नयी शिक्षा नीति के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा, जो मातृभाषा में देने की बात की गई है, वह क्या केवल सरकारी स्कूलों के लिये ही है या सभी कॉन्वेंट और पब्लिक स्कूलों के लिये भी है ?
सरकार, न तो उद्योग लगाएगी, न रेल चलाएगी, न बैंक देखेगी, हो सकता है कल डाकखाने भी देखना बंद कर दे, जहाज उड़ाना लगभग सरकार ने बंद ही कर दिये हैं, बसे तो कम ही सरकार चला रही है, मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य तो सरकार जिस मनोयोग से चला रही है, दिख ही रहा है। अब सरकार स्कूल कॉलेज और विश्वविद्यालयों से भी तौबा करने जा रही है। ऐसी दशा मे फिर सरकार की ज़रूरत क्या है ? क्या वह पूंजीपतियों की दलाली करेगी और उनसे पार्टी फंड के नाम पर चंदे वसूलेगी और उसका हिसाब किताब भी नहीं देगी !
कोई भी नीति अगर सामाजिक और आर्थिक विषमता पैदा करती है तो, वह नीति नहीं, अनीति और दुर्नीति ही है । कम से कम 12 वीं तक एक समान शिक्षा हो और शिक्षा में निजी क्षेत्रों का दखल कम से कम हो। एक सा पाठ्यक्रम हो, एक सी भाषा नीति हो। चाहे जो भी भाषा तय की जाय वह सभी पर अनिवार्यतः लागू हो। ऐसा बिल्कुल न हो कि गांव के प्राइमरी स्कूल में तो केवल मातृभाषा ही पढ़ाई का माध्यम हो, और वही पास के एक अंग्रेजी नामधारी स्कूल में पढ़ाई की शुरुआत ए बी सी डी से और पहाड़े की शुरुआत टू टू जा फ़ोर से हो। समाज के एक वर्ग में जो धनाभाव के कारण अंग्रेजी नामधारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाता है तो, जो हीन भावना उसके बच्चों में उपजती है वह अंत तक बनी रहती है। इसे एक मध्यवर्गीय मिथ्या स्टेटस सिंबल के रूप में भी देखा जा सकता है।
डिग्री बटोरू शिक्षा बंद होनी ही चाहिए और साथ ही कुंजी रटन्त परीक्षा भी। डिग्री बटोरू मानसिकता लोगो को फर्जी डिग्री की ओर खींचती है और परिणाम यह होता है कि, डिग्रियां तो बेशुमार हो जाती है, पर समझ और बोध अविकसित रह जाती है। ऐसे में डिग्रियां केवल नाम के साथ अपेंडिक्स की तरह महज भौकाल के लिये बन कर नेम प्लेट पर लटकती रहती है।
मैकाले की शिक्षा नीति 1835 में लागू हुयी थी। उसके पहले कोई घोषित सरकारी शिक्षा नीति नहीं थी। मंदिरों के साथ गुरुकुल थे और मस्जिदों के साथ मकतब और मदरसे। भाषा संस्कृत थी और फ़ारसी। फ़ारसी राजकाज की भाषा थी तो उसकी तरफ सबका रुझान बना रहा। अंग्रेजी राज में राजकाज की भाषा बदल कर अंग्रेजी हो गयी तो लोग उधर की ओर बढ़े। अंग्रेजी की ओर बढ़ना भाषा की ओर बढ़ने की ललक नहीं थी बल्कि रोजगार पाने की ललक थी। कल्पना कीजिए अगर ब्रिटेन और फ्रांस के आपसी संघर्ष में, जो भारत मे क्लाइव और डूप्ले के बीच औपनिवेशिक राज की शुरुआत में चल रहा था, अगर फ्रांस, ब्रिटेन पर भारी पड़ता तो भारत इंग्लैंड के बजाय फ्रांस का उपनिवेश बन जाता। ऐसी हालत में अंग्रेजी के बजाय फ्रेंच देश की मुख्य संपर्क भाषा हो सकती थी। आज भी चन्दननगर और पूदुचेरी में फ्रेंच कुछ हद तक चलती है। इस प्रकार अंग्रेजी रोजगारोन्मुख होने के कारण, मुख्य भाषा के रूप में तेजी से प्रतिष्ठित होने लगी। लेकिन लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के लागू होने के पचास साल के भीतर ही, ग्रेजुएट डिग्रीधारी भी बेरोजगारी से रूबरू होने लगे थे। डेढ़ सौ साल पहले लिखा गया भारतेंदु हरिश्चंद्र का यह दोहा देखे,
तीन बुलाए तेरह आवैं, निज निज बिपता रोइ सुनावैं।
आँखौ फूटे भरा न पेट, क्यों सखि साजन, नहिं ग्रैजुएट।
कहने का आशय, श्रम और व्यायसायिक शिक्षा से दूर 'ग्रेजुएट बनाओ' शिक्षा ने जिसे मैकाले ने बाबू बनाने के लिये लागू किया था, की विफलता के संकेत मिलने लगे थे।
भारतेंदु के बाद प्रेमचंद जी की एक प्रसिद्ध कहानी, बड़े भाई साहब का यह उद्धरण पढ़ लीजिए। इसमे भी शिक्षा के उद्देश्य और गुणवत्ता पर बड़े ही बेबाकी और रोचकता से कहा गया है।
"इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेंगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी हो गुजरे है कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्बर गायब! सफाचट। सिफर भी न मिलगा, सिफर भी! हो किस ख्याल में! दरजनो तो जेम्स हुए हैं, दरजनो विलियम, कोडियों चार्ल्स दिमाग चक्कर खाने लगता है। आंधी रोग हो जाता है। इन अभागो को नाम भी न जुडते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, तेयम, चहारम, पंचम नगाते चले गए। मुछसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता।
जामेट्री तो बस खुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नम्बर कट गए। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है और व्यर्थकी बात के लिए क्यो छात्रो का खून करते हो दाल-भात-रोटी खायी या भात-दाल-रोटी खायी, इसमें क्या रखा है; मगर इन परीक्षको को क्या परवाह! वह तो वही देखते है, जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लडके अक्षर-अक्षर रट डाले। और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोडा है और आखिर इन बे-सिर-पैर की बातो के पढ़ने से क्या फायदा?
इस रेखा पर वह लम्ब गिरा दो, तो आधार लम्ब से दुगना होगा। पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगना नही, चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी।"
भारतेंदु हरिश्चंद्र और प्रेमचंद के बीच भी सत्तर सालों का अंतर है। पर दोनो में एक ही व्यथा है।
समानता का भाव, बच्चों में बचपन से ही उत्पन्न हो यह बहुत ज़रूरी है। इसीलिए प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में समानता और एकरूपता होनी चाहिए। पढ़ाई लिखाई का उद्देश्य नौकरी या रोजगार तो है ही, क्योंकि कितनी भी विद्वता हो, या ज्ञान सिंधु उमड़ रहा हो, अगर वह शिक्षा दीक्षा, उदर और परिवार पालन में सहायक नहीं हो पा रही है तो, उसका कोई अर्थ नहीं है। इसलिए व्यावसायिक शिक्षा को प्रमुख स्थान मिलना चाहिए। इस शिक्षा नीति में भी यह बात सम्मिलित है।
भाषा का जहां तक सम्बंध है इतिहास में वही भाषा जीवंत और दीर्घजीवी बनी रहती है जो रोजगार से जुड़ी होती है । भारत मे सदैव सरकारी भाषा और जनभाषा अलग अलग रही है। जब संस्कृत सरकारी काम काज की भाषा थी तो, प्राकृत, पाली, अवहट्ट और विभिन्न बोलियां, सम्प्रेषण के माध्यम के रूप में, जन भाषा बनी रही। जब मध्यकाल में फ़ारसी भाषा, सरकार और उच्च वर्ग की भाषा बन गयी तो ब्रज, अवधी, मैथिली, हिंदवी आदि भाषाएं या बोलियां तब भी जन भाषा बनी रहीं। अब जब अंग्रेजी सरकारी भाषा बन गयी है तो जन भाषाएं खत्म नहीं हुई बल्कि रोजगारपरक न होने से दोयम दर्जे के रूप में, अब भी बनी हुयी हैं। अंग्रेजी, सरकारी और एलीट क्लास की भाषा के रूप में अब भी मजबूती से स्थापित है।
आज़ादी के बाद देश ने हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया, पर अंग्रेजी का महत्व कम नहीं हुआ। हिंदी के साथ यह भी दिक्कत है कि दक्षिण भारत के राज्यो में विशेषकर तमिलनाडु में वह स्वीकार्य नहीं है। इसका कारण द्राविड़ भाषा परिवार, विशेषकर तमिल की प्राचीनता और उनका समृद्ध इतिहास भी है।
इन भाषाई मतभेदो के कारण, अंग्रेजी एक संपर्क भाषा के रूप मे आज भी बनी हुयी है। जब आगे चल कर देश विदेश में तमाम ज्ञान विज्ञान और नौकरिया अंग्रेजी के ही भरोसे मिलनी हैं तो कोई क्यों अपने बच्चों को इस भाषा के ज्ञान से वंचित रखेगा ? इसीलिए त्रिभाषा फॉर्मूला लाया गया था। लेकिन इससे गैर हिंदी भाषी लोगों ने हिंदी तो सीखी, पर हिंदी भाषी लोगों ने कोई गैर हिंदी भाषा, अंग्रेजी को छोड़ कर, सीखने में रुचि नहीं दिखाई।
यह भाषाई असमानता अगर नयी शिक्षा नीति में दूर नहीं की गई है तो, उसे दूर किया जाना चाहिए। भाषा को अगर राष्ट्रीय अस्मिता या 'निज भाषा उन्नति अहै' के भारतेंदु सूत्र से जोड़ा जाता है तो इस अस्मिता का ख्याल देश के हर नागरिक को समान रूप से रखना होगा न कि केवल उन्ही को, जो महंगे स्कूलों में आर्थिक कारणों से अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पा रहे हैं। शिक्षा का अधिकार तो ज़रूरी है ही, पर समान शिक्षा का अधिकार तो इससे भी अधिक ज़रूरी है। आगर शुरुआती शिक्षा में एकरूपता नहीं लायी गयी तो, समाज बचपन से ही शिक्षा के आधार पर दो भागों में बंट जाएगा जो सामाजिक विषमता के साथ साथ आर्थिक असमानता को भी बढ़ाएगा।
अक्सर बात संस्कृत की, की जाती है। यह भी कहा जाता है कि सरकार ने संस्कृत की उपेक्षा की है। संस्कृत पर बात करने से पहले यह तथ्य समझ ले कि कोई भाषा किसी धर्म या जाति विशेष की नहीं होती है। भाषा समाज की होती है, लोगों की होती है और सम्प्रेषण का एक माध्यम होती है। संस्कृत भी लोक भाषा से जब संस्कारित कर के एक नए रूप में विद्वान वैयाकरणों द्वारा एक जटिल व्याकरण में ढाली गयी तो, वह संस्कृत कहलाई। भारत की लगभग सभी भाषाओं में संस्कृत के शब्द बहुलता से मिलते हैं, तो संस्कृत स्वाभाविक रूप से सभी भारतीय भाषाओं की जननी स्वीकार कर ली गयी। जब तक संस्कृत में लोगो को रोजी रोटी देने की क्षमता बनी रही तब तक इसका प्रचार प्रसार बना रहा और फिर बाद में सिमटती चली गयी।
संस्कृत कोई धार्मिक भाषा नही है और कोई भी भाषा धार्मिक भाषा होती भी नहीं है। अभी पंडित जी से पूछिये तो कहेंगे कि यह देवभाषा है। किसी मौलाना से पूछिए तो कहेंगे कि अरबी अल्लाह की ज़ुबान है। भारत मे जब धर्मग्रंथ लिखे या स्तुति की जा रही थी तो उस समय जो भाषा थी वही तो उस ग्रंथ या स्तुति का माध्यम बनेगी। यही बाद कुरआन के साथ अरबी में और बाइबल के साथ हिब्रू में हुयी। हमारी, स्थान और धर्मविशेष की आस्था ने इन भाषाओं को धर्म से जोड़ दिया, जबकि भाषाएं धर्म और आस्था से नहीं समाज से जुड़ती हैं। लेकिन सारा बौद्ध साहित्य पाली या प्राकृत में है। क्योंकि बुद्ध ने अपनी बात कहने के लिये जनभाषा चुनी और संस्कृत तथा अनावश्यक वादविवाद दोनो ही से, वे दूरी बनाए रहे।
संस्कृत में केवल धर्मग्रंथ ही नही है। बल्कि संस्कृत में जितने धर्मग्रंथ नहीं लिखे गए हैं, उससे अधिक साहित्य और दर्शन के ग्रँथ उपलब्ध हैं। नाटक, कविता, दार्शनिक वाद विवाद, व्यंग्य, इतिहास आदि में जितना साहित्य, संस्कृत भाषा मे उपलब्ध है वह धर्मग्रंथों और स्तुतियों की तुलना में कहीं बहुत अधिक है। लेकिन हमारा साबका, देव स्तुतियो से ही अधिक पड़ता हैं तो हम यह भ्रम स्वाभाविक रूप से पाल बैठते हैं कि, संस्कृत बस एक धार्मिक भाषा है। और इसी के आधार पर धर्म के मिथ्या झंडाबरदार संस्कृत भाषा को बचाने के लिये किये गए अभियान को धर्म से जोड़ कर हवा बनाने लगते हैं। संस्कृत के पठन पाठन पर कोई रोक कभी नहीं रही है। यूपी बोर्ड जिंसमे मैंने हाईस्कूल, इंटर किया है, में हिंदी के तीसरे पर्चे में संस्कृत पढ़ाई जाती थी। अब क्या स्थिति है मुझे नहीं मालूम।
उच्च शिक्षा में लगभग सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत बीए, एमए और डॉक्टरेट के लिये उपलब्ध है। पर संस्कृत के नाम पर अगर कोई छाती पीटने वाला संस्कृति और धर्मरक्षक मिले तो, उससे यह ज़रूर पूछ लीजिएगा कि, उसने अपने परिवार में कितने बच्चों को संस्कृत की उच्च शिक्षा दिलवाई है ? संस्कृत में विश्वविद्यालय भी बहुत है। सबसे पहला संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा नरेश ने स्थापित किया था। बनारस में अंग्रेजों ने संस्कृत कॉलेज आज़ादी के पहले खोला था, जो डॉ संपूर्णानंद के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री काल मे वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय बना जो बाद में उन्ही की स्मृति में अब डॉ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय बन गया है। दक्षिण भारत मे, तिरुपति सहित देश के अनेक भागो में, संस्कृत के विश्वविद्यालय स्थापित किये गए हैं। देश मे, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, की स्थापना पहले से ही है और अन्य राज्य सरकारों के भी संस्कृत संस्थान है। पर संस्कृत में अध्ययन के लिये सामान्य अभिभावकों का रुझान इसलिए कम है कि उसमे पढ़ाई और डिग्री के बाद रोजगार के अवसर बहुत कम हैं।
वही शिक्षा बेहतर है जो, सामाजिक समानता लाये, आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाये और ज्ञान विज्ञान के तमाम अवसर उपलब्ध कराए। नयी शिक्षा नीति इन सब उद्देश्यों में कितना सफल होगी यह तो भविष्य ही बताएगा।
( विजय शंकर सिंह )
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