रेल, जहाज, स्कूल, अस्पताल के बाद देश के जंगल भी बिकेंगे। यह सोच है, देश के सबसे बड़े और प्रभावी थिंक टैंक नीती ( एनआइटीआई ) आयोग का। 2014 के बाद योजना आयोग को भंग कर बड़े जोर शोर से देश का आर्थिक कायाकल्प करने के इरादे से, नीती आयोग का गठन हुआ था। पर देश के कायाकल्प के नाम पर, इस आयोग या थिंक टैंक के दिमाग मे बस एक ही चीज आती है कि देश की बिगड़ती आर्थिकी की एक ही दवा है, निजीकरण।
इसी क्रम में सरकार के साथ खड़े और इलेक्टोरल बांड के ज़रिए सत्तारूढ़ दल को गुप्त दान देने वाले, चंद पूंजीपतियों को, देश की सारी संपदा, धीरे धीरे बेच दी जाय। इस प्रक्रिया का नाम भले ही, विनिवेशीकरण रखा जाय या निजीकरण कह कर आत्मतुष्टि के बोध से प्रमुदित हो लिया जाय, पर यह सारी कार्यवाही, देश की औद्योगिक संपदा को अपने चहेते पूंजीपतियों को कम दामों में देकर उपकृत करने की है। यह एक प्रकार का गिरोहबंद पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज़्म है। यह पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे घृणित रूप है।
केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने अब
देश की वन संपदा पर अपनी निगाह गड़ाई है। कहा जा रहा है कि, जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिये उसका निजीकरण करना ज़रूरी है। मतलब, जिन जंगलों में अवैध कटान और अन्य कब्जे करने वाले माफियाओं आदि को रोके जाने की ज़रूरत है, उसी वन संपदा को, अवैध कटान और वन भूमि पर कब्ज़ा करने वाले गिरोह को लिखा पढ़ी में सौंप देनी की बात, अब थिंक टैंक सोच रहा है। सरकारी शब्दावली में, वनों को पुनर्जीवित करने के लिए लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल लागू करने पर विचार किया जा रहा है।
मीडिया में इस संबंध में जो जानकारी उपलब्ध है, उसके अनुसार,प्राकृतिक जंगलों को बचाने और वनरोपण कार्यक्रम के लिए आयोग, निजी कंपनियों के साथ एक समझौता करने की योजना पर विचार कर रहा है। द प्रिंट वेबसाइट
में छपी एक खबर के अनुसार, नीति आयोग ने एक प्रेजेंटेशन में बताया कि अभी देश में जारी वन्यीकरण कार्यक्रमों का कोई वांछित प्रभाव नहीं पड़ा है। इसलिए इस क्षेत्र में भी अब पीपीपी मॉडल को लागू किए जाने की जरूरत है, ताकि निवेश को बढ़ाया जा सके और क्षमता और मैनपावर के साथ वन्यीकरण में आधुनिक तकनीक लाई जा सके।
इसी प्रेजेंटेशन में आगे बताया गया है कि, "जिन क्षेत्रों में पीपीपी मॉडल लागू किए जा सकता है, उनमें लकड़ी और गैर-लकड़ी के जंगली चीजों से तैयार किए गए उत्पाद, ईको कैंपिंग, ऑर्गेनिक खेती जैसे क्षेत्र शामिल हैं।" अब तक के वन सम्बन्धो कानूनो के अनुसार, वन्यीकरम कार्यक्रम में अभी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां और कोऑपरेटिव पीएसयू, राज्य सरकार के अंतर्गत आने वन विकास निगम, ग्राम सभा-पंचायत, स्वायत्त जिले और ग्राम विकास बोर्ड, एनजीओ को शामिल किया गया है। लेकिन नीति आयोग की योजना अब इसमें कॉरपोरेट को भी घुसाने की है। अगर सरकार अपने थिंक टैंक की राय से सहमत रहती है, तो आने वाले समय में प्राइवेट कंपनियां भी इस लिस्ट का हिस्सा बन सकेंगी।
सरकार की तरफ से कहा गया है, प्रस्तावित योजना एक ड्राफ्ट है। अभी किसी निर्णय पर सरकार नहीं पहुंची है। उक्त ड्राफ्ट के अनुसार, जिन कंपनियों को सरकार अपने साथ वन्यीकरण कार्यक्रम में जोड़े सकेगी उनमें छोटे और मध्यम स्तर के फसल काटने वाले, कॉरपोरेट और टूरिज्म सेक्टर से जुड़ी कंपनियां शामिल हो सकती हैं। पर्यावरण मंत्रालय की ओर से मिली जानकारी के मुताबिक, इस योजना को इसी महीने, सरकार के सामने पेश किया जाना था, पर कुछ तकनीकी खा’मियों की वजह से इसे अभी प्रस्तुत नही किया जा सका है ।
वन हमारी धरोहर एवं जीवन रेखा हैं। वनों के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वन संपदा की वर्तमान स्थिति के संबंध में भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून द्वारा जारी, भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2019 के अनुसार, हमारे देश में कुल 807276 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में वन स्थित हैं, जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.67 प्रतिशत है। सर्वाधिक वन क्षेत्रफल वाला राज्य मध्यप्रदेश है जहां 77482 वर्ग किलोमीटर वन हैं। वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार भारत के 144 पहाड़ी जिलों में 544 वर्ग किलोमीटर वनों में वृद्धि हुई है। भारत के वनों का कुल कार्बन स्टॉक लगभग 7142.6 मिलियन टन है। वनों की स्थिति के संबंध में जारी "भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2019" में वन एवं वन संसाधनों के आंकलन के लिये पूरे देश में 2200 से अधिक स्थानों से प्राप्त आँकड़ों का प्रयोग किया गया है।
वर्ष 1936 में हैरी जॉर्ज चैंपियन ने भारत की वनस्पति का सबसे लोकप्रिय एवं मान्य वर्गीकरण किया था। वर्ष 1968 में चैंपियन एवं एसके सेठ ने मिलकर स्वतंत्र भारत के लिये इसे पुनः प्रकाशित किया। यह वर्गीकरण पौधों की संरचना, आकृति विज्ञान और पादपी स्वरुप पर आधारित है। इस वर्गीकरण में वनों को 16 मुख्य वर्गों में विभाजित कर उन्हें 221 उपवर्गों में बाँटा गया है। वनों में रहने वाले व्यक्तियों की ईंधन, चारा, इमारती लकड़ियों एवं बाँस पर आश्रितता के आंकलन के लिये एक राष्ट्रीय स्तर का अध्ययन किया गया है। भारतीय वन सर्वेक्षण ने भूमि के ऊपर स्थित जैवभार के आंकलन के लिये भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय स्तर की परियोजना प्रारंभ की है और असम राज्य में भारतीय वन सर्वेक्षण के आँकड़ों के आधार पर जैवभार का आंकलन किया जा चुका है।
आईएसएफआर 2019 से संबंधित प्रमुख तथ्य इस प्रकार हैं।
● देश में वनों एवं वृक्षों से आच्छादित कुल क्षेत्रफल 8,07,276 वर्ग किमी. (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.56%)
● कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का वनावरण क्षेत्र 7,12,249 वर्ग किमी. (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.67%)
● कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का वृक्षावरण क्षेत्र 95,027 वर्ग किमी. (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.89%)
● वनाच्छादित क्षेत्रफल में वृद्धि 3,976 वर्ग किमी. (0.56%)
● वृक्षों से आच्छादित क्षेत्रफल में वृद्धि 1,212 वर्ग किमी. (1.29%)
● वनावरण और वृक्षावरण क्षेत्रफल में कुल वृद्धि
5,188 वर्ग किमी. (0.65%)
● सर्वाधिक वनावरण प्रतिशत वाले राज्य
मिज़ोरम 85.41%
अरुणाचल प्रदेश 79.63%
मेघालय 76.33%
मणिपुर 75.46%
नगालैंड 75.31%
● सर्वाधिक वन क्षेत्रफल वाले राज्य
मध्य प्रदेश 77,482 वर्ग किमी.
अरुणाचल प्रदेश 66,688 वर्ग किमी.
छत्तीसगढ़ 55,611 वर्ग किमी.
ओडिशा 51,619 वर्ग किमी.
महाराष्ट्र 50,778 वर्ग किमी.
● वन क्षेत्रफल में वृद्धि वाले शीर्ष राज्य
कर्नाटक 1,025 वर्ग किमी.
आंध्र प्रदेश 990 वर्ग किमी.
केरल 823 वर्ग किमी.
जम्मू-कश्मीर 371 वर्ग किमी.
हिमाचल प्रदेश 334 वर्ग किमी.
इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के रिकार्डेड फारेस्ट एरिया में 330 (0.05%) वर्ग किमी. की मामूली कमी आई है। भारत में 62,466 आर्द्रभूमियाँ देश के रिजर्व फारेस्ट एरिया क्षेत्र के लगभग 3.83% क्षेत्र को कवर करती हैं। वर्तमान आंकलनों के अनुसार, भारत के वनों का कुल कार्बन स्टॉक लगभग 7,142.6 मिलियन टन अनुमानित है। वर्ष 2017 के आंकलन की तुलना में इसमें लगभग 42.6 मिलियन टन की वृद्धि हुई है। भारतीय वनों की कुल वार्षिक कार्बन स्टॉक में वृद्धि 21.3 मिलियन टन है, जो कि लगभग 78.1 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर है। भारत के वनों में ‘मृदा जैविक कार्बन’ स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन एसओसी ) कार्बन स्टॉक में सर्वाधिक भूमिका निभाते हैं, जो कि अनुमानतः 4004 मिलियन टन की मात्रा में उपस्थित हैं। एसओसी, भारत के वनों के कुल कार्बन स्टॉक में लगभग 56% का योगदान देते हैं।
इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के पहाड़ी ज़िलों में कुल वनावरण क्षेत्र 2,84,006 वर्ग किमी. है, जो कि इन ज़िलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 40.30% है। वर्तमान आंकलन में आईएसएफआर - 2017 की तुलना में भारत के 144 पहाड़ी जिलों में 544 वर्ग किमी. (0.19%) की वृद्धि देखी गई है।
भारत के जनजातीय ज़िलों में कुल वनावरण क्षेत्र 4,22,351 वर्ग किमी. है जो कि इन ज़िलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 37.54% है। वर्तमान आंकलन के अनुसार, इन ज़िलों में के अंतर्गत आने वाले कुल वनावरण क्षेत्र में 741 वर्ग किमी. की कमी आई है तथा RFA के बाहर के वनावरण क्षेत्र में 1,922 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है।
किसी देश की संपन्नता उसके निवासियों की भौतिक समृद्धि से अधिक वहाँ की जैव विविधता से आँकी जाती है। भारत में भले ही विकास के नाम पर बीते कुछ दशकों में वनों को बेतहाशा उजाड़ा गया है, लेकिन हमारी वन संपदा दुनियाभर में अनूठी और विशिष्ट है। ऑक्सीजन का एकमात्र स्रोत वृक्ष हैं, इसलिये वृक्षों पर ही हमारा जीवन आश्रित है। यदि वृक्ष नहीं रहेंगे तो किसी भी जीव-जंतु का अस्तित्व नहीं रहेगा।
वन संपदा के क्षेत्र में कॉरपोरेट के घुसने का क्या असर पड़ेगा, इस पर तो तभी स्पष्ट रूप से बताया जा सकेगा, जब नीति आयोग की यह ड्राफ्ट नीति सरकार द्वारा विचार विमर्श के बाद, धरातल पर आ जाए। पर सरकार की जो नीतियां पर्यावरण या वन संपदा के बारे में इधर हाल में आयी हैं, उनका झुकाव, प्रकृति और वन संपदा की ओर कम, अपितु, उनका झुकाव स्पष्ट रूप से कॉरपोरेट घरानों की ओर अधिक दिखता है। उद्योग धंधे और उनका विकास, देश की समृद्धि के लिये आवश्यक है तो, जल, जंगल और प्रकृति के बिना तो जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। वन संपदा और प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजे हम 2013 में केदारनाथ आपदा सहित देश भर में हो रही दैवी आपदाओं में देखते आ रहे है।
वन संपदा की जब बात होती है तो देश के आदिवासी समाज की ओर हम सबका ध्यान बरबस चला जाता है। पर प्रकृति की कृपा से परिपूर्ण राज्यो में आदिवासी समाज का जो निरन्तर शोषण, विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर हो रहा है उससे यह उम्मीद नहीं पाल लेनी चाहिए कि सरकार का यह कदम, वन संपदा की समृद्धि के हित मे होगा। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में लाभ एक प्राइम मूवर के रूप में रहता है, और इस नयी नीति में भी सरकार पूंजीपतियों के हित साधक के रूप में ही नज़र आएगी। यह आशंका निराधार नहीं है, जब आप रेल, सरकारी कंपनियों, एयरपोर्ट, राजमार्गों के निजीकरण का पागलपन भरे अभियान का अध्ययन करेंगे तो।
( विजय शंकर सिंह )
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