जीएसटी काउंसिल की बैठक के बाद मीडिया वित्तमंत्री जी ने कहा कि,
" देश की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस के रूप में सामने आए असाधारण 'एक्ट ऑफ गॉड' का सामना कर रही है, जिसकी वजह से इस साल अर्थव्यवस्था के विकास की दर सिकुड़ सकती है।"
जीएसटी काउंसिल की बैठक के बाद मीडिया वित्तमंत्री जी ने कहा कि,
" देश की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस के रूप में सामने आए असाधारण 'एक्ट ऑफ गॉड' का सामना कर रही है, जिसकी वजह से इस साल अर्थव्यवस्था के विकास की दर सिकुड़ सकती है।"
एक बात समझ मे नहीं आ रही है कि, सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या के लिये उकसाने, या हत्या, जिस भी आपराधिक धारा में सीबीआई ने मुकदमा दर्ज किया हो, की जांच में सीबीआई की केस डायरी लीक होकर मीडिया के पास पहुंच रही है या फिर सीबीआई मीडिया के खुलासे का अपनी केस डायरी में उपयोग कर ले रही है ?
सीबीआई की जांच बेहद गोपनीय होती है। इतनी गोपनीय कि अगर वे किसी जांच में स्थानीय पुलिस की सहायता या सहयोग लेते भी हैं तो, बस उतना ही जितना उनके लिये जरूरी होता है। न तो उनसे कोई अनर्गल पूछता है, और न ही वे कुछ बताते हैं।
सीबीआई वाले बात बडी विनम्रता से करते हैं। एक एक सुबूत और दस्तावेज वे, धैर्य से देखते हैं और फिर उनका परीक्षण कर के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। पर वे हांकते नहीं है जैसा की अमूमन हम में से कुछ की आदत होती है कि हमने तो रगड़ दिया, घुटनो पर ला दिया, आदि आदि।
सीबीआई के विवेचक को भी, जांच करने की, उतनी ही वैधानिक शक्तियां प्राप्त है, जितनी कि, देश के किसी भी थाने में नियुक्त, एक सामान्य सब इंस्पेक्टर को। लेकिन सीबीआई के पास समय होता है, एक टीम होती है, कानूनी सलाहकार होता है और फिर केवल कुछ मुकदमो की विवेचना का ही काम रहता है तो, वे किसी भी केस की गहराई में पहुंचने की कोशिश करते हैं।
इसके विपरीत थाने के सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर के पास विवेचना के अतिरिक्त, कानून व्यवस्था से जुड़े, अन्य काम भी होते हैं, जो प्राथमिकता में, विवेचना से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं, तो उतनी गम्भीरता से वे दी गयी विवेचना का कार्य नहीं कर पाते हैं, जितनी दक्षता से उन्हें विवेचना कार्य करना चाहिए। इससे विवेचना की गुणवत्ता पर भी, असर पड़ता है जिसका प्रभाव अदालत में ट्रायल पर भी पड़ता है।
1980 से राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की रिपोर्ट में यह संस्तुति धूल खा रही है कि, विवेचना और कानून व्यवस्था यानी लॉ एंड ऑर्डर के लिये अलग अलग पुलिस तंत्र की व्यवस्था की जाय। 2007 से प्रकाश सिंह की याचिका के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट भी कह रहा है कि, पुलिस सुधार लागू किये जांय। पर इस पर किसी भी सरकार का कोई ध्यान नही है। किसी भी सरकार को विधिपालक पुलिस नहीं रास आती है, उसे जी जहाँपनाह पुलिस अधिक सुहाती है। यह एक तल्ख हक़ीक़त है।
अमूमन जिला पुलिस से तफ़्तीशों को इसलिए भी सीबीआई में स्थानांतरित किया जाता है, जिससे जो कुछ भी राजनीतिक दबाव हो, स्थानीय पुलिस पर पड़ रहा है, वह सीबीआई के ऊपर न पड़े और बिना किसी बाहरी अवैध दबाव के सीबीआई उस विवेचना को पूरा कर सके। लेकिन अब यह तर्क अविवादित नहीं रहा है। सीबीआई के खिलाफ भी राजनीतिक दबाव के सामने झुक जाने की शिकायतें आने लगीं है। 2012 में सीबीआइ को सुप्रीम कोर्ट ने तो केज्ड पैरट यानी पिजड़े में बंद तोता कह दिया था और मजेदार बात यह है कि, तत्कालीन सीबीआई प्रमुख ने प्रेस के सामने सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से सहमति भी जता दी थी।
आज कल पिछले कई हफ़्तों से हम टीवी पर सुशान्त केस के इन्वेस्टिगेशन के संबंध में जो बातें देख और सुन रहे हैं, उससे लगता है कि, या तो टीवी पत्रकार अपनी कोई समानांतर जांच चला रहे हैं या सीबीआई से उन्हें कोई नियमित ब्रीफ कर रहा है। यह ब्रीफिंग, न्यूज़ वैल्यू के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि प्रोपेगैंडा मैटेरियल के रूप में हो रही है। जो भी हो, दोनो ही स्थितियों में यह प्रथा अनुचित है।
जिला पुलिस के पास चूंकि कानून व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है तो उसे ऐसे हाई प्रोफाइल मामलों में प्रेस को ब्रीफ करना ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि शहर या लोगो की सब जानने की उत्कंठा बनी रहती है, और ऐसे चर्चित मामलो में कुछ न कुछ सार्थक परिणाम लाने का दबाव भी पुलिस पर लगातार पड़ता रहता है। ऐसे में थोड़ी बहुत चीज़े, प्रेस को ब्रीफ कर दी जाती हैं, जिससे प्रेस भी संतुष्ट हो जाय और यह सतर्कता भी बरती जाती है जिससे, जांच की गोपनीयता भी बनी रहे। अगर प्रेस को अधिकृत रूप से कुछ खबरे नहीं दी जाएंगी तो वे फिर सूत्रों के हवाले से खबरें छापेंगे और यह अदृश्य सूत्र, उनकी कल्पनाशीलता भी हो सकती है। क्योंकि उन पर भी ऐसी महत्वपूर्ण जांचों के अपडेट करने का दबाव रहता है।
पुलिस इन्वेस्टिगेशन या जांच और अदालत के ट्रायल में मौलिक अंतर है। पुलिस इन्वेस्टिगेशन या जांच एक गोपन प्रक्रिया है। सीबीआई या सीआईडी या एसटीएफ या कोई भी अन्य जांच एजेंसी अगर कोई इन्वेस्टिगेशन या जांच कर रही है, तो एजेंसी के बॉस और उक्त केस के विवेचक तथा सुपरवाइजरी अधिकारी के अतिरिक्त किसी को भी, उक्त इन्वेस्टिगेशन की अधिकृत जानकारी नहीं साझा की जाती है और अमूमन कोई पूछता भी नहीं है।
जबकि ट्रायल एक खुली अदालत में होता है। सारी गवाही, जिरह, बहस जनता के सामने होती है और सबके लिये सुलभ रहती है। उसमें कोई भी जाकर अदालत की कार्यवाही देख सकता है और उसे छाप सकता है। पर कुछ ट्रायल इन कैमरा भी होते है यानी बंद दरवाजे में, तो ऐसे ट्रायल को लोग नहीं देख सकते हैं। अदालत के बाहर उक्त ट्रायल से जुड़े पक्ष विपक्ष के वकील या वादी प्रतिवादी से टीवी पत्रकार पूछते भी हैं और उनकी बाइट भी लेते हैं।
जिस तरह से सीबीआई जांच की कमेंट्री और विवरण, चटखारे ले लेकर टीवी चैनलों पर दिखाया जा रहा है, उसका उद्देश्य जो भी हो, और इससे भले ही, किसी का कोई मक़सद हल हो पर, इससे इस केस की इन्वेस्टिगेशन पर असर भी पड़ सकता है और जब जांच के निष्कर्ष, टीवी द्वारा गढ़े गए, परसेप्शन के विपरीत जाते हैं तो जांच के ऊपर ही अनेक सवाल उठने लगते हैं और जांच एजेंसी की विश्वसनीयता को भी आघात पहुंचता है।
सीबीआई में भी जनसम्पर्क और प्रेस से लाइजन के लिये पीआरओ का पद होता है। उत्तर प्रदेश में भी डीजीपी मुख्यालय में एक पीआरओ का पद है जहां एडिशनल एसपी स्तर का अधिकारी नियुक्त रहता है। मैं 1995 - 96 में डीजीपी हेडक्वार्टर में पीआरओ रह चुका हूं। पीआरओ, महत्वपूर्ण केसों की विवेचना की प्रगति के बारे में प्रेस रिलीज जारी करता है और प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ सवालों के जवाब भी देता है। यदि, कोई महत्वपूर्ण निष्कर्ष होता है तो, पुलिस या सीबीआई के बड़े अफसर भी प्रेस के सामने आते हैं, और अपनी बात रखते हैं।
लेकिन, यह भी सही है कि, ऐसी प्रेस रिलीज या प्रेस वार्ता से टीवी चैनलों को ऐसी सामग्री नहीं मिल सकती है जिससे वे मसालेदार, ब्रेकिंग न्यूज़ की हेडिंग बना सकें। उनका उद्देश्य खबर देना नहीं खबर परोसना है और जब खबर परोसी जाएगी तो तीखी, चटपटी और मसालेदार बनानी ही होगी। अन्यथा वह न लोगो का ध्यान खींचेगी और न दिलचस्पी बनाये रखेगी जैसा कि सस्पेंस वाले क्राइम थ्रिलर सीरियल बनाये रखते हैं।
दस्तावेज, बयानों के शब्दशः विवरण, व्हाट्सएप्प चैट, आदि आदि, जो, टीवी स्क्रीन पर सार्वजनिक हो रहे हैं वे, विवेचना के अंग है और सुबूत के दस्तावेज हैं और, उन्हें जब तक अदालत में प्रस्तुत न कर दिया जाय, सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। पर इस विवेचना पर जैसी हास्यास्पद टीवी रिपोर्टिंग हो रही है उसे क्या कहा जाय।
सीबीआई को अधिकृत प्रेस वार्ता करके, इस मामले में, अगर अब तक कोई प्रगति हुयी है, और यदि इससे केस की इन्वेस्टिगेशन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो, उसे प्रेस को बता देना चाहिए और टीवी चैनल्स को अनावश्यक रूप से अपनी कल्पना से गढ़ी गयी जांच प्रगति को, जो केवल सनसनी फैलाने के लिये प्रसारित किया जा रहा है को, रोकने के लिए भी कहा जाना चाहिये। मीडिया इन्वेस्टिगेशन की यह परंपरा गलत है और इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
( विजय शंकर सिंह )
इन ट्वीट्स से 'न्यायपालिका की चूलें हिल गयीं हैं,' ऐसा माननीय न्यायमूर्तियों ने 14 अगस्त को प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराते हुए कहा था। अब भारतीय न्यायपालिका के ऊपर कभी केरल हाई कोर्ट के एक समारोह में बोलते हुए देश के प्रसिद्ध कानूनविद और जज जस्टिस कृष्ण अय्यर ने जो कहा था, उसे पढ़े।
जस्टिस अय्यर ने कहा था,
इस देश में ईसा मसीह तो सूली पर चढ़ रहे हैं और जल्लाद न्यायपालिका की कृपा से बच रहे हैं। एक अंदरूनी जानकार होने के कारण मैं बहुत सी बातें खुलकर नहीं कह रहा हूं। हमारा न्यायिक अप्रोच कई बार सभ्य बर्ताव से पृथक हो जाता है। साफ साफ कहूं तो भारतीय न्यायपालिका अस्तित्वहीन ही हो गई है।
इस पर तब भी बवाल मचा था। अवमानना की बाते तब भी उठी थीं। लेकिन हाईकोर्ट ने कहा, यह टिप्पणी उन्हें उनकी कार्यशैली में सुधार के लिये प्रेरित करेगी।
आज कहा जा रहा है,
हम सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं, हमे आपस मे ही एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए। एक दूसरे से मिल बैठ कर रहना चाहिए।
यही शब्द तो न्यायमूर्ति अरुण मिश्र ने नहीं कहा लेकिन जो आपसी भाईचारे जैसी चीज कही, उसका मूल आशय यही था।
सुप्रीम कोर्ट के प्रति किसी के मन मे निरादर का भाव नहीं है। वही तो किसी भी कठिन समय मे एक प्रकाश स्तम्भ सा दीखता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट यह तो कहता है कि वह स्वस्थ आलोचना का स्वागत करता है, लेकिन जब स्वस्थ आलोचना होने लगती है तो अपनी झेंप को अवमानना के आरोप के पीछे छुपाने लगता है।
न्यायपालिका एक संस्थागत अहमन्यता के प्रभामंडल में जीता है। अदालत में ऊंचे डायस पर बैठे हुए न्यायमूर्ति में वादी प्रतिवादी सबकी आशाएं समाहित हो जाती है। जो भी आदेश होता है पक्ष विपक्ष सभी उसे स्वीकार करते है। अगर निर्णय से असहमत हैं तो अपील करते हैं और अगर निर्णय सुप्रीम कोर्ट का है तो रिव्यू, क्यूरेटिव पिटीशन आदि कानूनी उपचार भी होते हैं।
लेकिन इन विविध उपचारों के पीछे यह सोच है कि, पीठासीन अधिकारी, चाहे वह एक मैजिस्ट्रेट हो या सुप्रीम कोर्ट का न्यायमूर्ति, मूलतः मनुष्य ही होता है और मनुष्य गलत्तिया कर सकता है। इसी आधार पर यह भी सोचना चाहिए कि, मनुष्य भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, पक्षपातवाद भी कर सकता है। पर आज तक न्यायपालिका ने ऐसा कोई तंत्र गठित या विकसित करने की बात नहीं सोची, जिससे न्यायपालिका में व्याप्त अंदरूनी कदाचार की जांच हो सके या दोषी को दंडित कर सके।
यह काम सरकार या कार्यपालिका नहीं करेगी। अगर ऐसा होता है तो इसे न्यायपालिका अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप और संवैधानिक चेक और बैलेंसेस के सिद्धांत के उल्लंघन की बात करेगी। यह हो भी सकता है कि, न्यायपालिका में सेंधमारी करने का एक रास्ता सरकार को मिल भी जाय। फिर यह और भी विकट स्थिति होगी।अतः अपने घर को साफ सुथरा रखने का दायित्व न्यायपालिका को लेना ही होगा। इससे न केवल न्यायतंत्र सुदृढ होगा, वह साफ सुथरा होगा, बल्कि जनता का भरोसा भी न्यायपालिका के प्रति बढ़ेगी और न्यायपालिका की साख जो इधर गिरी है उस पर भी रोक लगेगा।
20 अगस्त, औऱ आज 25 अगस्त की अदालत की पूरी कार्यवाही को अगर गम्भीरता से पढ़े तो जब जब, 2009 के तहलका इंटरव्यू में जजो के ऊपर भ्रष्टाचार और प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे में उल्लिखित जजो के भ्रष्टाचार की बात, चाहे वह प्रशांत भूषण के वकील, दुष्यंत दवे ने उठाया हो, या राजीव धवन ने या अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने, तब तब अदालत असहज हुयी और भ्रष्टाचार के आरोपों वाले उस अंश को अदालत में पढने से रोक भी दिया। अंत मे आज 25 अगस्त को, उनमे से कुछ अंश पढ़े और फिर अदालत ने यह मामला बड़ी बेंच को संदर्भित कर दिया, जिसकी तारीख 10 सितंबर को पड़ी है।
जस्टिस अरुण मिश्र ने गांधी जी को उद्धृत करते हुए जो कहा है, वह तो बेहद आपत्तिजनक है। गांधी जी ने अपने पूरे जीवनकाल में ऐसी परिस्थितियों में कभी भी माफी नहीं मांगी। जस्टिस अरुण मिश्र ने गांधी जी के बारे में जो कहा है, उसे पहले पढिये,
" आप ही बताइए, माफी शब्द के प्रयोग में क्या बुराई है ? माफी मांगने में क्या बुरा है ? माफी मांग लेने से क्या आप दोषी हो जाएंगे ? माफी एक जादुई शब्द है। यह कई ज़ख्मो को भर देता है। मैं यह बात सामान्य रूप से कह रहा हूँ, न कि प्रशांत भूषण के मामले में। यदि आप क्षमा याचना करते हैं तो, इससे आप महात्मा गांधी की श्रेणी में आ जाएंगे। गांधी जी भी माफी मांगा करते थे। यदि आप ने किसी को आहत किया है तो उस पर आप ही को मलहम लगाना है । माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता है।"
अब गांधी जी से जुड़ा एक प्रकरण, यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसे भी पढ़ लें।
मोहनदास करमचंद गांधी और महादेव हरिभाई देसाई "यंग इंडिया" नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक और प्रकाशक थे। अहमदाबाद के जिला मजिस्ट्रेट (श्री बीसी कैनेडी) की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखे गए एक पत्र को प्रकाशित करने और उस पत्र के बारे में टिप्पणी प्रकाशित करने के कारण उनके खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू की गई।
मजिस्ट्रेट कैनेडी द्वारा लिखा गया पत्र अहमदाबाद कोर्ट के वकीलों के बारे में था, जिन्होंने "सत्याग्रह प्रतिज्ञा" पर हस्ताक्षर किए थे और रोलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था। यह पत्र 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में शीर्षक ओ डायरिज़्म इन अहमदाबाद के साथ प्रकाशित किया गया था। दूसरे पृष्ठ पर आलेख का शीर्षक शेकिंग सिविल रेजिस्टर्स था।
लगभग दो महीने बाद, हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी जी को 20 अक्टूबर 1919 को चीफ जस्टिस के कक्ष में उपस्थित होने का अनुरोध करते हुए एक पत्र लिखा और उन्हें पत्र के प्रकाशन और उस पर टिप्पणियों के बारे में अपना स्पष्टीकरण देने को कहा।
गांधी जी ने कहा, "मेरा विनम्र विचार है कि उक्त पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना, एक पत्रकार के रूप में मेरे अधिकारों के तहत था। मेरा विश्वास था कि पत्र सार्वजनिक महत्व का है और उसने सार्वजनिक आलोचना का आह्वान किया है।"
रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी जी को फिर से लिखते हुए कहा कि चीफ जस्टिस ने उनके स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं पाया। फिर उन्होंने 'माफी' का एक प्रारूप दिया और उसे 'यंग इंडिया' के अगले अंक में प्रकाशित करने के लिए कहा।
गांधी ने रजिस्ट्रार जनरल को फिर पत्र लिखा। उन्होंने 'माफी' प्रकाशित करने से इनकार करते हुए खेद व्यक्त किया और अपना 'स्पष्टीकरण' दोहराया। उन्होंने अपने पत्र में कहा, "माननीय, क्या इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, मैं सम्मानपूर्वक उस दंड को भुगतना चाहूंगा जो माननीय मुझे देने की कृपा कर सकते हैं।"
इसके बाद, हाईकोर्ट ने गांधी और देसाई को कारण बताओ नोटिस जारी किया। दोनों अदालत में पेश हुए। गांधी ने अदालत को बताया कि उन्होंने जिला जज पर जज के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में टिप्पणी की थी।
"अदालत की अवमानना का पूरा कानून यह है कि किसी को कुछ भी नहीं करना चाहिए, या अदालत की कार्यवाही पर टिप्पणी करना, जबकि मामला विचाराधीन हो। हालांकि यहां जिला मजिस्ट्रेट ने निजी स्तर पर कोई कार्य किया था।"
महात्मा गांधी ने अपने बयान में कहा था, "मेरे खिलाफ जारी किए गए अदालत के आदेश के संदर्भ में मेरा कहना है: - आदेश जारी करने से पहले माननीय न्यायालय के रजिस्ट्रार और मेरे बीच कुछ पत्राचार हुआ है।
11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा था, जिसमें पर्याप्त रूप से मेरे आचरण की व्याख्या की गई थी। इसलिए, मैं उस पत्र की एक प्रति संलग्न कर रहा हूं। मुझे खेद है कि माननीय चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सलाह को स्वीकार करना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके अलावा, मैं सलाह को स्वीकार करने में असमर्थ हूं क्योंकि मैं यह नहीं समझता कि मैंने मिस्टर कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उसके विषय में टिप्पणी करके कोई कानूनी या नैतिक उल्लंघन किया है।
मुझे यकीन है कि माननीय न्यायालय मुझे तब तक माफी मांगने को नहीं कहेगा, जब तक कि यह सच्ची हो और एक ऐसी कार्रवाई के लिए खेद व्यक्त करने के लिये कहेगा, जिसे मैंने एक पत्रकार का विशेषाधिकार और कर्तव्य माना है।
सम्पूर्ण गांधी वांग्मय में संभवतः एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा, जिससे यह आभास होता हो कि महात्मा गांधी ने कभी ऐसी परिस्थितियों में माफी मांगी हो। न तो अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान और न ही भारत मे। अब यह मामला, केवल एक व्यक्ति को दंडित करने या न करने का नहीं रह गया है, बल्कि यह मामला, न्यायपालिका की साख का है और साख के लिये यह ज़रूरी है कि, न्यायपालिका अपना अन्तरावलोकन करे और ऐसे कदम उठाए जिससे इस चौथे खंभे में दीमक न लगे और इसका क्षरण रुक सके ।
( विजय शंकर सिंह )