे निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उक्त अधिकार का दुरूपयोग किया जाना चाहिए। 
● इस कानून के भी लागू करने के संबंध में मेंस रिया, कदाशय या इरादे को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि, क्या अवमानना का कृत्य करने वाले का ऐसा कोई इरादा है भी या नही। मेंस रिया सभी कानूनी प्राविधानों का मूल प्रेरक भाव होता है। 
● अगर किसी न्यायाधीश को लगता है कि, कोई मामला अवमानना का मामला है तो, उसे कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट के अनुसार मुकदमा चलाने के पहले, एक कमेटी द्वारा उसका परीक्षण कराये जाने की आवश्यकता पर भी विचार करना चाहिए कि, अवमानना का कोई मामला बनता भी है या नहीं। यह एक प्रकार से प्रारंभिक जांच जैसा प्राविधान होगा। 
● अवमानना कानून के दायरे से बाहर कोई भी नहीं रखा जाना चाहिए, चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हो। 

अंत मे एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि, क्या अवमानना के कानून से न्यायपालिका को कानून का राज स्थापित करने में सफलता मिली भी है या नही। कंटेम्प्ट की कार्यवाही के दौरान, अदालतों ने संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति के अधिकार का तो कोई हनन नहीं किया है ? न्यायालय की गरिमा और मर्यादा तथा अभिव्यक्ति के अधिकार के बीच जो एक संवेदनशील संतुलन है, उसे न्यायपालिका ने कितना बनाये रखा है ? यह सब इस समीक्षा का एक महत्वपूर्ण विंदु है। इस संदर्भ में, पूर्व सीजेआई जस्टिस खरे ने एक मार्के की बात कही है कि, 
" मैं मीडिया को पुरस्कृत करूँगा यदि वह सत्य के साथ हमारी आलोचनाये करती है तो। मैं निजी तौर पर इस मत का हूँ कि यदि आलोचनाएं सत्य पर आधारित हैं तो उनके पक्ष मे खड़ा होना चाहिए। " 
 
इस संबंध में ताजी खबर यह है कि अवमानना अधिनियम 1971 की धारा 2(सी)(1) को, संविधान में अंकित अनुच्छेद 19(1)(ए) के विरुद्ध मानते हुए, प्रसिद्ध पत्रकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी, द हिंदू अखबार के प्रधान संपादक एन राम औऱ सुप्रीम कोर्ट के ही एडवोकेट प्रशांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है।याचिकाकर्ताओं के अनुसार, यह अधिनियम असंवैधानिक है और संविधान की मूल संरचना के खिलाफ है। उनके अनुसार ये संविधान द्वारा प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। 
धारा 2 (सी) (i) में कहा गया है कि 
" आपराधिक अवमानना” से किसी भी ऐसी बात का (चाहे बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य रूपणों द्वारा या अन्यथा) प्रकाशन अथवा किसी भी अन्य ऐसे कार्य का करना अभिप्रेत है-(i) जो किसी न्यायालय को कलंकित करता है या जिसकी प्रवृत्ति उसे कलंकित करने की है अथवा जो उसके प्राधिकार को अवनत करता है या जिसकी प्रवृत्ति उसे अवनत करने की है।"
याचिका में कहा गया है कि
" यह प्रावधान एक,औपनिवेशिक धारणा है, जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है। यह अत्यधिक व्यक्तिपरक है, और बहुत अलग लक्षित कार्रवाई आमंत्रित करता है। इस प्रकार, अपराध की अस्पष्टता अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है जो समान व्यवहार और गैर-मनमानी की मांग करती है।"

( विजय शंकर सिंह )

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